राग कल्यान में गाया गया.....
प्रेम-समुद्र रूप-रस गहरे, कैसैं लागैं घाट।
बेकार यौं दै जान कहावत, जानिपन्यौं की कहा परी बाट?
काहू कौ सर सूधौ न परै, मारत गाल गली-गली हाट।
कहिं श्रीहरिदास जानि ठाकुर-बिहारी तकत ओट पाट॥18॥
राग आसावरी में गाया गया....
मन लगाय प्रीति कीजै, कर करवा सौं ब्रज-बीथिन दीजै सोहनी।
वृन्दावन सौं, बन-उपवन सौं, गुंज-माल हाथ पोहनी॥
गो गो-सुतन सौं, मृगी मृग-सुतन सौं, और तन नैंकु न जोहनी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी सौं चित, ज्यौं सिर पर दोहनी॥12॥
राग विभास में गाया गया....
हरि भज हरि भज, छाँड़ि न मान नर-तन कौ।
मत बंछै मत बंछै रे, तिल-तिल धन कौ॥
अनमाँग्यौं आगै आवैगौ, ज्यौं पल लागै पल कौं।
कहिं श्रीहरिदास मीचु ज्यौं आवैं, त्यौं धन है आपुन कौं॥4॥
इसीतरह राग कान्हरौ में ये भक्ति-पद कुछ इस तरह बना...
जोरी विचित्र बनाई री माई, काहू मन के हरन कौं।
चितवत दृष्टि टरत नहिं इत-उत, मन-बच-क्रम याही संग भरन कौं॥
ज्यौं घन-दामिनि संग रहत नित, बिछुरत नाहिंन और बरन कौं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी न टरन कौं॥4॥
ये चारों विलक्षण काव्य-संगीत की रचना उस 'अष्टाध्यायी सिद्धांत के पद' में से उदाहरणस्वरूप ली हैं मैंने, जिनकी रचना कर ध्रुपद गुरू स्वामी हरिदास ने ब्रज को शास्त्रीय गायन में एक ऐसा अभूतपूर्व स्थान दिलाया कि कृष्ण की बांसुरी से निकलने वाली स्वरलहरियां उनके पदों पर नाचने लगीं। सम्राट अकबर हों या ग्वालियर के तत्कालीन राजा मानसिंह तोमर, स्वामी हरिदास की रसिक-भक्ति के आगे सब लाचार दिखे। तानसेन और बैजूबावरा के गुरू हरिदास की भक्ति ने ही तो यहां बिहारीजी को युगलस्वरूप में प्रगट होने पर बाध्य कर दिया।
ऐसे भक्तों से आच्छादित रही और शास्त्रीय संगीत की ऐसी समृद्ध परंपरा वाली, श्रीकृष्ण की इस ब्रज नगरी में आज कुछ लोककलाओं को छोड़कर संगीत के नाम पर एक ऐसा खालीपन आया है जिसके प्रति कोई भी संजीदा नहीं दिखता। बुद्धिजीवियों द्वारा कोई प्रयास न किये जाने के कारण संगीत को लेकर आज ब्रज की झोली एकदम खाली हो चुकी है।
यूं समझिए कि कस्तूरी मृग की नाभि बन गई है कान्हा की यह भूमि, जहां सभी ब्रजवासी आज लोककलाओं का जो अंबार दिखता है, उसे ही ब्रज की थाती समझ बैठे हैं मगर जो कुछ इसकी नाभि में समाया हुआ था उसे विलुप्त कर दिया गया है।
विडंबना देखिए कि जहां ईश्वर आकर स्वयं नटवर नागर बन गया हो, सुदर्शन चक्र के आगे जहां बांसुरी ने श्रेष्ठता हासिल की हो, जहां नाट्यशास्त्र एवं संगीत- रत्नाकर जैसे ग्रंथों का संगीतमय यथार्थ जन्मा हो, वैदिककाल के संगीत को जहां यथावत रखने में भक्तिकाल के संत कवियों ने अपनी प्रतिभाओं को उड़ेल दिया हो, कुंजों में महारास और कालिंदी के कूल पर साम-गान (सामवेद में रचित संगीत) के पद बसे हों, जहां स्वामी हरिदास जैसे, ध्रुपद के प्रथम प्रचलित गायक तानसेन के गुरू, ने अपनी साधना की हो ....ऐसी ब्रजनगरी में संगीत की शोशेबाजी से स्वामी हरिदास की जयंती को कैश किया जाना और रोज़बरोज़ अनेक कथित हरिदासीय भक्तों की बाढ़ आना हमारे लिए बेहद लज्जाजनक है।
