जीवन अच्छी तरह से जीने के लिए, उसके बीच गुजरते हुए ऐसा बहुत कुछ जो अनावश्यक है, आवश्यक सा जान पड़ता है इसीलिए जीने के हर क्षण को उत्सव की तरह जिया जाये तो शक्ति का संचार बना रहता है। संभवत: इसीलिए ऋतुओं के अनुसार बांटी गयी भारतीय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का चलन कभी निरुद्देश्य नहीं रहा । जीने की आकांक्षा और अभिलाषा के संग स्वास्थ्य व शक्ति का तालमेल बना रहे तो निश्चय ही जीवन में उल्लास ही उल्लास छलकता है। प्रकृति के चारों ओर नवजीवन और वसंत की खुमारी इस उल्लास में जो वृद्धि करती है, उसी से विभिन्न शक्तियां संजोने के लिए नवरात्रि का प्रावधान हमारे पूर्वजों ने कर दिया था इसीलिए इसे शक्ति पर्व कहते हैं।
शक्ति का ही पर्व है नवरात्रि। ये शक्ति की अधिष्ठात्री देवी की आराधना व शक्ति की पूजा का पर्व है।
भारतीय संस्कृति में शक्ति स्वरूप जगत माता की स्तुति की गयी है । दुर्गा सप्तशती में शक्ति आराधना का मूल 'मातृरूप' में कुछ इस तरह बताया गया है -
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।
व्यक्तिगत साधना एवं सामाजिक उपासना के माध्यम से नवरात्रि पर्व पर मातृ रूपा शक्ति की पूजा का आयोजन शक्ति-ऊर्जा का अधिष्ठान ही तो है।
हमारे यहां आदिशक्ति के त्रिगुणात्मक तीन रूप हैं। सात्वकि रूप में वह सरस्वती हैं, राजसी रूप में लक्ष्मी व तामसी रूप में दुर्गा है।
सरस्वती बुद्धि की देवी है। बुद्धि को शक्ति एवं ऐश्वर्य से श्रेष्ठ माना गया है अत: वह राजशक्ति व वैभव से कभी प्रभावित नहीं होती । यही कारण रहा कि हमारे ऋषियों और मनीषियों ने सदैव विश्व में जगद्गुरु का सम्मान प्राप्त किया ।
रजोमयी लक्ष्मी- श्रम व ऊर्जा से प्राप्त वैभव तक ले जाने वाली शक्ति की परिचायक हैं। ऊर्जा, श्रम व श्री, तीनों की सम्पन्नता से व्यक्तिगत व राष्ट्र का भौतिक विकास चरम पर पहुंचता है।
तमोमयी दुर्गा महिषासुर मर्दिनी शक्ति को दर्शाती हैं। आध्यात्मिक रूप से यहां महिषासुर को मोह, पशुत्व एवं अज्ञान का प्रतीक माना गया है। अज्ञान पर विजय शक्ति एवं श्रम से ही संभव है अत: शक्ति रूपा दुर्गा-काली की उपासना का विधान शक्ति संचयन के लिये आवश्यक है।
इस तरह जीवन के लिए इन त्रिगुणात्मक शक्तियों को अर्जित करने पर बल दिया गया है क्योंकि बुद्धि, श्रम, ऊर्जा एवं श्री के साथ किये गये कामों से ही राष्ट्र शक्ति सम्पन्न हो सकता है।
भारतीय जीवन पद्धति को शक्ति संचयन के इस नौदिवसीय अनुष्ठान के साथ आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-पारंपरिक तौर पर जोड़ कर ये उपाय किये गये कि राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति शक्तिवान बने, खुशहाल बने। कल इस शक्तिपर्व का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हो रहा है जो षष्ठी को यमुना के जन्म का उत्सव मनाते हुए रामनवमी तक चलेगा ।
