रानी मदालसा....मदालसा एक पौराणिक चरित्र है जो ऋतुध्वज की पटरानी थी और
विश्वावसु गन्धर्वराज की पुत्री थी...मगर उनका पत्नी व पुत्रीरूप का ये
परिचय किसी को भी पता नहीं क्योंकि उन्होंने वेदान्त व ज्ञान का अपना
अलग परिचय स्थापित किया । बेहद ज्ञानी और वेदों के अनुसार अपने पुत्रों
को ज्ञान के संग जीवन जीने की पद्धति सिखाने वाली ऐसी माता जिसका उदाहरण हम
आज भी देने को विवश हैं क्योंकि 'मदालसा ने अपने पुत्रों को ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ और संन्यास की जिस सरलता से शिक्षा दी वह पिता के वश में नहीं
था'। यहां संस्कार-संसार- कर्तव्य और जिज्ञासा में पिता की शिक्षाओं को
गौण बना देती हैं मदालसा.... क्योंकि संस्कारहीन पुत्र ना तो अच्छा
शासक बन सकता है और न ही अच्छा पुत्र।
मदालसा का ज़िक्र इसलिए आज कर रही हूं क्योंकि शिक्षा देने की वह सरलता और 'संस्कार' देना आज की मांओं के लिए बेहद जरूरी हो गया है। संस्कार विहीनता को 'पुरुषों की आदत' बताकर मांएं अब अपने कर्तव्य से मुक्ति नहीं पा सकतीं। कुछ बिंदु ऐसे हैं कि जो शिद्दत से हमें अपने भीतर झांकने को प्रेरित करते रहे हैं।
जैसे कि-
कल जब दामिनी के हत्यारों की फांसी की सजा दिल्ली हाईकोर्ट ने बरकरार रखी तो सोशल नेटवर्क साइट्स पर खुशी जताई जाने लगी.....उन दरिंदों को जी भर- भर के कोसा जा रहा है...दामिनी की माता ने कहा कि दामिनी की आत्मा को शांति तभी मिलेगी, जब इनको फांसी पर चढ़ा दिया जायेगा।
बेशक इस केस में सरकारी सुरक्षा बंदोबस्तों से लेकर आमजन की संवेदनहीनता और इतनी रात को बाहर घूमने वाली मेट्रो संस्कृति, तीनों ही किसी हद तक बराबर की जिम्मेदार हैं मगर समस्या की गंभीरता का हम यदि उसके चंद लक्षणों से पोस्टमॉर्टम करेंगे तो बात अधूरी रह जायेगी और आधा सच या आधा झूठ दोनों की स्थिति बेहद खतरनाक होती है ।
दामिनी केस का उदाहरण तो सिर्फ मैंने अपनी बात रखने के लिए दिया वरना एक दामिनी ही क्यों, देश के अन्य शहरों-कस्बों- गांवों में...नाक के नाम पर.. इज्ज़त के नाम पर ...जाति के नाम पर... जो तमाम दामिनियां हर रोज बलि चढ़ाई रहीं हैं, उनका क्या...?
