और ये लीजिए, होली का त्यौहार अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ कि दो दिनों में समाप्त होने जा रहा है ...प्रेम की इस पाक्षिक हिस्सेदारी से बचे दो आखिरी दिनों में प्रेम की और दो बातें कर लीजिए....फिर तो वही ढर्रे पर चल निकलेगी ज़िंदगी अपनी-अपनी । इन दो दिनों यानि आज और कल.. जब तक कि होली की धूल ना उड़ जाये तब तक हर मज़ाक 'बुरा ना मानो होली है' के छत्र के नीचे महफूज़ है वरना इसके बाद यदि मजा़क किया तो बस समझो...कि तुम नहीं या फिर हम नहीं...
ब्रजवासी होने के नाते मुझे सर्वाधिक खुशी तब होती है जब सुनती हूं कि जग होरी.. तो ब्रज होरा । अब देखिए ना ...नई दिल्ली के हिंदी भवन में भी राधा-कृष्ण ने फूलों की होली खेली, टीम के कलाकारों ने बड़ी सहजता के साथ ब्रज के लोकगीत और भावना दोनों ही का अच्छा प्रदर्शन किया तो सिर्फ इसलिए कि अब भी 'जग होरी ब्रज होरा' यानि प्रेम का ये रंगीला उत्सव पूरे देश में लगातार महीनेभर तक कहीं नहीं मनाया जाता सिवाय ब्रज के...वह भी पूरे उत्साह से..हमारी यानि ब्रजवासियों की होली तो वसंत के रस का , कृष्ण की ठिठोलियों का, गोपियों की मार का, प्रेम के हर रूप का , सौहार्द्र के हर ढंग का पूरा आनंद लेते हुये शुरू होती है और ऐसे ही विराम लेती है अगले साल के मधुमास का...तो यूं हुई 'जग होरी तो ब्रज होरा '।
'जग होरी ब्रज होरा' कहकर ब्रजवासी कृष्ण- राधा के स्वरूप पूरे विश्व में अब भी होली को उत्साह का त्यौहार बनाये रखने की मशक्कत कर रहे हैं। ये बात अलग है कि हमारे ब्रज में ये मशक्कत त्यौहारी खुशी से ज्यादा अब व्यवसायिक अधिक बनती जा रही है । वसंत पंचमी से शुरू हो जाता है ये मदनोत्सव । और अपने चरम पर होता है मंदिरों में...जब राधा-कृष्ण पर अबीर उड़ाकर ये होली पूरे एक महीना तक चलती रहती है और तमाम प्रसिद्ध मंदिरों में अपनी स्थापित रस्मों से दाऊजी के हुरंगा पर जाकर विश्राम करती है । तमाम सामाजिक व व्यवहारिक बदलावों से जूझती होली भी अब मंदिरों का उत्सव ही बनकर रह गई है। सेवायतों के हाथों उड़ते गुलाल..भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़े ... भीगते भक्त..बायें से दायें और दायें से बायें परदे को करते सेवायत..... ताकि भगवान ऐसे भक्तों की भीड़ में भी 'एकांत' से भोग लगा सकें...केसर- चंदन, फूल, रंगों से भरी पिचकारी से सराबोर होते भक्त...ये हर साल का एक रटारटाया सा अंदाज़ बन गया है।
बहरहाल, उत्सव तो उत्सव है और वो भी मस्ती का...परिवर्तन के अनेक झंझावातों से जूझते हुये ...होली के 'डांढ़े गाड़ने से लेकर दाऊजी के हुरंगा ' तक का ये सफर बेहद रंगीला ..चटकीला और हठीला तो होता ही है, साथ ही मदमस्त भी करता है इसीलिए ब्रज की होली का हर रूप आज भी हमें ही नहीं पूरे विश्व को गुदगुदाता है । तो बस..जाइये और होली मनाइये..... कुछ रंग हमारे ब्रज के खुद को भी, अपने घरों में, रिश्तों में, दोस्तों में भी लगाइये....और गाते जाइये ...होरी खेलन आयौ श्याम आज जाय रंग में बोरौ री-इ-इ-इ....या फिर जाय नर तैं नार बनावौ री -इ-इ-इ..होरी में ....।