भारतीय संस्कृति में आज हम पर्व व अनुष्ठानों की मूल भावना को भूलते जा रहे हैं। समय के अभाव के चलते आपाधापी व जीवन की औपचारिकताएं तेजी से बढ़ रही हैं। बीते समय में जिन वैज्ञानिक तथ्यों के साथ शक्ति संचयन की विधियों को स्थापित किया गया था, उन्हें पुरातनपंथी कहकर नई पीढ़ियां से दूर किया गया। आधुनिकता के नाम पर आध्यात्मिक ज्ञान को पोंगापंथियों द्वारा सतही जानकारी तक समेट दिया गया। सांस्कृतिक आघातों ने सहिष्णुता एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना से भरी हमारी शक्ति की अनुभूति को दुर्बल बना दिया है। इतिहास साक्षी है कि रामायण व महाभारत काल में यज्ञ, जप-तप अनुष्ठानों के माध्यम से राष्ट्र सदैव शक्ति संग्रहण करता रहा और साधना प्रधान नवरात्रि पर्व इस शक्ति के संग्रह का प्रमुख राष्ट्रीय सांस्कृतिक पर्व बना।
इस समय व्रत, हवन, यज्ञ, दुर्गा पाठ आदि अनुष्ठानों से पवित्र वातावरण का सृजन होता है, जिससे पर्यावरण शुध्द होता है एवं ऋतुसंधिकाल होने के कारण जो संक्रामक रोगों के फैलने का अंदेशा भी रहता है, उन सभी का शमन होता है। शक्ति जागरण के साथ नवरात्रि सामूहिक साधना का एक ऐसा पर्व है, जिसे सामूहिक रूप में मनाने के मूल में राष्ट्रीय संगठन एवं सहकारिता की भावना भी पैदा होती है।
यह सुखद संयोग ही कहा जायेगा कि अब नई पीढ़ी अपने पर्वों को फिर से वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ देखने को उत्सुक दिखाई दे रही है परंतु जो नुकसान हो चुका है उससे न केवल रूढ़ियों को पनपने का मौका मिला बल्कि सुखमय जीवन की जीने की पुष्ट परिकल्पना को आघात भी पहुंचा है। नई पीढ़ी की मौजूदा वैज्ञानिक सोच से आशायें तो जागी ही हैं।
....तो आओ, क्यों न हम ऐसी सभी आशाओं को संजोकर अपने धर्म के उस आध्यात्मिक स्वरूप का साक्षात्कार करें जो जीवन के हर पल में उत्साह का संचार करता है और हर दिन को उत्सव की भांति जीने की संभावना पैदा करता है।
- अलकनंदा सिंह
शक्ति का ही पर्व है नवरात्रि। ये शक्ति की अधिष्ठात्री देवी की आराधना व शक्ति की पूजा का पर्व है।
भारतीय संस्कृति में शक्ति स्वरूप जगत माता की स्तुति की गयी है । दुर्गा सप्तशती में शक्ति आराधना का मूल 'मातृरूप' में कुछ इस तरह बताया गया है -
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।
व्यक्तिगत साधना एवं सामाजिक उपासना के माध्यम से नवरात्रि पर्व पर मातृ रूपा शक्ति की पूजा का आयोजन शक्ति-ऊर्जा का अधिष्ठान ही तो है।
हमारे यहां आदिशक्ति के त्रिगुणात्मक तीन रूप हैं। सात्वकि रूप में वह सरस्वती हैं, राजसी रूप में लक्ष्मी व तामसी रूप में दुर्गा है।
सरस्वती बुद्धि की देवी है। बुद्धि को शक्ति एवं ऐश्वर्य से श्रेष्ठ माना गया है अत: वह राजशक्ति व वैभव से कभी प्रभावित नहीं होती । यही कारण रहा कि हमारे ऋषियों और मनीषियों ने सदैव विश्व में जगद्गुरु का सम्मान प्राप्त किया ।
रजोमयी लक्ष्मी- श्रम व ऊर्जा से प्राप्त वैभव तक ले जाने वाली शक्ति की परिचायक हैं। ऊर्जा, श्रम व श्री, तीनों की सम्पन्नता से व्यक्तिगत व राष्ट्र का भौतिक विकास चरम पर पहुंचता है।