विचारने की बात तो ये है कि आखिर हम किस-किसको फांसी पर चढ़ायेंगे। समस्या से निजात पाने का ये रास्ता किसी समाधान की ओर नहीं ले जाता वरन इससे तो स्त्री और पुरुष के बीच और ना जाने कितनी खाइयां तैयार हो जायेंगीं जो शरीर से लेकर सोच तक प्रभावित करेंगी । कम से कम मैं तो फांसी के खिलाफ हूं क्योंकि इससे तो अपराधी को उस कष्ट से मुक्ति मिल जायेगी जिसे पल-पल पाने का वह हकदार है। और कुछ दिनों में वो लोग भी भूल जायेंगे जो उनके लिए फांसी की मांग कर रहे होंगे। ये एक अलग तरह के अपराध की शुरूआत होगी... जान के बदले जान जैसी...खैर, ये तो वैसे भी कानूनी बात रही, इस पर बात फिर कभी.... ।
दरअसल लैंगिक बर्बरता संबंधी समस्या की जड़ें तो हमारे ज़हन में ही बैठी हैं सदियों से, जहां शरीर ही नहीं मन से भी स्त्री को हेय माना जाता है और पुरुष-मन में बैठी यही हेय-प्रवृत्ति कब अपने पाशविक रूप में आ जाये, कहा नहीं जा सकता। बेडरूम से लेकर सड़क तक पीछा करती है यह हेय-प्रवृत्ति... यही प्रवृत्ति स्त्री को पुरूष द्वारा तय किए गए 'हक़' के दायरे में रहने को बाध्य करती है और इसी के जरिए बड़ी सरलता से पुरूष स्वयं को अभिभावक से निर्धारक की भूमिका में ले आता है । नतीजतन जो बेडरूम में होता है, उसे कोई नहीं देखता और जो सड़क पर होता है...उसे लेकर सब न्यायाधीश बन उठ खड़े होते हैं । ये एसी सोचों का दोमुंहापन है जो राम और छुरी दोनों की बात एक साथ करता है।
हमारा उद्देश्य ऐसे अपराधों के प्रति चेतना जागृत करने का होना चाहिए और यह चेतना स्त्री को अपनी स्वतंत्रता के साथ- साथ अपनी अगली पीढ़ी में पिरोनी है... ताकि जो पुत्र अपने पिता या अन्य बुजु़र्गों को घर की स्त्रियों को हेय बतातेदेखते-बताते हुये बड़ा हुआ है वह स्वयं कम से कम इस कुप्रवृत्ति से दूर रहे..।
चुनौतियां ज़्यादा हैं..मदालसा के समय से कहीं और ज़्यादा..इसलिए यह कार्य सहभागिता से ही संभव है। अलग-अलग चलकर स्वतंत्र अस्तित्व हासिल कर भी लिया तो क्या हो जायेगा...अपने बच्चों में संस्कार तो अलग-अलग चलकर या एक दूसरे को हेय बताकर नहीं दिये जा सकते ना । मामला अगली पीढ़ी को संस्कारवान बनाने का है..काम बड़ा है मगर मुश्किल नहीं।
बहरहाल रानी मदालसा का उदाहरण हम और हमारे समाज में नई पीढ़ी की मांओं के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण है..पुरानी पीढ़ी ने तो अपनी अज्ञानता में ना जाने कितना समाज को विकृत कर दिया...। अब यह सोच छोड़नी होगी कि ''हम भला क्या कर सकते हैं इसमें...''बल्कि हम ही कर सकते हैं यानि बस हम ही...देखें तो सही एकबार मदालसा का अनुसरण करके..। ''निश्चित जानिए कि यदि ऐसा हम कर पाये तो..हम समाज के अपराधों की जड़ को मिटा ना भी पाये तो हिला तो जरूर सकते हैं....फिर ना दामिनी वीभत्सता को झेलेगी और ना ही किसी को फांसी देने की जरूरत पड़ेगी... ।
- अलकनंदा सिंह
मदालसा का ज़िक्र इसलिए आज कर रही हूं क्योंकि शिक्षा देने की वह सरलता और 'संस्कार' देना आज की मांओं के लिए बेहद जरूरी हो गया है। संस्कार विहीनता को 'पुरुषों की आदत' बताकर मांएं अब अपने कर्तव्य से मुक्ति नहीं पा सकतीं। कुछ बिंदु ऐसे हैं कि जो शिद्दत से हमें अपने भीतर झांकने को प्रेरित करते रहे हैं।
जैसे कि-
कल जब दामिनी के हत्यारों की फांसी की सजा दिल्ली हाईकोर्ट ने बरकरार रखी तो सोशल नेटवर्क साइट्स पर खुशी जताई जाने लगी.....उन दरिंदों को जी भर- भर के कोसा जा रहा है...दामिनी की माता ने कहा कि दामिनी की आत्मा को शांति तभी मिलेगी, जब इनको फांसी पर चढ़ा दिया जायेगा।
बेशक इस केस में सरकारी सुरक्षा बंदोबस्तों से लेकर आमजन की संवेदनहीनता और इतनी रात को बाहर घूमने वाली मेट्रो संस्कृति, तीनों ही किसी हद तक बराबर की जिम्मेदार हैं मगर समस्या की गंभीरता का हम यदि उसके चंद लक्षणों से पोस्टमॉर्टम करेंगे तो बात अधूरी रह जायेगी और आधा सच या आधा झूठ दोनों की स्थिति बेहद खतरनाक होती है ।
दामिनी केस का उदाहरण तो सिर्फ मैंने अपनी बात रखने के लिए दिया वरना एक दामिनी ही क्यों, देश के अन्य शहरों-कस्बों- गांवों में...नाक के नाम पर.. इज्ज़त के नाम पर ...जाति के नाम पर... जो तमाम दामिनियां हर रोज बलि चढ़ाई रहीं हैं, उनका क्या...?
