मंगलवार, 26 सितंबर 2023

NEET-PG के क्वालीफाइंग परसेंटाइल जीरो करने पर क्यों मचा है बवाल, ये है पूरा मामला


 व‍िपक्ष से लेकर स्वयं मेडीकल लाइन के जानकारों के बीच बहस का मुद्दा बन गया है NEET-PG के क्वालीफाइंग परसेंटाइल को स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 'जीरो' कर देना.

मगर इसके पीछे की वजह जो मुझे समझ में आई है वह यह है क‍ि देशभर के सरकारी और प्राइवेट मेडीकल कॉलेजों में पीजी स्तर की लगभग 13 हजार से ज्यादा खाली पड़ी सीटों को भरा जा सके.  क्योंक‍ि स‍िर्फ एक सीट पर सरकार की ओर से 3 करोड़ रुपये खर्च क‍िये जाते हैं और 13 हजार सीटों का मतलब है एक पूरी की म‍िन‍िस्ट्री खड़ी कर देना.  तो इस भारी नुकसान को बचाने के ल‍िए परसेंटाइल को जीरो कर द‍िया गया.  

NEET-PG के क्वालीफाइंग परसेंटाइल जीरो करने का मतलब है, जिस भी बच्चे ने NEET-PG एग्जाम दिया, इसमें वे भी शामिल हैं, जिन्होंने 0 नंबर पाए या निगेटिव मार्क्स आए, वे काउंसलिंग के लिए एलिजिबल माने जाएंगे. इस फैसले का रिजल्ट ये रहा कि 0 नंबर वाले 14 स्टूडेंट्स, निगेटिव स्कोर वाले 13 और 1 स्टूडेंट -40 स्कोर वाला भी NEET PG के लिए क्वालीफाई माना जाएगा.

NEET-PG नेशनल लेवल का एंट्रेंस टेस्ट है. इस टेस्ट के जरिए देश भर में PG मेडिकल सीटों पर दाखिला दिया जाता है. एक चौंकाने वाला फैसला लेते हुए मेडिकल काउंसिल कमेटी ने कहा, इस साल अब तक बची खाली PG सीटों के लिए एलिजिबिलिटी जीरो परसेंटाइल कर दी जाएगी. 

ऐसी छूट क्यों देनी पड़ी 

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक काउंसलिंग के दो राउंड हो जाने के बाद तक भी मेडिकल कॉलेजों में PG की करीब 13 हजार सीटें खाली रह गईं. यह पहली बार है जब एलिजिबिलिटी कट-ऑफ को पूरी तरह से हटा दिया गया है ताक‍ि सीटें भरी जा सकें. एक सीट पर तीन करोड़ खर्च करने वाली सराकर के ल‍िए यह काफी नुकसानदेह था क‍ि 13,245 खाली रह गई सीटों को हर हाल में भरा जाए.

कौन दे सकता है NEET PG एग्जाम

NEET PG एग्जाम वे कैंडिडेट्स देते हैं तो MBBS कर चुके हैं. ये कंप्यूटर बेस्ड टेस्ट होता है. इसमें मल्टीपल चॉइस के सवाल आते हैं, जिसमें मेडिकल सब्जेक्ट्स के टॉपिक कवर किए जाते हैं. इस परीक्षा के जरिए रैंक, परसेंटाइल, कैंडिडेट की एलिजिबलिटी और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स और इंस्टीट्यूट में प्रिफ्रेंस तय किया जाता है. इसी के जरिए ये कय किया जाता है कि कैंडिडेट मेडिकल स्टडीज के लिए सभी एजुकेशनल दायरों को पूरा करता हो.

क्या है परसेंटाइल- 

परसेंटाइल एक स्टेटिस्टिकल Measure है जिसके जरिए आप ये तुलना कर सकते हैं कि कॉम्पटिशन में आपने कितनों से बेहतर किया. उदाहरण से समझिए. एक अंग्रेजी का टेस्ट हुआ. इस टेस्ट में आपका परसेंटाइल ये बताएगा कि कितने लोगों ने आपसे कम और ज्यादा स्कोर किया है.

पेपर में हिस्सा लेने वालों टेस्ट स्कोर इकट्ठा किए और उन्हें एक ऑर्डर में lowest to highest रखा, मान लेते हैं पेपर में कुल 100 स्कोर पाए. यदि आपको 80 नंबर मिले, तो इसका मतलब है कि परीक्षा देने वाले 80 लोगों ने आपसे कम नंबर पाए. ऐसा इसलिए है क्योंकि आपने 100 में से 80 लोगों से बेहतर प्रदर्शन किया. यदि आप 90वें परसेंटाइल में हैं, तो आपने 100 में से 90 लोगों से बेहतर प्रदर्शन किया. यदि आप 50वें परसेंटाइल में हैं, तो आपने आधे लोगों (100 में से 50) के बराबर ही अच्छा प्रदर्शन किया है.

दूसरे राउंड की काउंसल‍िंंग के बाद भी  13,245 खाली रह गईं
NEET-PG काउंसलिंग सेशन जुलाई में हुआ, MCC ने इसके लिए कट-ऑफ परसेंटाइल 50 सेट की. कुल 800 नंबरों में से 582 पाने वाले को 100th परसेंटाइल दिया गया. इस मुताबिक सीटें भरी जानें लगीं और दूसरे राउंड के बाद 13,245 खाली रह गईं. इन मेडिकल कॉलेजों में सबसे बड़ी तादाद में खाली सीटों की संख्या All-India quota के तहत रही, जो कि 3000 थी. ये सीटें DNB डॉक्टर्स के लिए थी.

मेडिकल में मास्टर्स डिग्री करने के लिए तीन कोर्स हैं. MD (Doctor of Medicine), MS (Master of Surgery), DNB (Diplomate of National Board) हैं.  DNB भी पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल क्वालीफिकेशन है जो NBE की ओर से भारत में ऑफर की जाती है. ये डिग्री MD, MS के बराबर मानी जाती है. इसके लिए जरिए  मेडिकल और सर्जिकल में अलग अलग स्पेशलाइजेन मिलता है.

एक एमबीबीएस सीट के ल‍िए सरकार 3 करोड़ रुपये करती है खर्च 

शासकीय मेडिकल कॉलेज की एमबीबीएस सीट पर दाखिला लेने वाले एक छात्र को डॉक्टर बनाने में सरकार तीन करोड़ रुपये खर्च करती है. इसमें डॉक्टर/प्रोफेसर का वेतन, कॉलेज का इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर प्रयोगशाला, हॉस्टल और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआइ) में मान्यता के आवेदन का खर्च शामिल है. 

इस परेशानी के मद्देनजर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन समेत सभी मेडिकल एसोसिशएंस ने हेल्थ मिनिस्ट्री से परसेंटाइल कट-ऑफ को 20 तक कम करने की अपील की थी. 

इसके जवाब ने MCC ने मांगे गए नंबर तक परसेंटाइल घटाने की बजाय उसे जीरो (0) तक घटा दिया. 0 परसेंटाइल का मतलब है, जिस भी बच्चे ने NEET-PG एग्जाम दिया, इसमें वे भी शामिल हैं, जिन्होंने 0 नंबर पाए या निगेटिव मार्क्स आए, वे काउंसलिंग के लिए एलिजिबल माने जाएंगे. इस फैसले का रिजल्ट ये रहा कि 0 नंबर वाले 14 स्टूडेंट्स, निगेटिव स्कोर वाले 13 और 1 स्टूडेंट -40 स्कोर वाला भी NEET PG के लिए क्वालीफाई माना जाएगा.

इसका मतलब सीधा है कि अगर आपने नीट पीजी में अप्लाई किया है, अपीयर हुए हैं या अगर आप उस परीक्षा में केवल बैठे भी हैं तो भी आप उस सीट के दावेदार हैं. अगर कॉलेज में सीट है तो आप उस सीट के लिए आवेदन कर सकते हैं. अभी तक दो राउंड की काउंसलिंग हो चुकी है और तीसरे राउंड की काउंसलिंग शुरू होगी, जिसमें स्टूडेंट्स अपनी चॉइस भरेंगे और वो इन छह से सात हजार मेडिकल सीटों के लिए अप्लाई कर सकेंगे.

IMA ने बयान जारी किया

केंद्र सरकार की ओर से यह पत्र राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड (NBE) को भी भेजा गया था. ये NEET PG द्वारा आयोजित किया जाता रहा है. इसके साथ ही मंत्रालय के चिकित्सा परामर्श प्रभाग और सभी राज्यों के प्रमुख सचिवों (स्वास्थ्य) को भेजा गया था. इस आदेश के जवाब में आईएमए ने एक बयान जारी कर स्वास्थ्य मंत्री का आभार किया गया है. उन्होंने  कहा कि उसने सरकार से ऐसा करने का अनुरोध किया था. बीते वर्ष काउंसलिंग के आखिरी दौर के लिए क्वालीफाइंग परसेंटाइल  को घटाकर 30 करा गया था. उस वक्त लगभग 4 हजार सीटें खाली हो गई थीं. सरकार के इस कदम के जरिए स्ट्रीम में पीजी सीटें भरने का लक्ष्य रखा है.

- अलकनंदा स‍िंंह 

https://www.legendnews.in/single-post?s=why-is-there-an-uproar-over-reducing-the-qualifying-percentile-of-neet-pg-to-zero-understand-the-complete-mathematics--12352

शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

'ऋग्वेद' का 'नासदीय सूक्त' देता है ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर हर सवाल का जवाब

हम सभी के मन में कभी न कभी ये सवाल जरूर आया होगा कि आखिर इस ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई। जब स्टीफन हॉकिंग की ब्रह्मांड के जन्म को लेकर 'बिग बैंग' थ्योरी आई थी तो लोगों की इस विषय के बारे में जानने की उत्सुकता और बढ़ गई, लेकिन साथ ही साथ इस बात को लेकर बहस भी छिड़ गई कि ब्रह्मांड के निर्माण को लेकर दी गई इस वैज्ञानिक व्याख्या से बहुत पहले ही वेद इससे जुड़े कई तथ्य बताये जा चुके हैं जो बिग बैंग थ्योरी के काफी करीब हैं। बिग बैंग थ्योरी में इस बात की व्याख्या करने की कोशिश की गई है कि किस प्रकार करीब 15 अरब साल पहले इस ब्रह्मांड की रचना हुई थी। ऋग्वेद में काफी दिलचस्प तरीके से ब्रह्मांड की रचना की प्रक्रिया बताई गई है। 

 ​ब्रह्मांड बनने से पहले की स्थिति कैसी थी​ 
ब्रह्मांड के निर्माण को लेकर अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग व्याख्या की गई है। सनातन धर्म में 'ऋग्वेद' का 'नासदीय सूक्त' ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर कई आश्चर्यजनक व्याख्या करता है। 

इसमें बताया गया है कि ब्रह्मांड बनने से पहले की स्थिति कैसी थी, फिर ब्रह्मांड बनने की शुरुआत कैसे हुई और कैसे इसका विस्तार होता चला गया। यह बेहद दिलचस्प और सोचने वाली बात है कि आज जब विज्ञान इतनी तरक्की कर चुका है, तब भी वह बड़ी मुश्किल से ब्रह्मांड की संरचना को लेकर कुछ ही मुद्दों पर बात कर सकता है जबकि सनातन धर्म में इसकी चर्चा हजारों साल पहले की जा चुकी है। 

नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मण्डल का 129 वां सूक्त है। 'नासद्' (= न + असद् ) से आरम्भ होने के कारण इसे 'नासदीय सूक्त' कहा जाता है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। विद्वानों का विचार है कि इस सूक्त में भारतीय तर्कशास्त्र के बीज छिपे हैं।

सोचने की बात यह भी है कि आविष्कार के बिना महर्षियों ने आखिर कैसे इस बात को समझा होगा, जाना होगा और इसे पुख्ता किया होगा।


ब्रह्मांड के रहस्यों से जुड़े सवालों के जवाब मिलते हैं​ 
ऋग्वेद के 'नासदीय सूक्त' में ब्रह्मांड से जुड़ी सारी जानकारियां सूक्ति के माध्यम बताई गई हैं लेकिन इन सूक्तियों का अर्थ स्पष्ट और सरल नहीं है इसलिए आम लोगों के लिए इसे समझना मुश्किल है। हालांकि कई जानकारों द्वारा इन सूक्तियों की व्याख्या सरल शब्दों में की गई है ताकि इससे मिली जानकारी वैज्ञानिक शोधों में इस्तेमाल की जा सके। नासदीय सूक्त में सात ऐसे मंत्र या सूक्ति बताये गये हैं जिसके माध्यम से ब्रह्मांड के रहस्यों से जुड़े सवालों के जवाब मिलते हैं।  