तमोमयी दुर्गा महिषासुर मर्दिनी शक्ति को दर्शाती हैं। आध्यात्मिक रूप से यहां महिषासुर को मोह, पशुत्व एवं अज्ञान का प्रतीक माना गया है। अज्ञान पर विजय शक्ति एवं श्रम से ही संभव है अत: शक्ति रूपा दुर्गा-काली की उपासना का विधान शक्ति संचयन के लिये आवश्यक है।
इस तरह जीवन के लिए इन त्रिगुणात्मक शक्तियों को अर्जित करने पर बल दिया गया है क्योंकि बुद्धि, श्रम, ऊर्जा एवं श्री के साथ किये गये कामों से ही राष्ट्र शक्ति सम्पन्न हो सकता है।
भारतीय जीवन पद्धति को शक्ति संचयन के इस नौदिवसीय अनुष्ठान के साथ आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-पारंपरिक तौर पर जोड़ कर ये उपाय किये गये कि राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति शक्तिवान बने, खुशहाल बने। कल इस शक्तिपर्व का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हो रहा है जो षष्ठी को यमुना के जन्म का उत्सव मनाते हुए रामनवमी तक चलेगा ।
भारतीय संस्कृति में आज हम पर्व व अनुष्ठानों की मूल भावना को भूलते जा रहे हैं। समय के अभाव के चलते आपाधापी व जीवन की औपचारिकताएं तेजी से बढ़ रही हैं। बीते समय में जिन वैज्ञानिक तथ्यों के साथ शक्ति संचयन की विधियों को स्थापित किया गया था, उन्हें पुरातनपंथी कहकर नई पीढ़ियां से दूर किया गया। आधुनिकता के नाम पर आध्यात्मिक ज्ञान को पोंगापंथियों द्वारा सतही जानकारी तक समेट दिया गया। सांस्कृतिक आघातों ने सहिष्णुता एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना से भरी हमारी शक्ति की अनुभूति को दुर्बल बना दिया है। इतिहास साक्षी है कि रामायण व महाभारत काल में यज्ञ, जप-तप अनुष्ठानों के माध्यम से राष्ट्र सदैव शक्ति संग्रहण करता रहा और साधना प्रधान नवरात्रि पर्व इस शक्ति के संग्रह का प्रमुख राष्ट्रीय सांस्कृतिक पर्व बना।
इस समय व्रत, हवन, यज्ञ, दुर्गा पाठ आदि अनुष्ठानों से पवित्र वातावरण का सृजन होता है, जिससे पर्यावरण शुध्द होता है एवं ऋतुसंधिकाल होने के कारण जो संक्रामक रोगों के फैलने का अंदेशा भी रहता है, उन सभी का शमन होता है। शक्ति जागरण के साथ नवरात्रि सामूहिक साधना का एक ऐसा पर्व है, जिसे सामूहिक रूप में मनाने के मूल में राष्ट्रीय संगठन एवं सहकारिता की भावना भी पैदा होती है।
यह सुखद संयोग ही कहा जायेगा कि अब नई पीढ़ी अपने पर्वों को फिर से वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ देखने को उत्सुक दिखाई दे रही है परंतु जो नुकसान हो चुका है उससे न केवल रूढ़ियों को पनपने का मौका मिला बल्कि सुखमय जीवन की जीने की पुष्ट परिकल्पना को आघात भी पहुंचा है। नई पीढ़ी की मौजूदा वैज्ञानिक सोच से आशायें तो जागी ही हैं।
....तो आओ, क्यों न हम ऐसी सभी आशाओं को संजोकर अपने धर्म के उस आध्यात्मिक स्वरूप का साक्षात्कार करें जो जीवन के हर पल में उत्साह का संचार करता है और हर दिन को उत्सव की भांति जीने की संभावना पैदा करता है।
- अलकनंदा सिंह
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