बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

वजूद बचाने की जद्दोजहद में 'खाप'

लीजिए, एक और बहस का प्‍लेटफॉर्म तैयार हो गया...कल फिर से खाप चर्चा में आ गई, मसौदा था... क्‍या सगोत्री से शादी किये जाने पर परिणाम घातक होते हैं ?
'किन्नर तब पैदा होते हैं जब एक ही गोत्र के लोग आपस में शादी करते हैं' जी हां, हैरान करने वाला ये बयान दिया है खाप पंचायतों के कुछ नेताओं ने । बयान उस वक्त आया है जब वैज्ञानिक उन्हें यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि गोत्र और खून का रिश्ता दो अलग-अलग चीजें हैं । गोत्र के सभी सदस्य आपस में भाई-बहन नहीं हो सकते । हरियाणा में महिला बाल विकास मंत्रालय की ओर से किये जा रहे जागरूकता वाले इन प्रयासों से खाप ख़फा हैं।
हरियाणा हो या पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश, दोनों ही क्षेत्र  की जाट बाहुल्‍य खाप पहले भी अपने समाज सुधारक निर्णयों को लेकर कम, अपने अड़ियल रुख के कारण ज्‍यादा चर्चा में रही हैं। ऐसे में उनके द्वारा किसी भी ऐसे फैसले को हास्‍यास्‍पद ही कहा जायेगा जो कि कानून, विज्ञान, आध्‍यात्‍म और समाज के सभी स्‍तरों पर सिर्फ और सिर्फ प्रताड़ना का पर्याय बन गया है।
समाज को एक नियत कानून और मर्यादाओं में बांधने के लिए ..एक निश्‍चिंत जीवन जीने के लिए.. कभी जिन अलंबरदारों (खापों) के हाथों समाज सुधार की बागडोर सौंपी गई, समय के साथ उसमें क्षरण होता गया और आज हालात ये हैं कि अपने निर्णयों और स्‍थापित कथित सुधारवादी नियमों  की आड़ में यही खाप वीभत्‍सता को जायज़ ठहराती रही हैं।
नई पीढ़ी पर रौब गालिब करने को और अपने अस्‍तित्‍व को बचाये रखने की मजबूरी के तहत अब इन खापों ने अपनी सोच को विज्ञान की तमाम दलीलों के संग भी जायज ठहराना शुरू कर दिया है । वह भी तब जबकि नई पीढ़ी जेनेटिक्‍स को विभिन्‍न सामाजिक सरोकारों के साथ जोड़कर अपनी वैज्ञानिक विचारधारा को आगे बढ़ा रही है। वह यह अच्‍छी तरह जान रही है कि किन्‍नरों की पैदाइश को सगोत्री शादियों से जोड़कर दुष्‍प्रचार किया जा रहा है, वह भी बिना किसी ऑथेंटिक रिसर्च के।
जेनेटिकली एजूकेटेड पीढ़ी  यह जानने के लिए प्रयासरत व शोधरत भी है कि क्‍या सिर्फ कीन मैरिजेज  यानि क्लोज रिलेशन्स या सगोत्री  शादी से पैदा होने वाले बच्चों में ही ''डॉरमेंट ट्रेट्स'' का खतरा रहता है । क्‍या पेरेंट्स के वो ''रिसेसिव जीन्स'' भी ऐक्टिव होने की संभावना इन्‍हीं बच्‍चों में ज्‍यादा होती है क्‍योंकि जेनेटिकली पेरेंट्स के रेसेसिव जीन्‍स कई ''डॉरमेंट ट्रेट्स'' के  लिए उत्‍तरदायी माने गये हैं । क्‍या ऐसे में खराब या इफेक्टेड कैरक्टर्स के उभरने के चांस भी ज्यादा रहते हैं, जिससे बच्चों में बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है।
बेशक सगोत्री शादी या कीन मैरिजेज में इसका रिस्क फैक्टर बढ़ जाता है लेकिन   1000 में से किसी एक कैरक्टर के खराब होने के ही चांसेस रहते हैं। हालांकि ऐसा ब्लड रिलेशंस में ही देखा गया है मगर जहां ब्‍लड रिलेशंस नहीं हैं वहां भी ''डॉरमेंट ट्रेट्स'' के केसेस आये हैं जिन्‍होंने गर्भधारण के समय सही काउंसलिंग लेकर बच्चे को कोई नुकसान होने से बचाया है । जाहिर है कि इसके लिए जेनेटिक काउंसिलर को बड़े सरकारी हॉस्पिटल्स में खासतौर पर अपॉइंट किया गया है। कीन मैरिजेज से पैदा हुये बच्चों में कुछ वंशानुगत बीमारियां मसलन सफेद दाग, जीरोडर्मा पिंगमेंटेशन, हीमोफीलिया जैसी बीमारियां हो सकती हैं  मगर ये जेनेटिक डिस्ऑर्डर्स अलग-अलग गोत्रों के बीच हुई शादियों में भी होते हैं। तो खाप का ये कहना कि सगोत्री शादी से किन्‍नर यानि फिजिकली-इंपोटेंट की पैदाइश का खतरा रहता है, फिलहाल तो केवल युवाओं में भय बैठाने के लिए अपनाया गया एक ऐसा साइकोलॉजिकल टूल है जिस पर बेवजह वैज्ञानिक मुहर लगाई गई है।
रही बात समाजशास्‍त्र की तो हमारे समाज में एक ही जाति में शादी करने पर जोर दिया जाता है, वहीं एक ही गोत्र के होने पर उन्हें भाई-बहन का दर्जा देना कितना अजीब है? अगर 100 पीढ़ी पीछे की बात करें तो एक ही जाति के लोगों का कहीं न कहीं कोई करीबी रिश्ता जरूर निकलेगा। ऐसे में एक गोत्र वालों को भाई-बहन के रिश्ते का नाम देना तर्कसंगत नहीं है। यह एक रूढि़वादी सोच है कि एक ही गोत्र में शादी नहीं होनी चाहिए।
खापों को अब समझना होगा कि समाज के नियम-कायदे इसलिए बनाए जाते हैं ताकि लोगों का उससे भला हो सके। ये नियम-कायदे लोगों की जिंदगी में अड़चनें पैदा करने के लिए नहीं बनाए जाते।
कानूनी तौर पर भी एक ही गोत्र में विवाह करना हिंदू मैरिज एक्ट में निषेध नहीं है। हां, अगर किसी ने सपिंडा श्रेणी में शादी कर ली है तो वह हिंदू मैरिज एक्ट की धारा-5 में वर्जित है। सपिंडा श्रेणी का मतलब होता है कि कोई भी शख्स अपने पिता के खानदान की पांच पीढ़ियों और मां के खानदान की तीन पीढ़ियों के भीतर आने वाले दूसरे शख्स से शादी नहीं कर सकता।
आज के ग्‍लोबल समय में नई पीढ़ी के सामने कहां तक इन खापों की बातें अपना प्रभाव जमाकर रख पायेंगीं, कल के इस वाकये ने स्‍वयं खापों के वज़ूद को घेरे में ला दिया है। अच्‍छा होगा कि समय रहते गलत को सही साबित करने के लिए ये खापें विज्ञान को बख्‍श दें और खुद को बचायें...नई पीढ़ी अब इनके फि़जूल हथकंडों से नहीं बदलेगी।
-अलकनंदा सिंह