ब्रह्मांड की रचना से पहले न तो अंतरिक्ष था, न समय​ 
पहले सूक्त के अनुसार ब्रह्मांड की रचना से पहले ना तो 'सत् (जो है)' था, ना ही 'असत् (जो नहीं है)' था; ना ही आकाश था, ना ही पृथ्वी थी और ना ही पाताल लोक था। यानि ब्रह्मांड की रचना से पहले न तो अंतरिक्ष था, न समय और न ही कोई भौतिक पदार्थ। केवल शून्य और अंधकार था। बिग बैंग थ्योरी के अनुसार भी अंतरिक्ष पहले से मौजूद नहीं था बल्कि इसकी रचना बहुत ही अजीबोगरीब स्थिति में हुई है। उनके अनुसार इसकी शुरुआत सबसे पहले ब्लैक होल के केंद्र भाग में मौजूद ‘विलक्षणता’ (सिंगुलैरिटी) से हुई होगी, जहाँ एक अनंत घनत्व वाला सूक्ष्म बिंदु आया और उसमें विस्फोट हुआ। यही घटना 'बिग बैंग' कहलाई। उस विस्फोट से न केवल 'द्रव्य-पदार्थ' का निर्माण हुआ बल्कि 'अंतरिक्ष' और 'समय' की भी रचना हुई। वेद के अनुसार ब्रह्मांड के निर्माण के समय जो 'नाद' अर्थात् 'ध्वनि' उत्पन्न हुई थी, वह था 'अम्भास' और बिग बैंग के अनुसार वह ध्वनि 'ऊँ' से मिलती-जुलती थी। 

जल के समान हर ओर अंधकार था 
दूसरे सूक्त के अनुसार उस समय न तो 'मृत्यु' थी और न ही अमरता। दिन-रात का भी नामो-निशान नहीं था। जल के समान हर ओर अंधकार था। केवल एक ऊर्जा अस्तित्व में थी, जिसमें वायु की अनुपस्थिति थी। उन्होंने इस ऊर्जा के स्रोत को 'परम तत्व' कहा और यह भी बताया कि इसी ऊर्जा से ब्रह्मांड में अन्य चीजों का जन्म हुआ है, केवल प्राण को छोड़कर। इस परम तत्व से बाकी चीजें ऐसे बाहर निकलकर आईं, जैसे फेफड़े से एक झोंके के रूप में हवा बाहर निकलकर आती है। वेद में बताये गये ऊर्जा के स्रोत 'परम तत्व' की व्याख्या जैसी ही व्याख्या भी बिग बैंग थ्योरी करता है। उनका भी मानना है कि जब अंतरिक्ष की रचना हुई थी, तो वह बहुत गर्म था और आज जो चार मूलभूत बल ( गुरुत्वाकर्षण बल, विद्युत चुम्बकीय बल, न्यूक्लियर फोर्स और वीक इनटेरेक्शन फोर्स) काम करते हैं, उस समय वे सब मिलकर एक थे। जैसे-जैसे ब्रह्मांड ठंडा होता गया, ये सारे बल अलग होते चले गये। उनका मानना है कि आज जो भी चीजें मौजूद हैं, उन सबकी उत्पत्ति ब्रह्मांड से ही हुई है, जिसे वेद ने 'परम तत्व' कहा है। वेद में दिन और रात नहीं होने की बात भी प्रमाणित होती है क्योंकि उस वक्त सूर्य और चंद्रमा का निर्माण नहीं हुआ था, तो दिन और रात होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। 

ब्रह्मांड में पहले केवल अंधेरा था ​
घटना को समझना असंभव था। पहले एक लहराता द्रव्य अस्तित्व में आया, जिसे 'सलिल' कहा गया और उसके आसपास एक हल्का पदार्थ फैला था जिसे 'अभु' कहा गया। उनके अनुसार वह शायद ऊष्मा से विकसित हो गया था। वेद में यहाँ तारों और आकाशगंगा के निर्माण की बात कही जा रही है। बिग बैंग थ्योरी के अनुसार भी शुरुआती के कुछ लाख वर्ष तक 'पदार्थों' और 'ऊर्जाओं' का निर्माण होता रहा, इसी प्रक्रिया को ऋषियों ने रहस्यमयी घटना कहा था। उन वर्षों में 'फोटॉन', 'इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन' से टकराता रहा और उसने एक अपारदर्शी द्रव्य का निर्माण किया। लगभग एक लाख वर्ष बाद जब ब्रह्मांड का तापमान कम हुआ, तो प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन ने मिलकर हाईड्रोजन परमाणु का निर्माण किया। हाईड्रोजन पारदर्शी होता है, जिसने उस सैकडों सालों से बन रहे उन अपारदर्शी द्रव्यों को पारदर्शी किया जिसे हम आज अंतरिक्ष कहते हैं। बाद में धीरे-धीरे आकाशगंगा और तारों का निर्माण होना भी शुरु हुआ। 

उस समय ब्रह्मांड में कोई दिशा नहीं थी​ 
आगे की सूक्तियों में ऋषि यह बताते नजर आते हैं कि कैसे अंतरिक्ष में छोटे-बड़े 'गेलेक्सीज' का निर्माण हुआ। इन गेलेक्सीज में काफी मात्रा में गैस और धूल थी, जिससे 'ग्रहों', 'उपग्रहों' और 'उल्का पिंडों' का निर्माण हुआ। इस सिद्धांत के लिए सूक्त में 'स्वध' और 'प्रयति' शब्द का इस्तेमाल हुआ है। वो दिशाओं के बारे में भी बताते हैं कि उस समय ब्रह्मांड में कोई दिशा नहीं थी। ऊपर किसे कहें या नीचे किसे कहें, या तिरछा किस तरफ है, कहा नहीं जा सकता था। बाद की सूक्तियों में वह यह सवाल करते नजर आते हैं कि यह बताना बहुत मुश्किल है कि सबकुछ की रचना कैसे हुई। कोई नहीं जानता कि जीवन और जीव की शुरुआत कैसे हुई? कोई नहीं बता सकता कि ईश्वर के सहयोग से सबकुछ अस्तित्व में आया या नहीं? कोई नहीं जानता कि इस ब्रह्मांड का सर्वेसर्वा कौन है? ऋषि अनुमान लगाते हुए कहते हैं कि शायद केवल उच्च शक्ति ही है, जो बता सकती है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई या फिर क्या पता उस उच्च शक्ति के ऊपर भी कोई शक्ति हो।

नासदीय सूक्त में रिसर्च से जुड़े सवालों के जवाब पहले से मौजूद थे​ 
खैर, बिंग बैंग थ्योरी भी ब्रह्मांड के केवल शुरुआती प्रक्रिया की व्याख्या करता है और वह भी आगे कहीं बन कहीं पहेली बनकर रह जाता है या ईश्वर जैसे शब्दों से जुड़ जाता है। उसके पास भी सारे सवालों के जवाब नहीं हैं। लेकिन भले ही आज आधुनिक शोधकर्ता, ब्रह्मांड के आगे के सवालों के जवाब ढूंढ रहे हों, वो इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि 'नासदीय सूक्ति' में उनकी शुरुआत के रिसर्च से जुड़े सवालों के जवाब पहले से मौजूद थे।  

शनिवार, 16 सितंबर 2023

जान‍िए नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के बारे में , कैसे होगा आमजन को फायदा


 नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड से सुप्रीम कोर्ट के जुड़ जाने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट में भी लंबित मामलों से लेकर अदालत के आदेश और मुकदमे की तारीख तक पता चल सकेगी. यूं तो अब तक इससे देशभर की जिला अदालतें और हाइकोर्ट जुड़े थे परंतु अब इससे सुप्रीम कोर्ट भी जुड़ गया है. 

नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड (NJDG) यानी राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड ने अपना पहला और महत्वपूर्ण चरण पूरा कर लिया है.

इस समय देश की 18735 से ज्यादा अदालतें इससे जुड़ चुकी हैं. मतलब, कोई भी व्यक्ति अब अदालतों की पेंडेंसी जान सकता है. अपने मुकदमों के फैसले आदि भी देखे जा सकते हैं. इस तरह यह कहा जा सकता है कि अब तक परदे के पीछे छिपी न्यायिक व्यवस्था में भी एक ऐसा पारदर्शी सिस्टम लागू हो गया है जी आमजन को संतोष प्रदान करेगा.

कैसे मिलेगा नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड का फायदा

NJDG के लागू करने से पूरी न्यायिक व्यवस्था ऑनलाइन हो गई है. अब कोई भी व्यक्ति यह जान सकता है कि देश में कितने मुकदमे लंबित हैं. वह यह भी जान सकता है कि उसके मुकदमे में क्या फैसला आया या सुनवाई के दौरान अदालत ने क्या आदेश किया है? अगली तारीख क्या पड़ी है? इसकी शुरुआत कई साल पहले हुई थी. धीरे-धीरे प्रोजेक्ट आगे बढ़ता गया और अब अपने अंतिम मुकाम तक पहुंच गया, मतलब सुप्रीम कोर्ट भी इसके दायरे में आ गया.

रूटीन के ऑर्डर का भी मिलेगा अपडेट

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डॉ. डीवाई चंद्रचूड़ के इस फैसले की पीएम नरेंद्र मोदी ने भी सराहना की है. कल्पना यह है कि अदालती फैसले, रूटीन के ऑर्डर भी रोज के आधार पर यहां अपडेट हों. ऐसा हो भी रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि जहां कहीं चूक हो रही होगी, वहां भी चीजें रफ्तार पकड़ लेंगी. क्योंकि अब किसी भी जज के लिए यह छिपाना मुश्किल होगा कि उसके मुकदमे में क्या चल रहा है? अब इसे सिस्टम के अंदर बैठा कोई भी पर्यवेक्षक देख सकेगा.

देश में कितनी अदालतों की जरूरत, यह पता चलेगा

इसके लागू होने का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अदालतों को मैप करते हुए असल में पता करना आसान हो जाएगा कि देश में असल में कितनी अदालतों की जरूरत है. मतलब जब भी केंद्र एवं राज्य सरकारें नीतिगत निर्णय लेना चाहेंगी तो उन्हें मदद मिलेगी. विश्व बैंक ने इसके शुरुआती दिनों में ही भारत के इस प्रोजेक्ट की सराहना की है. जमीन के विवाद देश में बड़ी समस्या हैं. इनके निस्तारण में काफी वक्त लगता है.

4.44 करोड़ से ज्यादा मुकदमे पेंडिंग

उन्होंने कहा, NJDG से जुड़ी वेबसाइट के माध्यम से मैं देख पा रहा हूं कि देश में इस समय 4.44 करोड़ से ज्यादा कुल मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं. इनमें सिविल के 1.10 करोड़ केस सिविल मामलों के तथा 3.33 करोड़ केस क्रिमिनल के हैं. यही वेबसाइट बता रही है कि बीते एक साल में 2.75 करोड़ मामले अदालतों में बीते एक साल से पेंडिंग हैं. इनमें दो करोड़ से ज्यादा क्रिमिनल और 66 लाख से ज्यादा सिविल केस हैं. 98771 मामले 30 साल से ज्यादा समय से पेंडिंग हैं. पांच लाख से ज्यादा मामले 20 से 30 साल से पेंडिंग हैं. वेबसाइट में जितना खोजते जाएंगे तो यहां छोटी से छोटी जानकारी मिलेगी.



शनिवार, 2 सितंबर 2023

जान‍िए दुन‍िया की लाइब्रेरि‍यों के बारे में...गोरखपुर में भी बन रही है देश की सबसे बड़ी लाइब्रेरी


 प्राचीन समय में भारत से काफी दूर एक देश हुआ करता था असीरिया। करीब 5000 साल पहले वहां का अंतिम राजा था अशुरबनीपाल, जो दुनिया का सबसे ताकतवर राजा माना जाता था।

