सोमवार, 13 जून 2022

सरकारी ओहदेदारों में कॉमनसेंस अभाव, उदाहरण देखें

 

मुझे नहीं मालूम… मेरा लेख पढ़ने वालों में से कितने लोग सरकारी पदों पर रहे होंगे और कितने अब भी सरकार को अपनी ”सेवाएं” दे रहे होंगे परंतु मुझे इतना अवश्‍य मालूम है कि सरकारी सेवाएं देने वाले अधिकांश सज्‍जन कॉमनसेंस का बेहद अनकॉमनली इस्‍तेमाल करते हैं। सरकारी ओहदेदारों की बात इसलिए कर रही हूं कि आमजन के मुकाबले उनसे ‘कॉमनसेंस’ के इस्‍तेमाल की अपेक्षा अधिक की जाती है क्‍योंकि समाज और सरकार दोनों ही उन्‍हें इसकी जिम्‍मेदारी सौंपते हैं परंतु अपने अनकॉमन-सेंस के चलते अधिकारों का दुरुपयोग इसी बिरादरी के एक व्‍यक्‍ति ने उस स्‍तर तक पहुंचा दिया है जिसके बारे में लिखते हुए भी मुझे बहुत कोफ्त हो रही है।

आज दो तीन खबरें ऐसी पढ़ीं कि जहां कानूनन काम करने, सरकारी योजनाओं के मुताबिक विकास कराने और फिर उस विकास से आमजन को सुविधाएं उपलब्‍ध कराने का अधिकार रखने वाले इन ‘सज्‍जनों’ की सोच पर तरस आता है, कि क्‍या हम सभ्‍यता के उस कंगलेपन तक पहुंच चुके हैं जहां से ये ‘काठ के उल्‍लू’ हमें अपनी उंगलियों पर नचाने के लिए ही सरकार से इतना वेतन पाते हैं। क्‍या सचमुच हम भी इस स्‍थिति के लिए जिम्‍मेदार नहीं हैं, जहां एक अदद सरकारी नौकरी से ‘निश्‍चित भविष्‍य’ पाने की आशा अब जुगुप्सा में बदल चुकी है, जहां राजा बनने की चाह ‘सरकारी नौकरी’ ही नहीं दिलवाती बल्‍कि कॉमनसेंस को परे रख कर उन्‍हें अपना चाबुक चलाने की भी छूट देती है।

चलिए वो खबरें भी बता ही दूं जिसने मुझे इतना कटु सोचने पर बाध्‍य किया

तो पहली खबर ये है उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के जिलाधिकारी नवनीत चहल की, जिन्‍होंने डेढ़ साल का कार्यकाल यहां बीत जाने पर अब जाकर विकास कार्यों की समीक्षा की और पाया कि गोवर्धन में 50 करोड़ रुपये के ड्रेनेज सिस्‍टम प्रोजेक्‍ट में जिस 25 किमी तक नाले का निर्माण किया जाना था, वह पिछले 5 सालों में सिर्फ 15 किमी तक ही बना है। जैसा कि हर बार होता है, उन्‍होंने खानापूरी करते हुए जल निगम के अधिकारियों को डांटा, जलनिगम के अधिकारी ने अधीनस्‍थों को, उन्‍होंने 15 किमी नाले की रिपोर्ट थमा कर प्रोसीडिंग आगे सरका दी …और बस हो गया काम। क्‍या डीएम ये बता सकते हैं कि पिछले डेढ़ साल में उन्‍होंने इतने बड़े प्रोजेक्‍ट की खबर क्‍यों नहीं ली, और ऐसे कितने ही प्रोजेक्‍ट हैं जिनकी फाइलें अभी भी बस सरकाई जा रही हैं।

दूसरी खबर एक यूपी पुलिस से जुड़ी है, जिसकी कारस्‍तानी सुनकर आप भी अपना माथा पीट लेंगे। दरअसल, यूपी के जिला कन्नौज की कोतवाली छिबरामऊ का है। यहां एक युवती की शिकायत पर एक युवक के खिलाफ सिर्फ इसलिए केस दर्ज कर लिया क्‍योंकि उस युवती ने सपने में देखा था कि वह युवक उससे छेड़खानी कर रहा है। अनकॉमनसेंस की ऐसी पराकाष्‍ठा…देखी है कहीं आपने। आखिर ऐसा क्‍यों ?

