(स्वामी दयानंद सरस्वती के जन्मदिन पर विशेष)
जीवन में अधिकांशत: ऐसा होता है कि हम किसी भी घटना, व्यक्ति या संदर्भों को पूरी तरह से जाने बिना उस पर प्रतिक्रिया जताने में अपनी ऊर्जा खर्च कर देते हैं परन्तु समाज में जो कुछ भी नकारात्मक घट रहा है उसे बेहतर बनाने में इस ऊर्जा का प्रयोग नहीं करते। ऊर्जा के ध्वस्त होते रहने को नियति मान लेते हैं, कर्म से बचने के अनेक उपाय खोज लेते हैं और विघटित होते मूल्यों के लिए कोसने लगते हैं। इसीलिए कृष्ण ने गीता में स्वयं कर्म करने का मार्ग हमें बताया है। कृष्ण के बाद आधुनिक काल में इसी कर्ममार्ग का अनुसरण कर अपने भीतर बैठी 'ऊर्जा' को समाज सुधार के लिए उपयोग करने का सर्वोत्तम मार्ग दिखाया स्वामी दयानंद सरस्वती ने।
आज स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्मदिन है, जिन्होंने स्वयं को धर्म की शुद्धता के लिए उसमें बैठ चुके पाखंड को उखाड़ फेंकने को आर्यसमाज की स्थापना की।
ये अद्भुत संयोग नहीं तो और क्या है कि हजारों साल पहले शांति और धर्म की स्थापना को भगवान कृष्ण ने जिस गुजरात को चुना, आधुनिक काल में एक बार फिर गुजरात से धर्म के पुनर्रुद्धार करने को यात्रा करके एक काठियावाड़ी युवक मूलशंकर मथुरा आया और स्वामी विरजानंद से दीक्षा ले स्वामी दयानंद के रूप में प्रसिद्ध हुआ। श्रीकृष्ण के बाद गुजरात से मथुरा का संबंध फिर से एक नये धर्म की स्थापना का केंद्र बना।
सन् १८६३ से चली धर्मसुधार की इस यात्रा ने अनेक सोपानों को पार करते हुये, हिन्दू धर्म में गहरे पैठ गईं कमजोरियों को दूर करने के लिए 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई, जो ७ अप्रैल १८७५ को मुंबई में आर्यसमाज की स्थापना के साथ वेदों की ओर लौटो के नारे में बंधी थी परंतु बदलते समय में आज आर्यसमाज स्वयं ही अनेक विसंगतियों और उपेक्षाओं का शिकार हो रहा है। हम आयेदिन देखते हैं कि अनेक मूढ़ व कथित धर्मज्ञ आज आर्यसमाज के नाम पर जिस तरह अनाचारों को समाज में बढ़ते देख कर भी चुप हैं और पाखंडों को अपने तरह से बढ़ाने में लगे हैं, उसे निश्चित ही स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रयासों का ह्रास माना जायेगा।
जीवन में विचारों की शुद्धता के लिए स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश तथा वेदभाष्यों की रचना की। इन्होंने कुरीतियों से दुखी होकर या अशिक्षा के कारण धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: निज धर्म में वापस आने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया जो १८८३ में स्वामी जी के देहांत के बाद भी उनके निकट अनुयायियों लाला हंसराज और स्वामी श्रद्धानंद के प्रयासों से आगे बढ़ता रहा। इसकी कड़ी बने १८८६ में लाहौर के 'दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज' व १९०१ में हरिद्वार के कांगड़ी में बनाया गुरुकुल, शिक्षा के माध्यम से धर्मजागरण का माध्यम बने।
कहावत है ना कि रुके हुये जल में सड़ांध आ जाती है आज धर्म के रास्ते जनजागरण के लिए चलाये गये ये पाखंड विरोधी शैक्षिक अभियान भी इसी सड़ांध का शिकार हो रहे हैं। आर्यसमाज के लिए दान दी गई संपत्तियों पर पाखंडियों ने कब्जे कर रखे हैं।
जिन स्वामी दयानंद ने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना और कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा संन्यास को अपने दर्शन के लिए चार स्तम्भ के रूप में स्थापित किया, आज ये सभी सिद्धांत पुस्तकालयों में धूल फांक रहे हैं या शोधकर्ताओं के अध्ययन तक सिमट गये हैं।
स्वामी जी हिन्दू धर्म में ही नहीं बल्कि सभी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा खंडन करते थे, चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो या ईसाई धर्म हो। अपने महाग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश" में स्वामी जी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग, स्वामी जी का मत शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था अपितु आर्य समाज की स्थापना के माध्यम से भारत के साधारण जनमानस को भी अपनी ओर आकर्षित किया। यह आंदोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारंभ हुआ था। आर्यसमाज सिद्धांतों के अंतर्गत शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते हुये मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकारता थी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये था कि छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है।
आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
अर्थात - विश्व को आर्य बनाते चलो।
आर्यसमाज एक जनविचारधारा थी जिसने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इसके अनुयायियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बढ-चढ कर भाग लिया। आर्य समाज के प्रभाव से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आन्दोलन आरंभ हुआ था।आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में एक नयी चेतना का आरंभ किया था। स्वतंत्रता पूर्व काल में हिंदू समाज के नवजागरण और पुनरुत्थान आंदोलन के रूप में आर्य समाज सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन था। यह पूरे पश्चिम और उत्तर भारत में सक्रिय था तथा सुप्त हिन्दू जाति को जागृत करने में संलग्न था। यहाँ तक कि आर्य समाजी प्रचारक फिजी, मारीशस, गयाना, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका में भी हिंदुओं को संगठित करने के उद्देश्य से पहुँच रहे थे। आर्य समाजियों ने सबसे बड़ा कार्य जाति व्यवस्था को तोड़ने और सभी हिन्दुओं में समानता का भाव जागृत करने का किया।
आर्य, चूंकि शुद्धता का पर्याय माने गये इसलिए मानसिक अनार्यता के इस समय में स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रसंगिकता, उनके सिद्धांतों की जरूरत बहुत अधिक महसूस की जा रही है ताकि न केवल क्षीण होते आर्य समाज को बचाया जा सके बल्कि मानवता को भी उच्च आदर्शों के साथ सींचा जा सके,तभी सार्थक होगा स्वामी दयानंद सरस्वती का धर्म को जनजन तक लाने का सपना।
-अलकनंदा सिंह
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