कहते हैं कि उसका साम्राज्य बेबीलोन, असीरिया, पर्सिया और इजिप्ट तक फैला हुआ था। वह जानता था कि अगर दुनिया पर राज करना है तो किताबों और कला को जानना जरूरी है।
उसने दुनिया के तमाम हिस्सों से किताबें मंगवाईं और एक बड़ी लाइब्रेरी बनवाई, जहां इन किताबों को सहेजा गया। इस लाइब्रेरी में प्राचीन मेसोपोटामिया की सभ्यता और इतिहास के अलावा रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, गणित और अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़ीं किताबें थीं।
दुनिया जीतने का सपना संजोने वाले अलेक्जेंडर द ग्रेट ने भी नील नदी के किनारे अलेक्जेंड्रिया में काफी बड़ी लाइब्रेरी बनवाई थी।
भारत पर 200 सालों से ज्यादा समय तक राज करने वाले अंग्रेज भी लाइब्रेरी की अहमियत जानते थे। तभी तो 1835 में ब्रिटिश संसद में भारत में अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करने वाले लॉर्ड मैकाले ने भारत के ज्ञान-विज्ञान की खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की अलमारी में भारत और अरब का संपूर्ण देशी साहित्य समा सकता है।
जब भी कहीं जाते, 60 ऊंटों पर लादकर किताबें लेकर जाते
10वीं सदी की बात है, जब ईरान में साहिब इब्न अब्बाद नाम के एक महान लेखक और साहित्य-संरक्षक हुए। कहते हैं कि उन्होंने 500 कवि, लेखकों और दार्शनिकों को पैसों से मदद की और नवाब मुअदुद्दौला के दरबार को अरब की दुनिया में ज्ञान और दर्शन का बड़ा केंद्र बना दिया।
इनको किताबों से इस कदर मोहब्बत थी कि उन्होंने अपनी एक पर्सनल लाइब्रेरी बनाई, जिसमें करीब दो लाख किताबें थीं। जब भी ये कहीं जाते तो अपने साथ 60 ऊंटों का काफिला लेकर जाते, जिनकी पीठ पर किताबों का गट्ठर होता। ऊंटों का यह काफिला एक तरह से मोबाइल लाइब्रेरी थी।
किताबें इंसान की प्रगति और सभ्यता की गवाह रही हैं। इंसान ने जब से लिखना और कागज बनाना सीखा, तब से किताबें पढ़ने और कलेक्शन का काम होता आ रहा है।
‘द ग्रेट लाइब्रेरी ऑफ अलेक्जेंड्रिया’ इन्हीं लाइब्रेरियों में से एक थी। ऐसे ही हजारों साल पहले नालंदा विश्वविद्यालय की विशाल लाइब्रेरी में कई देशों के छात्र पढ़ा करते थे। आधुनिक दौर में भारत की सबसे बड़ी लाइब्रेरी कोलकाता की रही जिसके कई बार नाम भी बदले गए। 
कुछ समय से देश में लाइब्रेरी को लेकर धार्मिक रुझान भी बढ़ा है। 
यूपी में बन रही देश की सबसे बड़ी आध्यात्मिक लाइब्रेरी
यूपी के गोरखपुर में देश की सबसे बड़ी आध्यात्मिक लाइब्रेरी को मंजूरी मिली है। चंपा देवी पार्क के 25 एकड़ एरिया में गोरखपुर विकास प्राधिकरण इस लाइब्रेरी को बनाएगा। इसके अंदर भारतीय सभ्यता और संस्कृति का स्टडी मैटेरियल मौजूद होगा। 500 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाले इस पुस्तकालय में पेपरबुक और डिजिटल बुक दोनों रूप में अध्ययन किया जा सकेगा। 
अमेरिकी लाइब्रेरी में 470 भाषाओं में हैं 17 करोड़ किताबें
अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में 200 साल पुरानी ‘लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस’ में 17 करोड़ से अधिक किताबें हैं। इस लाइब्रेरी को अमेरिका के संघीय ढांचे की सबसे पुरानी सांस्कृतिक विरासत माना जाता है। इसकी वॉशिंगटन में तीन और वर्जीनिया में एक इमारत है, जिनमें दुनिया की 470 भाषाओं में किताबें हैं।
1812 में अमेरिका और ब्रिटेन के बीच हुए युद्ध में अंग्रेजों ने इस लाइब्रेरी को आग के हवाले कर दिया था। इसमें किताबों के ज्यादातर ओरिजिनल कलेक्शन खाक हो गए। 1815 में इसे दोबारा शुरू करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन के निजी कलेक्शन से 6,487 किताबें खरीदी गईं।
दूसरी सबसे बड़ी लाइब्रेरी लंदन में, यहां हर साल आतीं 30 लाख किताबें
लंदन में मौजूद ब्रिटिश लाइब्रेरी कलेक्शन के लिहाज से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी लाइब्रेरी है। ब्रिटिश लाइब्रेरी में 17 करोड़ से 20 करोड़ किताबें हैं। कहा यह भी जाता है कि इस लाइब्रेरी के कलेक्शन में हर साल 30 लाख नई किताबें जुड़ती हैं।
कहा जाता है कि आयरलैंड और यूके में प्रकाशित प्रत्येक पुस्तक की प्रतियां विभिन्न भाषाओं डिजिटल और हार्ड कॉपी में इस लाइब्रेरी में मौजूद हैं। यह लाइब्रेरी 1 जुलाई 1973 को स्थापित की गई थी। इससे पूर्व यह लाइब्रेरी ब्रिटिश म्यूजियम का हिस्सा हुआ करती थी।
चीन के पास है दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी लाइब्रेरी
शंघाई लाइब्रेरी चीन की सबसे बड़ी पब्लिक लाइब्रेरी है। यह शंघाई लाइब्रेरी सिस्टम का हिस्सा है, जिसमें करीब 5.6 करोड़ किताबें हैं। इसका न सिर्फ दुनिया की टॉप 3 लाइब्रेरी में शुमार है बल्कि दूसरी सबसे ऊंची लाइब्रेरी भी है। इसकी इमारत 24 मंजिला ऊंची है। शंघाई लाइब्रेरी 1847 के आसपास बनाई गई थी।
कनाडा की लाइब्रेरी में सेव है एक पेटाबाइट डिजिटल इन्फॉर्मेशन
‘लाइब्रेरी एंड आर्काइव्स कनाडा’ को LAC के नाम से भी लोग जानते हैं। इसमें 5.4 करोड़ से ज्यादा किताबें हैं। इस पर देश की डॉक्यूमेंट्री हेरिटेज को संरक्षित रखने की जिम्मेदारी भी है। LAC को साल 2004 में बनाया गया था। इस लाइब्रेरी में एक पेटाबाइट की डिजिटल इन्फॉर्मेशन भी सुरक्षित है।
‘श्राइन ऑफ द बुक लाइब्रेरी’ का दो तिहाई हिस्सा धरती के नीचे
यह पश्चिमी जेरूसलम में इस्राइल म्‍यूजियम का एक भाग है। यहां कई पुरातन पांडुलिपियां रखी गई हैं। इसका दो-तिहाई भाग धरती के नीचे है। इस लाइब्रेरी को अपने खास डिजाइन के लिए भी जाना जाता है।
अमेरिका में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं जातीं लाइब्रेरी
इंटरनेट के इस युग में जहां ज्यादातर लोग मोबाइल या लैपटॉप से चिपके रहते हैं, वहां अमेरिकी लाइब्रेरी में किताबें पढ़ने को ज्यादा महत्व देते हैं।
4 साल पहले गैलप पोल के एक सर्वे में पाया गया कि अमेरिका में छुट्टी के दिनों में लाइब्रेरी भरी रहती। स्टूडेंट्स भी 2019 में लाइब्रेरी का उपयोग करने में आगे रहे। सर्वे में पाया गया कि महिलाएं, पुरुषों की तुलना में लगभग दो बार ज्यादा लाइब्रेरी जा रही हैं।
लाइब्रेरी के इस्तेमाल पर प्यू रिसर्च सेंटर ने 2016 में एक सर्वे किया जिसमें पता चला कि लगभग 80 फीसदी वयस्क अमेरिकी लाइब्रेरीज के सोर्स पर भरोसा करते हैं।
मुगल शासक हुमायूं की लाइब्रेरी की सीढ़ियों से गिरकर हुई थी मृत्यु
कहते हैं मुगल शासक हुमायूं किताबें पढ़ने और संजोने का बेहद शौकीन था लेकिन उसका ज्यादातर वक्त युद्ध और इधर-उधर भागने में बीता। हालांकि वह इन अभियानों में भी पुस्तकें अपने साथ ले जाया करता था।
एक रात में जब वह गुजरात के अभियान पर था तब अचानक कुछ जंगली एवं पहाड़ी कबाइली लोगों ने उस पर आक्रमण कर दिया, जिसके कारण उसे पीछे हटना पड़ा।
उसकी बहुत सारी अच्छी और दुर्लभ किताबें वहीं रह गईं। इन किताबों में से एक “तैमूरनामा” भी थी जिसकी प्रतिलिपि मौलाना सुल्तान अली और उस्ताद बेहज़ाद द्वारा चित्रित की गई थी।
1555 में दिल्ली फतह करने के बाद उसने वैज्ञानिक स्टडी और रिसर्च पर ध्यान दिया। भारत और दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों से विद्वानों को जमा किया। किताबें इकट्‌ठा कीं और शेर मंडल को दीनपनाह लाइब्रेरी में तब्दील कर दिया। मगर अगले साल ही दीनपनाह की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं की मृत्यु हो गई। यह जगह दिल्ली के पुराना किला इलाके में आज भी मौजूद है।
दुनिया में ऐसी चलती फिरती लाइब्रेरीज भी मौजूद हैं जो बच्चों के अलावा हर उम्र के पुस्तक प्रेमियों के लिए भी कौतूहल की वजह बन सकती है। आइए जानते हैं ऐसी ही कुछ मोबाइल लाइब्रेरीज के बारे में-
टैंक जैसी दिखने वाली मोबाइल लाइब्रेरी कहलाती है ‘वेपन ऑफ मास इंस्ट्रक्शन’
1979 में अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में अर्जेंटीनियाई आर्ट कार मेकर और आर्टिस्ट राउल लेमेसऑफ ने टैंक जैसी दिखने वाली फोर्ड फाल्कन को मोबाइल लाइब्रेरी बनाया। 
आमतौर पर यह कहा जाता है कि कार की बॉडी में बुक्स कैसे फिक्स की जा सकती हैं, पर राउल ने ऐसा करके दिखाया। 
नीदरलैंड की संकरी गलियों के लिए बनी बेइब बस मोबाइल लाइब्रेरी
नीदरलैंड की संकरी गलियों के लिए आर्किटेक्ट जॉर्ड डेन होलैंडर ने शानदार तरीका निकाला। उन्होंने ट्रॉली के आकार की ऐसी बेइब बस (Biebbus) तैयार की, जिसमें वर्टिकल दो रूम बनाए गए हैं। इसमें नीचे के कमरे में 7 हजार के करीब बच्चों की किताबें हैं। 52 वर्ग मीटर स्पेस में 30 से 45 बच्चे बैठ जाते हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी तैरती लाइब्रेरी गूगल ने बनाई
'एमवी लागोस होप' दुनिया की सबसे बड़ी तैरती लाइब्रेरी है। इस लाइब्रेरी को गूगल ने बनाई है। इसको गूगल बुक्स फॉर आल (जीबीए) शिप्स ऑपरेट करता है। जीबीए के पास इसी तरह की तीन और लाइब्रेरी हैं। लेकिन एमवी लागोस होप सबसे बड़ी लाइब्रेरी है। यह दुनिया भर के देशों का दौरा करती रहती है। भारत में यह दो बार 1972 और 2011 में आ चुकी है। इस लाइब्रेरी को 40 देशों के करीब 400 वॉलंटियर ऑपरेट करते हैं।
उत्तराखंड के गांवों में पहुंची घोड़ा लाइब्रेरी
किताबों से लदी ऊंट की पीठ पर चलती-फिरती लाइब्रेरी से शुरू हुआ बुक लवर्स और पढ़ने के शौकीनों का सफर आज गूगल की ऑनलाइन लाइब्रेरी तक जा पहुंचा है। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि किताबें ऊंट न सही टट्टू की पीठ पर लादकर आज भी उत्तराखंड के दूर-दराज के पहाड़ी इलाकों में पहुंच रही हैं। 
जहां न सड़कें हैं न पर्याप्त बिजली, लेकिन वहां के बच्चों को पढ़ने का शौक है और टट्टू पर लदी किताबें उनके चेहरे पर मुस्कुराहट ला देती हैं।
इस लाइब्रेरी को चलाने वाले शुभम बधानी कहते हैं कि जैसे ही मैंने ये सोचा कि मैं घोड़े पर किताबें लादकर बच्चों तक पहुंचाऊं, तो मेरा आइडिया गांवों को इतना पसंद आया कि उन्होंने अपने घोड़े, टट्टू की सेवाएं तुरंत देने की बात की। वॉलंटियर्स ने इस लाइब्रेरी के लिए किताबें भी दीं और रीडिंग सेशन भी शुरू किए हैं। 
जैसे ही घोड़े की सुविधा मिली हिमोत्तम और संकल्प और यूथ फंडिंग ने आगे बढ़कर मदद की और किताबों की सुविधाएं दीं। वॉलंटियर्स गांव गांव चक्कर लगाते हैं और उन बच्चों से मिलते हैं जो किताबें पढ़ना चाहते हैं।
कई बार एक हफ्ते किताबें पढ़ने के लिए भी देते हैं। दूसरे राउंड में पुरानी किताबें लेकर फिर दूसरी नई किताबें बच्चों को दी जाती हैं।
इस तरह कम किताबें होते हुए भी बच्चों को कुछ नया लगातार पढ़ने को मिलता रहता है।
शुभम बताते हैं कि यह संस्था पूरी तरह से फंडिंग पर निर्भर है और ऐसे ही मदद करने वालों की तलाश है। अभी हमारे पास 15 साल के बच्चों के लिए किताबें हैं।
जैसे ही हमारे को आर्थिक मदद मिलेगी, हम सभी उम्र के पाठकों को किताबों मुहैया कराएंगे और इससे हमारे गांवों का दायरा भी बढ़ेगा। 
शुभम कहते हैं कि सबसे अच्छी बात ये रही कि गांव की महिलाओं में किताब पढ़ने की दिलचस्पी देखने को मिली। बच्चों के लिए होने वाले रीडिंग सेशन में हर उम्र का व्यक्ति शामिल होता है।
सबको लगता है कि हमें इससे नया सीखने को मिलता है। कुछ महिलाएं अपनी बेटियों के आती हैं। बच्चियां अगर घोड़ा देखकर खुश होती है तो किताबें देखकर उन्हें और खुशी होती है।
इसलिए किसी को भी एक अच्छी लाइब्रेरी से जुड़ने में देरी नहीं करनी चाहिए। अपने स्कूल-कॉलेज या शहर की लाइब्रेरी से जुड़िए और किताबें पढ़कर सोच को साफ-सुथरा बनाइए।
Compiled: Legend News