तीसरी खबर है जिला अस्‍पताल मथुरा के सीएमएस की। मथुरा नगरी में बंदरों का आतंक किसी से छुपा नहीं है, लेकिन यहां के सरकारी अस्‍पताल में रैबीज के इंजेक्‍शन ही नहीं हैं, और जब मंकीपॉक्‍स की खबर फैली तब जाकर इंजेक्‍शन्‍स के लिए सरकारी ऑर्डर भेजा। इतना ही नहीं, जिले के अस्‍पतालों में सफाई, दवाइयों के स्‍टॉक, एक्‍सपायरी दवाओं को फेंकने, मरीजों के लिए पानी तक की सुविधा के लिए मंत्रियों को इनकी क्‍लास लेनी पड़ती है। आखिर ऐसा क्‍यों?

चौथी खबर जुड़ी है मथुरा नगर निगम के ईओ अनुनय झा से, जो शहर में नए नए वेंडिंग जोन का फीता काटकर स्‍वयं तो अखबारों के पन्‍नों पर आ जाते हैं परंतु दोचार दिन में ही वेंडिंग जोन गायब हो जाते हैं और ढकेल वाले फिर से वहीं सड़क किनारे खड़े दिखाई देते हैं। यहां भी कॉमनसेंस की ही समस्‍या है, जब वेंडिंग जोन ग्राहकों की पहुंच से दूर बनाए जाएंगे, तो भला दुकानदार क्‍योंकर इस व्‍यवस्‍था को स्‍वीकार करेंगे।

उक्‍त संदर्भ तो कुछ उदाहरणभर हैं कॉमनसेंस की धज्‍जियां उड़ाने के, जिसकी अपेक्षा कम से कम डीएम और नगरनिगम के ईओ जैसे आईएएस अधिकारियों से तो की ही जा सकती है। बहरहाल, यदि आप में से कोई सरकारी कर्मचारी या अधिकारी हैं तो वह अपने काम को लेकर इसका मनन अवश्‍य करें कि आखिर क्‍यों हमें ”ऊपर से” ऑर्डर लेने की इतनी आदत पड़ गई है…आखिर क्‍यों सरकार के ताबेदारों में कॉमनसेंस नदारद हो गया है…। कॉमनसेंस का अभाव जो मुझे दिख रहा है, क्‍या वो आपको भी महसूस होता है।

- अलकनंदा सिंंह

शनिवार, 11 जून 2022

क्या है “समान नागरिक संहिता” में कि उसके नाम से ही भड़क जाता है “मुस्‍लिम” समुदाय?

आज अगर किसी मुस्लिम व्यक्ति को 2, 3 या 4 बेटियां हैं तो बेटे की चाहत में वह दूसरी शादी कर लेता है। ये बात अलग है कि बेटा या बेटी होना, मां से ज्यादा पिता पर निर्भर करता है। हालांकि दूसरी शादी करने के पीछे की असली वजह संपत्ति और गोद लेने का अधिकार है। अभी संपत्ति की हिफाजत के लिए अगर कोई मुस्लिम दंपति बच्चा गोद लेता है तो मुस्लिम लॉ के तहत वह पूरी संपत्ति उसके नाम नहीं कर सकता है। ऐसे में गोद लेने के मामले कम ही होते हैं। इसके बदले पुरुष एक और शादी के जरिए बेटे की चाहत रखते हैं। अगर समान नागरिक संहिता अर्थात् Uniform Civil Code लागू होती है तो बहुविवाह की जरूरत नहीं होगी और गोद या वसीयत का अधिकार सबके लिए एक समान होगा। वैसे भी कोई महिला नहीं चाहती कि घर में उसकी सौतन आए। ऐसे में यूनिफॉर्म सिविल कोड का सबसे बड़ा फायदा मुस्लिम महिलाओं, बेटियों को होने वाला है। यह सिर्फ एक फायदा नहीं है, ऐसे कई फायदे हैं। फिर भी मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग या संस्थाएं इसके विरोध में हैं।

