तज़ाकिस्तान से तुर्की तक प्रसिद्ध सूफी संत जलालुद्दीन रूमी की एक कहानी बड़ी प्रसिद्ध है -
एक दिन प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पहुंच कर द्वार जोर जोर से खटखटाने लगा,बोला- ''दरवाजा खोलो''. बड़ी देर बाद भीतर से आवाज़ आई – "कौन है?" उसने कहा – "यह मैं हूँ!"
द्वार के भीतर से आवाज़ आई – "इस घर में मैं और तुम एक साथ नहीं रह सकते".
द्वार नहीं खुला. प्रेमी बियाबान में ठोकर खाता रहा. वह अपनी सुध-बुध खोकर हर घड़ी इसी प्रार्थना में डूबा रहता कि द्वार किसी तरह खुल जाए. कुछ साल बाद वह लौटा और उसने द्वार को फिर से खटखटाया.
द्वार के पीछे से किसी ने फिर से पूछा – "कौन है?"
प्रेमी ने कहा – "तुम". और बस द्वार खुल गया.
सूफी संतों की एक लंबी कतार में खड़े रूमी ऐसे उपासकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो भारत में भी अपनी छाप अभी तक बनाये रखे हैं । इसका एकमात्र कारण हैं कृष्ण और कृष्ण का बहुआयामी व्यक्तित्व । संभवत: इसीलिए भारत के सभी सूफी संतों को कृष्ण की भक्ति रास आई । एकमात्र पूर्ण पुरुष कहलाये गये कृष्ण स्वयं को भी उपासक ही कहते रहे क्योंकि ईश्वर को पाने और स्वयं ईश्वर होने, दोनों ही अवस्था में स्व को स्व से ही दूर करने का नहीं बल्कि स्व को स्व में विलीन करने प्रयोग हुआ । इसीलिए कृष्ण हमारे जीवन में रमते हुये दिखाई देते हैं ।
सहजता से जो स्वयं को पिघला दे , वह ही संत हो जाता है । सूफी संत कभी साधक नहीं बन पाये ,वे उपासक ही रहे । कृष्ण के व्यक्तित्व में भी साधना जैसा कुछ नहीं है क्योंकि साधना में जो मौलिक तत्व है, वह प्रयास है, effort है, बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती । दूसरा जरूरी तत्व है- वह है अहंकार, बिना 'मैं ' के साधना नहीं हो सकती। करेगा कौन? बिना कर्ता के साधना नहीं हो सकती... कैसे होगी...कोई तो करेगा...तभी तो साधना होगी ना...। साधना में 'मैं ' की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है। साधना शब्द ही बहुत गहरे में अनीश्वरवादियों का है जिनके लिए कोई परमात्मा नहीं ,बस आत्मा ही है जिसे पाने की जद्दोजहद में वे लगे रहते हैं।
इसके ठीक उलट उपासना शब्द उनका है जो कहते हैं आत्मा नहीं, बस परमात्मा है...परमात्मा ही है...उसके पास जाना है । उपासना का अर्थ है- पास जाना, बैठ जाना, उप-आसन, निकट होते जाना ...लगातार। इतने निकट कि खुद मिटते जायें जबतक...कोई अर्थ नहीं जब रह जाये...तब तक...। क्योंकि हमारा डिस्टेंस ही हमारे 'होने' को बताता है और जब तक 'होने' की स्थिति मौजूद है , तब तक ईगो है।
यह तो निश्चित है कि जितने हम खोते हैं, पिघलते हैं , विगलित होते हैं , बहते हैं, उतने ही हम पास होते हैं । जिसदिन हम बिल्कुल नहीं रह जाते ...उस दिन उपासना पूरी हो जाती है। जैसे कि बर्फ से पानी बनता जा रहा हो...। जबकि साधना स्वयं बर्फ है जो बढ़ती बढ़ती क्रिस्टलाइज़्ड तो होती है मगर वह बह नहीं पाती। साधना का अर्थ अंतत: आत्मा बन जाना है और उपासना का अर्थ है परमात्मा बन जाना। जाहिर जो लोग साधना से जायेंगे ,उनकी मंजि़ल आत्मा पर रुक जायेगी। वे आगे की बात नहीं करेंगे, वे कहेंगे कि हमने अपने को पा लिया जबकि उपासक अंतत: अपने को खोने के लिए चला है। कृष्ण के लिए साधना का इसीलिए कोई अर्थ नहीं रहा , कोई तत्व नहीं ...। साधना से तो कठोर होता जायेगा और कृष्ण के जीवन व दर्शन दोनों में कठोरता का क्या काम...?अर्थ है तो बस उपासना का...जहां कोई 'रूमी' मौजूद तो रहता है मगर उसका 'मैं ' नहीं रह पाता । ' To be' is the only bondage...होना ही एकमात्र बंधन है और ना होना ही एकमात्र मुक्ति ।
रूमी,निजामुद्दीन, मोइनुद्दीन की ये सूफी श्रृंखला के संग कबीर , मीरा, रैदास की भक्ति किसी का भी उदाहरण लें, सभी में उपासना ही वो साधन था जिसके लिए बस खुद को मिटाकर सबकुछ मिल जाने की स्थिति बनी। संभवत: इसीलिए आज भी सूफियों और भक्त कवियों की आमजन से निकटता अधिक रही और इसीलिए कृष्ण भी आमजन को ईश्वर की बजाय सखा अधिक लगे । उनका ये सखाभाव ही सरलता से ईश्वर के करीब होने का मार्ग दिखा भी देता है और 'मैं ' को मिटा भी देता है...कब और कैसे... कृष्ण से हम एकात्म हो जाते हैं...पता ही नहीं चलता । दरवाजा खोलने के लिए हमें आवाज के प्रत्युत्तर में बस 'तुम' कहने तक ले जाना है ।
- अलकनंदा सिंह
एक दिन प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पहुंच कर द्वार जोर जोर से खटखटाने लगा,बोला- ''दरवाजा खोलो''. बड़ी देर बाद भीतर से आवाज़ आई – "कौन है?" उसने कहा – "यह मैं हूँ!"