शनिवार, 26 अगस्त 2023

मनुस्मृति में "शूद्र" शब्द को लेकर जानबूझकर फैलाया गया दल‍ितों के बीच भ्रम

महर्षि मनु और मनुस्मृति के सबन्ध में आज सर्वाधिक ज्वलन्त विवाद शूद्रों को लेकर है। पाश्चात्य और उनके अनुयायी लेखकों तथा डॉ. अम्बेडकर ने आज के दलितों के मन में यह भ्रम पैदा कर दिया है कि मनु ने अपनी स्मृति में उनको घृणित नाम ‘शूद्र’ दिया है और उनके लिए पक्षपातपूर्ण एवं अमानवीय विधान किये हैं। गत शतादियों में शूद्रों के साथ हुए भेदभाव एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहारों के लिए उन्होंने मनुस्मृति को भी जिमेदार ठहराया है। इस अध्याय में मनुस्मृति के आन्तरिक प्रमाणों द्वारा इस तथ्य का विश्लेषण किया जायेगा कि उपर्युक्त आरोपों में कितनी सच्चाई है, क्योंकि अन्तःसाक्ष्य सबसे प्रभावी और उपयुक्त प्रमाण होता है। सर्वप्रथम ‘शूद्र’ नाम को लेकर जो गलत धारणाएं बनी हुई हैं, उन पर विचार किया जाता है।

(क) जैसे आज की सरकारी सेवाव्यवस्था में चार वर्ण निर्धारित किये हुए हैं-1. प्रथम श्रेणी अधिकारी, 2. द्वितीय श्रेणी अधिकारी, 3. तृतीय श्रेणी कर्मचारी, 4. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। इनमें समान, सुविधा, वेतन, कार्यक्षेत्र निर्धारण पृथक्-पृथक् है। इन वर्गों के नामों से सबोधित करने में किसी को आपत्ति भी नहीं होती। इसी प्रकार वैदिक काल में समाज व्यवस्था में चार वर्ग थे जिन्हें ‘वर्ण’ कहा जाता था। किसी भी कुल में जन्म लेने के बाद कोई भी बालक या व्यक्ति अभीष्ट वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को ग्रहण कर उस वर्ण को धारण कर सकता था। उनमें ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का भेदभाव नहीं था। समान, सुविधा, वेतन (आय), कार्यक्षेत्र का निर्धारण पृथक्-पृथक् था। आज के समान तब भी किसी को वर्णनाम से पुकारने पर आपत्ति नहीं थी, न बुरा माना जाता था। आज हम चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को पीयन, क्लास फोर, सेवादार, अर्दली, श्रमिक, मजदूर, चपरासी, श्रमिक, आदेशवाहक, सफाई कर्मचारी, वाटरमैन, सेवक, चाकर आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं और लिखते हैं, किन्तु कोई बुरा नहीं मानता। इसी प्रकार जन्मना जातिवाद के पनपने से पूर्व ‘शूद्र’ नाम से कोई बुरा नहीं मानता था और न ही यह हीनता या घृणा के अर्थ में प्रयुक्त होता था।

वैदिक व्यवस्था में ‘शूद्र’ एक सामान्य और गुणाधारित संज्ञा थी। जन्मना जातिवाद के आरभ होने के बाद, जातिगत आधार पर जो ऊंच-नीच का व्यवहार शुरू हुआ, उसके कारण ‘शूद्र’ नाम के अर्थ का अपकर्ष होकर वह हीनार्थ में रूढ़ हो गया। आज भी हीनार्थ में प्रयुक्त होता है। इसी कारण हमें यह भ्रान्ति होती है कि मनु की प्राचीन वर्णव्यवस्था में भी यह हीनार्थ में प्रयुक्त होता था, जबकि ऐसा नहीं था। इस तथ्य का निर्णय ‘शूद्र’ शद की व्याकरणिक रचना से हो जाता है। उस पर एक बार पुनः विस्तृत विचार किया जाता है।

व्याकरणिक रचना के अनुसार शूद्र शद के अधोलिखित अर्थ होंगे- ‘शु’ अव्ययपूर्वक ‘द्रु-गतौ’ धातु से ‘डः’ प्रत्यय के योग से शूद्र पद बनता है। इसकी व्युत्पत्ति होगी-‘शु द्रवतीति शूद्रः’ = जो स्वामी के कहे अनुसार इधर-उधर आने-जाने का कार्य करता है अर्थात् जो सेवा और श्रम का कार्य करता है। संस्कृत साहित्य में ‘शूद्र’ के पर्याय रूप में ‘प्रेष्यः’=इधर-उधर काम के लिए भेजा जाने वाला, (मनु0 2.32, 7.125 आदि), ‘परिचारकः’=सेवा-टहल करने वाला (मनु0 7.217), ‘भृत्यः’=नौकर-चाकर आदि प्रयोग मिलते हैं। आज भी हम ऐसे लोगों को सेवक, सेवादार, आदेशवाहक, अर्दली, श्रमिक, मजदूर आदि कहते हैं, जिनका उपर्युक्त अर्थ ही है।

इस धात्वर्थ में कोई हीनता का भाव नहीं है, केवल व्यवसायबोधक सामान्य शद है। ‘शुच्-शोके’ धातु से भी ‘रक्’ प्रत्यय के योग से ‘शूद्र’ शद बनता है। इसकी व्युत्पत्ति होती है-‘शोच्यां स्थितिमापन्नः, शोचतीति वा’=जो निनस्तर की जीवनस्थिति में है और उससे चिन्तायुक्त रहता है। आज भी अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति को श्रमकार्य की नौकरी मिलती है। वह अपने जीवननिर्वाह की स्थिति को सोचकर प्रायः चिन्तित रहता है। उसे इस बात का पश्चात्ताप होता रहता है कि उच्चशिक्षित होता तो मुझे भी अच्छी नौकरी मिलती। इसी प्रकार प्राचीन वर्णव्यवस्था में जो अल्पशिक्षित या अशिक्षित रहता था उसे भी श्रमकार्य मिलता था। उसी श्रेणी को शूद्रवर्ण कहते थे। उसे भी अपने जीवन स्तर पर चिन्ता उत्पन्न होती थी। इसी भाव को अभिव्यक्त करने वाला ‘शूद्र’ शद है। इस धात्वर्थ में भी हीन अर्थ नहीं है। यह केवल मनोभाव का बोधक है।

महर्षि मनु ने श्लोक 10.4 में शूद्रवर्ण के लिए अन्य एक शद का प्रयोग किया है जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सटीक है, वह है- ‘एकजातिः’। यह शूद्रवर्ण की सारी पृष्ठभूमि और यथार्थ को स्पष्ट कर देता है। ‘एकजाति वर्ण’ या व्यक्ति वह कहाता है जिसका केवल एक ही जन्म माता-पिता से हुआ है, दूसरा विद्याजन्म नहीं हुआ। अर्थात् जो विधिवत् शिक्षा ग्रहण नहीं करता और अशिक्षित या अल्पशिक्षित रह जाता है। इस कारण उस वर्ण या व्यक्ति को ‘शूद्र’ कहा जाता है। शेष तीन वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ‘द्विजाति’ और ‘द्विज’ कहे जाते हैं; क्योंकि वे विधिवत् शिक्षा ग्रहण करते हुए अभीष्ट वर्ण का प्रशिक्षण प्राप्त करके उस वर्ण को धारण करते हैं। वह उनका दूसरा जन्म ‘‘ब्रह्मजन्म’’= ‘विद्याध्ययन जन्म’ कहाता है। पहला जन्म उनका माता-पिता से हुआ, दूसरा विद्याध्ययन से, अतः वे ‘द्विज’ और ‘द्विजाति’ कहे गये। इस नाम में भी किसी प्रकार की हीनता का भाव नहीं है।

मनु का श्लोक है-        ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः त्रयो वर्णाः द्विजातयः।        चतुर्थः एकजातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः॥ (10.4)     अर्थात्-‘वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण ‘द्विज’ या ‘द्विजाति’ कहलाते हैं; क्योंकि माता-पिता से जन्म के अतिरिक्त विद्याध्ययन रूप दूसरा जन्म होने से इन वर्णों के दो जन्म होते हैं। चौथा वर्ण ‘एकजाति’ है; क्योंकि उसका केवल माता-पिता से एक ही जन्म होता है, वह विद्याध्ययन रूप दूसरा जन्म नहीं प्राप्त करता। उसी को शूद्र कहते हैं। वर्णव्यवस्था में पांचवां कोई वर्ण नहीं है।’ इसी आधार पर संस्कृत में पक्षियों और दांतों को द्विज कहते हैं, क्योंकि उनके दो जन्म होते हैं। वैदिक संस्कृति में दूसरे जन्म का विशेष महत्त्व है, क्योंकि वही राष्ट्र को कुशल, प्रशिक्षित नागरिक प्रदान करता है, वही आजीविका प्रदान करता है, वही मनुष्य को मनुष्य बनाता है, वही सभी उन्नतियों का मूल कारण है, वही देवत्व और ऋषित्व की ओर ले जाता है।

मनु ने कहा है-        ब्रह्मजन्म ही विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्।     (2.146)     अर्थात्-‘शरीरजन्म की अपेक्षा ब्रह्मजन्म=विद्याध्ययन रूप जन्म ही द्विजातियों का इस जन्म और परजन्म में शाश्वत रूप से कल्याणकारी है।’ ब्रह्म-जन्म को न प्राप्त करने वाला अशिक्षा और अज्ञान से ग्रस्त व्यक्ति जीवन में उन्नति नहीं कर सकता, अतः वह प्रशंसनीय नहीं है। इसी कारण वर्णव्यवस्था में शूद्र को चौथे स्थान पर रखा है और आज भी अशिक्षित व्यक्ति चौथे स्थान पर (चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी) है। इस नाम में भी कोई हीनता का भाव नहीं है। यह केवल शूद्र वर्ण के निर्माण की प्रक्रिया की जानकारी दे रहा है।

(ख) वर्तमान बालिद्वीप (इंडोनेशिया) में पहले चातुर्वर्ण्य व्यवस्था रही है और अब भी कहीं-कहीं व्यवहार है। मनु की व्यवस्था के अनुसार, वहां उच्च तीन वर्णों को ‘द्विजाति’ तथा चतुर्थ वर्ण को ‘एकजाति’ कहा जाता है। वहां के समाज में शूद्र से कोई ऊंच-नीच या छूत-अछूत का व्यवहार नहीं होता। अतः त्रुटि मनु की व्यवस्था में नहीं है। यह त्रुटि भारतीय समाज में जन्मना जातिवाद के उद्भव के कारण आयी है। इसका दोष मनु पर नहीं डाला जा सकता (प्रमाण संया 8, पृ0 16 पर प्रथम अध्याय में द्रष्टव्य है)।

(ग) बाद तक वर्णनिर्धारण का यही नियम पाया जाता है।

मनुस्मृति के प्रक्षिप्तसिद्ध एक श्लोक में कहा है-        शूद्रेण हि समस्तावद् यावत् वेदे न जायते।       (2.172)     अर्थात्-‘जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो।’

(घ) पुराणकाल तकाी यही नियम था – ‘‘जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।’’ (स्कन्दपुराण, नागरखण्ड 239.31)     अर्थात्-प्रत्येक बालक, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो, जन्म से शूद्र ही होता है।

उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के बाद ही द्विज बनता है।

(ङ) अशिक्षित होना ही शूद्र की पहचान है। मनु का एक अन्य श्लोक इसकी पुष्टि करता है- यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्। नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥ (2.126)    

अर्थ-‘जो द्विज अभिवादन करने वाले को उत्तर में विधिपूर्वक अभिवादन नहीं करता अथवा अभिवादन-विधि के अनुसार अभिवादन करना नहीं जानता, उसको अभिवादन न करें क्योंकि वह वैसा ही है जैसा शूद्र होता है।’ इस श्लोक से दो तथ्य प्रकट होते हैं-एक, शूद्र शिक्षित और शिक्षितों की विधियों को जानने वाले नहीं होते अर्थात् अशिक्षित होते हैं। दो, इन कारणों से कोई भी द्विज ‘शूद्र’ घोषित हो सकता है अर्थात् उसका उच्चवर्ण से निनवर्ण में पतन हो सकता है, यदि उसका आचार-व्यवहार शिक्षित वर्णों जैसा नहीं है।