उत्तराखंड में हलचल, देवबंद में विरोध
ऐसे समय में जब उत्तराखंड में कॉमन सिविल कोड या समान नागरिक संहिता के लिए एक कमेटी बनाई गई है, मुसलमानों की प्रमुख संस्था जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने देवबंद से इसके विरोध में आवाज बुलंद की है। जमीयत ने कहा है कि UCC किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं होगा। मुसलमानों की प्रमुख संस्था का आरोप है कि समान नागरिक संहिता इस्लामी कायदे-कानून में दखलंदाजी होगी। इसी प्रस्ताव के बीच में जमीयत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष अरशद मदनी कहते हैं, ‘मुसलमान इस देश में गैर नहीं हैं…ये हमारा मुल्क है, मजहब अलग है लेकिन मुल्क एक है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि एक देश में धर्म के हिसाब से अलग-अलग कानून क्या ठीक है?
एक सवाल यह भी लोगों के जेहन में उठ सकता है कि मुस्लिम संगठन या कुछ लोगों को समान नागरिक संहिता से आपत्ति क्या है?
ऐसा क्या छिन जाएगा, जो वे मसौदे के आए बगैर ही विरोध करने लगे हैं?
पहले फायदे जान लीजिए
आपत्ति समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि संविधान में इसको लेकर क्या कहा गया है और इससे क्या फायदा होने वाला है। वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय बताते हैं कि 23 नवंबर 1948 को संविधान सभा से कॉमन सिविल कोड यानी आर्टिकल 44 पास हुआ था। अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि शादी-विवाह की उम्र सबकी एक समान होनी चाहिए, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई।
अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि इसमें किसी को मजहब क्यों दिख रहा है। अगर हर समुदाय की लड़कियों की शादी 20-21 साल की उम्र में होती है तो वे पढ़ेंगी, आगे बढ़ेंगी। इसमें किसी को क्या दिक्कत है। लेकिन आज के माहौल में हिंदुओं में लड़की की शादी की उम्र 18 साल है, लड़के की 21 साल है। मुस्लिमों में लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र सीमा 9 साल है। वह कहते हैं कि हिंदू की बेटी अगर शादी के योग्य 18 साल में हो रही है तो मुस्लिम बेटी की 9 साल में कैसे योग्य हो जाएगी।
भारत में रहने वाले तो एक ही जैसी हवा में रह रहे हैं, एक ही तरह का पानी और भोजन कर रहे हैं तो इस तरह का अंतर क्यों। UCC लागू होने पर ऐसा नहीं होगा और सबकी शादी की उम्र एकसमान होगी।
यूसीसी लागू होने पर सभी समुदाय के लोगों में तलाक की प्रक्रिया एक समान होगी। मौखिक होगा या लिखित। आज हिंदू समुदाय में अगर शादी तोड़नी है तो कोर्ट जाना पड़ेगा। जज 6 महीने का कूलिंग पीरियड दे सकते हैं लेकिन मुस्लिमों में मौखिक रूप से हो रहे हैं। वे कोर्ट जाते ही नहीं हैं। तीन तलाक भले ही खत्म हो गया है लेकिन कई तरह से अब भी तलाक हो रहे हैं। तलाक का ग्राउंड यूसीसी में सभी के लिए एकसमान होगा।
कॉमन सिविल कोड में अधिकार एक समान हो जाएंगे। हिंदुओं में प्रॉपर्टी के मामले में बेटे-बेटी में भेदभाव नहीं है। पति-पत्नी में भेदभाव नहीं है। मुस्लिम समुदाय में प्रॉपर्टी के मामले में बीवी को शौहर के बराबर दर्जा नहीं दिया जाता है। यूसीसी में बराबरी का अधिकार संपत्ति और वसीयत में मिलेगा। इसी तरह गोद लेने का अधिकार भी एक जैसा होगा। अभी मुसलमानों में गोद लेने पर बच्चे को पूरी संपत्ति देने का प्रावधान नहीं है। ऐसे में प्रॉपर्टी के लिए कई शादियां की जाती हैं। ऐडवोकेट उपाध्याय कहते हैं कि मोटे तौर पर देखें तो समान नागरिक संहिता का फायदा हिंदुओं को नहीं, मुस्लिम बेटियों-बहनों को मिलेगा क्योंकि उन्हें अभी बराबरी का हक नहीं मिला है। इसके बाद पारसी और ईसाई समुदाय को ज्यादा मिलेगा।