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

आर्य समाज : पुनरुद्धारक विचार का उद्धार भी जरूरी है


(स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के जन्‍मदिन पर विशेष)
जीवन में अधिकांशत: ऐसा होता है कि हम किसी भी घटना, व्‍यक्‍ति  या संदर्भों को पूरी तरह से जाने बिना उस पर प्रतिक्रिया जताने में  अपनी ऊर्जा खर्च कर देते हैं परन्‍तु समाज में जो कुछ भी  नकारात्‍मक घट रहा है उसे बेहतर बनाने में इस ऊर्जा का प्रयोग नहीं  करते। ऊर्जा के ध्‍वस्‍त होते रहने को नियति मान लेते हैं, कर्म से  बचने के अनेक उपाय खोज लेते हैं और विघटित होते मूल्‍यों के लिए  कोसने लगते हैं। इसीलिए कृष्‍ण ने गीता में स्‍वयं कर्म करने का  मार्ग हमें बताया है। कृष्‍ण के बाद आधुनिक काल में इसी कर्ममार्ग  का अनुसरण कर अपने भीतर बैठी 'ऊर्जा' को समाज सुधार के लिए  उपयोग करने का सर्वोत्‍तम मार्ग दिखाया स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती ने।
आज स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती का जन्‍मदिन है, जिन्‍होंने स्‍वयं को  धर्म की शुद्धता के लिए उसमें बैठ चुके पाखंड को उखाड़ फेंकने को  आर्यसमाज की स्‍थापना की।
ये अद्भुत संयोग नहीं तो और क्‍या है कि हजारों साल पहले शांति  और धर्म की स्‍थापना को भगवान कृष्‍ण ने जिस गुजरात को चुना,  आधुनिक काल में एक बार फिर गुजरात से धर्म के पुनर्रुद्धार करने  को यात्रा करके एक काठियावाड़ी युवक मूलशंकर मथुरा आया और  स्वामी विरजानंद से दीक्षा ले स्‍वामी दयानंद के रूप में प्रसिद्ध हुआ।  श्रीकृष्‍ण के बाद गुजरात से मथुरा का संबंध फिर से एक नये धर्म की स्‍थापना का केंद्र बना।
सन् १८६३ से चली धर्मसुधार की इस यात्रा ने अनेक सोपानों को पार  करते हुये, हिन्‍दू धर्म में गहरे पैठ गईं कमजोरियों को दूर करने के  लिए 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई, जो ७ अप्रैल १८७५ को मुंबई में आर्यसमाज की स्थापना के साथ वेदों की ओर लौटो के नारे में बंधी थी परंतु बदलते समय में आज आर्यसमाज स्‍वयं ही अनेक  विसंगतियों और उपेक्षाओं का शिकार हो रहा है। हम आयेदिन देखते  हैं कि अनेक मूढ़ व कथित धर्मज्ञ आज आर्यसमाज के नाम पर जिस  तरह अनाचारों को समाज में बढ़ते देख कर भी चुप हैं और पाखंडों  को अपने तरह से बढ़ाने में लगे हैं, उसे निश्‍चित ही स्‍वामी दयानंद  सरस्‍वती के प्रयासों का ह्रास माना जायेगा।
जीवन में विचारों की शुद्धता के लिए स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश  तथा वेदभाष्यों की रचना की। इन्होंने कुरीतियों से दुखी होकर या अशिक्षा के कारण धर्म परिवर्तन  कर चुके लोगों को पुन: निज धर्म में वापस आने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया  जो १८८३ में स्वामी जी के देहांत के बाद भी उनके निकट अनुयायियों लाला  हंसराज और स्वामी श्रद्धानंद के प्रयासों से आगे बढ़ता रहा।  इसकी कड़ी बने १८८६ में लाहौर के 'दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज' व  १९०१ में हरिद्वार के कांगड़ी में बनाया गुरुकुल, शिक्षा के माध्‍यम से धर्मजागरण का माध्‍यम बने।
कहावत है ना कि रुके हुये जल में सड़ांध आ जाती है आज धर्म के  रास्‍ते जनजागरण के लिए चलाये गये ये पाखंड विरोधी शैक्षिक  अभियान भी इसी सड़ांध का शिकार हो रहे हैं। आर्यसमाज के लिए  दान दी गई संपत्‍तियों पर पाखंडियों ने कब्‍जे कर रखे हैं।
जिन स्‍वामी दयानंद ने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना और  कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा संन्यास को अपने दर्शन के लिए चार स्तम्भ के रूप में स्‍थापित किया, आज ये सभी सिद्धांत पुस्‍तकालयों में धूल फांक रहे हैं या शोधकर्ताओं के अध्‍ययन तक सिमट गये हैं।
स्वामी जी हिन्‍दू धर्म में ही नहीं बल्‍कि सभी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा खंडन करते थे, चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो या ईसाई धर्म हो। अपने महाग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश" में स्वामी जी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग,  स्वामी जी का मत शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था अपितु आर्य  समाज की स्‍थापना के माध्‍यम से भारत के साधारण जनमानस को भी अपनी ओर आकर्षित किया। यह आंदोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया  स्वरूप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारंभ हुआ था। आर्यसमाज सिद्धांतों के अंतर्गत  शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते हुये मूर्ति पूजा, अवतारवाद,  बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकारता थी। इसमें सबसे महत्‍वपूर्ण तथ्‍य ये था कि छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों  को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था।  स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ  आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है।
आर्य समाज का आदर्श वाक्य है:  कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
अर्थात - विश्व को आर्य बनाते चलो।
आर्यसमाज एक जनविचारधारा थी जिसने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में  महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इसके अनुयायियों ने भारतीय स्वतंत्रता  आंदोलन में बढ-चढ कर भाग लिया। आर्य समाज के प्रभाव से ही  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आन्दोलन आरंभ हुआ  था।आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में एक नयी चेतना का आरंभ किया  था। स्वतंत्रता पूर्व काल में हिंदू समाज के नवजागरण और पुनरुत्थान  आंदोलन के रूप में आर्य समाज सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन था।  यह पूरे पश्चिम और उत्तर भारत में सक्रिय था तथा सुप्त हिन्दू  जाति को जागृत करने में संलग्न था। यहाँ तक कि आर्य समाजी  प्रचारक फिजी, मारीशस, गयाना, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका में भी  हिंदुओं को संगठित करने के उद्देश्य से पहुँच रहे थे। आर्य समाजियों  ने सबसे बड़ा कार्य जाति व्यवस्था को तोड़ने और सभी हिन्दुओं में  समानता का भाव जागृत करने का किया।
आर्य, चूंकि शुद्धता का पर्याय माने गये इसलिए मानसिक अनार्यता के इस समय में स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती की प्रसंगिकता, उनके सिद्धांतों की जरूरत बहुत अधिक महसूस की जा रही है ताकि न केवल क्षीण होते आर्य समाज को बचाया जा सके बल्‍कि मानवता को भी उच्‍च आदर्शों के साथ सींचा जा सके,तभी सार्थक होगा स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती का धर्म को जनजन तक लाने का सपना।

-अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

अनुत्‍तरित प्रश्‍नों में बिंधी 'जानकी'

सीताष्‍टमी पर विशेष- 


सभी परित्‍यक्‍ता स्‍त्रियों ने उन्‍हें आदर्श माना और वह सर्वथा पहली ऐसी स्‍त्री थीं जो वंचितों की मां बनीं...इसीलिए आज भी बुंदेलखंडी बेड़नियां उनकी कसम खाकर अपना धर्म निभाती रही हैं...आदिवासियों की वो देवी हैं । समाज के तिरस्‍कृत वर्ग में देवी और समाज के पूजित वर्ग में आदर्श स्‍त्री, एक साथ दोनों में सम्‍मान पाने वाली स्‍वयं में कितनी विशाल व्‍यक्‍तित्‍व रही होंगी, इसका अनुमान लगाना अत्‍यंत ही कठिन है।
जी हां, आज सीताष्‍टमी है। जनक की बेटी सीता, राम की पत्‍नी सीता, दशरथ की पुत्रवधू सीता और अग्‍निपरीक्षा देकर अपनी शुद्धता को सिद्ध करती सीता.. और अंत में अपने ही अंतस के संग अकेली रह गईं सीता का आज जन्‍मदिन है। वो सीता जो स्‍त्री-आदर्श की सोच है,आज ही जन्‍मी थी।
धरती की कोख में जन्‍मी और धरती में ही समाने वाली सीता को हम माता जानकी कहकर जहां भगवान श्रीराम की वामांगी के रूप में अपनी श्रद्धा उनके प्रति प्रगट करते हैं और देवी के रूप में आज भी हम उन्‍हें मर्यादाओं पर न्‍यौछावर होने वाली बता कर उनकी आराधना करते हैं। उन्‍हीं सीता के इस पूज्‍य दैवीय रूप के बावजूद हम आजतक अपनी बेटियों का नाम सीता रखने से कतराते रहे हैं।
आदिकवि वाल्‍मिकी द्वारा संस्‍कृत में रचे गए महाकाव्‍य 'रामायण' में रामकथा के माध्‍यम से पहली बार आमजन को सीता के उस रूप के भी दर्शन हुए जो श्रीराम से पहले और उनके बाद भी सीता के नितांत 'निजी व्‍यक्‍तित्‍व' की महानता दर्शाते हैं। संभवत: इसीलिए आमजन के बीच से उठने वाले प्रश्‍नों ने साहित्‍यकारों, कवियों को भी सीता के व्‍यक्‍तित्‍व की ओर आकृष्‍ट किया।
वाल्‍मिकी की 'रामायण' के कुल 24000 श्‍लोकों में राम की गाथा का जितना भी वर्णन है उन सब पर भारी पड़ता है अकेला 'सीता को राम के द्वारा दिया गया वनवास' । इसका सीध अर्थ यही निकलता है कि रामायण जैसे महाकाव्‍य का आधार स्‍तंभ रहे भगवान श्रीराम की पूरी की पूरी कथा सीता के बिना तो आगे बढ़ ही नहीं सकती, इसीलिए वाल्‍मिकी की रामकथा का अंत भी लव-कुश के जन्‍म, उनके पालन पोषण, शिक्षा और धर्म व मर्यादाओं का ज्ञान देने की सीता द्वारा एकल अभिभावक बनकर निभाई गई भूमिका पर जाकर अपनी कथा को समेट लेता है।
वाल्‍मिकी की रामायण से चली इस काव्‍य यात्रा में तुलसीदास की रामचरितमास, सीता समाधि, जानकी जीवन, अरुण रामायण, भूमिजा जैसे काव्‍यसंग्रह लिखे गये वहीं काव्‍य-नाटक अग्‍निलीक और प्रवाद पर्व, खंडखंड अग्‍नि आदि लिखे गये। इन सभी काव्य-नाटकों में सीता के अत्यंत उदात्त रूप को चित्रित करते हुए आधुनिक नारी के संघर्षमयी जीवन को उजागर किया है।
सीता के त्‍याग ने एक और बात साबित की कि किसी भी स्‍त्री के पूरे के पूरे अस्‍तित्‍व को आंकने के लिए उसके चरित्र को संदेहों से पाट देना हर युग में सबसे कमजोर कड़ी रहा है, और इस कसौटी पर स्‍वयं को निरंतर साबित करते रहना उसकी नियति । सीता के माध्‍यम से ही सही, यही चरित्र संबंधी कमजोर कड़ी त्रेता यु्ग में भी मौजूद रही जो वर्चस्‍ववादी मानसिकता को उजागर करती है। यूं भी जिन समाजिक व चारित्रिक आधारों ने दशरथपुत्र राम को पहले मर्यादा पुरुषोत्‍तम राम और फिर 'भगवान श्रीराम' तक के उच्‍चासन पर पहुंचाया जबकि एक राजपुत्र के लिए ये कोई कठिन कार्य भी नहीं था मगर एक भूमिपुत्री के लिए किसी सूर्यवंशी राजघराने की बहू बनना फिर त्‍याग व आदर्शों की स्‍थापना करना निश्‍चित ही चुनौतीपूर्ण रहा होगा और इसीलिए सीता स्‍वयमेव देवी बन गईं।
एक भूमिपुत्री के लिए आदर्श के नये नये सोपानों को गढ़ते हुये चलना , लांछनों को काटते हुये देवी के रूप में स्‍थापित होना 'भगवान' से कहीं ज्‍यादा चुनौतीपूर्ण, कहीं ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण रहा तभी तो 'सीता का वनवास' आज भी आमजन को श्रीराम पर उंगली उठाने से नहीं रोक पाता। स्‍त्रियों के लिए पति-पत्‍नी के आदर्श संबंधों की स्‍थापना वाली इस सदैव संघर्षमयी यात्रा का, सीता एक ऐसा स्‍तंभ बन गईं जिसे त्रेता की रामायण से लेकर आज तक अपनी यात्रा तय करनी पड़ रही है। सच में किसी देवी के स्‍त्री बनने और किसी स्‍त्री के देवी बनने की इस पूरी आदर्श प्रक्रिया में स्‍त्री स्‍वयं कहां खड़ी है, यह सीता के लिए भी अनुत्‍तरित था और आज भी।
बहरहाल, इन्‍हीं अनुत्‍तरित संदर्भों में से निकलकर हमारे लिए आज भी सीता वन्‍दनीय हैं, पूज्‍यनीय हैं क्‍योंकि वे हमारी प्रेरणा हैं, हम आज भी उन्‍हीं के स्‍थापित आदर्शों पर चलकर ये सिद्ध कर पा रहे हैं कि कम से कम भारतीय परिवारों की धुरी स्‍त्रियां ही बनी हुई हैं। कहना गलत न होगा कि यु्ग बदले.. दौर बदले..सूरतें बदलीं मगर स्‍त्रियों के अपने अस्‍तित्‍व को तोलने वाली सीरतें आज भी जहां की तहां खड़ी हैं, ऐसे में सीता हमारी मार्गदर्शक भी बनकर आती हैं।
कुछ प्रश्‍न शेष रहते हैं फिर भी...
कि क्‍या किसी स्‍त्री को धैर्यवान दिखाने के लिये वनवास जरूरी है, कि क्‍या अग्‍निपरीक्षा ही स्‍त्री की शरीरिक शुद्धता की कसौटी है,
क्‍या पति के साथ स्‍वयं को विलीन कर देना ही सतीत्‍व है,
क्‍या मन, वचन, कर्म की शुद्धता पर अग्‍निपरीक्षा अब भी देनी होगी.... आदि प्रश्‍न समाज से उठकर आज की सीताओं को मथ रहे हैं। देखें कि सोचों का ये वनवास कब अपना रूप बदलेगा।
कवि रघुवीर शरण मिश्र की 'भूमिजा' में सीता कहती हैं-
“मुझे अबला न समझो
क्रोध पीकर शांत रहती हूँ
अहिंसा हूँ स्वयं सह कर
किसी से कुछ न कहती हूँ!
भूमि की लाड़ली हूँ मैं
कलंकित मर नहीं सकती
कलंकित मर धरा का मुख
स्याह में भर नहीं सकती।''..

- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

वाह ! मुसलमानों के ये नये फ़रिश्‍ते

cartoon coutesy: MANJUL
देश की अगली सरकार को चुनने के लिए जैसे जैसे चुनाव का  एक एक पल नज़दीक आता जा रहा है वैसे ही रफ्तार पकड़ रही है उन नेताओं की फौज जो रोज़बरोज़ अपनी छाती पीट पीटकर तमाम मंचों से लगभग चीख से रहे हैं  कि देश के मुसलमानों के लिए अकेले वे ही फरिश्‍ते बचे हैं । मुसलमानों के ये नये फ़रिश्‍ते हैं एकदम लकदक लिबास वाले..भरे पेट वाले जो भूखों का निवाला भी खुद हजम किये जा रहे हैं। कई बार तो लगता है कि अब न देश में गरीबी दिखाई दे रही है ना महंगाई मार रही है और ना ही भ्रष्‍टाचार अपना फन फैलाए हुए है ...यदि कुछ नज़र आ रहा है तो सिर्फ मुसलमानों के हित बताने वाले राजनीतिक कसीदे ।
ये वही नेता हैं जिन्हें सच्‍चर कमेटी के अल्‍पसंख्‍यकों को सोशल, इकोनॉमिक और एजूकेशनल स्‍तर पर बेहतर सुविधायें देने वाले सुझाव भी खासे नागवार गुजरे क्‍योंकि जस्‍टिस राजिंदर सच्चर की उस  रिपोर्ट में इन्‍हीं कथित 'मुस्‍लिम हितकारियों' के प्रयासों का सारा सच सामने आ गया था कि आखिर किस तरह अल्‍पसंख्‍यकों और खासकर मुस्‍लिमों के लिए हजारों करोड़ रुपयों की योजनायें बनाई गई..उनमें फंड्स भी रिलीज हुये मगर ये उन तक कभी पहुंचे ही नहीं  जो इनके तलबगार थे, कुछ योजनायें तो अभी भी कागजों से बाहर ही नहीं आ सकीं और ये नेता कह रहे हैं कि वे ही मुसलमानों के सच्‍चे हितैषी हैं, क्‍या  नेताओं का ये रवैया माफ करने लायक हैं?
केंद्र में सत्‍ताधारी यूपीए गवर्नमेंट से लेकर उत्‍तरप्रदेश की समाजवादी गवर्नमेंट  तक सब  जुटे हैं मुसलमानों को रिझाने में । कहीं सच्‍चर कमेटी के निष्‍कर्षों पर काम करने की बात की जा रही है  तो कोई दंगों में सिर्फ मुसलमानों को ही पीड़ित बताकर हिन्‍दू और मुसलमानों के बीच खाइयां खोदे चला जा रहा है। जहां अबतक शांति रहती आई है वहां भी अब शक की लकीरें बनाई जा रही हैं ताकि वोटबैंक पक्‍का हो सके। वोटवैंक की खातिर पगलायी समाजवादी पार्टी ने तो हद ही कर दी, देश की सुरक्षा के लिए खतरा बने अपराधियों की कारगुजारियों को नज़रंदाज करती हुई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई, सिर्फ इसलिए कि वे मुसलमान थे और जिन्‍हें सुरक्षा एजेंसियों द्वारा बमुश्‍किल जेल में डाला जा सका। वोट के इन सौदागरों ने देश की सुरक्षा को तो मज़ाक बनाकर रख ही दिया है बल्‍कि ये उस पूरी की पूरी कौम पर भी प्रश्‍नचिन्‍ह लगाये दे रहे हैं जो अब भी इस ''शक और लांछन'' के दौर से नहीं निकल पाई है कि ''हर मुसलमान आतंकी नहीं होता मगर हर आतंकवादी मुसलमान ही क्‍यों होता है.''..इन नेताओं के लिए देश के मुसलमान इस देश के नागरिक नहीं महज वोटबैंक है...और इससे ज्‍यादा कुछ भी नहीं, एक ऐसा वोटबैंक जिसे तमाम तरह की लॉलीपॉप्‍स से पाट दिया गया है...मगर इन्‍हीं लॉलीपॉप्‍स का स्‍वाद उन्‍हें नहीं चखने दिया गया ।
ये मुसलमानों के हितकारी नेता सच्‍चाई से मुंह नहीं छुपा रहे हैं बल्‍कि भलीभांति जानते हैं कि देश की सुरक्षा के लिए जो नासूर बन चुके हैं वे सभी अपराधिक सोच वाले होते हैं। उनके लिए न देश मायने रखता है ना कौम और ना ही धर्म ।  देश का ल्रगभग हर चौथा शहर आतंकियों का निशाना बन चुका है। हजारों युवक लव जिहाद में लगे हुये हैं,हर शहर और दूरदराज के गांवों तक मौजूद हैं इनके स्‍लीपिंग मौड्यूल...फिर भी सुप्रीम कोर्ट तक उन्‍हें बचाने के लिए प्रयास जारी है । आखिर क्‍यों ? उत्‍तरप्रदेश सरकार हर कदम से अपने दिमागी कोढ़ को उजागर कर रही है। क्या समाजवादी मुखिया बता सकते हैं कि जब उनके मुताबिक ये कथित ''निर्दोष''युवक जेलों में डाले जा रहे थे तब वो खुद कहां सोये थे और अब जब ''उन निर्दोषों'' को सालों गुजर गये जेल में ,तब पहले विधानसभा चुनाव जीतने के लिए फिर अब लोकसभा चुनाव जीतने के लिए उन्‍हें इनकी बेगुनाही याद आई। जब आतंकी वारदात हुईं और बासुबूत इन्‍हें सुरक्षा एजेंसियों द्वारा पकड़ा गया तब मुलायम सिंह कहां थे?आज भी ये हकीकत है कि अकेले पूर्वांचल से ही तमाम बेरोजगार युवकों को पैसों की जरूरत आतंकी संगठनों तक ले जा रही है मगर इस खुफिया और उजागर हो जाने वाली जानकारी के बावजूद प्रदेश सरकार ने इन्‍हीं अल्‍पसंख्‍यकों के लिए रोजगार के कोई साधन उपलब्‍ध नहीं कराये। हां, हर रोज प्रधानमंत्री पद की गुहार लगा रहे मुलायम सिंह मुज़फ्फ़रनगर दंगों में अपनी सरकार की नाकामी पर सफाई अवश्‍य दे रहे हैं।
यहांतक कि अल्‍पसंख्‍यकों के लिए घोषित हुईं हजारों करोड़ की उद्धारक योजनाओं का पैसा पार्टी की रैलियों पर लुटाया जा रहा है और कहा ये जा रहा है कि मुसलमानों के बिना देश का कोई भविष्‍य नहीं , कोई सरकार नहीं बन सकती। अजीब बेशर्मी है ये...कि जिनके हक़ पर ऐश हो रहा है और उन्‍हें ही छद्म सांत्‍वना के तमाम कसीदों में सिर्फ बेवकूफ बनाया जा रहा है कि गोया वे खुद तंगहाल रहें मगर सरकार को लोकसभा तक पहुंचा दें।
धर्म आधारित घृणा वाली राजनीति का फंडा अब स्‍वयं मुसलमान भी समझ चुके हैं और हिन्‍दू भी, सो बेहतर होगा कि राजनीतिज्ञ अपनी रणनीतियों में इस फंडे को शामिल ना ही करें क्‍योंकि मुज़फ्फ़रनगर का आइना इन नताओं के सूरत और सीरत दोनों के ही अक्‍स को नंगा दिखा गया ।इसी बात पर फ़राज साहब के दो शेर याद आते हैं-
यह कौन है सरे साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं,
अभी तक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं....।
- अलकनंदा सिंह

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

ऊधौ, मोसौं मेरौ ब्रज बिसर गयौ ...

 राग कल्यान में गाया गया.....

प्रेम-समुद्र रूप-रस गहरे, कैसैं लागैं घाट।
बेकार यौं दै जान कहावत, जानिपन्यौं की कहा परी बाट?
काहू कौ सर सूधौ न परै, मारत गाल गली-गली हाट।
कहिं श्रीहरिदास जानि ठाकुर-बिहारी तकत ओट पाट॥18॥

राग आसावरी में गाया गया....

मन लगाय प्रीति कीजै, कर करवा सौं ब्रज-बीथिन दीजै सोहनी।
वृन्दावन सौं, बन-उपवन सौं, गुंज-माल हाथ पोहनी॥
गो गो-सुतन सौं, मृगी मृग-सुतन सौं, और तन नैंकु न जोहनी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी सौं चित, ज्यौं सिर पर दोहनी॥12॥

राग विभास में गाया गया....