(च) मनु की पूर्वोक्त व्युत्पत्तियों की पुष्टि शास्त्रीय परपरा से भी होती है। उनमें भी हीनता का भाव नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों में शूद्र की उत्पत्ति ‘असत्’ से वर्णित की है। यह बौद्धिक गुणाधारित उत्पत्ति है-     ‘‘असतो वा एषः सभूतः यच्छूद्रः’’ (तैत्ति0 ब्रा0 3.2.3.9)     अर्थात्-‘‘यह जो शूद्र है, यह असत्=अशिक्षा (अज्ञान) से उत्पन्न हुआ है।’’ विधिवत् शिक्षा प्राप्त करके ज्ञानी व प्रशिक्षित नहीं बना, इस कारण शूद्र रह गया।

(छ) महाभारत में वर्णों की उत्पत्ति बतलाते हुए शूद्र को ‘परिचारक’ = ‘सेवा-टहल करने वाला’ संज्ञा दी है। उससे जहां शूद्र के कर्म का स्पष्टीकरण हो रहा है, वहीं यह भी जानकारी मिल रही है कि शूद्र का अर्थ परिचारक है, कोई हीनार्थ नहीं। श्लोक है- मुखजाः ब्राह्मणाः तात, बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः। ऊरुजाः धनिनो राजन्, पादजाः परिचारकाः॥ (शान्तिपर्व 296.6)     अर्थ- मुखमण्डल की तुलना से ब्राह्मण, बाहुओं की तुलना से क्षत्रिय, जंघाओं की तुलना से धनी=वैश्य, और पैरों की तुलना से परिचारक=सेवक (शूद्र) निर्मित हुए।    

(ज) डॉ0 अम्बेडकर र का मत-डॉ0 अम्बेडकर र ने मनुस्मृति के श्लोक ‘‘वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत्’’ (8.418) के अर्थ में शूद्र का अर्थ ‘मजदूर’ माना है- ‘‘राजा आदेश दे कि व्यापारी तथा मजदूर अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 61)। यह अर्थ भी हीन नहीं है। मनु के और शास्त्रों के प्रमाणों से यह स्पष्ट हो गया है कि जब शूद्र शद का प्रयोग हुआ तब वह कर्माधरित या गुणवाचक यौगिक था। उसका कोई हीनार्थ नहीं था। मनु ने भी शूद्र शद का प्रयोग गुणवाचक किया है, हीनार्थ या घृणार्थ में नहीं। शूद्र नाम तब हीनार्थ में रूढ़ हुआ जब यहां जन्म के आधार पर जाति-व्यवस्था का प्रचलन हुआ। हीनार्थवाचक शूद्र शद के प्रयोग का दोष वैदिककालीन मनु को नहीं दिया जा सकता। यदि हम परवर्ती समाज का दोष आदिकालीन मनु पर थोपते हैं तो यह मनु के साथ अन्याय ही कहा जायेगा। अपने साथ अन्याय होने पर आक्रोश में आने वाले लोग यदि स्वयं भी किसी के साथ अन्याय करेंगे तो उनका वह आचरण किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जायेगा। वे लोग यह बतायें कि जिस दोष के पात्र मनु नहीं है, उन पर वह दोष उन थोपने का अन्याय वे क्यों कर रहे है? क्या, उनकी यह भाषाविषयक अज्ञानता और इतिहास विषयक अनभिज्ञता है अथवा केवल विरोध का दुराग्रह?

- डॉ सुरेन्द्र कुमार

शनिवार, 1 जुलाई 2023

हैल्थ पैकेज और ऑफर्स के संग... आज नेशनल डॉक्टर्स डे कितना प्रासंगिक ?

कहते हैं कि किसी बीमारी को ठीक करने के किसी नेक दिल की दुआ और अच्छे डॉक्टर की दवा दोनों की जरूरत होती है । चूंकि ईश्वर प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं होता इसलिए डॉक्टर को ही ईश्वर तुल्य माना जाता रहा, अभी कुछ वर्ष पूर्व तक ये होता भी था कि डॉक्टर ने हाथ पकड़ा नहीं कि मरीज आधा तो उसी वक्त ठीक महसूस करने लगता था। डॉक्टर नब्ज़ थामता हुआ पूछता जाता घर के हालचाल , मौसम की बातें करता हुआ वह न केवल रोग की तह तक जा पहुंचता बल्कि रोगी की मनोदशा का आंकलन करके दवाऐं देता था। इस पूरी प्रक्रि‍या में चंद मिनट ही तो लगते थे। मगर यह मरीज को आश्वस्त कर देती थी कि अब उसे कुछ नहीं होगा, वह सुरक्ष‍ित हाथों में है । बीमार तन को ठीक करने का ये मन से होता हुआ रास्ता बिना खर्च किये, बिना समय बरबाद किये बखूबी चल रहा था जो फैमिली डॉक्टर जैसे रिश्तों को जन्म दे गया ।
समय बदला , उदारीकरण आया, ग्लोबलाइजेशन ने श‍िक्षा को धंधा बना दिया , च‍िकित्सा जगत भी इसकी चपेट में आया। मेडीकल कॉलेज में काबिलों के साथ साथ नाकाबिल भी डोनेशन के बूते  एडमीशन- इंटर्नश‍िप से लेकर बड़े बड़े आलीशान नर्सिंग होम बनाकर आई एम ए जैसी एसोसिएशन्स के जरिये मरीजों को कमोडिटी की तरह ट्रीट करने लगे। सब बदल गया मगर ये बदलाव डॉक्टर और मरीज के बीच ईश्वरतुल्य वाली छवि को ध्वस्त कर गया। जो सेवा थी वो पेशा बन गई। जहां स्पर्शमात्र से आधा दर्द चला जाता था, वहां मिनीमम एक दर्ज़न टेस्ट कराके भी परिणामों की श्योरिटी नहीं होती। लापरवाहियों के उदाहरण आम हो गये हैं। प्रत्यक्षत: लिंग परीक्षण पर रोक लगी है मगर कौन नहीं जानता कि भ्रूण हत्याओं का ऊंचा ग्राफ सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर्स की इस प्रोफेशनलिज्म की प्रवृत्त‍ि की वजह से आगे चढ़ा और खुद आईएमए ने कभी कोई कार्यवाही नहीं की,वरना सरकार को क्यों तरह तरह से भ्रूण हत्या रोकने को उपाय करने पड़ते। इसके बावजूद जब आज नेशनल डॉक्टर्स डे पर कुछ डॉक्टर्स से बात की तो उन्होंने मरीज और डॉक्टर्स के बीच पनप रहे अविश्वास को लेकरअनगिनत मजबूरियां तो गिना दीं मगर प्रोफेशनलिज्म को सेवा मानने को वे हरगिज़ तैयार न थे ।
बदलते समय की ये नई परिभाषायें अपने साथ बहुत से बदलाव लाई जिसने डॉक्टर्स को भी सेवा की जगह प्रोफेशनल और प्रैक्टीकल बना दिया और अब आलम ये है कि एक बड़े डॉक्टर कहते हैं कि आज बिना प्रेाफेशनल बने खर्चे निकालना मुश्किल है, तो वहीं दूसरे डॉक्टर ने कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट को ही इस सबका दोष दे दिया । वे बोले, सीपीए यानि  कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट की वजह से डॉक्टरों में कोर्ट में घसीटे जाने का डर लगा रहता है। किसी एक बीमारी के लिए भी तमाम  टेस्ट कराने पर वो अपनी सफाई देते हैं कि कोई डॉक्टर रिस्क सीपीए की वजह से नहीं लेना चाहता इसलिए वह एक सिर दर्द होने पर भी सभी टेस्ट कराके आश्वस्त हो जाने के बाद ही इलाज करना शुरू करता है ताकि कोई कोताही न होने पाए।
एक डॉक्टर तो कहते हैं कि आजकल प्रोफेशनल होना  हमारी मजबूरी है , वरना इतने महंगे इक्विपमेंट्स , स्टाफ की सैलरी , बिजली से लेकर मैडीकल वेस्ट तक का खर्चा कहां से निकले।इस सफाई में वो असल सवाल टाल ही गए कि मरीज और डॉक्टर से बीच आए अविश्वास को कैसे कम किया जाए।
तमाम बहानों के साथ ही ये तो निश्चत हो गया कि विश्वास का संकट तो स्वयं डॉक्टर्स ने ही उपजाया है । जहां तक मरीजों द्वारा कानून की शरण लेने की बात है तो जो रोग से जूझ रहा हो , क्या वो शौकियातौर पर जाना चाहेगा कोर्ट । हमारे देश में कोर्ट जाना या न्याय पाना क्या इतना आसान है।
इनकी तरह कई और डॉक्टर्स ने भी बहानों का पहाड़ खड़ा किया मगर सभी के सभी टोटल इललॉजिकल। समस्या को फिलहाल वो सतही तौर पर देख रहे हैं जो पूरी के पूरी स्वास्थ्य सेवाओं के खतरनाक है।
अब बताइये कि एक पर्ची पर केवल एक हफ्ते ही दिखाया जा सकता है, अगले हफ्ते के लिए फिर से दूसरी पर्ची पूरी फीस चुकाकर बनवानी पड़ेगी, चाहे कितना भी रेग्यूलर चेकअप क्यों न करवा रहे हों । इसी तरह नर्सिंग होम के अंदर ही मेडीकल स्टोर, पैथेलॉजी लैब, कैंटीन और ऐसी ही सुविधाओं के साथ पूरा बिजनेस सेटअप ... दवा कंपनियों के ऑब्लीगेंटरी गिफ्ट्स पर विदेशों की सैर का लालच के चलते जेनेरिक दवाओं को डॉक्टर्स प्रेस्क्राइब ही नहीं करते ....आलीशान 5 और 7 स्टार्स हॉस्पीटल्स के '' ऑफर्स '' के साथ पैम्फलेट बांटा जाना, एक बीमारी के इलाज के साथ दूसरे टेस्ट्स फ्री... बताने वाले आदि ऐसे सच हैं जिनसे आप  सभी कभी ना कभी तो दोचार हुए ही होंगे। इसके अलावा गांवों में जाना तो स्वयं सरकारी डॉक्टर्स पसंद नहीं करते , वो भी शहरों के नर्सिंग होम्स के साथ कांट्रेक्ट्स करके रखते हैं ताकि प्रोफेशनल हो सकें... । ये कुछ सच्चाइयां हैं जो मरीज को मरीज नहीं बल्कि कमोडिटी बनाकर उसके विश्वास के साथ  खेल रही हैं... इस स्थ‍िति से बाज आना होगा और विश्वास बहाली का पहला कदम तो डॉक्टर्स को ही उठाना होगा ।
और अंत में आज नेशनल डॉक्टर्स डे है जो डॉ बी सी रॉय की याद में प्रति वर्ष १ जुलाई को मनाया जाता है , यही उनका जन्मदिन भी है और पुण्य तिथि भी। 1961 में भारत रत्न से सम्मानित डा. रॉय के नाम पर १९७६ में सरकारें उनके सम्मान में चिकित्सा , विज्ञानं , आर्ट , और राजनीति के क्षेत्र में विशिष्ठ कार्य के लिए डॉ बी सी रॉय नेशनल अवार्ड देती आई हैं।
इस दिन हर वर्ष सभी चिकित्सक संस्थाएं अपने उन डॉक्टर्स को सम्मानित करती हैं , जो अपने क्षेत्र में सराहनीय कार्य कर रहे हैं । तो डॉक्टर्स डे के इस हीरों के नाम पर ही सही आज के इस सेवाकार्य के बदलते प्रोफेशनल रूप को लेकर हम सभी को सोचना होगा। दोषारोपण से नहीं बल्कि सार्थक बदलाव लाकर हम मानवीय आधार पर सर्वश्रेष्ठ कर पाऐं , ऐसा उपाय करना होगा।

- अलकनंदा सिंह 

शनिवार, 17 जून 2023

समान नागरिक संहिता अर्थात् UCC से जुड़े हर बड़े सवाल का जवाब है यहां


 समान नागरिक संहिता (UCC) भारत के लिए एक कानून बनाने की मांग करती है, जो विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने जैसे मामलों में सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होगा. इसको लेकर देश में विवाद छिड़ा हुआ है. विधि आयोग एक रिपोर्ट भी तैयार कर रहा है.

इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क दिये जा रहे हैं. पक्षधर इसके फायदे गिना रहे हैं जबकि विरोेध करने वालों की नजर में इससे देश के अंदर धार्मिक आजादी को खतरा होगा. संवैधानिक प्रावधानों में धर्म निरपेक्षता प्रभावित होगी. क्योंकि इससे यानी हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून आवेदन अधिनियम (1937) जैसे धर्म पर आधारित मौजूदा निजी कानून खत्म हो जाएंगे.

दरअसल विधि आयोग इस संबंध में एक रिपोर्ट तैयार कर रहा है. यूनिफॉर्म सिविल कोड मतलब एक समान नागरिक संहिता से है, इसके तहत पूरे देश में सभी के लिए एक कानून तय करना है. इसके मुताबिक सभी धार्मिक और आदिवासी समुदायों पर उनके व्यक्तिगत मामलों मसलन संपत्ति, विवाह, विरासत, गोद लेने आदि में भी समान कानून लागू होगा. आइए 5 अहम सवाल और उसके जवाब जानने की कोशिश करते हैं.

