गुरुवार, 26 जनवरी 2023

ब्रज में बसंत : कुछ इस तरह स्‍वागत करते हैं बसंत का सभी ब्रजवासी

 


 

सदा बसंत रहत वृंदावन पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट।।

जटित क्रीट मकराकृत कुंडल मुखारविंद भँवर मानौं लट।

ब्रज में यूं तो ऋतुओं की भरमार है किंतु एक ऋतु ऐसी है जो ब्रज में अपने उन्माद को लिए हुए नित्य विराजमान है और वह है वसंत ऋतु। वृंदावन के रसिक आचार्य ने तो यहां तक कहा है की ब्रज से वसंत कभी भी एक क्षण के लिए बाहर नही जाता अपितु वह तो सदा सर्वदा यही श्री राधा कृष्ण की सेवा में रत रहता है। बसंत पंचमी का उत्सव इसी के अंतर्गत मनाया जाता है।

ज्योतिष एवं आयुर्वेद के अनुसार चैत्र तथा वैशाख मास को वसंत ऋतु माना गया है। शल्य चिकित्सा के प्रवर्तक सुश्रुत ने तो वसंत के लिए कहा है कि “मधुमाधवौ वसन्तः” अर्थात मधु(चैत्र) और माधव(वैशाख) ही वसंत है। तैत्तिरीय संहिता में भी कहा गया है कि “मधुश्व माधवश्व वासन्तिकावृत” अर्थात् मधु और माधव मास ही वसन्त ऋतु। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ऋतुओं का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि “तस्य ते वसन्तः शिरः” अर्थात् वर्ष का सिर (शीर्ष) ही वसन्त ऋतु है। कालिदास ने वसंत ऋतु के वर्णन में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ऋतुसंहार में कहा है “सर्वप्रिये चारूतरं वसन्ते” अर्थात वसंत ऋतु में सब कुछ मनोहर ही मालूम पड़ता है। इसके साथ ही गीत गोविंद में श्री जयदेव गोस्वामी लिखते है “विहरति हरिरिह सरस वसंते” अर्थात वसंत के वियोग से सभी दिशाएं प्रसन्न हो रही है। किंतु वर्तमान लोकांचल यानी उत्तर एवं पूर्वी भारत में मुख्यतः वसंत का आगमन माघ शुक्ल पंचमी अर्थात वसंत पंचमी के दिन ही माना जाता है।

वसंत ऋतु के आगमन की बात करें तो माघ मास में भगवान भास्कर के मकर राशि में प्रवेश के उपरांत शीत ऋतु का प्रकोप कम होने लगता है। माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋतुराज वसंत का आगमन पृथ्वी पर एक उत्सव के रूप में होता है। बसंत के स्वागत में वसुधा अपने रूप को सँवार कर बसंत का स्वागत करती है। बसंत के आगमन पर संपूर्ण सृष्टि में मादकता सी छा जाती है साथ ही पेड़ों के नवीन पात, वन उपवन में फूलों से लदी डाली, आम के बौर, कोयल की कूक एवं सरसों के रूप में पीली चुनर ओढ़े धरती यह सब सूचना देती हैं कि बसंत अब आ चुका है।

ब्रज में यह उत्सव अत्यंत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जहां प्राय भारत में अन्य जगह इस उत्सव पर लोग पीले वस्त्र धारण कर वाग्देवी श्री सरस्वती मां का पूजन अर्चन करते है वही दूसरी और ब्रज में यह उत्सव कुछ अलग ही ढंग से मनाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन से ब्रज के सुप्रसिद्ध ४५ दिवसीय होलीकोत्सव का प्रारंभ हो जाता है। वसंत पंचमी को ब्रज में होली का प्रथम दिन माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ऋतुओं में स्वयं को वसंत ऋतु बताया है :-

बृहत्साम तथा साम्नांगायत्री छन्दसामहम।

मासानां मार्गशीर्षोहमृतूनां कुसमाकरः।।

गायी जानेवाली श्रुतियों में बृहत्साम हूँ, वैदिक छन्दों में गायत्री छन्द हूँ, बारह महीनों में मार्गशीर्ष हूँ तथा छः ऋतुओं में, मैं ही वसन्त हूँ।