ऊपरी तौर पर देखने में लगता है कि ब्रज की कलायें जैसे होली गायन, समाज गायन, रसिक गायन आदि आज भी जीवित हैं परंतु ये तो बस कलाओं के नाम पर वो रस्में हैं जिनमें शास्त्रीयता सिरे से गायब है। कला के नाम पर एक अरसे से स्वामी हरिदास का नाम भी खूब भुनाने वाली, अकेले वृंदावन में ही डेढ़ दर्जन के आसपास ऐसी संस्थायें कुकुरमुत्तों की भांति जहां तहां उग आई हैं जो गाहेबगाहे मुंबइया सेलेब्रिटीज को बुलाबुलाकर ये सिद्ध करने में लगी रहती हैं कि देखो हम हैं स्वामी हरिदास जी के वंशज और हम ही हैं उस शास्त्रीय भक्ति संगीत के उत्तराधिकारी, जिसे पूरी की पूरी एक गायन शैली का जनक कहा जाता है। हां, स्वामी हरिदास संगीत समारोह में डागर बंधुओं, कत्थक नृत्यांगना उमाशर्मा की उपस्थिति इस लीक को पीटने में सहायक बनी रहती है और कभी तो वह भी नदारद रहती है।
कभी अष्टछाप व कीर्तनकार भक्त कवियों सूरदास, परमानंद दास, कुंभन दास, कृष्णदास, चतुर्भुज दास, नंददास, छितस्वामी, गोविन्द स्वामी, ध्रुवदास, रसखान, व्यास जी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधर भट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी ... से चलती ये श्रृंखला जब आज के ब्रज-संगीत समारोहों को सतही तौर पर दिखाती है तो अनजाने ही उस दर्द को महसूस किया जा सकता है जो कभी कृष्ण ने ब्रज से दूर जाकर उद्धव से कहा था कि ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं...।
बाजारवाद की भेंट चढ़े स्वामी हरिदास और उनके पद अब स्वयं अपने ही वंशजों के मकड़जाल में फंसे हुये हैं , देखना यह बाकी है कि कब तक आखिर ब्रज के नाम पर खाने-कमाने वाली कथित संस्थायें अपनी इस अमूल्य थाती को यूं अनदेखा करती रहेंगी। हालांकि उम्मीद सलिल भट्ट जैसे सात्विक वीणा के आविष्कारकों ने कुछ कलाकारों ने बंधाई भी है मगर विडंबना है कि ये कलाकार स्वयं को ब्रज से जोड़े जाने पर बगलें झांकते दिखते हैं। स्वयं इन्होंने ब्रज के शास्त्रीय खजाने को बचाने या इसे आगे बढ़ाने को कुछ किया हो, अभी तक ऐसा कोई प्रयास सामने नहीं आया है। फिर सरकार और सांस्कृतिक विभाग से ऐसी आशा व्यर्थ ही होगी। निश्चित ही कृष्ण यदि अपने परमप्रिय भक्त कवियों की रचनाओं की ऐसी अवहेलना देखते तो कहते कि ऊधौ, मोसौं मेरौ ब्रज बिसर गयौ ...
- अलकनंदा सिंह
प्रेम-समुद्र रूप-रस गहरे, कैसैं लागैं घाट।
बेकार यौं दै जान कहावत, जानिपन्यौं की कहा परी बाट?
काहू कौ सर सूधौ न परै, मारत गाल गली-गली हाट।
कहिं श्रीहरिदास जानि ठाकुर-बिहारी तकत ओट पाट॥18॥
राग आसावरी में गाया गया....
मन लगाय प्रीति कीजै, कर करवा सौं ब्रज-बीथिन दीजै सोहनी।
वृन्दावन सौं, बन-उपवन सौं, गुंज-माल हाथ पोहनी॥
गो गो-सुतन सौं, मृगी मृग-सुतन सौं, और तन नैंकु न जोहनी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी सौं चित, ज्यौं सिर पर दोहनी॥12॥
राग विभास में गाया गया....
हरि भज हरि भज, छाँड़ि न मान नर-तन कौ।
मत बंछै मत बंछै रे, तिल-तिल धन कौ॥
अनमाँग्यौं आगै आवैगौ, ज्यौं पल लागै पल कौं।
कहिं श्रीहरिदास मीचु ज्यौं आवैं, त्यौं धन है आपुन कौं॥4॥
इसीतरह राग कान्हरौ में ये भक्ति-पद कुछ इस तरह बना...