हरि भज हरि भज, छाँड़ि न मान नर-तन कौ।
मत बंछै मत बंछै रे, तिल-तिल धन कौ॥
अनमाँग्यौं आगै आवैगौ, ज्यौं पल लागै पल कौं।
कहिं श्रीहरिदास मीचु ज्यौं आवैं, त्यौं धन है आपुन कौं॥4॥

इसीतरह राग कान्हरौ में ये भक्‍ति-पद कुछ इस तरह बना...

जोरी विचित्र बनाई री माई, काहू मन के हरन कौं।
चितवत दृष्टि टरत नहिं इत-उत, मन-बच-क्रम याही संग भरन कौं॥
ज्यौं घन-दामिनि संग रहत नित, बिछुरत नाहिंन और बरन कौं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी न टरन कौं॥4॥


ये चारों विलक्षण काव्‍य-संगीत की रचना उस 'अष्‍टाध्‍यायी सिद्धांत के पद' में से उदाहरणस्‍वरूप ली हैं  मैंने, जिनकी रचना कर ध्रुपद गुरू स्‍वामी हरिदास ने ब्रज को शास्‍त्रीय गायन में एक ऐसा अभूतपूर्व  स्‍थान दिलाया कि कृष्‍ण की बांसुरी से निकलने वाली स्‍वरलहरियां उनके पदों पर नाचने लगीं। सम्राट  अकबर हों या ग्‍वालियर के तत्कालीन राजा मानसिंह तोमर, स्‍वामी हरिदास की रसिक-भक्‍ति के आगे  सब लाचार दिखे। तानसेन और बैजूबावरा के गुरू हरिदास की भक्‍ति ने ही तो यहां बिहारीजी को  युगलस्‍वरूप में प्रगट होने पर बाध्‍य कर दिया।
ऐसे भक्‍तों से आच्‍छादित रही और शास्‍त्रीय संगीत की ऐसी समृद्ध परंपरा वाली, श्रीकृष्‍ण की इस ब्रज  नगरी में आज कुछ लोककलाओं को छोड़कर संगीत के नाम पर एक ऐसा खालीपन आया है जिसके  प्रति कोई भी संजीदा नहीं दिखता। बुद्धिजीवियों द्वारा कोई प्रयास न किये जाने के कारण संगीत को  लेकर आज ब्रज की झोली एकदम खाली हो चुकी है।
यूं समझिए कि कस्‍तूरी मृग की नाभि बन गई है कान्‍हा की यह भूमि, जहां सभी ब्रजवासी आज  लोककलाओं का जो अंबार दिखता है, उसे ही ब्रज की थाती समझ बैठे हैं मगर जो कुछ इसकी नाभि  में समाया हुआ था उसे विलुप्‍त कर दिया गया है।
विडंबना देखिए कि जहां ईश्‍वर आकर स्‍वयं नटवर नागर बन गया हो, सुदर्शन चक्र के आगे जहां  बांसुरी ने श्रेष्‍ठता हासिल की हो, जहां नाट्यशास्‍त्र एवं संगीत- रत्नाकर जैसे ग्रंथों का संगीतमय  यथार्थ जन्‍मा हो, वैदिककाल के संगीत को जहां यथावत रखने में भक्‍तिकाल के संत कवियों ने  अपनी प्रतिभाओं को उड़ेल दिया हो, कुंजों में महारास और कालिंदी के कूल पर साम-गान (सामवेद में  रचित संगीत) के पद बसे हों, जहां स्‍वामी हरिदास जैसे, ध्रुपद के प्रथम प्रचलित गायक तानसेन के  गुरू, ने अपनी साधना की हो  ....ऐसी ब्रजनगरी में संगीत की शोशेबाजी से स्‍वामी हरिदास की जयंती  को कैश किया जाना और रोज़बरोज़ अनेक कथित हरिदासीय भक्‍तों की बाढ़ आना हमारे लिए बेहद  लज्‍जाजनक है।
ऊपरी तौर पर देखने में लगता है कि ब्रज की कलायें जैसे होली गायन, समाज गायन, रसिक गायन  आदि आज भी जीवित हैं परंतु ये तो बस कलाओं के नाम पर वो रस्‍में हैं जिनमें शास्‍त्रीयता सिरे से  गायब है। कला के नाम पर एक अरसे से स्‍वामी हरिदास का नाम भी खूब भुनाने वाली, अकेले  वृंदावन में ही डेढ़ दर्जन के आसपास ऐसी संस्‍थायें कुकुरमुत्‍तों की भांति जहां तहां उग आई हैं जो  गाहेबगाहे मुंबइया सेलेब्रिटीज को बुलाबुलाकर ये सिद्ध करने में लगी रहती हैं कि देखो हम हैं स्‍वामी  हरिदास जी के वंशज और हम ही हैं उस शास्‍त्रीय भक्‍ति संगीत के उत्‍तराधिकारी, जिसे पूरी की पूरी  एक गायन शैली का जनक कहा जाता है। हां, स्‍वामी हरिदास संगीत समारोह में डागर बंधुओं, कत्‍थक  नृत्‍यांगना उमाशर्मा की उपस्‍थिति इस लीक को पीटने में सहायक बनी रहती है और कभी तो वह भी  नदारद रहती है।
कभी अष्‍टछाप व कीर्तनकार भक्‍त कवियों सूरदास, परमानंद दास, कुंभन दास, कृष्णदास, चतुर्भुज  दास, नंददास, छितस्वामी, गोविन्द स्वामी, ध्रुवदास, रसखान, व्यास जी, स्वामी हरिदास, मीराबाई,  गदाधर भट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी ... से चलती ये श्रृंखला जब आज के ब्रज-संगीत समारोहों को  सतही तौर पर दिखाती है तो अनजाने ही उस दर्द को महसूस किया जा सकता है जो कभी कृष्‍ण ने  ब्रज से दूर जाकर उद्धव से कहा था कि ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं...।
बाजारवाद की भेंट चढ़े  स्‍वामी हरिदास और उनके पद अब स्‍वयं अपने ही वंशजों के मकड़जाल में फंसे हुये हैं , देखना यह  बाकी है कि कब तक आखिर ब्रज के नाम पर खाने-कमाने वाली कथित संस्‍थायें अपनी इस अमूल्‍य थाती को यूं अनदेखा करती रहेंगी। हालांकि उम्‍मीद सलिल भट्ट जैसे सात्‍विक वीणा के आविष्‍कारकों ने कुछ कलाकारों ने बंधाई भी है मगर विडंबना है कि ये कलाकार स्‍वयं को ब्रज से जोड़े जाने पर बगलें झांकते दिखते हैं।  स्‍वयं इन्‍होंने ब्रज के शास्‍त्रीय खजाने को बचाने या इसे आगे बढ़ाने को कुछ किया हो, अभी तक ऐसा कोई प्रयास सामने नहीं आया है। फिर सरकार और सांस्‍कृतिक विभाग से ऐसी आशा व्‍यर्थ ही होगी। निश्‍चित ही कृष्‍ण यदि अपने परमप्रिय भक्त कवियों की रचनाओं की ऐसी अवहेलना देखते तो कहते कि ऊधौ, मोसौं मेरौ ब्रज बिसर गयौ ...
- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक...

मिर्जा़ गा़लिब ने यह कहते हुये ना जाने कितने जन्‍मों का सफर तय किया होगा,ना जाने कितनी बदहालियों को अपनी इन लाइनों में समेटा होगा कि..
''आह को चाहिए एक उम्र, असर होने तक...'', हर आह को अपना असर दिखाने तक  उम्र का पूरे का पूरा एक दौर तय करना होता है ।
किन्‍हीं भी आहों के 'असर में आने तक' की यह उम्र कितनी होगी..इसकी कोई निश्‍चित सीमा नहीं है, यह तो आहों की शिद्दत पर निर्भर करता है । इसीलिए आहों  को अपने प्रकट रूप में आने तक का यह दौर शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिस्‍थितियों से तय होता आया है ।
 मिर्जा़ ग़ालिब ने 'आह' निकलने की प्रक्रिया को शब्‍दों में पिरोकर बताया । कष्‍ट और लाचारी जब हद से गुजरती है तब इनसे उपजती है आह ...तब से ही शुरू हो जाता है उसके 'असर' तक चलते जाने का सिलसिला..और ये तब तक जारी रहता है, जब तक कि अपेक्षित परिणाम ना हासिल कर ले। मिर्जा़ ने तो सोचा भी ना होगा कि उनके इन लफ़्जों में कितनी जिंदगियों और बेबसों का सच समेटा हुआ है...और वो अनायास ही कहते गये कि
'...कौन जीता है तेरे ज़ुल्‍फ के सर होने तक'
सत्‍ताएं किसी की भी हों ... देश की, गांव की, घर की या फिर निजी संबंधों की, हमेशा बलशाली ही सत्‍ताधारी होता है। बल की उपस्‍थिति उसके हर निर्णय में रहती है कि अगर 'वह' मौजूद है तो बस 'वह' ही मौजूद है ।
उस 'वह ही' की मौजूदगी का अर्थ यह भी होता है कि उसका विवेक उसकी पीठ के पीछे हो गया है, और जो पीठ के पीछे है वह 'निर्णय के दौरान' अपनी राय स्‍पष्‍टत: जताने में नाकाम होगा ही। विवेकहीन बल के निर्णयों से न्‍याय की आशा नहीं की जा सकती इसीलिए  बलशाली अधिकांशत: निरंकुश हो जाते हैं और अपने निर्णयों से 'प्रभावितों' के लिए आततायी ही सिद्ध होते हैं।
तभी तो दबे हुओं की आवाजें ..आवाजें ना होकर, आह बन जाती है..वे आहें अपने 'असर' में आने का इंतजा़र करती रहती हैं कि वे कब स्‍पष्‍ट आवाज़ बन पायें अपनी बात कहने के लिए...
इसीलिए मिर्जा़ कहते भी हैं कि..
''ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक....''
खैर, अब उन सबकी आहों का असर शुरू हो चुका है जो बलहीन थे और हैं भी ,ये असर दिख भी  रहा है ।
अब देखिए ना..इसे पिछले सालों से चर्चा में लगातार आते जा रहे छेड़छाड़, यौन उत्‍पीड़न व बलात्‍कार के मामलों में उठती आवाजों से समझा जा सकता है। साथ ही हैरानी की बात ये भी है कि उतनी ही शिद्दत से उठाई जा रही है समलैंगिकों के अधिकारों की बात भी....।
अच्‍छे-खासे स्‍त्री पुरुषों का समलिंगी होते जाना आखिर क्‍या है ? क्‍या ये सिर्फ विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण का खो जाना भर है ? क्‍या ये प्राकृतिक है ? क्‍या ये अभी-अभी ही उपजी है ? क्‍या ये उत्‍कृष्‍ट सृष्‍टि की रचना के लिए सही अवस्‍था है ? क्‍या ये मानसिक व शारीरिक तौर पर प्रकृति का कोप नहीं है ?
हो भी सकता है.. ऐसा हो। ये भी हो सकता है कि शारीरिक शोषितों  की 'साइकोलॉजिकल एंटीइनकंबेंसी' ही हो ?
ज़रा बताएं..? ये शोषितों द्वारा मानवजाति को मिली बद्दुआ सरीखी ही तो हैं ....जो कहती हैं कि हमारे साथ हुये अन्‍याय  को तुम्‍हारी कई पीढ़ियां भुगतेंगीं...ये पूरा का पूरा मसला ही भावनाओं और अधिकारों के बीच झूलता है । यूं तो  समलिंगी होना कोई अजूबा नहीं है या  ऐसा नहीं है कि पहले बलात्‍कार नहीं होते थे या जबरन वेश्‍यावृत्‍ति,बाल वेश्‍यावृत्‍ति या पुरुष वेश्‍यावृत्‍ति नहीं थी मगर तब तक इन 'जबरन संबंधों' के शिकारों की आहों में कुछ असर बाकी रहा होगा....जो अब उबलकर बाहर आयेगा ही...धीरे धीरे ही सही..मगर आ रहा है..
हाल ही में पश्‍चिम बंगाल के बीरभूम जिले, जहां से हमारे राष्‍ट्रपति महोदय ताल्‍लुक रखते हैं, की पंचायत के कबीलाई आदेश में देखा जा सकता है । पंचायत फरमान सुनाती है कि गांव की युवती अगर गैरजाति के व्‍यक्‍ति से संबंध रखे तो बतौर सजा़ उसके साथ सामूहिक बलात्‍कार किया जाये....। ये महज एक उदाहरण है मगर इस जैसे तमाम घिनौने प्रकरणों से लेकर धर्म, मीडिया, राजनीति, समाजसेवा और कानून से जुड़ी हस्‍तियों के बलात् कारनामों तक...लंबी फेहरिस्‍त है जबर्दस्‍ती की।
इसके अलावा खापों के खौफ़ से तमाम शहरों में दरबदर हो चुके प्रेमीजोड़ों की दास्‍तां हो ...वेश्‍यालयों में जकड़ी गई निरीह बच्‍चियां हों...पुरुष वेश्‍याओं की ल्रगातार बढ़ रही तादाद हो...नपुंसकों का बढ़ता अनुपात हो..या फिर लैंगिक-मानसिक विकृतियों के साथ जी रहे लोग....ये सब वो परिस्‍थितियां हैं जो आधी आबादी के 'पूरे अस्‍तित्‍व' पर जबरन कब्‍जा़ करने से ही जन्‍मी हैं । इस विकृत रूप के आने वाले परिणामों का अंदाजा भी लगाते हुये डर लगता है ।
अब तो हाल ये हो गया है कि किसी भी विकृति को विकृति ही नहीं माना जा रहा है। बल्‍कि उसे मानवाधिकारों के खाते में डाल दिया जाता है। खैर, आज का ये टॉपिक लैंगिक बहस का है भी नहीं, इस बावत तो बहस लंबी खिंचेगी, इसलिए इस पर बात फिर कभी ।
फिलहाल, आप अपने ज़हन में झांककर देखिए और सोचिए कि क्‍या गांवों से लेकर पब तक भोग की ये विकृत लालसा उन औरतों और निरीहों की 'आह' नहीं है जिन्‍हें बलवानों ने रौंदा।  कमजोरों को जीवन जीने की उत्‍कट इच्‍छा को रौंदकर वे तो आगे बढ़ गये और पीछे छोड़ गये वे आहें और उन्‍हें भुगतती पीढ़ियां..
इसीलिए मिर्जा़ ग्रा़लिब ने अपनी इस नज़्म को कुछ यूं लपेटा कि .....
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक ।
हमारे लिए तो बेहतर होगा कि समस्‍याओं के तकनीकी पक्ष की बजाय उन्‍हें ज़हनी तौर पर अपने भीतर उतारकर भी देखें और जब भी हम ऐसा कर पायेंगे तभी से शुरुआत समझिये उन सभी आहों का हिसाब चुकता हो जाने की, जो कमजोरों और असहायों पर ज़ुल्‍मों से निकलती हैं। अब और नहीं की तर्ज़ पर हमें लैंगिक अपराधों को समूल नष्‍ट करना होगा...एक साथ चलकर..फिर कहीं निर्भया न रो सके..वीरभूम की आदिवासी पंचायत हावी ना हो सके... ।

बुधवार, 29 जनवरी 2014

DCW अध्‍यक्ष के लिए मैत्रेयी पुष्‍पा का नाम!


नई दिल्ली। 
दिल्ली सरकार ने प्रख्यात उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा का नाम दिल्ली महिला आयोग (डीसीडब्ल्यू) की नयी प्रमुख के लिये उपराज्यपाल नजीब जंग के पास भेजा है। एक सरकारी अधिकारी ने बुधवार को कहा कि डीसीडब्ल्यू के अध्यक्ष पद पर किसी गैर राजनीतिक और जानीमानी हस्ती को नियुक्त करने के अपने वायदे के तहत सरकार ने मैत्रेयी पुष्पा का नाम उपराज्यपाल के पास भेजा है। यह सुझाव आम आदमी पार्टी (आप) सरकार द्वारा डीसीडब्ल्यू की अध्यक्ष बरखा सिंह पर अपने पद का राजनीतिकरण  करने के आरोप के परिप्रेक्ष्य में आया है। आप ने उस रात के छापे की घटना को लेकर यह आरोप लगाया था जिसमें कानून मंत्री सोमनाथ भारती शामिल थे।
69 वर्षीय पुष्पा हिंदी उपन्यासकार हैं जिन्होंने दस उपन्यास और सात लघुकथा संग्रह लिखे हैं। उनकी कतियों में चाक  अल्मा कबूतरी, झूला नट और एक आत्मजीवनी कस्तूरी कुंडली बसे  शामिल हैं।
उनकी अधिकृत वैबसाइट के अनुसार वे महिलाओं से जुड़े सामयिक मुद्दों पर अखबारों में लिखती हैं और अपने बेबाक विचारों के लिये जानी जाती हैं। पुष्पा का जन्म अलीगढ जिले के सिर्कुरा गांव में हुआ था। उनका बचपन झांसी के पास बुंदेलखडं में खिल्ली नामक गांव में बीता और उन्होंने झांसी के बुंदेलखंड कालेज से स्नातोकोत्तर की डिग्री ली।
इससे पहले दक्षिण दिल्ली में कुछ अफ्रीकी महिलाओं के खिलाफ छापेमारी के लिये डीसीडब्ल्यू ने भारती को तलब किया था । भारती को 24 जनवरी को पेश होना था लेकिन उनकी जगह उन्होंने अपना वकील भेजा। -एजेंसी

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

...हमारा द्रौपदी हो जाना

संबंधों के सिमटते दायरों और सभ्‍यता व संस्‍कृति के क्षरण को लेकर बहसों से जुड़ा अरबों का  करोबार दुनिया में फैला है । स्‍वयं हिन्‍दुस्‍तान में न जाने कितने साधु संत,न जाने कितने आश्रम, नाजाने कितनी स्‍वयंसेवी  व समाजसेवी संस्‍थायें हैं फिर भी आज तक संबंधों को बचाने की और उनमें निरंतरता लाने की मशक्‍कत जारी है जबकि इसका समाधान हमारे इतिहास और हमारे पूर्वजों के ज्ञान में बाकायदा मिलता है ।
अकसर ऐसा होता है कि हम दूसरों को जानने का तो प्रयास लगातार करते रहते  हैं मगर कभी खुद अपने भीतर झांकने की कोशिश तक नहीं करते। यह हमारी, स्‍वयं को  सर्वज्ञ समझने व औरों में ताकाझांकी, करने जैसी दो बुरी प्रवृत्‍तियां हैं।
इन दोनों ही प्रवृत्‍तियों से निकला हमारी सोच का एक अच्‍छा पक्ष ये रहा कि इसने हमें न सिर्फ अपनी आत्‍मिक वृहदता का ज्ञान कराया बल्‍कि हमें एक पूर्ण पुरुष दिया और उसके सखाभाव का परिचय कराती एक पूर्ण स्‍त्री भी दी जो हमें स्‍वयं को हर रूप में जानने की सीढ़ी बन सकते हैं।  संबंधों की पूर्णता पर बहस यदि इन दोनों ही सखा-सखी से जुड़े अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों से जोड़कर की जाये तो परिणाम सार्थक निकल सकते हैं। जो भी हो हमारी इन्‍हीं ताकाझांकी वाली प्रवृत्‍तियों ने ही, हमारे हजारों वर्ष पुराने इतिहास से और उसके ऐसे चरित्रों से भी परिचित कराया है जो आज भी प्रेरणादायी हैं।
जी हां, और वो पूर्ण पुरुष हैं श्रीकृष्‍ण और उनसे जुड़ी प्रत्‍येक वो घटना, जो मात्र घटना न होकर प्रसंग बन गई। इन्‍हीं प्रसंगों में 'द्रौपदी से श्रीकृष्‍ण का नाता' भी आता है जिसे  आजतक पूर्णरूपेण तो कोई भी परिभाषित नहीं कर पाया है परन्‍तु सखी और सखा का ये अनूठा रिश्‍ता आज भी अपनी सतही सोच के चलते सतही  तौर पर ही जाना जा सका है और संबंधों की ये सतही स्‍थिति आज हमारे अनेक प्रश्‍नों की वजह भी बनी हुई है। हमें स्‍वयं को जानने और समाज को बताने के लिए हमारे ये ऐतिहासिक चरित्र काफी सहायता कर सकते हैं।
अब देखिए ना, जिसतरह कृष्‍ण हमारे लिए किसी पहेली से कम नहीं रहे ठीक वैसे  ही द्रौपदी भी बनीं रही। वो असामान्‍य हस्‍ती थीं- क्‍योंकि धर्म, न्‍याय और प्रेम के साथ धीरज का  सामंजस्‍य बनाकर चलना आसान नहीं होता, वह भी अपनी अस्‍मिता को अक्षुण्‍ण रखकर।
अभी तक जितने भी धर्म और इतिहास के ज्ञाता हुये हैं उन्‍होंने द्रौपदी को मात्र  'पांच पतियों की स्‍त्री' या 'जिसके पीछे महाभारत हुआ' के रूप में एक सामान्‍य से  लगने वाले चरित्र के रूप में पेश किया, द्रौपदी के आध्‍यात्‍मिक पक्ष को उन्‍होंने नकार सा दिया जबकि कृष्‍ण ने उन्‍हें इसी आध्‍यात्‍मिक आधार पर अपनी सखी बनाया था।
साहित्‍यिक दृष्‍टि से भी अपनी अपनी कल्‍पनाओं के आधार पर द्रौपदी को जानने का बहुत प्रयास किया गया तो वहीं आलोचनाओं का अंबार भी द्रौपदी के  हिस्‍से खूब ही आया बल्‍कि इतना कि मां-बाप अपनी संतानों का नाम द्रौपदी रखने से बचने लगे। चारित्रिक आचरण पर भी लांक्षन खूब झेले द्रौपदी ने द्वापर युग से लेकर अब तक झेल रही है । हद तो तब होती है जब पुरुष आज भी अपने 'अनेक स्‍त्रियों के साथ संबंधों ' को उचित ठहराते हुये स्‍वयं की तुलना कृष्‍ण से कर बैठते हैं ठीक इसी प्रकार स्‍त्रियां भी अपने 'इतर संबंधों' को द्रौपदी की तुला पर तोलती हैं। यह बिल्‍कुल ऐसा ही है कि थाली के पानी में दिखने वाले चंद्रमा को हम वास्‍तविक समझने लगते हैं।
द्रौपदी और कृष्‍ण के संबंधों को मापने पर आज तक बहस जारी है क्‍योंकि बहस का मुद्दा भी तो वहीं से पनपता है जो अबूझ रह जाता है और ये तब तक मौजूद रहेगा जब तक हम स्‍वयं को जानने से दूर भागते रहेंगे। हम अकसर उतना ही जान पाते हैं जितना हम जानना चाहते हैं या अपने बारे में जानते हैं, अपने से आगे बढ़ता हुआ कुछ दिखाई ही नहीं देता । इसीलिए आज भी यह मानना कठिन हो रहा है कि आखिर कोई स्‍त्री अपनी 'शुचिता' बनाये रखकर भी पांच पांच पतियों के साथ कैसे पत्‍नीधर्म निभा पाई। यदि द्रौपदी इतनी ही सामान्‍य या लांक्षना की पात्र होतीं तो क्‍या कृष्‍ण धर्म स्‍थापना के लिए 'महाभारत' और महाभारत के लिए द्रौपदी का चयन करते ? संभवत: नहीं, क्‍योंकि द्रौपदी सामान्‍य स्‍त्री नहीं थी। वह संबंधों की एक ऐसी निरंतरता थी जो व्‍यक्‍ति से व्‍यक्‍ति तक धर्म का अलग अलग संदेश देती रही अपने अंतिम समय तक। बिल्‍कुल कृष्‍ण की तरह जिन्‍होंने व्‍यक्‍तिगत आक्षेपों को लेकर सिर्फ धर्म का प्रतिदान किया। जहां तक बात है पांच पतियों के बावजूद शुचिता की तो वह भी उसके प्रेम की अनन्‍तता के कारण ही संभव हो सका, जिसमें कहीं कोई दुविधा नहीं ,कहीं कोई द्वैत नहीं। संभवत: इसीलिए श्रीकृष्‍ण ने कहा कि 'तुम कौन हो, तुम्‍हारे जन्‍म का औचित्‍य क्‍या है?' इसका उत्‍तर तुम्‍हारे अपने अंतर में अपनी आत्‍मा में छुपा है, यदि तुमने उससे सवाल करना शुरू कर दिया तो तुम्‍हें किसी से सवाल करने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी और जब एकबारगी ये सिलसिला चल निकलेगा तो...द्रौपदी की शुचिता पर सारे सवाल बेमानी हो जायेंगे।
बात इतनी सी है कि जिनसे हमें संबंधों को उचित ढंग से निबाहने और समाज को सुदृढ़ बनाने की प्रेरणा लेनी चाहिए उनमें द्रौपदी और श्रीकृष्‍ण का सखी - सखा संबंध सर्वोत्‍तम उदाहरण है। धर्म पर चलने के लिए व्‍यक्‍तिगत स्‍वार्थों और व्‍याक्‍तिगत हितों से आगे बढ़कर हम जब तक नहीं सोचेंगे तब तक हम द्रौपदी जैसे चरित्रों पर उंगली तो उठाते ही रहेंगे, संशयों में भी जियेंगे कि आखिर कैसे द्रौपदी को पांच महासतियों में गिना गया। महासतियां मतलब पांच पवित्रतम स्‍त्रियां...ये सिर्फ इसलिए नहीं था कि वो कृष्‍ण की सखी थीं। ये बात बढ़ी अर्थपूर्ण मानी जाती रही है और ये इस तथ्‍य की सूचक है कि द्रौपदी प्रेम की अनंतता को स्‍वयं परिभाषित कर पाई और स्‍त्रियों के लिए उन मानदंडों की स्‍थापना कर पाई कि जिनमें वह एक ही समय कई कर्तव्‍यों को पूरा कर सकती है। आज भी स्‍त्रियां यह सब कर हरी हैं परंतु अपनी अपनी खूंटियों से बंधकर और ये खूंटी कोई प्रत्‍यक्ष हों ,ऐसा नहीं हैं ,कई अप्रत्‍यक्ष भी हैं,उनकी अपनी सोचों को जो बांधे हुये हैं। जब तक ऐसा बना रहेगा तब तक  पुरुष और स्‍त्री दोनों ही समाज में संबंधों की शुचिता के लिए प्रश्‍नों को खड़ा करते रहेंगे। निश्‍चित ही ये स्‍थिति समाज के ,धर्म के ठेकेदारों के लिए मुफीद बनी रहेगी वहीं हम स्‍वयं को जानने से बहुत दूर निकल गये होंगे।
- अलकनंदा सिंह

रविवार, 19 जनवरी 2014

मैंने ही नहीं पी, तूने भी तो पी है.....

मैंने ही नहीं पी, तूने भी तो पी है.....वे दोनों दोस्‍त पंचों के फरमान को तोड़ने का दुस्‍साहस करने जा रहे थे मगर अभी ये बहस कानाफूसी स्‍टाइल में चल ही रही थी कि एक ग्रामीण  पंचों को ले आया और पंचों के सामने दोनों दोस्‍तों को आर्थिक दंड के साथ शराब को फिर कभी हाथ न लगाने के लिए अपने बच्‍चों की कसम खानी पड़ी।
इतना ही नहीं, भीषण ठण्‍ड के बावजूद उन पर ये ज़िम्‍मेदारी भी डाली गई कि वो आसपास  के चालीस कोसों तक शराब पर प्रतिबंध को लेकर जनजागरण करेंगे। चूंकि पंच जानते हैं कि शराब के लती या शौकीनों को बच्‍चों की कसम और आर्थिकदंड से नहीं रोका जा सकता, इसलिए उन्‍होंने इस कोहरे से लदी-फदी ठंड में बाहर निकलने की जिम्‍मेदारी डाल दी जो उन्‍हें शराब से दूर रखने में ज्‍यादा कारगर थी। अब वे दोनों रोज़ाना सुबह निकलते हैं और हर दिन एक गांव में जाकर शराब बंदी के प्रति लोगों को जागरूक करते हैं। इससे आगे का काम फिर पंचों का होता है।
जी हां! ये ब्रजक्षेत्र में शराब, शराबियों, ठेकेदारों और शराब माफियाओं के खिलाफ चलाया जाने वाला एक अनोखा अभियान है जिसे महज एक ग्राम पंचायत ने यूं ही एक प्रयोग के तौर पर शुरू किया था लेकिन आज एक दर्जन ग्राम पंचायतों में यह अभियान सफल रहा है । कृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली के दूरदराज गांवों में ये अलख जगाकर पंचों ने तमाम नेतागिरी को आइना दिखाया है कि यदि इच्‍छाशक्‍ति हो तो कोई भी सुधार कार्यक्रम अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। इसके लिए न बजट की जरूरत है... न सरकारी लावलश्‍कर की.... और ना ही अफसरशाही की।
अब तो आलम ये हो चला है कि जनपद मथुरा की हरियाणा और  राजस्‍थान से लगी सीमाओं तक इस अभियान ने अपना दायरा फैला लिया है। शराब माफियाओं के पैर उखड़ने लगे हैं, हालांकि अभी माफिया से पूरी तरह निजात मिलना बाकी है ।
 ये वही क्षेत्र है जहां गौकशी, अवैध हथियार सप्‍लाई, टटलुओं (पीतल को सोना बताकर अपराध करने वालों) की भारी मौजूदगी, बड़े बड़े ट्रकों की लूट एवं उनके चालक-परिचालकों की हत्‍या के साथ-साथ गांव के गांव वाहन चोरी के ऐसे गढ़ बन चुके हैं, यहां पुलिस को नाकों चने चबाने पड़ते हैं। पुलिस  के तमाम अधिकारी तो इसे बर्र के छत्‍ते की संज्ञा भी दे चुके हैं क्‍योंकि यहां अपराधी खोजे नहीं मिल सकता ।
ग्राम पंचायतों द्वारा सख़्ती के साथ लागू किए गये इस सुधार कार्यक्रम को अब आसपास की ग्राम पंचायतें स्‍वेच्‍छा से चलाने को रोज मशक्‍कत कर रही हैं। कोसी, छाता, शेरगढ़ से चलता हुआ ये अभियान अब राजस्‍थान के सीमावर्ती गांवों तक भी पहुंच गया है।
आज नज़ारा ये आम होता है कि न कोई भवन.. ना कोई चाय-नाश्‍ते का इंतजाम.. न कोई फाइलों का अंबार...और ना कोई वाहन..हर रोज पैदल चलकर जनजागरण की धुन... बस खुले में जल रहे अलावों के  आसपास खालिस ग्रामीण वेशभूषा में जमा होते पंच और जनता से उठती शपथ लेने की आवाजें बता रही हैं कि शराबबंदी के लिए चलाया जा रहा ये अभियान अब थमने वाला नहीं है। सिर्फ शराब पिलाकर ही शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी बरबादियों के इस मंज़र को भुगतने के लिए जो ग्रामीण अभिशप्‍त थे, वे आज सुधारक की भूमिका में हैं ।  जिस शिद्दत से  ग्रामीणों ने अपने इस अभियान को परवान चढ़ाने का जिम्‍मा अपने ही कंधों पर लिया है,उससे माफिया , अफसरों और उन नेताओं के होश फ़ाख्‍़ता हुये हैं जो अभी तक ग्रामीणों को अपनी उंगलियों पर नचाते आये थे।
एक बात और जनआंदोलन सरीखी दिखने वाली शराबबंदी की ये अनूठी कोशिश अभी तक विलुप्‍त हो चुकी पंचायत-व्‍यवस्‍था के प्रति 'आस्‍था' को वापस ला रही है। जनहित के निर्णय में युवाओं का वापस बढ़चढ़कर हिस्‍सा लेना शुभ संकेत है 'ग्राम - सुराज' का । इन पंचायतों ने नशाबंदी क्षेत्र में शराब विक्रेताओं पर 5100 रु. और शराब पीने वाले व्‍यक्‍ति पर 1100 रु. का दंड रखा है । साथ ही दंडस्‍वरूप दोषी व्‍यक्‍ति जनजागरूकता के लिए नये गांवों में जाकर अन्‍य लोगों को इस अभियान के प्रति चेतायेगा।
निश्‍चित ही इस एक लत से निजात दिलाकर तमाम अपराधों को न केवल रोका जा सकता है बल्‍कि संपन्‍नता और समृद्धि का नया ककहरा भी गढ़ा जा सकता है...बस ये अभियान यूं ही चलते रहना चाहिए...।

- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

नहीं रहे मराठी कवि नामदेव ढसाल

मुंबई। 
मशहूर मराठी कवि नामदेव लक्ष्मण ढसाल का आज मुंबई में निधन हो गया है. वे लंबे समय से आंत के कैंसर से पीड़ित थे. सितंबर, 2013 में इलाज के लिए उन्हें मुंबई के बॉम्बे हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था जहां आज सुबह करीब 4 बजे उनका निधन हो गया। बताया गया है कि नामदेव लक्ष्मण ढसाल के शव को कल अंतिम दर्शन के लिए बाबा साहब हॉस्टल ग्राउंड में रखा जाएगा और दोपहर बाद एक बजे उनकी अंतिम यात्रा मुंबई के वडाला के डॉक्टर अंबेडकर कॉलेज से शुरू होगी. नामदेव ढसाल का जन्म 15 फरवरी 1949 को पुणे के एक दलित परिवार में हुआ था. ग़रीबी के बीच ढसाल का बचपन मुंबई के गोलपिठा में बीता. युवा होते होते नामदेव ढसाल आजीविका चलाने के लिए टैक्सी ड्राइवर बन गए थे हालांकि अपने और अपने समाज के दर्द को उकरेने के लिए साहित्य और राजनीति उनका स्थायी मुकाम बन गया.
वरिष्ठ हिन्दी लेखक उदय प्रकाश ने नामदेव ढसाल के योगदान को याद करते हुए बताया कि ढसाल सही मायने में विद्रोही कवि थे. उन्हें आप प्रगतिशील नहीं कह सकते. उनकी कविताओं में बहुत ही तीव्र और बहुत तीखी प्रतिक्रिया थी. सड़कों और गटरों में पैदा होने वाली भाषा को उन्होंने कविता में आयात किया और कविता की परंपरा को बदल दिया.
ढसाल का पहला काव्य संग्रह 'गोलपिठा' मराठी साहित्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशियाई साहित्य में अहम जगह बनाने में कामयाब रहा.
इसके बाद उनके कई काव्य संग्रह 'मुर्ख महात्राणे', 'तुझी इयाता कांची', 'खेल' और 'प्रियदर्शिनी' चर्चित रहे. उन्होंने दो उपन्यास भी लिखे. 'आंधले शतक' और 'आंबेडकरी चालवाल' नाम से लिखे राजनीतिक पत्र भी चर्चित हुए. ढसाल बीते कुछ दिनों तक मराठी दैनिक 'सामना' में स्तंभ लिखते रहे. इससे पहले 'साप्ताहिक सत्यता' का संपादन भी उन्होंने किया.
नामदेव ढसाल को पद्मश्री, सोवियत लैंड पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका था. साहित्य अकादमी ने उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया था. जीवन के आखिरी सालों में लगातार बीमारी के वजह से उनकी सक्रियता कम हुई थी. इसी पड़ाव पर वे राजनीतिक तौर पर शिवसेना से जुड़ गए, जिसके चलते उनकी आलोचना भी हुई.
उनके जीवन में पहला अहम पड़ाव साल 1972 में तब आया जब अपने मित्रों के साथ उन्होंने दलित पैंथर आंदोलन की शुरुआत की. ढसाल इस आंदोलन का मुख्य चेहरा बनकर उभरे. इस संगठन ने दलित उत्पीड़न का जवाब बेहद रैडिकल तरीके से दिया और 1972-75 तक इसका प्रभाव देश भर में देखने को मिला. दलित पैंथर्स आंदोलन मुंबई के अभिजात्य तबके के ख़िलाफ़ कविता के क्षेत्र में बड़ा हस्तक्षेप था.- एजेंसी

शनिवार, 11 जनवरी 2014

लाइमलाइट में आइये..अचूक नुस्‍खा

जब से दामिनी केस हुआ है तब से अचानक ही औरतों के शुभचिंतक उनके हितों  को लेकर लाइमलाइट में आने का बहाना ढूढ़ने लगे हैं.. गोया औरत...औरत ना  हुई इज्‍़जत के ठेके का सामान हो गई कि जिसे जब चाहें..जो चाहे.. तब उठाने पर आमादा हो जाये.. और अगर इस प्रक्रिया में साथ ही खबरों की सुर्खियां भी बन जाये तो..यानि हर्र लगे ना फिटकरी रंग चोखा भी आ जाये। इन्‍हीं सुर्खियों में आने को औरतें अपनी बेचारगी का रोना रोने से नहीं कतरातीं और मीडिया उन्‍हें बेचारा बनाने से बाज नहीं आता। फिलहाल इसका केंद्रबिंदु कॉमेडी नाइट्स के कपिल शर्मा बने हुये हैं जिन्‍हें दो संस्‍थाओं ने महिलाओं का अपमान करने के मामले में नोटिस थमा दिया है।

आजकल ऐसे ऐसे मुद्दों को औरतों के सम्‍मान से जोड़कर अदालतों तक ले जाया जा रहा है  जिन्‍हें हम रोजमर्रा में बस यूं ही हंसी में उड़ा देते हैं। औरत-मर्द अलग अलग हों  या पति- पत्‍नी, किसी भी रूप में हों, ठिठोलियों में तो ये लगभग सेंटर प्‍वाइंट  ही होते  हैं। अब अगर हर मजाक को हम सम्‍मान और असम्‍मान से जोड़ने बैठ जायें तो जो मौके आज हमें अपनी ज़िंदगी की बजाय टीवी में से तलाश करने पड़ रहे हैं वे फिर वहां से भी नदारद हो जायेंगे। अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से मजाक गायब करने में वैसे ही कितने नियम कानूनों के रोड़े हैं ।

फिर प्रचार पाने को लोग क्‍या क्‍या हथकंडे नहीं अपनाते , यह महाराष्‍ट्र की दोनों  सामाजिक संस्‍थाओं ने बता दिया। महाराष्‍ट्र के महिला आयोग की पब्‍लिक  रिलेशन आफीसर मनीषा निर्भावने द्वारा दो सामाजिक संस्‍थाओं- कादियाने वागा  और भारतीय मुस्‍लिम महिला आंदोलन की शिकायत के आधार पर 'कॉमेडी  नाइट्स विद कपिल' के खिलाफ एक्‍शन लिया है कि शो के प्रस्‍तोता  कपिल शर्मा ने महिलाओं की बेइज्‍जती की है। अपने एक मजाक में कपिल शर्मा ने गर्भवती महिलाओं  को भद्दे रूप में पेश किया है। इतना ही नहीं ये दोनों ही संस्‍थायें चाहती हैं कि  कपिल शर्मा आइंदा से शो में प्रस्‍तुति दे रहीं अन्‍य महिला कलाकारों को भी नीचा  दिखाना बंद करें।
जिसने भी शो को देखा हो वह एकबारगी भी यह नहीं कहेगा कि शो  नॉनफैमिलियर है या इसमें फूहड़ता है बल्‍कि इसके ठीक उलट इसके कंटेंट की वजह से ही ये शो बच्‍चों से लेकर बूढ़ों तक लोकप्रिय है। रात को देर से आने की वजह भी इसकी ऑडिएंस को कम नहीं कर सकी। दूसरी ओर दोनों ही संस्‍थायें अपने किसी सामाजिक कार्य के लिए खबरों में नहीं आ सकीं तो उन्‍होंने ये हथकंडा अपनाया। अब इस एक प्रकरण से महिला हित के नाम पर उनकी झंडाबरादार बन जायेंगीं सो फायदा अलग से ।
हकीकतन, शो में आने वाली सेलेब्रिटी हों या शो की ऑडिएंस सभी जानबूझकर ऐसी बातें करते हैं कि कपिल शर्मा को उनकी खिल्‍ली उड़ाने का मौका मिलता है और यहीं ये ह्यूमर पैदा होता है।

ज़रा इन गुमनाम सी संस्‍थाओं से कोई ये पूछे कि सास-बहू टाइप जो नाटक टीवी पर चल रहे हैं, उनमें औरतों को कितने गिरते हुये स्‍तर तक दिखाया जाता है या जो अन्‍य कॉमेडी शो जिनमें अश्‍लील जोक औरतों को लेकर सुनाये जाते हैं अथवा अश्‍लीलता भरे एक्‍ट किये जाते हैं...या जो विज्ञापन दिखाये जा रहे हैं लगभग निर्वस्‍त्र स्‍त्रीदेह के संग... उनपर तो इन्‍होंने कोई एक्‍शन नहीं लिया और अचानक अब इन्‍हें औरतों के सम्मान की बात सताने लगी।मुझे तो लगता है कि ये संस्‍थायें भी अपना मजाक ही उड़वाने को ऐसा कर रही हैं।
बहरहाल इन संस्‍थाओं द्वारा हफ्ते में बमुश्‍किल दो दिन मिलने वाला ''बुक्‍का फाड़कर हंसने'' का एक मौका दर्शकों से जरूर छीना जा रहा है क्‍योंकि स्‍टैंडअप कॉमेडी में स्‍क्रिप्‍ट नहीं होती..ऑन द स्‍पॉट ह्यूमर ढूढ़ना और बनाना पड़ता है । और फिर वो हंसी ही क्‍या जो पहले सोचे समझे और फिर होठों पर आये।
रही बात गड्ढों वाली सड़क पर से गर्भवती महिलाओं को होने वाली परेशानियों की तो कौन नहीं जानता कि ये हकीकत है ,कपिल शर्मा तो माध्‍यम बने इसे व्‍यंग्‍य में सुनाने के..बस।
-अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

