जीवन में सतत् प्रयासों से प्राप्त होती है 'जीने की संतुष्टि' ....और इस संतुष्टि से ही शुरू होती है 'अपराजिता' बनने की लंबी यात्रा , जो लगातार क्रियाशील बनाये रहने को प्रेरित करती है और क्रियाशील बने रहने के लिए ज़रूरी है कि इसे सोच के स्तर तक ले जाया जाये ....क्योंकि-
जब सोच बदलेगी तभी तस्वीरों के नये नये रंग नज़र आयेंगे ।
जब सोच बदलेगी तभी शोषक और शोषित का आंकलन हो सकेगा।
जब सोच बदलेगी तभी आश्रित से पोषक बन पायेंगे हम।
जब सोच बदलेगी तो कांधे पर लाद दिये गये बेचारगी के लबादे को उतार फेंकने का साहस भी जन्मेगा।
जब सोच बदलेगी तो प्रकृतिक संरचना में छुपी 'धारक' होने की शक्ति को हम नारीवादियों के हाथों यूं रोने धोने का 'टूल' नहीं बनने देंगे।
और सोच तब बदलेगी जब हम आइने से सटकर खड़े होने की बजाय अपना स्पष्ट अक्स देखने के लिए उससे कुछ दूरी पर खड़े होंगे। आइना अपना काम कर चुका, उसने हुबहू अक्स उतार दिया, मगर हम तो उससे सटकर खड़े हो गये हैं ना ..और लगे हैं आइने को गरियाने कि उसने हमारा अक्स धुंधला कर दिया ...अरे भई,...अब बताइये ज़रा कि इसमें बेचारा आइना दोषी है या हम । तो फिर भूल किस छोर पर हो रही है..अब तो ये ही सोचना है...उन छोरों को पकड़ना है जो हमारी सोच को न तो आइने से दूर जाने दे रहे हैं और ना ही अपना अक्स देखने दे रहे हैं ।
महिला दिवस के बहाने मैं उन अक्सों की बात कह रही हूं जिन्हें बेचारगी का जामा पहना दिया गया है। सकारात्मक कुछ देखने नहीं दिया जा रहा। कमजोर कह कह कर महिलाओं को उनकी अपनी शक्ति से दूर किया जा रहा है, वो भी कुछ इस तरह कि अपने सभी प्राकृतिक गुण जान-बूझकर वह देख ही ना सके ।
लगातार औरतों को मिलती जा रही इस अजीब सी आज़ादी से कुछ प्रश्न और हकीकतें आपस में टकरा रहे हैं कि क्यों दहेज मांगने वालों में लड़कियों की संख्या भी बढ़ रही है..कि क्यों स्वयं औरत ही अपनी कोख से बेटे को जन्म देने की लालसा पाले रहती है..कि क्यों 'लव कम अरेंज' मैरिज का कंसेप्ट जोर पकड़ रहा है..कि क्यों दहेज हत्या में पहला वार सास और ननद ही करती हैं...कि क्यों सिर्फ स्त्री का बलात्कार ही सुर्खियों में आता है जबकि अब पुरुषों को भी इससे कहीं ज्यादा शिकार बनाया जा रहा है...कि क्यों बेटियां अपने पिताओं को ज्यादा प्यारी होती हैं बजाय मां के..। ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनमें महिला अधिकारवादियों को 'कुछ मसाला' नज़र नहीं आता।
महिलाओं की वैयक्तिक और वैचारिक आज़ादी तो मुझे भी अच्छी लगती है मगर इस आज़ादी के लिए हम अपनी शक्तियों को नहीं भूल सकते। वे शक्तियां जिन्होंने हमें विश्व को धारण करने की क्षमता दी है।
बावजूद इसके हमें अपना ही अक्स देखने की कोशिशों को जारी रखना है ताकि हमें सिर्फ हमसे जाना जाये, किसी बैसाखी के मोहताज हम ना हों। चाहे वह बैसाखी किसी पुरुष की हो, संस्था की हो, या फिर समाज की। स्थितियों के अनुकूल स्वयं को ढालने की हमारी शक्ति को कमजोरी ना समझा जाये...बस ।
कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की 103वीं वर्षगांठ है, न्यूयॉर्क में काम के घंटे 'कम' किये जाने को लेकर चला ये अधिकारों को हासिल करने का सफ़र भारत में अभी मंज़िल से काफी दूर है ।
दुनिया की बात नहीं, अकेले हमारे देश में महिला उत्थान के नाम पर संगठनों का अंबार है , महिलायें ही उसकी कर्ताधर्ता हैं, पदाधिकारी हैं, सरकार से महिला कल्याण के नाम पर भारी धनराशि भी वसूल रही हैं, फिर भी स्थिति में वे कोई बदलाव नहीं कर पाईं। यदि बदलाव इन्हीं के प्रयासों से आता तो दिल्ली के कैंडल मार्च गांव गांव में निकल रहे होते।
इसके इतर जो बदलाव आये भी हैं ,वो समय के साथ चलकर अपनी इच्छाशक्ति से स्वयं महिलाओं ने ही बदले हैं। सामाजिक संस्थाओं के लेबल में इन महिला संगठनों ने यदि कुछ किया है तो बस इतना कि या तो औरत को रोने धोने की पुतली बना मीडिया के माध्यम से प्रचारित करवा कर कैश किया या फिर उसे अग्रेसिव मोड में लाकर खड़ा कर दिया जहां वह भ्रमित खड़ी है..वैचारिक और वैयक्तिक आजादी और प्रकृतिक गुणों के बीच टकराव के संग ।
मैं ये भी शिद्दत से मानती हूं कि औरत से जुड़ा कोई भी रिश्ता पुरुषों की सोच का मोहताज नहीं होता और पुरुष उसे संपत्ति मानने की भूल ना करे मगर इसके साथ ही हमें अपनी आजाद सोच को किन्हीं झंडाबरदारों का पिठ् ठू भी नहीं बनने देना है। आखिर कोई और क्यों ये तय करे कि हम हमारी क्षमताओं को उसके अनुसार प्रदर्शित करें।
इस महिला दिवस पर भी तमाम रटी-रटाई बातें कही जायेंगीं..कहने वालों का एक फिक्स अंदाज़ होगा..खिचड़ी और बेतरतीब बालों के संग माथे पर बेहद बड़ी सी बिंदी, ओर ना छोर वाली बातों से सजी स्क्रिप्ट के साथ, मीडिया पैनल्स में आंकड़ों के साथ पेश की जाने वाली औरतों की रोतलू सी तस्वीर...और ना जाने क्या क्या...।
देखते हैं कि इन रटे रटाये अंदाजों के बीच से, हमारा आइना हमारे अक्स का किस प्रकार चित्रण करता है और हम अपने आइने से कितनी दूरी बनाकर अपना अक्स स्पष्ट देख पाते हैं ताकि हम सिर्फ हम हों ..कठपुतली नहीं..इस तरह हम संतुष्ट भी होंगी और फिर हमें अपराजिता होने से भला कौन रोक पायेगा...रास्तें भी हमारे हैं और मंज़िलें भी.. ।
- अलकनंदा सिंह
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