UCC के बारे में संविधान क्या कहता है?
संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है, भारतीय राज्य नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास कर सकता है. मतलब संविधान सरकार को सभी समुदायों को उन मामलों को लेकर एक कानून बनाने का निर्देश दे सकता है जो मौजूदा समय में उनके व्यक्तिगत कानून के दायरे में हैं. और यही वजह है कि विपक्ष दल इसका विरोध कर रहे हैं. उनके मुताबिक देश की विविधता इससे खतरे में पड़ जाएगी. जबकि केंद्र सरकार के मुताबिक समानता जरूरी है और समय की मांग है.

राज्य आधारित यूसीसी व्यावहारिक तौर पर कितना संभव?
वास्तव में यह राज्य का नीति निर्देशक सिद्धांत से जुड़ा मामला है. यानी यह सभी राज्यों में एक जैसा लागू करने लायक नहीं है. उदाहरण के लिए अनुच्छेद 47 के तहत कोई राज्य नशीले पेय और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दवाओं के सेवन पर रोक लगाता है. लेकिन दूसरे कई राज्यों में शराब धड़ल्ले से बेची जाती है.

किसी राज्य के पास समान नागरिक संहिता लाने की शक्ति को लेकर कानूनी विशेषज्ञ बंटे हुए हैं. कुछ का कहना है कि चूंकि विवाह, तलाक, विरासत और संपत्ति के अधिकार जैसे मुद्दे संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं. यह 52 विषयों की सूची है, केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं. राज्य सरकारों के पास भी इसे लागू करने की शक्ति है.

क्या यूसीसी केवल इस्लाम के खिलाफ है?
इसका जवाब है – नहीं. क्योंकि जब यूसीसी लागू होता है तो सभी धर्म, जाति के लिए लागू होता है. इसके तहत मुस्लिम व्यक्तिगत कानून आवेदन अधिनियम ही नहीं बल्कि हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम भी खत्म हो जाएंगे. यहां तक कि विरासत और गोद लेने की प्रथा भी समुदाय विशेष पर आधारित नहीं रहेगी.

आदिवासी समुदायों पर भी लागू होगा यूसीसी?
प्रावधान के मुताबिक ऐसा ही माना गया है. राष्ट्रीय स्तर यूसीसी के लागू होने पर सभी इसकी जद में आएंगे. उनके भी विवाह, विवाह-विच्छेद या संपत्ति को लेकर निजी कानून निरस्त हो जाएंगे. हालांकि जनजातीय समुदाय में इसको लेकर रोेष भी देखा गया है.

समुदाय ने कोर्ट में कहा था उनके समाज के लोकाचार, रीति-रिवाज और धार्मिक प्रथाएं प्रभावित होंगी. आदिवासी हितों की रक्षा करने वाली राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद ने कोर्ट से उनके रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं की सुरक्षा की मांग की है. गौरतलब है कि आदिवासी समाज में भी बहुविवाह और बहुपतित्व का रिवाज है.

क्या कहीं लागू है यूसीसी ?
देश में फिलहाल एकमात्र राज्य गोवा में यूसीसी लागू है. चूंकि गोवा को विशेष राज्य का दर्जा हासिल है. संसद ने बकायदा कानून गोवा में पुर्तगाली यूसीसी लागू किया था. इसे गोवा सिविल कोड के नाम से जाना जाता है. हिंदू, मुस्लिम और ईसाई सबके लिए एक समान कानून लागू है. जिसमें शादी, उत्तराधिकार से लेकर गोद लेने की प्रथा तक शामिल है.

रविवार, 11 जून 2023

बोली-भाषा: खानाबदोश और च‍िरकुट, इन दो शब्दों का आख‍िर क्या अर्थ होता है


  ख़ानाबदोश एक फ़ारसी शब्द है जो भारत में काफी प्रचलित है। इस शब्द का विश्लेषण बड़ा रोचक है।

यह शब्द तीन अक्षरों से मिल कर बना है- ख़ाना ब दोश। यहाँ ख़ (ख़ाना) के नीचे नुक़्ता न भूलें क्योंकि बिना बिन्दु के ‘खाना’ का अर्थ भोजन हो जायेगा।

फ़ारसी शब्द ख़ाना अथवा ख़ाने का अर्थ होता है ‘घर या स्थान - जैसे पागलख़ाना, दवाख़ाना, गुसलखाना इत्यादि।

और दोश का मतलब है -‘कंधा’ ‘ब या बा’ सँग साथ के लिए लगता है।

इस तरह खानाबदोश वह लोग हुए जो अपना घर कंधे पर उठा कर चलते हैं।

वह कैसे?

ख़ानाबदोश कहीं पर भी स्थाई रूप से निवास नहीं करते। उनके पास बड़े बड़े तम्बू होते हैं और जो जगह उनके मनोकूल लगे वहीं तम्बू गाड़ कर रहने लगते हैं।

यह बंजारे पशु पालन, दस्तकारी इत्यादि का सुन्दर काम करते हैं। यह ऊँट, खच्चर, घोड़े, गाय इत्यादि जानवर भी पालते हैं और फिर इनके लिए चारागाह की तलाश में समान अपने जानवरों पर लाद और अपने तम्बू उखाड़ कर अपने कंधों पर रख आगे निकल जाते हैं।

जब सामान अपने जानवरों पर लादते हैं तो तम्बू भी उन पर लादने को कौन मना करता है? पर कहा यूँ जाता है कि ‘ख़ाना (घर) अपने कंधों पर लाद कर चलते हैं। कुछ भी हो बंजारे अपना घर अपने सँग लेकर चलते हैं।

हिन्दी में इनके लिए बंजारे शब्द का प्रयोग होता है एवं अंग्रेज़ी में जिप्सी कहते हैं।

अंग्रेजी में आमतौर पर जिप्सी शब्द भारत आदि देशों में ही घुमंतू जातियों के लिए प्रयोग होता है, परंतु वास्तव में जिप्सी एक अलग ही यूरोपीय जनजाति है जैसे हमारे देश में बकरवाल या भूटिया। ये लोग स्वयं को रोमानी या रोमा कहते हैं, जिप्सी कुछ अर्थों में अपमानजनक शब्द है। रोमानी और रोमा शब्द संयुक्त राष्ट्र आदि संगठन भी प्रयोग करते हैं। माना जाता है कि जिप्सी शब्द इजिप्शियन से आया, क्योंकि यूरोप पहुंचने पर इन्हें इजिप्ट का समझा गया। रोमा लोगों का मूल स्थान भारतीय उपमहाद्वीप का उत्तरी भाग माना जाता है।

बंजारा शब्द भी हिंदी में घुमंतू जातियों के लिए सर्वनाम बन गया है, परंतु यह शब्द भी एक खास जनजाति का नाम है, जो मुख्यतः राजस्थान से है।

खानाबदोश के लिए उपयुक्त अंग्रेजी शब्द nomad या itinerant group होगा। हिंदी में घुमंतू कहना उपयुक्त है।


मुंबइया भाषा तक स‍िमटा 'चिरकुट' शब्द, आख‍िर क्या होता है इसका अर्थ

चिरकुट शब्द की रचना संस्कृत भाषा के दो शब्दों, चिर (कहीं-कहीं इसे चीर भी माना गया है) तथा कूट के मेल से हुई है। इसका अर्थ फटा-पुराना कपडा, चिथड़ा अथवा गुदड़ है।


जायसी ने इस शब्द का प्रयोग इस प्रकार किया है :


काढ़हु कंथा चिरकुट लावा ।


पहिरहु राते दगल सुहावा ।


— जायसी


चिर — (चि + बाहुलकात् रक् ।) लम्बा समय, पुराना, स्थाई। यह विष्णु तथा शिव के नामों में भी है। लम्बे समय जीने वाले हनुमान, अश्वत्थामा आदि भी चिर कहलाते हैं।


अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः । कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥


चीर — (चिनोति आवृणोति वृक्षं कटिदेशा- दिकं वा । चि + “शुसिचिमीनां दीर्घश्च ।” उणां । २ । २५ । इति क्रन् दीर्घश्च ।) वस्त्र, कपड़ा, फटा हुआ वस्त्र, छाल, एक प्रकार का लेखन आदि। यथा:

क्षौमं दुकूलमजिनं चीरं वल्कलमेव वा ।

वसेऽन्यदपि सम्प्राप्तं दिष्टभुक्तुष्टधीरहम् ॥

— शतपथ ब्राह्मण ७.१३.३९ ॥


भावार्थ :—

अपने शरीर को ढंकने के लिए, मैं जो कुछ भी उपलब्ध है, उसका उपयोग करता हूं, चाहे वह मेरे भाग्य के अनुसार सन, रेशम, कपास, कौपीन या मृगछाला हो, और मैं पूरी तरह से संतुष्ट और अविकल हूँ।)

कुट — (कुट इ वैकल्ये । इति कविकल्पद्रुमः ॥ ) इसका अर्थ है कटना, फटना, तुड़-मुड़ा, गतिहीन होना, छल करना, धूर्तता करना, बेईमानी करना आदि। (इस अर्थ में कभी-कभी दीर्घ मात्रा भी प्रयुक्त है)।

स्त्रीबालवृद्धकितव मत्तोन्मत्ताभिशस्तकाः ।

रङ्गावतारिपाखण्डि कूटकृद्विकलेन्द्रियाः ॥

— याज्ञवल्क्यस्मृतिः व्यवहाराध्यायः साक्षिप्रकरणम् २.७० ॥

इससे बना चिरकुट, जो है फटा-पुराना। किसी व्यक्ति को यह उपमा दी जाए तो अर्थ यही कि उसका व्यक्तिगत चिथड़ों की तरह बिखरा हुआ है। इसी चिरकुट को गुलजार ने चिरंजीव कर दिया, अंगूर में संजीव कुमार के मुख से कहला कर "अगर मेरा नाम चिरकुट कुमार होता तब भी? "

बुधवार, 7 जून 2023

द्रुमकुल्य क्षेत्र अर्थात् कज़ाखस्तान: जहां श्रीराम ने समुद्र को सुखाने वाला ब्रह्मास्त्र छोड़ा था


 रामायण में एक प्रसंग आता है जब भगवान राम लंका जाने के लिए समुद्र देवता से रास्ता मांगते हैं और उन्हें रास्ता नहीं मिलता. उस समय श्री राम क्रोधित हो जाते हैं. क्रोध में आकर वह अपना धनुष उठाते हैं और समुद्र को सुखाने के लिए ब्रह्मास्त्र चलाने का मन बना लेते हैं. तभी समुद्र देवता प्रकट होकर उन्हें अपनी गलती के लिए क्षमा मांगते हैं और श्री राम को बताते हैं कि वह वानरो की सहायता से समुद्र में पुल बनाकर लंका जा सकते हैं.


भगवान राम समुद्र देवता की बात सुनकर उन्हें क्षमा कर देते हैं. लेकिन क्रोध में निकाले गए ब्रह्मास्त्र को वापस नहीं रख सकते थे. तब उन्होंने समुद्र देवता से पूछा कि अब तो य बाण कहीं न कहीं छोड़ना ही पड़ेगा. इस पर समुद्र देवता उन्हें द्रुमकुल्य नाम के देश में बाण छोड़ने का सुझाव देते हैं. समुद्र देवता का कहना था कि द्रुमकुल्य पर भयंकर दस्तु (डाकू) रहते हैं जो उनके जल को भी दूषित करते रहे हैं. इस पर राम ने ब्रह्मास्त्र चाल दिया.

वाल्मीकि रामायण मे दिए गए वर्णन के अनुसार ब्रह्मास्त्र की गर्मी से द्रुमकुल्य के डाकू मारे गए. लेकिन इसकी गर्मी इतनी ज्यादा थी कि सारे पेड़-पौधे सूख गए और धरती जल गई. इसके कारण पूरी जगह रेगिस्तान में बदल गई और वहां के पास मौजूद सागर भी सूख गया. यह वर्णन बेहद आश्चर्यजनक है और जिस तरह से लंका तक बनाए गए रामसेतु को भगवान राम की एतिहासिकता के सबूत के तौर पर माना जाता है उसी तरह इस घटना को भी सही माना जाता है.

माना जाता है कि यह जगह आज का कजाकिस्तान है. कजाकिस्तान में ऐसी ढेरों विचित्रताएं हैं जो इशारा करती है. कि उसका संबंध रामायण काल से हो सकता है. वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम ने उत्तर दिशा में द्रुमकुल्य के लिए बाण चलाया था. वो जानते थे कि इसके असर से वहां डाकू तो मर जाएंगे लेकिन निद्रोष जीवजंतु भी मारे जाएंगे और पूरी धरती रेगिस्तान बन जाएगी.

इसलिए उन्होंने यह आशीर्वाद भी दिया कि कुथ दिन बाद वहां सुगंधित औषधियां उगेंगी, वह जगह पशुओं के लिए उत्तम, फल मूल मधु से भरी होगी. कजाकिस्तान में जिस जगह पर राम का बाण गिरा वो जगह किजिलकुम मरुभूमि के नाम से जानी जाती है. यह दुनिया का 15वां सबसे बड़ा रेगिस्तान है. स्थानीय भाषा में किजिलकुम का मतलब लाल रेत होता है. माना जाता है कि कि ब्रह्मास्त्र की ऊर्जा के असर से यहां की रेत लाल हो गई.