जोरी विचित्र बनाई री माई, काहू मन के हरन कौं।
चितवत दृष्टि टरत नहिं इत-उत, मन-बच-क्रम याही संग भरन कौं॥
ज्यौं घन-दामिनि संग रहत नित, बिछुरत नाहिंन और बरन कौं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी न टरन कौं॥4॥
ये चारों विलक्षण काव्य-संगीत की रचना उस 'अष्टाध्यायी सिद्धांत के पद' में से उदाहरणस्वरूप ली हैं मैंने, जिनकी रचना कर ध्रुपद गुरू स्वामी हरिदास ने ब्रज को शास्त्रीय गायन में एक ऐसा अभूतपूर्व स्थान दिलाया कि कृष्ण की बांसुरी से निकलने वाली स्वरलहरियां उनके पदों पर नाचने लगीं। सम्राट अकबर हों या ग्वालियर के तत्कालीन राजा मानसिंह तोमर, स्वामी हरिदास की रसिक-भक्ति के आगे सब लाचार दिखे। तानसेन और बैजूबावरा के गुरू हरिदास की भक्ति ने ही तो यहां बिहारीजी को युगलस्वरूप में प्रगट होने पर बाध्य कर दिया।
ऐसे भक्तों से आच्छादित रही और शास्त्रीय संगीत की ऐसी समृद्ध परंपरा वाली, श्रीकृष्ण की इस ब्रज नगरी में आज कुछ लोककलाओं को छोड़कर संगीत के नाम पर एक ऐसा खालीपन आया है जिसके प्रति कोई भी संजीदा नहीं दिखता। बुद्धिजीवियों द्वारा कोई प्रयास न किये जाने के कारण संगीत को लेकर आज ब्रज की झोली एकदम खाली हो चुकी है।
यूं समझिए कि कस्तूरी मृग की नाभि बन गई है कान्हा की यह भूमि, जहां सभी ब्रजवासी आज लोककलाओं का जो अंबार दिखता है, उसे ही ब्रज की थाती समझ बैठे हैं मगर जो कुछ इसकी नाभि में समाया हुआ था उसे विलुप्त कर दिया गया है।
विडंबना देखिए कि जहां ईश्वर आकर स्वयं नटवर नागर बन गया हो, सुदर्शन चक्र के आगे जहां बांसुरी ने श्रेष्ठता हासिल की हो, जहां नाट्यशास्त्र एवं संगीत- रत्नाकर जैसे ग्रंथों का संगीतमय यथार्थ जन्मा हो, वैदिककाल के संगीत को जहां यथावत रखने में भक्तिकाल के संत कवियों ने अपनी प्रतिभाओं को उड़ेल दिया हो, कुंजों में महारास और कालिंदी के कूल पर साम-गान (सामवेद में रचित संगीत) के पद बसे हों, जहां स्वामी हरिदास जैसे, ध्रुपद के प्रथम प्रचलित गायक तानसेन के गुरू, ने अपनी साधना की हो ....ऐसी ब्रजनगरी में संगीत की शोशेबाजी से स्वामी हरिदास की जयंती को कैश किया जाना और रोज़बरोज़ अनेक कथित हरिदासीय भक्तों की बाढ़ आना हमारे लिए बेहद लज्जाजनक है।
ऊपरी तौर पर देखने में लगता है कि ब्रज की कलायें जैसे होली गायन, समाज गायन, रसिक गायन आदि आज भी जीवित हैं परंतु ये तो बस कलाओं के नाम पर वो रस्में हैं जिनमें शास्त्रीयता सिरे से गायब है। कला के नाम पर एक अरसे से स्वामी हरिदास का नाम भी खूब भुनाने वाली, अकेले वृंदावन में ही डेढ़ दर्जन के आसपास ऐसी संस्थायें कुकुरमुत्तों की भांति जहां तहां उग आई हैं जो गाहेबगाहे मुंबइया सेलेब्रिटीज को बुलाबुलाकर ये सिद्ध करने में लगी रहती हैं कि देखो हम हैं स्वामी हरिदास जी के वंशज और हम ही हैं उस शास्त्रीय भक्ति संगीत के उत्तराधिकारी, जिसे पूरी की पूरी एक गायन शैली का जनक कहा जाता है। हां, स्वामी हरिदास संगीत समारोह में डागर बंधुओं, कत्थक नृत्यांगना उमाशर्मा की उपस्थिति इस लीक को पीटने में सहायक बनी रहती है और कभी तो वह भी नदारद रहती है।
कभी अष्टछाप व कीर्तनकार भक्त कवियों सूरदास, परमानंद दास, कुंभन दास, कृष्णदास, चतुर्भुज दास, नंददास, छितस्वामी, गोविन्द स्वामी, ध्रुवदास, रसखान, व्यास जी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधर भट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी ... से चलती ये श्रृंखला जब आज के ब्रज-संगीत समारोहों को सतही तौर पर दिखाती है तो अनजाने ही उस दर्द को महसूस किया जा सकता है जो कभी कृष्ण ने ब्रज से दूर जाकर उद्धव से कहा था कि ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं...।
बाजारवाद की भेंट चढ़े स्वामी हरिदास और उनके पद अब स्वयं अपने ही वंशजों के मकड़जाल में फंसे हुये हैं , देखना यह बाकी है कि कब तक आखिर ब्रज के नाम पर खाने-कमाने वाली कथित संस्थायें अपनी इस अमूल्य थाती को यूं अनदेखा करती रहेंगी। हालांकि उम्मीद सलिल भट्ट जैसे सात्विक वीणा के आविष्कारकों ने कुछ कलाकारों ने बंधाई भी है मगर विडंबना है कि ये कलाकार स्वयं को ब्रज से जोड़े जाने पर बगलें झांकते दिखते हैं। स्वयं इन्होंने ब्रज के शास्त्रीय खजाने को बचाने या इसे आगे बढ़ाने को कुछ किया हो, अभी तक ऐसा कोई प्रयास सामने नहीं आया है। फिर सरकार और सांस्कृतिक विभाग से ऐसी आशा व्यर्थ ही होगी। निश्चित ही कृष्ण यदि अपने परमप्रिय भक्त कवियों की रचनाओं की ऐसी अवहेलना देखते तो कहते कि ऊधौ, मोसौं मेरौ ब्रज बिसर गयौ ...
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें