आसमान में घिर आये बादलों को देखकर गदाधर कुछ ठिठक गया और उन बादलों की बनती-बिगड़ती छाया को देखने लगा जिन पर डूबते सूरज के लाल नारंगी रंग छा रहे थे । इतने में ही बगुलों का एक झुंड उड़ा और बादलों में समा गया, अभी गदाधर देख ही रहा था कि उन्हीं बादलों से वही बगुलों का झुंड काले बादलों को चीरता हुआ निकला तो जो दृश्य उभरा था वो बेहद अद्भुत था ...काले-काले बादल और उनमें से निकलता सफेद बगुलों का झुंड..जैसे किसी अंधेरी कोठरी से निकलता प्रकाश पुंज..किशोर गदाधर प्रकाश पुंज को देखकर विभोर हुआ और अद्भुत.. अद्भुत.. कहते हुये धरती पर गिर गया, गिरते ही बेहोश हो गया ।
जी हां, ये प्रकाशपुंज को देख बेहोश होने वाला किशोर गदाधर चट्टोपाध्याय...कोई और नहीं बल्कि 19वीं सदी के महान संत रामकृष्ण परमहंस स्वयं ही थे जो आज फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को जन्मे थे।
वही रामकृष्ण जो अपनी पत्नी को 'मां' बोलते थे और यूं नहीं कि बाद में कहने लगे हों। ये शुरुआत तब ही हो चुकी थी जब गदाधर अर्थात् रामकृष्ण मात्र चौदह वर्ष के थे, तब उनको वह पहली समाधि हुई जिसका मैंने शुरू में उल्लेख किया है। उस मस्ती और बेहोशी के बाद बमुशिकल से वे होश में लाए जा सके।
उनसे परिजनों ने पूछा, क्या हुआ?
उन्होंने कहा, अद्भुत हुआ, बड़ा आनंद आया। बार-बार ऐसा ही होना चाहिए। अब मुझे होश में रहने की.....जिसको तुम होश कहते हो......उसमें रहने की कोई इच्छा नहीं है। परिवारीजनों ने सोचा कि लड़का यूं भी साधु-संग करता है, सतसंग जाता है और आज ये बेहोशी की घटना। जल्दी से विवाह कर दिया जाये ताकि यह रास्ते पर आ जाये। इस मामले में जैसे ही रामकृष्ण से पूछा कि बेटा, विवाह करोगे?
राम कृष्ण ने कहा, करेंगे। घर के लोग थोड़े चौंके, उन्होंने सोचा था यह इंकार करेगा मगर हुआ इसका उल्टा।
पास में ही गांव में एक लड़की खोजी गई। रामकृष्ण को दिखाने ले गए। रामकृष्ण को जब लड़की मिठाई परोसने आई। रामकृष्ण ने देखा। शारदा उसका नाम था। जेब में मां ने जितने रूपए रख दिए थे, सब निकाल कर उसके पैरों पर चढ़ा दिए और कहा कि 'तू तो मेरी मां' है।
शादी हो गई पर लोगों ने कहा, तू पागल है रे, पहले तो शादी करने की इतनी जल्दी हां कर दी और अब पत्नी को मां कह रहा है मगर उसने कहा कि यह तो मेरी मां है, शादी होगी, मगर यह मेरी मां ही रहेगी।
शादी भी हो गई। शादी से इंकार भी नहीं, यह सचमुच अद्भुत था। नोट देखकर आंखें बंद करने वाले विनोबा जैसे नहीं थे रामकृष्ण। शादी से भी नहीं भागे और फिर पत्नी को जीवनभर मां ही माना। हर वर्ष जब बंगाल में काली की पूजा होती, तो वे काली की पूजा तो करते थे मगर जब काली की पूजा का दिन आता, उस दिन वे शारदा की पूजा करते थे। और यूं नहीं, शारदा को नग्न बैठा लेते थे सिंहासन पर। नग्न शारदा की पूजा करते थे और फिर चिल्लाते, रोते, नाचते, मां और मां की गुहार लगाते। शारदा पहले तो बहुत बेचैन होती थी कि किसी को पता न चल जाए कि यह पति क्या कर रहा है, कोई क्या कहेगा। मगर धीरे-धीरे शारदा के जीवन में भी रामकृष्ण ने क्रांति ला दी।
सर्वग्राह्य कर सर्व त्याज्य तक की यात्रा का नाम बने रामकृष्ण ने पत्नी को छोड़ा नहीं, उसके साथ रहकर भी वे कहते यही हैं, कामिनी-कंचन से मुक्त हो जाओ। पदार्थ में रहकर भी पदार्थ से मुक्ति..जल में रहकर भी प्यास से मुक्ति और ऐसे रहते हुए ही परमात्मा की प्राप्ति ..एकदम निर्विकल्प समाधि की अवस्था का ज्ञान व उसे अनुभव करने का विचार रामकृष्ण ने आने वाली पीढ़ी के लिए पोषित किया।
उन्होंने कामिनी-कंचन से मुक्ति नहीं, बल्कि उसके संग रह कर... कामिनी-कंचन को निरापद भी नहीं माना, कोई अवहेलना नहीं करते हुए परम तत्व में स्वयं को सशरीर घोल दिया और इस तरह परमहंस पद पाया। रामकृष्ण ने वही किया......अतिक्रमण किया आध्यात्म से भौतिक रूप का, मगर उन्हें इसे प्रगट रूप में बताने वाली भाषा का साफ-साफ ज्ञान-भेद नहीं था। वे बोलते रहे अपने पुराने ढंग में, पुरानी शैली में इसीलिए जनसाधारण उन्हें उनकी तरह से समझ नहीं पाया और उन्हें अपनी समझ से परे कर दिया। स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण के उस अव्यक्त परमतत्व को जाना और इस तरह रामकृष्ण परमहंस कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर से निकल शब्दरूप में लोगों के सामने लाये जा सके।
ईश्वरीय शक्ति के इसी अद्वैत भाव को उन्होंने इस्लाम और क्रिश्चिएनिटी का पूरा पूरा सम्मान करके व्यापक बनाया और इसी अद्वैत भाव से चला रामकृष्ण मिशन, जिसमें जनहित में कल्याणकारी कार्यों को पूरे देश में फैलाया गया।
मौजूदा समय में लाखों संतों की भीड़ होते हुए रामकृष्ण जैसा कौन है ? अधिकांशत: जो संत हैं भी वो तो अपने-अपने भय के भूतों का सिर्फ निवेदन कर रहे हैं। वे कामिनी और कंचन दोनों से डरे हुए हैं क्योंकि स्त्री में सुख की आशा मालूम पड़ती है और धन से वैभव दिखता है। वे डरे हुए हैं इसलिए अपने भय को भूत को भगाने के लिए दोनों को गालियां दे रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि यह पुराना ढर्रा बंद करके धर्म को नए सिरे से परिभाषित किया जाए ताकि रामकृष्ण की तरह रस में रहते हुये रसहीन होकर परम तत्व में विलीन हुआ जा सके। दुष्कर है मगर असंभव नहीं...मन को नियंत्रण करने में।
यजुर्वेद का एक शिवसंकल्प सूत्र है जो बेहद कामयाब रहा है -
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
- अलकनंदा सिंह
जी हां, ये प्रकाशपुंज को देख बेहोश होने वाला किशोर गदाधर चट्टोपाध्याय...कोई और नहीं बल्कि 19वीं सदी के महान संत रामकृष्ण परमहंस स्वयं ही थे जो आज फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को जन्मे थे।
वही रामकृष्ण जो अपनी पत्नी को 'मां' बोलते थे और यूं नहीं कि बाद में कहने लगे हों। ये शुरुआत तब ही हो चुकी थी जब गदाधर अर्थात् रामकृष्ण मात्र चौदह वर्ष के थे, तब उनको वह पहली समाधि हुई जिसका मैंने शुरू में उल्लेख किया है। उस मस्ती और बेहोशी के बाद बमुशिकल से वे होश में लाए जा सके।
उनसे परिजनों ने पूछा, क्या हुआ?
उन्होंने कहा, अद्भुत हुआ, बड़ा आनंद आया। बार-बार ऐसा ही होना चाहिए। अब मुझे होश में रहने की.....जिसको तुम होश कहते हो......उसमें रहने की कोई इच्छा नहीं है। परिवारीजनों ने सोचा कि लड़का यूं भी साधु-संग करता है, सतसंग जाता है और आज ये बेहोशी की घटना। जल्दी से विवाह कर दिया जाये ताकि यह रास्ते पर आ जाये। इस मामले में जैसे ही रामकृष्ण से पूछा कि बेटा, विवाह करोगे?
राम कृष्ण ने कहा, करेंगे। घर के लोग थोड़े चौंके, उन्होंने सोचा था यह इंकार करेगा मगर हुआ इसका उल्टा।
पास में ही गांव में एक लड़की खोजी गई। रामकृष्ण को दिखाने ले गए। रामकृष्ण को जब लड़की मिठाई परोसने आई। रामकृष्ण ने देखा। शारदा उसका नाम था। जेब में मां ने जितने रूपए रख दिए थे, सब निकाल कर उसके पैरों पर चढ़ा दिए और कहा कि 'तू तो मेरी मां' है।
शादी हो गई पर लोगों ने कहा, तू पागल है रे, पहले तो शादी करने की इतनी जल्दी हां कर दी और अब पत्नी को मां कह रहा है मगर उसने कहा कि यह तो मेरी मां है, शादी होगी, मगर यह मेरी मां ही रहेगी।
शादी भी हो गई। शादी से इंकार भी नहीं, यह सचमुच अद्भुत था। नोट देखकर आंखें बंद करने वाले विनोबा जैसे नहीं थे रामकृष्ण। शादी से भी नहीं भागे और फिर पत्नी को जीवनभर मां ही माना। हर वर्ष जब बंगाल में काली की पूजा होती, तो वे काली की पूजा तो करते थे मगर जब काली की पूजा का दिन आता, उस दिन वे शारदा की पूजा करते थे। और यूं नहीं, शारदा को नग्न बैठा लेते थे सिंहासन पर। नग्न शारदा की पूजा करते थे और फिर चिल्लाते, रोते, नाचते, मां और मां की गुहार लगाते। शारदा पहले तो बहुत बेचैन होती थी कि किसी को पता न चल जाए कि यह पति क्या कर रहा है, कोई क्या कहेगा। मगर धीरे-धीरे शारदा के जीवन में भी रामकृष्ण ने क्रांति ला दी।
सर्वग्राह्य कर सर्व त्याज्य तक की यात्रा का नाम बने रामकृष्ण ने पत्नी को छोड़ा नहीं, उसके साथ रहकर भी वे कहते यही हैं, कामिनी-कंचन से मुक्त हो जाओ। पदार्थ में रहकर भी पदार्थ से मुक्ति..जल में रहकर भी प्यास से मुक्ति और ऐसे रहते हुए ही परमात्मा की प्राप्ति ..एकदम निर्विकल्प समाधि की अवस्था का ज्ञान व उसे अनुभव करने का विचार रामकृष्ण ने आने वाली पीढ़ी के लिए पोषित किया।
उन्होंने कामिनी-कंचन से मुक्ति नहीं, बल्कि उसके संग रह कर... कामिनी-कंचन को निरापद भी नहीं माना, कोई अवहेलना नहीं करते हुए परम तत्व में स्वयं को सशरीर घोल दिया और इस तरह परमहंस पद पाया। रामकृष्ण ने वही किया......अतिक्रमण किया आध्यात्म से भौतिक रूप का, मगर उन्हें इसे प्रगट रूप में बताने वाली भाषा का साफ-साफ ज्ञान-भेद नहीं था। वे बोलते रहे अपने पुराने ढंग में, पुरानी शैली में इसीलिए जनसाधारण उन्हें उनकी तरह से समझ नहीं पाया और उन्हें अपनी समझ से परे कर दिया। स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण के उस अव्यक्त परमतत्व को जाना और इस तरह रामकृष्ण परमहंस कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर से निकल शब्दरूप में लोगों के सामने लाये जा सके।
ईश्वरीय शक्ति के इसी अद्वैत भाव को उन्होंने इस्लाम और क्रिश्चिएनिटी का पूरा पूरा सम्मान करके व्यापक बनाया और इसी अद्वैत भाव से चला रामकृष्ण मिशन, जिसमें जनहित में कल्याणकारी कार्यों को पूरे देश में फैलाया गया।
मौजूदा समय में लाखों संतों की भीड़ होते हुए रामकृष्ण जैसा कौन है ? अधिकांशत: जो संत हैं भी वो तो अपने-अपने भय के भूतों का सिर्फ निवेदन कर रहे हैं। वे कामिनी और कंचन दोनों से डरे हुए हैं क्योंकि स्त्री में सुख की आशा मालूम पड़ती है और धन से वैभव दिखता है। वे डरे हुए हैं इसलिए अपने भय को भूत को भगाने के लिए दोनों को गालियां दे रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि यह पुराना ढर्रा बंद करके धर्म को नए सिरे से परिभाषित किया जाए ताकि रामकृष्ण की तरह रस में रहते हुये रसहीन होकर परम तत्व में विलीन हुआ जा सके। दुष्कर है मगर असंभव नहीं...मन को नियंत्रण करने में।
यजुर्वेद का एक शिवसंकल्प सूत्र है जो बेहद कामयाब रहा है -
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
- अलकनंदा सिंह
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