नाटक उस आख़िरी आदमी की आवाज़ है

मोहन राकेश, हबीब तनवीर, बादल सरकार, महाश्वेता देवी...भारतीय रंगमंच के आधुनिक युग के नाटककारों की यह सूची पुरानी सी लगती है, इसमें नए नाम क्यों नहीं जुड़ते दिखते? राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक भी मानते हैं कि भारत में नए नाटककारों और नाटकों की ज़बर्दस्त कमी है. इस व़क्त दिल्ली में चल रहे भारत रंग महोत्सव के नाटकों में भी कुछ ही कहानियां नई हैं.
और इन्हें लिखने वाले नए नाटककार नहीं बल्कि वो निदेशक हैं, जो रंगमंच से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. मसलन बंगाल के ‘रंगकर्मी’ नाटक ग्रुप की निदेशक ऊषा गांगुली, दिल्ली के ‘थिएटरवाला’ नाटक ग्रुप के निदेशक राम जी बाली और बिहार के राजेश चन्द्र.
रंगमंच पर इन सबका निजी सफ़र चाहे जितना अलग रहा हो, एक अनुभव साझा है– आम लोगों की ज़िंदगी से जुड़े सरोकारों पर नए नाटकों का अभाव, जिसे पूरा करने के लिए इन्होंने ख़ुद कलम उठा ली.
‘बाज़ारवाद के सामने सिर्फ़ रंगमंच ही खड़ा है’
ऊषा गांगुली का नाटक ‘हम मुख़्तारा’, पाकिस्तान की मुख़्तारन माई की सच्ची कहानी पर आधारित है. यौन हिंसा झेलने के बाद चुप रहने की जगह अपनी आवाज़ उठाने वाली मुख्तारन माई के ज़रिए वह सभी महिलाओं की बात रखना चाहती हैं.
उन्होंने कहा, “मेरे मन में उलझन थी क्योंकि कुछ बदल नहीं रहा. कभी दिल्ली, कोलकाता और कभी मुंबई, यौन हिंसा का लगातार सिलसिला चला जा रहा है. इसलिए तय किया कि मुख़्तारन पर लिखी किताब को प्रेरणा बनाकर मैं लिखूं.”
ऊषा के मुताबिक़ यौन हिंसा के बारे में भारत में ज़ोरदार साहित्य जिस पर नाटक बनाया जा सके, नहीं मिलेगा. हालांकि पश्चिमी देशों में इस मुद्दे पर बहुत नाटक मिलते हैं.
वह कहती हैं कि पुराने नाटकों को 30-40 साल बाद भी परोसते रहना उबाऊ है और यह नए सरोकारों के साथ न्याय भी नहीं करता.
भारत ही नहीं विश्व की बदलती परिस्थितियों में ऊषा के मुताबिक़, “बाज़ारवाद के सामने रंगमंच ही है जो अब भी झुका नहीं है, जो अब भी अपनी आवाज़ बुलंद कर सकता है और इसके लिए नए नाटक लिखा जाना बहुत ज़रूरी है.”
‘नाटक उस आख़िरी आदमी की आवाज़ है’
बिहार से आए ‘राग रेपरटरी’ का नाटक ‘जहाज़ी’ राजेश चन्द्र ने लिखा है. नाटक उन विस्थापित लोगों की कहानी है, जो विकास की बड़ी परियोजनाओं के चलते अपने घरबार छोड़ कहीं और बसने पर विवश हो जाते हैं, और वहां भी उनके साथ दुर्व्यवहार ही होता है.
राजेश बताते हैं, “बिहार और बंगाल से जहाज़ के ज़रिए नौकरी के लिए विदेश जाने वाले लोगों को हमारे इलाक़े में जहाज़ी कहा जाता था, पर विस्थापन इस व़क्त पूरी दुनिया की एक बड़ी सच्चाई है. मैंने इसी से जुड़ी कठिनाइयों को उभारने की कोशिश की है.”
इससे पहले राजेश दलितों के रोज़गार से जुड़ा नाटक लिख चुके हैं और कहते हैं कि उनका प्रयास अपने नाटकों को बहुत मौलिक रखने का होता है.
उनके मुताबिक़, “नाटक उस आख़िरी व्यक्ति की आवाज़ है जिसकी कोई पूछ नहीं है, जिसके बारे में कोई बात नहीं करता.”
राजेश बताते हैं कि पिछले तीन दशकों में साहित्य कला परिषद की ओर से नाटकों में पारंपरिक संगीत और अभिनय पर बहुत ज़ोर दिया गया और ऐसे काम के लिए वित्तीय सहायता भी दी गई.
पर राजेश के मुताबिक़ इससे बहुत अलग तरीक़े के नाटकों को प्रोत्साहन मिला और समकालीन मुद्दों पर वही रंगकर्मी काम करते रहे जो व्यक्तिगत स्तर पर इनसे विचलित थे.
‘सभी कलाओं में अभाव’
राम जी बाली का नाटक ‘कोई बात चले’ एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जिसकी उम्र बढ़ती जा रही है और शादी के लिए वधू नहीं मिल रही है.
राम जी बताते हैं कि नाटक है तो प्रेम कहानी, लेकिन उसमें हर पात्र के ज़रिए समाज के दबाव, परंपराओं और आम मध्यमवर्गीय लोगों की शंकाओं को उभारा गया है.
वह कहते हैं, “मेरे नाटक में एक संवाद में लड़की अग्रेज़ी में ही बात करती है और लड़का हिंदी बोलने पर आमादा रहता है, भाषा का ये द्वंद बहुत सामयिक है जो समाज में एक इंसान की अपनी पहचान बनाने की कोशिश को उभारता है.”
राम जी के मुताबिक़ ऐसा बहुत सा अच्छा साहित्य है, जिस पर नाटक नहीं बनाए जा सकते क्योंकि वह नाटक का स्वरूप ज़ेहन में रखकर नहीं लिखा गया.
वह आगे कहते हैं, “हर तरह के नाटक का अभाव है, और नाटक ही क्यों सभी कलाओं में, गायन और नृत्य में भी दूसरी लता मंगेशकर या दूसरे बिरजू महाराज नहीं सामने आए हैं.”
राम जी को लगता है कि निर्देशन का उनका लंबा अनुभव उन्हें रंगमंच की ज़रूरतों के मुताबिक़ अच्छा नाटक लिखने में मदद करता है.
-दिव्‍या आर्य

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

फिर भी...खुशी क्‍यों नहीं मिलती हमें

अरबों का कारोबार है धर्म का, अब तो लाख के आंकड़े को भी पर कर गई होगी उन संतों की संख्‍या जो धर्म के धंधे में लगे हैं। टीवी पर धार्मिक चैनलों की बाढ़ आई हुई है । मीडिया के सभी माध्‍यमों में भी मोस्‍ट सेलेबल बना हुआ है धर्म का धंधा । फिर क्‍यों गायब होती जा रही हमारी खुशी। हर चेहरे पर खुशी का नकाब तो है मगर खुशी नदारद है। सब एक्‍सपोजर नामक बीमारी से संक्रमित हुये जा रहे हैं और फायदा उठा रहे हैं धर्म के नाम पर व्‍यापार करने वाले। ऐसा क्‍यों है ? कभी सोचा है।
दरअसल भाव और भावना टेक्‍नोलॉजी से नहीं आते, इसकी कोई टेक्‍नीक नहीं कि भाव जो मन से उपजते हैं वो कब और किस तरह आयेंगे। भावों का हमारे मन पर छाने का कोई समय निर्धारित नहीं होता। वो तो बस आते हैं और जब आते हैं तब सारा विज्ञान और सारी टेक्‍नीक पीछे छूट जाती है। भावों के साथ अगर कोई चलता है तो केवल मन। एक मन ही है जिससे ही संचालित होती है सोचने और विचारने की शक्‍ति।
आज के महा तकनीकी काल में भावों का मन पर आच्‍छादित होना बिल्‍कुल ऐसे ही है जैसे कहीं वीराने में बहार से उपजा हो कोई आल्‍हादन और इसी आल्‍हादन से उपजेगी खुशी...।
श्रीमद्भगवतगीता का मनन इस ऊहापोही स्‍थिति से बचायेगा और निश्‍चित ही जिस खुशी के लिए हम ग्राहक बनते जा रहे हैं वह हमारे भीतर ही से उपजेगी। अब यह तो प्रामाणिकता के साथ सिद्ध भी किया जाता रहा है कि हमारी समस्‍याओं का हल श्रीमद्भगवतगीता में मौजूद है ।
गीता, हमें मन और भावों के स्‍तर पर जाकर इनकी यानि 'भावों की' व्‍याख्‍या करती दिखती है जिसे टैक्‍नोसेवी समाज से इतर रहकर ही समझा जा सकता है, फिजिकली या मेंटली दोनों ही स्‍थितियों में  गीता को शब्‍दरूप में ना देखकर उसे यदि अपने आत्‍मा पर ठकठका के देखा जाये तो ना जाने कितने और गूढ़ रहस्‍य स्‍वयं अपने ही पता  चलेंगे। अपनी साइकोलॉजी अपनी फीलिंग्‍स और अपने भीतर बैठे तमाम डर को किनारे कर यदि देखा जाये तो निश्‍चित ही अपने उन भावों तक पहुंचाजा सकता है जो मन की अपनी बात कहता है। और अपने मन के भीतर झांक पानाही तो खुशी का रास्‍ता है। यकीन मानिए कि यदि ऐसा कर पाये तो फिर किसी मंत्र बांटने वाले की जरूरत नहीं रह जायेगी। जरूरत है तो बस...साइकोलॉजी की इनर फीलिंग से चलकर आती अपनी टेलीपैथिक कम्‍युनिकेशन को बस एक बार आजमाने की....खुशी स्‍वयं सामने होगी।

 - अलकनंदा सिंह