किजिलकुम में कई दुर्लभ पेड़-पैधे पाए जाते हैं. पास में अराल सागर है. जो दुनिया का इकलौता समुद्र है जो समय के साथ-साथ सूख रहा है. आज यह अपने मूल आकार का मात्र 10 फीसदी बचा है. किजिलकुम का कुछ हिस्सा तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान में भी है. रामेश्वरम तट से इस जगह की दूरी करीब साढ़े चार हजार किलोमीटर है.

- Alaknanda Singh 

शनिवार, 3 जून 2023

हिंदुओं को मृत्यु उपरांत RIP शब्द को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए

 


 R.I.P यानी रेस्ट इन पीस कहना लोगों का फैशन बन गया है| लोग बिना कुछ सोचे समझे ही किसी के भी मरने पर RIP RIP की रट लगा देते हैं खासकर फेसबुक ट्विटर या व्हाट्सएप ग्रुप में। दोस्तों शब्दों में धार्मिक भेदभाव तो नहीं किया जा सकता लेकिन R.I.P शब्द का मतलब सिर्फ मुस्लिम और ईसाइयों के लिए ही सिद्ध होता है ना कि हिंदुओं के लिए|

हम इस शब्द के मतलब से अनजान अपनी तरफ से तो हम RIP शब्द का उपयोग कर मृत व्यक्ति की शांति के लिए मांग रहे होते हैं | आज मैं आपको बता देता हूं कि इस बात का अर्थ यह नहीं होता है|

आइये जानते हैं की हिंदुओं के लिए R.I.P शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं करना चाहिए और इसकी जगह क्या शब्द इस्तेमाल करें|

R.I.P (Rest in Peace) का अर्थ हिंदी में कहूं तो शांति से आराम करो या फिर शांति में आराम करो| शांति से आराम करो और ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे इन दोनों पंक्तियों में जमीन आसमान का अंतर है हमें इस में फर्क करना आना चाहिए|

शांति से आराम करो उन लोगों के लिए अपनाया जाता है जिन्हें कब्र में दफनाया गया है क्योंकि ईसाइयों और मुस्लिमों की मान्यताओं के अनुसार जब जजमेंट डे यानी कयामत का दिन आएगा तब सारे मृत जी उठेंगे| इस लिए मुस्लिम और ईसाई कहते हैं कयामत के दिन तक शांति से इंतज़ार करो।

ईसाई और मुस्लिम शरीर में यकीन रखते हैं मानना है कि कयामत के दिन फिर से जी उठेंगे लेकिन हिंदू इसके विपरीत पुनर्जन्म मे यकीन रखते हैं और आत्मा को अमर मानते हैं हिंदू धर्म के अनुसार शरीर नश्वर है यानी एक ना एक दिन इसे नष्ट होना ही है इसी वजह से हिंदू शरीर को जला दिया जाता है हिंदुओं का मानना है कि मरने के बाद शरीर से आत्मा ही निकल गई तो शरीर किस काम का।

भगवद् गीता (मूल श्लोकः।।2.22।) में कहा गया है क‍ि- 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही

भावार्थ: मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही आत्मा पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीर में चला जाता है।
गीता में यह भी कहा गया है कि

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ 2/23

भावार्थ: इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥23॥

संसार के किसी भी वस्तु से हम आत्मा को छू भी नहीं सकते और ध्यान देने योग्य बात यह है कि जल वायु अग्नि तीनों ही हिंदू धर्म में देवता माने गए हैं| हिंदू धर्म के अनुसार मनुष्य अपने कर्मो के फल स्वरूप या तो मोक्ष प्राप्ति कर लेता है या फिर आत्मा नया शरीर को धारण कर लेती है |इसलिए हमारे यहां कहां जाता है,

ओम शांति सदगति
अर्थात: ईश्वर आत्मा को शांति दे मोक्ष की प्राप्ति हो|

बुधवार, 24 मई 2023

राजदंड सेंगोल: इत‍िहास के आइने से लेकर सेंट्रल व‍िस्टा तक


 

सेंगोल का आशय राजदंड से लगाया जाता है, 14 अगस्त 1947 को मध्य रात्रि पं. जवाहर लाल नेहरू को जो सेंगोल सौंपा गया था उस पर ऊपर भगवान शिव के सेवक नंदी की आकृति है. जो एक गोले पर विराजमान हैं. सेंगोल में इस गोले का अर्थ संसार से लगाया गया है. इसके ऊपर विराजमान शिव के वाहन नंदी की सुंदर नक्काशी है, जिन्हें सर्वव्यापी, धर्म व न्याय के रक्षक के वाहन के रूप में माना गया है. इसमें तिरंगे की नक्काशी भी है. 


सेंगोल को चोल वंश के राजा प्रयोग करते थे, उस समय एक राजा दूसरे चोल राजा को सत्ता हस्तांतरण इसी सेंगोल के माध्यम से करता था. जो बेहद ठोस, सुंदर नक्काशी वाला सुनहरा राजदंड था. इस पर भी भगवान शिव के वाहन नंदी की नक्काशी होती थी, इतिहासकारों के मुताबिक चोल भगवान शिव के परम भक्त थे, इसीलिए राजदंड में उनके परम भक्त नंदी की आकृति होती थी. सेंगोल के अति सुंदर कृति है, इसकी लंबाई पांच फीट है जो शिल्प कौशल से संपन्न है.


सेंगोल को उस समय तमिलनाडु के प्रसिद्ध स्वर्णकार वुम्मिडी एथिराजुलु और वुम्मिडी सुधाकर ने 10 शिल्पकारों के दल के साथ बनाया था. इसे चांदी से तैयार किया गया था और उसके ऊपर सोने की परत चढ़ाई गई थी. इस काम में 10 से 15 दिन लगे थे. सेंगोल बनाने वाले वुम्मिडी भाइयों के मुताबिक यह बहुत गर्व की बात थी.

 

श्री ला श्री तंबीरन सेंगोल को लेकर तमिलनाडु से दिल्ली तक गए थे, उन्होंने पहले इसे माउंटबेटन को सौंपा था और उसके बाद इसे वापस लेकर पवित्र जल से शुद्ध किया था. इसके बाद पं. जवाहर लाल नेहरू के आवास पर जाकर सेरेमनी में श्री ला श्री तंबीरन ने तत्कालीन राष्ट्रपतित पं. राजेंद्र प्रसाद और अन्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति में इसे नेहरू जी को सौंपा था. 

बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

आज फेसबुक पर ''सभी मर्द एक जैसे होते हैं'' को लेकर कुछ यूं पढ़ा...आप भी देखें


 सभी मर्द एक जैसे होते हैं।

कौन मर्द ?

जो बाप बनकर ताउम्र तुम्हारी हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख्वाहिशों को पूरी करता है,जिसे अपने फटे हुए जूते सिलवाने याद रहे ना रहे लेकिन अपनी बिटिया के लिए स्कूल ड्रेस खरीदना कभी नहीं भूलता है जो महज तुम्हारी छोटी सी इलेक्ट्रॉनिक गुड़िया और एक तुम्हारी पहली स्कूटी और साइकिल के लिए रोज 4 घंटे ओवरटाइम के नाम पर घर लेट आया करता है तुम उसी मर्द की बात कर रही हो ना?

सभी मर्द एक जैसे होते हैं।

कौन मर्द ?

वही मर्द ना ,जो भाई बनकर ताउम्र अपनी ख्वाहिशों को मार कर अपने सारे खिलौने तुम्हे दे दिया करता है, तुम्हें डांट ना पड़े इसलिए अपने बाप से मार भी खा लिया करता है, लाख लापरवाह रहे हो वो, लेकिन तुम्हारे एक तरफ उठने वाली हर एक नजर को वह फोड़ दिया करता है वही मर्द ना जो जिंदगी भर पागलों की तरह हंसता रहता है लेकिन तुम्हारी विदाई में फूट फूट कर रोया करता है वही मर्द ना जो जिंदगी के भाग दौड़ में सबसे दूर भाग कर तुम्हारे एक फोन कॉल का इंतजार करता है तुम उसे मर्द की बात कर रही हो ना?

सभी मर्द एक जैसे होते हैं।

कौन मर्द ?

वही मर्द ना जो पति बनकर अपने लड़कपन को एक ही झटके में खत्म कर देता है 80 की रफ्तार से चलाने वाला बाइक अचानक से 40 की रफ्तार में अपने जिम्मेदारियों को थाम लेता है मंगलसूत्र का पहचान वह मर मर्द ता उमर तुम्हारी छोटी छोटी ख्वाहिशों के लिए अपने हर बड़े बड़े अरमानों को मार दिया करता है तुम उसी मर्द की बात कर रही हो ना जो पति बनकर हर उम्र में एक दोस्त की तरह तुम्हारा साथ दिया करता है बोलो ना तुम उसी की बात कर रही हो ना?

सभी मर्द एक जैसे होते हैं

कौन मर्द ?

वही मर्द ना जो प्रेमी बनकर पूरी दुनिया को भूलाकर बस तुमसे मोहब्बत करता है तुम्हारे हर झूठे तुम्हारे हर कहानी की बातों को सच मानकर तुमसे बेइंतेहा इश्क करता है वह तुम्हारी झूठ में भी खुद के लिए सच खोज लिया करता है तुम्हारी एक मुस्कान के लिए अपना सब कुछ निछावर कर दिया करता है तुम उसी मर्द की बात कर रही हो ना जो प्रेमी बनकर अपनी प्रेमिका के लिए पूरी दुनिया से लड़ जाया करता है अरे बोलो ना, अरे चुप क्यों हो, बताओ ना की बात कर रही हो ना?

सभी मर्द एक जैसे होते हैं । 

कौन मर्द ??

वही मर्द ना जो दोस्ती के रिश्ते में एक दोस्त बनकर तुम्हें परिवार का हिस्सा मान लेता है जो तुम्हें पिज़्ज़ा खिलाने के लिए खुद के लिए बल्ला खरीदने का पैसा निकाल कर तुम्हें पिज्जा खिला देता है, वही मर्द ना जो मात्र दोस्ती का रिश्ता होने के बावजूद भी पूरी दुनिया से तुम्हारे लिए लड़ जाया करता है तुम्हें सब से बचाता है तुमसे हमेशा गाली खाता है लेकिन तुम्हारी आंखों में कभी आंसू नहीं आने देता वही मर्द ना जो तुमसे लड़ता है झगड़ते है तुम्हें रुलाता है और फिर तुम्हें हंसाने के लिए खुद जोकर बन जाया करता है बताओ ना तुम उसी मर्द की बात कर रही हो ना?

सभी मर्द एक जैसे ही होते है 

कौन मर्द ??

वही मर्द जो एक बेटा बन कर हमेशा अपनी मां का ढाल बन कर खड़ा रहता है वही मर्द जिसकी हर तम्माना को पूरी करने के लिए मां रात भर जागती है और मां के बुढ़ापे में वही लड़का एक ढाल बन कर मां की सेवा करता है मां के लिए उसका बेटा ही सबसे बेहतर होता है मां के लिए उसका बेटा ही हीरो है , हां ये बात सही है कि शादी होने के बाद वही कुछ बेटे अपनी मां को घर से निकाल कर वृद्ध आश्रम में भेज देते है लेकिन उनके इस कुकर्म के लिए क्या सिर्फ मर्द ही जिमेद्दार होते है लेकिन इन सब से दूर हिंदुस्तान के आज भी हर घर में श्रवण कुमार जैसे बेटे रहते है जिनके लिए उनकी मां ही उनकी दुनिया है ,

बताओ ना क्या तुम उसी मर्द की बात कर रहीं हो जो अपनी मां के लिए जान भी देते है 

courtsey: Facebook

गुरुवार, 26 जनवरी 2023

ब्रज में बसंत : कुछ इस तरह स्‍वागत करते हैं बसंत का सभी ब्रजवासी

 


 

सदा बसंत रहत वृंदावन पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट।।

जटित क्रीट मकराकृत कुंडल मुखारविंद भँवर मानौं लट।

ब्रज में यूं तो ऋतुओं की भरमार है किंतु एक ऋतु ऐसी है जो ब्रज में अपने उन्माद को लिए हुए नित्य विराजमान है और वह है वसंत ऋतु। वृंदावन के रसिक आचार्य ने तो यहां तक कहा है की ब्रज से वसंत कभी भी एक क्षण के लिए बाहर नही जाता अपितु वह तो सदा सर्वदा यही श्री राधा कृष्ण की सेवा में रत रहता है। बसंत पंचमी का उत्सव इसी के अंतर्गत मनाया जाता है।