तो ऐसी ही है ...जग होरी ब्रज होरा ।
आप सभी को होली की शुभकामनायें
-अलकनंदा सिंह
ब्रजवासी होने के नाते मुझे सर्वाधिक खुशी तब होती है जब सुनती हूं कि जग होरी.. तो ब्रज होरा । अब देखिए ना ...नई दिल्ली के हिंदी भवन में भी राधा-कृष्ण ने फूलों की होली खेली, टीम के कलाकारों ने बड़ी सहजता के साथ ब्रज के लोकगीत और भावना दोनों ही का अच्छा प्रदर्शन किया तो सिर्फ इसलिए कि अब भी 'जग होरी ब्रज होरा' यानि प्रेम का ये रंगीला उत्सव पूरे देश में लगातार महीनेभर तक कहीं नहीं मनाया जाता सिवाय ब्रज के...वह भी पूरे उत्साह से..हमारी यानि ब्रजवासियों की होली तो वसंत के रस का , कृष्ण की ठिठोलियों का, गोपियों की मार का, प्रेम के हर रूप का , सौहार्द्र के हर ढंग का पूरा आनंद लेते हुये शुरू होती है और ऐसे ही विराम लेती है अगले साल के मधुमास का...तो यूं हुई 'जग होरी तो ब्रज होरा '।
'जग होरी ब्रज होरा' कहकर ब्रजवासी कृष्ण- राधा के स्वरूप पूरे विश्व में अब भी होली को उत्साह का त्यौहार बनाये रखने की मशक्कत कर रहे हैं। ये बात अलग है कि हमारे ब्रज में ये मशक्कत त्यौहारी खुशी से ज्यादा अब व्यवसायिक अधिक बनती जा रही है । वसंत पंचमी से शुरू हो जाता है ये मदनोत्सव । और अपने चरम पर होता है मंदिरों में...जब राधा-कृष्ण पर अबीर उड़ाकर ये होली पूरे एक महीना तक चलती रहती है और तमाम प्रसिद्ध मंदिरों में अपनी स्थापित रस्मों से दाऊजी के हुरंगा पर जाकर विश्राम करती है । तमाम सामाजिक व व्यवहारिक बदलावों से जूझती होली भी अब मंदिरों का उत्सव ही बनकर रह गई है। सेवायतों के हाथों उड़ते गुलाल..भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़े ... भीगते भक्त..बायें से दायें और दायें से बायें परदे को करते सेवायत..... ताकि भगवान ऐसे भक्तों की भीड़ में भी 'एकांत' से भोग लगा सकें...केसर- चंदन, फूल, रंगों से भरी पिचकारी से सराबोर होते भक्त...ये हर साल का एक रटारटाया सा अंदाज़ बन गया है।
बहरहाल, उत्सव तो उत्सव है और वो भी मस्ती का...परिवर्तन के अनेक झंझावातों से जूझते हुये ...होली के 'डांढ़े गाड़ने से लेकर दाऊजी के हुरंगा ' तक का ये सफर बेहद रंगीला ..चटकीला और हठीला तो होता ही है, साथ ही मदमस्त भी करता है इसीलिए ब्रज की होली का हर रूप आज भी हमें ही नहीं पूरे विश्व को गुदगुदाता है । तो बस..जाइये और होली मनाइये..... कुछ रंग हमारे ब्रज के खुद को भी, अपने घरों में, रिश्तों में, दोस्तों में भी लगाइये....और गाते जाइये ...होरी खेलन आयौ श्याम आज जाय रंग में बोरौ री-इ-इ-इ....या फिर जाय नर तैं नार बनावौ री -इ-इ-इ..होरी में ....।
तो ऐसी ही है ...जग होरी ब्रज होरा ।
आप सभी को होली की शुभकामनायें
-अलकनंदा सिंह
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