विचारने की बात तो ये है कि आखिर हम किस-किसको फांसी पर चढ़ायेंगे। समस्या से निजात पाने का ये रास्ता किसी समाधान की ओर नहीं ले जाता वरन इससे तो स्त्री और पुरुष के बीच और ना जाने कितनी खाइयां तैयार हो जायेंगीं जो शरीर से लेकर सोच तक प्रभावित करेंगी । कम से कम मैं तो फांसी के खिलाफ हूं क्योंकि इससे तो अपराधी को उस कष्ट से मुक्ति मिल जायेगी जिसे पल-पल पाने का वह हकदार है। और कुछ दिनों में वो लोग भी भूल जायेंगे जो उनके लिए फांसी की मांग कर रहे होंगे। ये एक अलग तरह के अपराध की शुरूआत होगी... जान के बदले जान जैसी...खैर, ये तो वैसे भी कानूनी बात रही, इस पर बात फिर कभी.... ।
दरअसल लैंगिक बर्बरता संबंधी समस्या की जड़ें तो हमारे ज़हन में ही बैठी हैं सदियों से, जहां शरीर ही नहीं मन से भी स्त्री को हेय माना जाता है और पुरुष-मन में बैठी यही हेय-प्रवृत्ति कब अपने पाशविक रूप में आ जाये, कहा नहीं जा सकता। बेडरूम से लेकर सड़क तक पीछा करती है यह हेय-प्रवृत्ति... यही प्रवृत्ति स्त्री को पुरूष द्वारा तय किए गए 'हक़' के दायरे में रहने को बाध्य करती है और इसी के जरिए बड़ी सरलता से पुरूष स्वयं को अभिभावक से निर्धारक की भूमिका में ले आता है । नतीजतन जो बेडरूम में होता है, उसे कोई नहीं देखता और जो सड़क पर होता है...उसे लेकर सब न्यायाधीश बन उठ खड़े होते हैं । ये एसी सोचों का दोमुंहापन है जो राम और छुरी दोनों की बात एक साथ करता है।
हमारा उद्देश्य ऐसे अपराधों के प्रति चेतना जागृत करने का होना चाहिए और यह चेतना स्त्री को अपनी स्वतंत्रता के साथ- साथ अपनी अगली पीढ़ी में पिरोनी है... ताकि जो पुत्र अपने पिता या अन्य बुजु़र्गों को घर की स्त्रियों को हेय बतातेदेखते-बताते हुये बड़ा हुआ है वह स्वयं कम से कम इस कुप्रवृत्ति से दूर रहे..।
चुनौतियां ज़्यादा हैं..मदालसा के समय से कहीं और ज़्यादा..इसलिए यह कार्य सहभागिता से ही संभव है। अलग-अलग चलकर स्वतंत्र अस्तित्व हासिल कर भी लिया तो क्या हो जायेगा...अपने बच्चों में संस्कार तो अलग-अलग चलकर या एक दूसरे को हेय बताकर नहीं दिये जा सकते ना । मामला अगली पीढ़ी को संस्कारवान बनाने का है..काम बड़ा है मगर मुश्किल नहीं।
बहरहाल रानी मदालसा का उदाहरण हम और हमारे समाज में नई पीढ़ी की मांओं के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण है..पुरानी पीढ़ी ने तो अपनी अज्ञानता में ना जाने कितना समाज को विकृत कर दिया...। अब यह सोच छोड़नी होगी कि ''हम भला क्या कर सकते हैं इसमें...''बल्कि हम ही कर सकते हैं यानि बस हम ही...देखें तो सही एकबार मदालसा का अनुसरण करके..। ''निश्चित जानिए कि यदि ऐसा हम कर पाये तो..हम समाज के अपराधों की जड़ को मिटा ना भी पाये तो हिला तो जरूर सकते हैं....फिर ना दामिनी वीभत्सता को झेलेगी और ना ही किसी को फांसी देने की जरूरत पड़ेगी... ।
- अलकनंदा सिंह
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