ब्रज के गांवों, नगरों एवं मंदिरों में वसंत उत्सव मनाने की परंपरा अनवरत रूप से आज भी जारी है। बसंत पंचमी से ब्रज में बसंत उत्सव का श्रीगणेश हो जाता है। इस दिन ठाकुरजी नवीन पीले वस्त्र धारण करते है। मंदिरों की सजावट भी पीले साज, वस्त्रों एवं फूलों से की जाती है। यहां तक कि पुजारी भी पीले वस्त्र पहन कर ही मंदिरों में सेवा करने हेतु पधारते है। नए सरसों के फूल ठाकुरजी को वसंत आगमन के उपलक्ष्य में निवेदित किए जाते है। साथ ही साथ कई जगह तो विशेष पीले रंग के भोग निवेदित किए जाते है। अपने इष्ट के मनमोहक स्वरूप को देखकर बृजवासी प्रेम के वशीभूत होकर सहज ही गा उठते हैं-
“श्यामा श्याम बसंती सलोनी सूरत को श्रंगार बसंती है”

श्री राधा कृष्ण की जो छटा है वह भी वसंती है (नित्य नवीन) तथा उनका श्रृंगार भी वसंती है।

बसंत पंचमी के दिन होली का डांढ़ा (खूंटा) गढ़ जाता है। होली का डांढ़ा वास्तव में वह खम्बा होता है जिसके ऊपर होलिका दहन हेतु लकड़ियाँ लगाई जाती है। आज से ही वृंदावन में होली का प्रारंभ भी हो जाता है। सभी देवालयों में होलिकाष्टक( होली से आठ दिन पहले) तक राजभोग पर यानि दोपहर समय अबीर गुलाल उड़ाया जाता है। विश्वविख्यात ठाकुर बांके बिहारी मंदिर में प्रसाद स्वरूप अबीर -गुलाल भक्तों और दर्शनार्थियों के ऊपर बहुत ही अधिक मात्रा में उड़ाया जाता है।

इसी के साथ वृंदावन में स्थित शाह बिहारी मंदिर में बसंत पंचमी के दिन बसंती कमरा 3 दिनों के लिए खुलता है। रंग- बिरंगी रोशनी से सराबोर बसंती कमरे में विराजमान ठाकुर राधा रमण लाल की अलौकिक छटा होती है। यह कमरा वर्ष में बहुत ही कम दिनों के लिए खुलता है। इस कमरे में बेल्जियन कांच के बने झाड़ फ़ानूस लगे हुए है जिससे इसकी शोभा और बढ़ जाती है। होली का छेता निकलने के साथ ही वृंदावन के प्रमुख मंदिर श्री राधावल्लभ मंदिर, श्री राधारमण मंदिर, श्री राजबिहारी कुंज बिहारी मंदिर, श्री राधा दमोदर मंदिर आदि अन्य मंदिरों में भी बसंत उत्सव का प्रारंभ हो जाता है।

कुहू कुहू कोकिला सुनाई। सुनि सुनि नारि परम हरषाई।।
बार बार सो हरिहि सुनावति। ऋतु बसंत आयौ समुझावति।।
फाग-चरित-रस साध हमारै। खेलहिं सब मिलि संग तुम्हारै।।
सुनि सुनि ‘सूर’ स्याम मुसुकाने। ऋतु बसंत आयौ हरषाने।।

कोयल की कुहू कुहू सुनकर सभी सखियाँ हर्ष से फूली नहीं समा रही है और वह श्री कृष्ण को नित्य विहार हेतु यह कह कर मना रही है कि सुनो प्रिय वसंत ऋतु का आगमन हो चूका है। अतः अंत में सखियों के मनाने से श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्काने लग जाते है और सखियों के संग वसंत उत्सव मानने चले जाते है।

 वृंदावन के मंदिरों में बसंत की समाज भी अद्भुत होती है। वाणी साहित्य में श्यामा- श्याम के बसंत खेल का वर्णन प्रचुर मात्रा में किया गया है। इन पदों का गायन ठाकुर जी के समक्ष पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ किया जाता है। ब्रज में बसंत गायन की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। रसिक उपासना का केंद्र रहे वृंदावन में बसंत लीला को निकुंज लीला से जोड़कर भी देखा जाता है। हरित्रयी के नाम से विख्यात रसिक संत स्वामी श्री हरिदास जी, श्री हरिराम व्यास जी एवं श्री हित हरिवंश जी ने अपने रचित पदों में बसंत का भरपूर गान किया है। वृंदावन की मंदिर परंपरा में आज भी बसंत के इन पदों का गान किया जाता है। ब्रज में बसन्त पूजन की परंपरा अत्यंत प्राचीन है।

बसंत पंचमी पूजन विधि
महावाणी’ नामक ग्रंथ में बसंत पूजन विधि का विशद वर्णन किया गया है जिसे गोलोक वृन्दावन (नित्य वृन्दावन जहां केवल राधा कृष्ण एवं सखियाँ होती है) में सखियाँ मिल कर सम्पादित करती है। इसमें मुख्य रूप से सखियों द्वारा पुष्प समर्पण और संगीत द्वारा सेवा निवेदित कर श्री राधा कृष्ण की वसंत सेवा को बड़ी ही सुंदरता के साथ बताया गया है। चूंकि भौम वृंदावन उस गोलोक वृंदावन का ही प्रतिबिंब है इसलिए ठीक उसी प्रकार वृंदावन एवं ब्रज में वसंत पंचमी पर उत्सव आदि किए जाते है। हरिभक्तिविलास के अनुसार वसंत पंचमी पर मंदिरों में नव पत्र, पुष्प एवं अनुलेपन द्वारा मंदिरों में पूजा संपादित की जाती है। श्री राधा कृष्ण की वसंत के नए पीले सरसों के फूल चढ़ाए जाते है। इसके साथ ही संगीत सेवा जो कि वृंदावन की सेवा परिपाटी का अभिन्न अंग है वो भी वसंत पंचमी पर विशेष महत्व रखती है। वसंत राग का प्रारंभ इसी दिन से शुरू हो जाता है व समाज गायन ने वसंत राग से भरे पदावलियों का गायन किया जाता है।

और राग सब बने बराती दुल्हो राग बसंत,

मदन महोत्सव आज सखी री विदा भयो हेमंत।

रसिक शिरोमणि स्वामी हरिदास वृंदावन की रस निकुंज में जहाँ कुंजबिहारी अपना वसंतोत्सव मना रहे हैं, इस दिव्य रस उत्सव का दर्शन कराते हुए गान करते हैं-

कुंजबिहारी कौ बसन्त सखि, चलहु न देखन जाँहि।

नव-बन नव निकुंज नव पल्लव नव जुबतिन मिलि माँहि।

बंसी सरस मधुर धुनि सुनियत फूली अंग न माँहि।

सुनि हरिदास” प्रेम सों प्रेमहि छिरकत छैल छुवाँहि।।

सखी कह रही है की चलो नव पल्लवों से युक्त वसंत से ओत प्रोत उस कुञ्ज की ओर चले जहां श्याम वंसी बजा रहे है। उस कुञ्ज में सभी आनंद से फुले हुए है और प्रेम रूपी अबीर ही सब पर डाला जा रहा है।

भारतेंदु बाबू द्वारा रचित ‘मधु मुकुल’ की पंक्तियां वृंदावन के बसंत का वर्णन कुछ इस प्रकार करती हैं-

एहि विधि खेल होत नित ही नित, वृन्दावन छवि छायो।

सदा बसन्त रहत जँह हाजिर,कुसुमित फलित सुहायो।।

वृन्दावन की दिव्य लीलास्थली पर नित प्रति वसंत का खेल होता ही रहता है। यहां वसंत सदा सर्वदा पुष्पित पल्लवित होकर विराजमान है।

वृंदावन और बसंत का संबंध अभिन्न है। इस संबंध के विषय में जितना कहा जाए उतना ही कम प्रतीत होता है। श्रीकृष्ण का पूरा जीवन हर्ष का प्रतीक है ,उल्लास का प्रतीक है, नवीनता का प्रतीक है और ऐसे में वसंत से सुन्दर और कौन सी ऋतु होगी जिसमे स्वयं भगवान प्रफुल्लित न हो। इस ऋतु के आगमन से चहुँ और वनस्पति की छटा पुनः हरी भरी होनी शुरू हो जाती है। सर्दी के आलस्य को त्याग प्रकर्ति दोबारा पुष्पित पल्लवित नव कलेवर में जाने को तत्पर रहती है। वातावरण में एक विचित्र ऊर्जा विद्यमान रहती है तथा सरसो से लहलहाते हुए खेत मानव ह्रदय को एक अलग ही भाव से भर देते है। वास्तव में वसंत और कुछ नहीं भगवान कृष्ण द्वारा दिया हुआ समस्त मानव जाति को एक छुपा हुआ सन्देश है जिसमे वह आवाहन कर रहे है कि हम सब अपने जीवन के उल्लास को सभी व्याधि और कष्टों से हटकर पुनः जीवित करे ताकि आनंद सदा सर्वदा बना रहे। क्योंकि जब तक आनंद है तब तक रस है और जब तक रस है केवल तब तक ही नवीनता है क्योंकि रस का आनंद तभी तक है जब तक वो नवीन रहता है अर्थात ताज़ा रहता है जैसे ही वह बासी हुआ वैसे ही अधोगति प्रारम्भ। अपने जीवन को सदा वृन्दावन बनाये ताकि नवीनता सदा बनी रहे और स्वयं रसमूर्ति श्रीकृष्ण आपके ह्रदय रूपी रसशाला में विहार करते रहे।

नवल वसंत, नवल वृंदावन, नवल ही फूले फूल,
नवल ही कान्हा, नवल सब गोपी, नृत्यत एक ही तूल।
नवल ही साख, जवाह, कुमकुमा, नवल ही वसन अमूल,
नवल ही छींट बनी केसर की, भेंटत मनमथ शूल।
नवल गुलाल उड़े रंग बांका, नवल पवन के झूल,
नवल ही बाजे बाजैं, “श्री भट” कालिंदी के कूल।
नव किशोर, नव नगरी, नव सब सोंज अरू साज,
नव वृंदावन, नव कुसुम, नव वसंत ऋतुराज ।

शनिवार, 21 जनवरी 2023

ध्रुव तारा के बारे में वो सबकुछ, जो आप जानना चाहते हैं

 ध्रुव तारा उत्तर ध्रुव से सीधे आकाश की ओर प्रक्षेपित काल्पनिक सीधी रेखा पर या उसके आसपास स्थित सबसे चमकीले तारे को कहते हैं।

ध्रुव तारा की विशेषता यह है कि पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध पर स्थित किसी भी एक जगह से यह रात्रि आकाश में हमेशा एक ही जगह दिखाई देता है अर्थात स्थिर रहता है - जिससे उत्तर दिशा जानने में उत्तरी गोलार्ध में मदद मिलती है और हजारों सालों से नाविक और यात्री इस बात का फायदा उठाते रहे हैं।

प्रेक्षक का latitude (अक्षांश) पता चलता है


 जो सबसे अहम बात है वह यह है कि ध्रुव तारे का स्थान रात्रि आकाश में कमोबेश एक ही रहता है लेकिन ध्रुव तारे समय के साथ बदल जाते हैं। ऐसा 2-4 हजार सालों के उपरांत होता है।

वर्तमान में, लघु सप्त ऋषि (Ursa Minor) तारा समूह के polaris (पोलैरिस) तारा को ध्रुव तारा के नाम से जाना जाता है लेकिन यह हमेशा से ध्रुव तारा नहीं रहा है

जैसे, कॉमन्स एरा 1 AD (2200 वर्ष पूर्व) की शुरुआत में kochab (कोकब) ध्रुव तारा था। उससे भी 3000 वर्ष पूर्व यानी कलियुग की शुरुआत में Thuban (थुबन) ध्रुव तारा था। 1800 वर्षों के उपरांत वर्तमान ध्रुव तारा Polaris की जगह Errai ध्रुव तारा हो जाएगा।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पृथ्वी का अक्ष 23.5° झुका हुआ है और सूर्य व चंद्रमा के सम्मिलित गुरुत्वाकर्षण प्रभाव से (equator पर उभरे व ध्रुवों पर पिचके होने के कारण) पृथ्वी ध्रुवीय अक्ष पर नाचती (wobble करती) है। इसीलिए जब पृथ्वी घूमती है तो दोनों ध्रुवों को मिलाने वाली सीधी रेखा भी इसी कोण से घूमती है और हकीकत में पृथ्वी का घूर्णन एक लट्टू के जैसा होता है अर्थात पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव भी लट्टू के जैसा घूमता रहता है।

 चित्र में Polaris वर्तमान ध्रुव तारा है

पृथ्वी के precession (लट्टुनुमा घूर्णन) के कारण आकाश में ध्रुव तारों का बदलाव पथ। 

इस precessional path पर एक संपूर्ण चक्कर की अवधि 25,772 वर्ष (लगभग 25,800 या 26,000 वर्ष ) है। ध्रुवीय पथ के तारे आसमान में लगभग स्थिर रहते हैं, लेकिन पृथ्वी के उत्तर ध्रुव से निकल कर आकाश से मिलने वाली रेखा बदलती रहती है और बदलते रहते हैं ध्रुव तारे भी।

चित्र में मात्र 4 ध्रुव तारे दिखाए गए हैं लेकिन हकीकत में यह 8 हैं जिनका क्रमवार विवरण निम्न है। 
Forbes के अनुसार- 

Polaris ( 300 AD - 4000 AD)
Errai ( 4 - 8 हज़ार AD)
Aldermin (8000 -10000 AD)
Deneb (10000 - 14000 AD)
Vega ( 14000 -18,000 AD)
Hercules ( 4000 - 8000 BC) अंतिम ग्लेशियल (glacial) काल की समाप्ति और समस्त विश्व में तापमान वृद्धि के कारण पाषाणकालीन युग का आरम्भ
Thuban (1700 BC - 4000 BC) पिरामिड काल , सिंधु घाटी सभ्यता, मेसोपोटामिया की सभ्यता सहित विश्व की समस्त प्राचीनतम सभ्यताओं का काल, द्वापर के अंतिम हज़ार वर्ष और कलियुग की शुरुआत
Kochab (1700 BC - 300 AD) वैदिक काल की समाप्ति से लेकर पौराणिक काल के आरंभ तक।

ध्रुव तारा के बारे में दो खास बातें

ध्रुव तारा उत्तरी गोलार्ध में ना केवल उत्तर दिशा दिखाता है बल्कि
अक्षांश भी बताता है आप जहां से भी ध्रुव तारा को देखें ध्रुव तारा आसमान में उतनी डिग्री ही ऊँचा दिखेगा जितनी डिग्री आपका अक्षांश है।
अर्थात, उत्तरी ध्रुव पर यह सीधा ऊँचा दिखेगा और इक्वेटर पर एकदम जमीन/सागर/क्षितिज को छूता हुआ।

ध्रुव तारे के बारे में प्रचलित कुछ आम किंवदंतियाँ जो गलत हैं।

1. आसमान का सबसे चमकीला तारा ध्रुव तारा है।

   गलत।

  तथ्य: डॉग स्टार या Sirius आसमान का सबसे चमकीला तारा है ।
  ध्रुव तारा आसमान का 48 वां चमकीला तारा है।

2. ध्रुव तारा बिल्कुल सही (accurately) उत्तर दिशा बताता है।

गलत ।

तथ्य:

ध्रुव तारा लगभग उत्तर दिशा को बताता है पर बिल्कुल accurately नहीं।

अभी भी ध्रुव तारा बिल्कुल (खगोलीय) उत्तरी ध्रुव पर नहीं है, बल्कि 45' हट कर है ।
। आज से 2000 वर्ष पूर्व polaris जब ध्रुव तारा नहीं था तब यह उत्तरी ध्रुव से 12° दूर था । सन 1000 में ध्रुव तारा के रूप में स्थापित होने के बावजूद यह (खगोलीय) उत्तरी ध्रुव से लगभग 6° दूर था (स्रोत stellarium app ) । यह उत्तरी ध्रुव के ठीक ऊपर कभी भी नहीं होगा और जब यह उत्तरी ध्रुव के नजदीक तम होगा तब भी यह न्यूनतम 27' 09" से अलग रहेगा।

ध्रुव तारा के बारे में कुछ कम ज्ञात तथ्य

दक्षिणी गोलार्ध में ध्रुव तारा दिखाई नहीं देता है; अर्थात ऑस्ट्रेलिया, न्यूजलैंड, अर्जेंटीना चिले और उरुग्वे आदि से कोई भी व्यक्ति ध्रुव तारा नहीं देख सकता है।
ध्रुव तारा की चमक स्थिर नहीं रहती है, बल्कि हर चौथे दिन यह चमक का एक चक्र पूरा करता है यानी सबसे कम चमक (2.13) से लेकर सबसे ज्यादा चमक (1.86) जो कि पहले 10% का अंतर था और अब 4%। वैज्ञानिक इसका सही-सही कारण अभी भी नहीं जानते हैं।[15]
वर्तमान ध्रुव तारा एकल तारा (Single Star) नहीं है बल्कि 3 तारों का समूह है।

 
विभिन्न संस्कृति और ध्रुव तारा
स्वयंभू मनु के पुत्र उत्तानपाद की प्रथम पत्नी सुनीति से उत्पन्न पुत्र ध्रुव से राजा उत्तानपाद का इतना लगाव नहीं था और उनकी गोद में बैठने पर उसे दूसरी पत्नी सुरुचि के तानों का सामना करना पड़ा। उसके पश्चात सप्त ऋषियों से परामर्श कर ध्रुव ने मथुरा स्थित मधुबन में घनघोर तपस्या की जिसके उपरांत विष्णु भगवान ने प्रकट होकर समस्त देवताओं और तारों से भी ऊपर ध्रुव को आसमान में सबसे ऊंचा स्थान प्रदान किया जिसे आज हम ध्रुव तारा के नाम से जानते हैं और समस्त रात्रि आकाश इसी के इर्द-गिर्द घूमता हुआ नजर आता है (संदर्भ विष्णु पुराण अध्याय 11 - 12)

( उपरोक्त अनुसार विष्णु पुराण की रचना विधि 300 AD के बाद संभवत पांचवीं- छठी शताब्दी होगी।)

साथ ही सप्त ऋषि तारामंडल 23 घंटे 56 मिनट में ध्रुव तारा का एक चक्कर पूरा कर लेता है, जो कि पृथ्वी की अपने धुरी पर एक चक्कर लगाने की सटीक (Exact)अवधि है।

अरबी दंत कथाओं में इसे एक बुरा तारा माना गया है जिसने आसमान के महान योद्धा को मारकर सप्त ऋषि तारामंडल में दफन कर दिया।

नार्थ चंद कथाओं में इसे देवताओं द्वारा फेंका गया एक पाइप माना गया है जिसके चारों ओर विश्व घूमता है।

मंगोल दंत कथाओं में इसे वह कील माना गया है जो समूचे विश्व को जोड़ता है।

पृथ्वी के precessional circle पर 8 ध्रुव तारों का चित्र- 26,000 वर्षों का चक्र




ध्रुव तारा माने जाने के कुछ सर्व सम्मत आधार

यह पृथ्वी के precessional circle पर तत्कालीन celestial उत्तरी ध्रुव के निकट हो - लगभग 7° तक
यह नंगी आँखों से (बिना टेलिस्कोप) के आसानी से दिखाई दे अर्थात चमक 4 से ज्यादा। हालांकि नंगी आँखों से + 6.5 चमक वाले तारे को देखा जा सकता है। लेकिन आसानी से दिखने हेतु और चमकदार यथा + 4 चमक जरूरी माना जाता है। सूर्य की चमक - 27 , पूर्णिमा के चाँद की चमक -12.7 और vega की चमक 0 मानी जाती है। अर्थात मान बढ़ने से चमक घटती है।

- Alaknanda Singh