गोवा में तो पहले से लागू है
बहुत कम लोगों को पता होगा कि देश में ही एक हिस्सा ऐसा है जहां पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू है। जी हां, गोवा में। वहां हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई इसी कानून के तहत रह रहे हैं। दुनिया के 125 देशों में शादी की उम्र लड़के और लड़के की समान है यानी धर्म से इतर नियम एक है। कुछ देशों में 20 या 21 है। भारत में 18-21 का फॉर्म्यूला सिर्फ हिंदुओं के लिए है। मुस्लिमों में 9 साल की उम्र रखना कहां तक जायज है। हजार साल पहले की तरह आज तो नहीं रहा जा सकता। 1400 साल पहले तो बिजली, गाड़ी नहीं थी। तो क्या हम पहले की तरह रह सकते हैं।
तब लागू होगा सच में सम्-विधान
मुख्य समस्या यह है कि लोगों को समान नागरिक संहिता के बारे में सही जानकारी नहीं है या उन्हें गलत जानकारी देकर भरमाया जा रहा है। लोगों को लग रहा है कि समान नागरिक संहिता से शादी नहीं होगी, पूजा या नमाज बंद हो जाएगी, पाबंदियां लग जाएंगी, जबकि ऐसा कुछ नहीं है। इस कानून का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। हमारे देश में कुपोषण खासतौर से महिलाओं में, उसकी मुख्य वजह समय से पहले शादी होना है।
सम्+विधान= संविधान, यानी ऐसा विधान जो सब पर समान रूप से लागू हो, उसे संविधान कहते हैं लेकिन समान नागरिक संहिता न होने से क्या सच मायने में संविधान का पालन हो पा रहा है? नहीं।
मुस्लिम समुदाय के विरोध की वजह?
मुसलमानों को लगता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप है जबकि इसमें महिला और पुरुषों को समान अधिकार की बात है। इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य धार्मिक संगठनों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा इसलिए वे नहीं चाहते कि वे अप्रासंगिक हो जाएं।
समान नियम के खिलाफ मुस्लिम संगठन तर्क देते हैं कि संविधान में सभी को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है और इसलिए वे इसका विरोध करेंगे। पर समझना यह है कि दुनिया के 125 देशों में एक समान नागरिक कानून लागू है।
इस्लाम में मान्यता है कि उनका लॉ किसी का बनाया नहीं है, अल्लाह के आदेश के अनुसार चल रहे हैं लेकिन कुछ चीजों लोगों को खटक रही हैं जैसे 9 साल शादी की उम्र क्या आज के समय में यह ठीक है?
मुसलमान तर्क देते हैं कि महिलाओं को शरीयत में उचित संरक्षण मिला हुआ है। अगर ऐसा है तो उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार क्यों नहीं हैं।
एक एक्सपर्ट कहते हैं कि बहुत कुछ स्थिति अब भी अस्पष्ट है। बहुसंख्य और अल्पसंख्यक समुदाय के काफी लोग इससे अनजान हैं। लोग बिना जाने ही घबरा रहे हैं।
विरोधी कहते हैं कि UCC से हिंदू कानूनों को सभी धर्मों पर लागू कर दिया जाएगा जबकि इसका किसी एक धर्म से कोई लेना देना नहीं है। यह एक समानता की बात करता है।
आर्टिकल 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता की बात करने वाले कहते हैं कि यह अधिकारों का उल्लंघन होगा।
कुछ संगठन यह कहकर लोगों को बरगलाते हैं कि इसे सब पर थोप दिया जाएगा।
कुछ सियासी लोग यह कहकर मामले को हल्का करने की कोशिश करते हैं कि अब इसमें ज्यादा कुछ बचा नहीं है जो नया कानून बनाने की जरूरत हो। ये वही लोग हैं जो 370 को समाप्त किए जाने पर यह कह रहे थे कि अब उसमें कुछ बचा नहीं था।
ऐसे में सरकार अगर समान नागरिक संहिता की तरफ बढ़ती है तो उसे पहले सबका भरोसा जीतना होगा और सबसे पहले एक ड्राफ्ट सामने रखना होगा जिस पर घर से लेकर संसद में चर्चा हो सके।

-Compiled by Legend News