ज्योतिष एवं आयुर्वेद के अनुसार चैत्र तथा वैशाख मास को वसंत ऋतु माना गया है। शल्य चिकित्सा के प्रवर्तक सुश्रुत ने तो वसंत के लिए कहा है कि “मधुमाधवौ वसन्तः” अर्थात मधु(चैत्र) और माधव(वैशाख) ही वसंत है। तैत्तिरीय संहिता में भी कहा गया है कि “मधुश्व माधवश्व वासन्तिकावृत” अर्थात् मधु और माधव मास ही वसन्त ऋतु। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ऋतुओं का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि “तस्य ते वसन्तः शिरः” अर्थात् वर्ष का सिर (शीर्ष) ही वसन्त ऋतु है। कालिदास ने वसंत ऋतु के वर्णन में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ऋतुसंहार में कहा है “सर्वप्रिये चारूतरं वसन्ते” अर्थात वसंत ऋतु में सब कुछ मनोहर ही मालूम पड़ता है। इसके साथ ही गीत गोविंद में श्री जयदेव गोस्वामी लिखते है “विहरति हरिरिह सरस वसंते” अर्थात वसंत के वियोग से सभी दिशाएं प्रसन्न हो रही है। किंतु वर्तमान लोकांचल यानी उत्तर एवं पूर्वी भारत में मुख्यतः वसंत का आगमन माघ शुक्ल पंचमी अर्थात वसंत पंचमी के दिन ही माना जाता है।

वसंत ऋतु के आगमन की बात करें तो माघ मास में भगवान भास्कर के मकर राशि में प्रवेश के उपरांत शीत ऋतु का प्रकोप कम होने लगता है। माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋतुराज वसंत का आगमन पृथ्वी पर एक उत्सव के रूप में होता है। बसंत के स्वागत में वसुधा अपने रूप को सँवार कर बसंत का स्वागत करती है। बसंत के आगमन पर संपूर्ण सृष्टि में मादकता सी छा जाती है साथ ही पेड़ों के नवीन पात, वन उपवन में फूलों से लदी डाली, आम के बौर, कोयल की कूक एवं सरसों के रूप में पीली चुनर ओढ़े धरती यह सब सूचना देती हैं कि बसंत अब आ चुका है।

ब्रज में यह उत्सव अत्यंत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जहां प्राय भारत में अन्य जगह इस उत्सव पर लोग पीले वस्त्र धारण कर वाग्देवी श्री सरस्वती मां का पूजन अर्चन करते है वही दूसरी और ब्रज में यह उत्सव कुछ अलग ही ढंग से मनाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन से ब्रज के सुप्रसिद्ध ४५ दिवसीय होलीकोत्सव का प्रारंभ हो जाता है। वसंत पंचमी को ब्रज में होली का प्रथम दिन माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ऋतुओं में स्वयं को वसंत ऋतु बताया है :-

बृहत्साम तथा साम्नांगायत्री छन्दसामहम।

मासानां मार्गशीर्षोहमृतूनां कुसमाकरः।।

गायी जानेवाली श्रुतियों में बृहत्साम हूँ, वैदिक छन्दों में गायत्री छन्द हूँ, बारह महीनों में मार्गशीर्ष हूँ तथा छः ऋतुओं में, मैं ही वसन्त हूँ।

ब्रज के गांवों, नगरों एवं मंदिरों में वसंत उत्सव मनाने की परंपरा अनवरत रूप से आज भी जारी है। बसंत पंचमी से ब्रज में बसंत उत्सव का श्रीगणेश हो जाता है। इस दिन ठाकुरजी नवीन पीले वस्त्र धारण करते है। मंदिरों की सजावट भी पीले साज, वस्त्रों एवं फूलों से की जाती है। यहां तक कि पुजारी भी पीले वस्त्र पहन कर ही मंदिरों में सेवा करने हेतु पधारते है। नए सरसों के फूल ठाकुरजी को वसंत आगमन के उपलक्ष्य में निवेदित किए जाते है। साथ ही साथ कई जगह तो विशेष पीले रंग के भोग निवेदित किए जाते है। अपने इष्ट के मनमोहक स्वरूप को देखकर बृजवासी प्रेम के वशीभूत होकर सहज ही गा उठते हैं-
“श्यामा श्याम बसंती सलोनी सूरत को श्रंगार बसंती है”

श्री राधा कृष्ण की जो छटा है वह भी वसंती है (नित्य नवीन) तथा उनका श्रृंगार भी वसंती है।

बसंत पंचमी के दिन होली का डांढ़ा (खूंटा) गढ़ जाता है। होली का डांढ़ा वास्तव में वह खम्बा होता है जिसके ऊपर होलिका दहन हेतु लकड़ियाँ लगाई जाती है। आज से ही वृंदावन में होली का प्रारंभ भी हो जाता है। सभी देवालयों में होलिकाष्टक( होली से आठ दिन पहले) तक राजभोग पर यानि दोपहर समय अबीर गुलाल उड़ाया जाता है। विश्वविख्यात ठाकुर बांके बिहारी मंदिर में प्रसाद स्वरूप अबीर -गुलाल भक्तों और दर्शनार्थियों के ऊपर बहुत ही अधिक मात्रा में उड़ाया जाता है।

इसी के साथ वृंदावन में स्थित शाह बिहारी मंदिर में बसंत पंचमी के दिन बसंती कमरा 3 दिनों के लिए खुलता है। रंग- बिरंगी रोशनी से सराबोर बसंती कमरे में विराजमान ठाकुर राधा रमण लाल की अलौकिक छटा होती है। यह कमरा वर्ष में बहुत ही कम दिनों के लिए खुलता है। इस कमरे में बेल्जियन कांच के बने झाड़ फ़ानूस लगे हुए है जिससे इसकी शोभा और बढ़ जाती है। होली का छेता निकलने के साथ ही वृंदावन के प्रमुख मंदिर श्री राधावल्लभ मंदिर, श्री राधारमण मंदिर, श्री राजबिहारी कुंज बिहारी मंदिर, श्री राधा दमोदर मंदिर आदि अन्य मंदिरों में भी बसंत उत्सव का प्रारंभ हो जाता है।

कुहू कुहू कोकिला सुनाई। सुनि सुनि नारि परम हरषाई।।
बार बार सो हरिहि सुनावति। ऋतु बसंत आयौ समुझावति।।
फाग-चरित-रस साध हमारै। खेलहिं सब मिलि संग तुम्हारै।।
सुनि सुनि ‘सूर’ स्याम मुसुकाने। ऋतु बसंत आयौ हरषाने।।

कोयल की कुहू कुहू सुनकर सभी सखियाँ हर्ष से फूली नहीं समा रही है और वह श्री कृष्ण को नित्य विहार हेतु यह कह कर मना रही है कि सुनो प्रिय वसंत ऋतु का आगमन हो चूका है। अतः अंत में सखियों के मनाने से श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्काने लग जाते है और सखियों के संग वसंत उत्सव मानने चले जाते है।

 वृंदावन के मंदिरों में बसंत की समाज भी अद्भुत होती है। वाणी साहित्य में श्यामा- श्याम के बसंत खेल का वर्णन प्रचुर मात्रा में किया गया है। इन पदों का गायन ठाकुर जी के समक्ष पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ किया जाता है। ब्रज में बसंत गायन की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। रसिक उपासना का केंद्र रहे वृंदावन में बसंत लीला को निकुंज लीला से जोड़कर भी देखा जाता है। हरित्रयी के नाम से विख्यात रसिक संत स्वामी श्री हरिदास जी, श्री हरिराम व्यास जी एवं श्री हित हरिवंश जी ने अपने रचित पदों में बसंत का भरपूर गान किया है। वृंदावन की मंदिर परंपरा में आज भी बसंत के इन पदों का गान किया जाता है। ब्रज में बसन्त पूजन की परंपरा अत्यंत प्राचीन है।

बसंत पंचमी पूजन विधि
महावाणी’ नामक ग्रंथ में बसंत पूजन विधि का विशद वर्णन किया गया है जिसे गोलोक वृन्दावन (नित्य वृन्दावन जहां केवल राधा कृष्ण एवं सखियाँ होती है) में सखियाँ मिल कर सम्पादित करती है। इसमें मुख्य रूप से सखियों द्वारा पुष्प समर्पण और संगीत द्वारा सेवा निवेदित कर श्री राधा कृष्ण की वसंत सेवा को बड़ी ही सुंदरता के साथ बताया गया है। चूंकि भौम वृंदावन उस गोलोक वृंदावन का ही प्रतिबिंब है इसलिए ठीक उसी प्रकार वृंदावन एवं ब्रज में वसंत पंचमी पर उत्सव आदि किए जाते है। हरिभक्तिविलास के अनुसार वसंत पंचमी पर मंदिरों में नव पत्र, पुष्प एवं अनुलेपन द्वारा मंदिरों में पूजा संपादित की जाती है। श्री राधा कृष्ण की वसंत के नए पीले सरसों के फूल चढ़ाए जाते है। इसके साथ ही संगीत सेवा जो कि वृंदावन की सेवा परिपाटी का अभिन्न अंग है वो भी वसंत पंचमी पर विशेष महत्व रखती है। वसंत राग का प्रारंभ इसी दिन से शुरू हो जाता है व समाज गायन ने वसंत राग से भरे पदावलियों का गायन किया जाता है।

और राग सब बने बराती दुल्हो राग बसंत,

मदन महोत्सव आज सखी री विदा भयो हेमंत।

रसिक शिरोमणि स्वामी हरिदास वृंदावन की रस निकुंज में जहाँ कुंजबिहारी अपना वसंतोत्सव मना रहे हैं, इस दिव्य रस उत्सव का दर्शन कराते हुए गान करते हैं-

कुंजबिहारी कौ बसन्त सखि, चलहु न देखन जाँहि।

नव-बन नव निकुंज नव पल्लव नव जुबतिन मिलि माँहि।

बंसी सरस मधुर धुनि सुनियत फूली अंग न माँहि।

सुनि हरिदास” प्रेम सों प्रेमहि छिरकत छैल छुवाँहि।।

सखी कह रही है की चलो नव पल्लवों से युक्त वसंत से ओत प्रोत उस कुञ्ज की ओर चले जहां श्याम वंसी बजा रहे है। उस कुञ्ज में सभी आनंद से फुले हुए है और प्रेम रूपी अबीर ही सब पर डाला जा रहा है।

भारतेंदु बाबू द्वारा रचित ‘मधु मुकुल’ की पंक्तियां वृंदावन के बसंत का वर्णन कुछ इस प्रकार करती हैं-

एहि विधि खेल होत नित ही नित, वृन्दावन छवि छायो।

सदा बसन्त रहत जँह हाजिर,कुसुमित फलित सुहायो।।

वृन्दावन की दिव्य लीलास्थली पर नित प्रति वसंत का खेल होता ही रहता है। यहां वसंत सदा सर्वदा पुष्पित पल्लवित होकर विराजमान है।

वृंदावन और बसंत का संबंध अभिन्न है। इस संबंध के विषय में जितना कहा जाए उतना ही कम प्रतीत होता है। श्रीकृष्ण का पूरा जीवन हर्ष का प्रतीक है ,उल्लास का प्रतीक है, नवीनता का प्रतीक है और ऐसे में वसंत से सुन्दर और कौन सी ऋतु होगी जिसमे स्वयं भगवान प्रफुल्लित न हो। इस ऋतु के आगमन से चहुँ और वनस्पति की छटा पुनः हरी भरी होनी शुरू हो जाती है। सर्दी के आलस्य को त्याग प्रकर्ति दोबारा पुष्पित पल्लवित नव कलेवर में जाने को तत्पर रहती है। वातावरण में एक विचित्र ऊर्जा विद्यमान रहती है तथा सरसो से लहलहाते हुए खेत मानव ह्रदय को एक अलग ही भाव से भर देते है। वास्तव में वसंत और कुछ नहीं भगवान कृष्ण द्वारा दिया हुआ समस्त मानव जाति को एक छुपा हुआ सन्देश है जिसमे वह आवाहन कर रहे है कि हम सब अपने जीवन के उल्लास को सभी व्याधि और कष्टों से हटकर पुनः जीवित करे ताकि आनंद सदा सर्वदा बना रहे। क्योंकि जब तक आनंद है तब तक रस है और जब तक रस है केवल तब तक ही नवीनता है क्योंकि रस का आनंद तभी तक है जब तक वो नवीन रहता है अर्थात ताज़ा रहता है जैसे ही वह बासी हुआ वैसे ही अधोगति प्रारम्भ। अपने जीवन को सदा वृन्दावन बनाये ताकि नवीनता सदा बनी रहे और स्वयं रसमूर्ति श्रीकृष्ण आपके ह्रदय रूपी रसशाला में विहार करते रहे।

नवल वसंत, नवल वृंदावन, नवल ही फूले फूल,
नवल ही कान्हा, नवल सब गोपी, नृत्यत एक ही तूल।
नवल ही साख, जवाह, कुमकुमा, नवल ही वसन अमूल,
नवल ही छींट बनी केसर की, भेंटत मनमथ शूल।
नवल गुलाल उड़े रंग बांका, नवल पवन के झूल,
नवल ही बाजे बाजैं, “श्री भट” कालिंदी के कूल।
नव किशोर, नव नगरी, नव सब सोंज अरू साज,
नव वृंदावन, नव कुसुम, नव वसंत ऋतुराज ।