द्वार के भीतर से आवाज़ आई – "इस घर में मैं और तुम एक साथ नहीं रह सकते".
द्वार नहीं खुला. प्रेमी बियाबान में ठोकर खाता रहा. वह अपनी सुध-बुध खोकर हर घड़ी इसी प्रार्थना में डूबा रहता कि द्वार किसी तरह खुल जाए. कुछ साल बाद वह लौटा और उसने द्वार को फिर से खटखटाया.
द्वार के पीछे से किसी ने फिर से पूछा – "कौन है?"
प्रेमी ने कहा – "तुम". और बस द्वार खुल गया.
सूफी संतों की एक लंबी कतार में खड़े रूमी ऐसे उपासकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो भारत में भी अपनी छाप अभी तक बनाये रखे हैं । इसका एकमात्र कारण हैं कृष्ण और कृष्ण का बहुआयामी व्यक्तित्व । संभवत: इसीलिए भारत के सभी सूफी संतों को कृष्ण की भक्ति रास आई । एकमात्र पूर्ण पुरुष कहलाये गये कृष्ण स्वयं को भी उपासक ही कहते रहे क्योंकि ईश्वर को पाने और स्वयं ईश्वर होने, दोनों ही अवस्था में स्व को स्व से ही दूर करने का नहीं बल्कि स्व को स्व में विलीन करने प्रयोग हुआ । इसीलिए कृष्ण हमारे जीवन में रमते हुये दिखाई देते हैं ।
सहजता से जो स्वयं को पिघला दे , वह ही संत हो जाता है । सूफी संत कभी साधक नहीं बन पाये ,वे उपासक ही रहे । कृष्ण के व्यक्तित्व में भी साधना जैसा कुछ नहीं है क्योंकि साधना में जो मौलिक तत्व है, वह प्रयास है, effort है, बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती । दूसरा जरूरी तत्व है- वह है अहंकार, बिना 'मैं ' के साधना नहीं हो सकती। करेगा कौन? बिना कर्ता के साधना नहीं हो सकती... कैसे होगी...कोई तो करेगा...तभी तो साधना होगी ना...। साधना में 'मैं ' की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है। साधना शब्द ही बहुत गहरे में अनीश्वरवादियों का है जिनके लिए कोई परमात्मा नहीं ,बस आत्मा ही है जिसे पाने की जद्दोजहद में वे लगे रहते हैं।
इसके ठीक उलट उपासना शब्द उनका है जो कहते हैं आत्मा नहीं, बस परमात्मा है...परमात्मा ही है...उसके पास जाना है । उपासना का अर्थ है- पास जाना, बैठ जाना, उप-आसन, निकट होते जाना ...लगातार। इतने निकट कि खुद मिटते जायें जबतक...कोई अर्थ नहीं जब रह जाये...तब तक...। क्योंकि हमारा डिस्टेंस ही हमारे 'होने' को बताता है और जब तक 'होने' की स्थिति मौजूद है , तब तक ईगो है।
यह तो निश्चित है कि जितने हम खोते हैं, पिघलते हैं , विगलित होते हैं , बहते हैं, उतने ही हम पास होते हैं । जिसदिन हम बिल्कुल नहीं रह जाते ...उस दिन उपासना पूरी हो जाती है। जैसे कि बर्फ से पानी बनता जा रहा हो...। जबकि साधना स्वयं बर्फ है जो बढ़ती बढ़ती क्रिस्टलाइज़्ड तो होती है मगर वह बह नहीं पाती। साधना का अर्थ अंतत: आत्मा बन जाना है और उपासना का अर्थ है परमात्मा बन जाना। जाहिर जो लोग साधना से जायेंगे ,उनकी मंजि़ल आत्मा पर रुक जायेगी। वे आगे की बात नहीं करेंगे, वे कहेंगे कि हमने अपने को पा लिया जबकि उपासक अंतत: अपने को खोने के लिए चला है। कृष्ण के लिए साधना का इसीलिए कोई अर्थ नहीं रहा , कोई तत्व नहीं ...। साधना से तो कठोर होता जायेगा और कृष्ण के जीवन व दर्शन दोनों में कठोरता का क्या काम...?अर्थ है तो बस उपासना का...जहां कोई 'रूमी' मौजूद तो रहता है मगर उसका 'मैं ' नहीं रह पाता । ' To be' is the only bondage...होना ही एकमात्र बंधन है और ना होना ही एकमात्र मुक्ति ।
रूमी,निजामुद्दीन, मोइनुद्दीन की ये सूफी श्रृंखला के संग कबीर , मीरा, रैदास की भक्ति किसी का भी उदाहरण लें, सभी में उपासना ही वो साधन था जिसके लिए बस खुद को मिटाकर सबकुछ मिल जाने की स्थिति बनी। संभवत: इसीलिए आज भी सूफियों और भक्त कवियों की आमजन से निकटता अधिक रही और इसीलिए कृष्ण भी आमजन को ईश्वर की बजाय सखा अधिक लगे । उनका ये सखाभाव ही सरलता से ईश्वर के करीब होने का मार्ग दिखा भी देता है और 'मैं ' को मिटा भी देता है...कब और कैसे... कृष्ण से हम एकात्म हो जाते हैं...पता ही नहीं चलता । दरवाजा खोलने के लिए हमें आवाज के प्रत्युत्तर में बस 'तुम' कहने तक ले जाना है ।
- अलकनंदा सिंह
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