अरबों का कारोबार है धर्म का, अब तो लाख के आंकड़े को भी पर कर गई होगी उन संतों की संख्या जो धर्म के धंधे में लगे हैं। टीवी पर धार्मिक चैनलों की बाढ़ आई हुई है । मीडिया के सभी माध्यमों में भी मोस्ट सेलेबल बना हुआ है धर्म का धंधा । फिर क्यों गायब होती जा रही हमारी खुशी। हर चेहरे पर खुशी का नकाब तो है मगर खुशी नदारद है। सब एक्सपोजर नामक बीमारी से संक्रमित हुये जा रहे हैं और फायदा उठा रहे हैं धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले। ऐसा क्यों है ? कभी सोचा है।
दरअसल भाव और भावना टेक्नोलॉजी से नहीं आते, इसकी कोई टेक्नीक नहीं कि भाव जो मन से उपजते हैं वो कब और किस तरह आयेंगे। भावों का हमारे मन पर छाने का कोई समय निर्धारित नहीं होता। वो तो बस आते हैं और जब आते हैं तब सारा विज्ञान और सारी टेक्नीक पीछे छूट जाती है। भावों के साथ अगर कोई चलता है तो केवल मन। एक मन ही है जिससे ही संचालित होती है सोचने और विचारने की शक्ति।
आज के महा तकनीकी काल में भावों का मन पर आच्छादित होना बिल्कुल ऐसे ही है जैसे कहीं वीराने में बहार से उपजा हो कोई आल्हादन और इसी आल्हादन से उपजेगी खुशी...।
श्रीमद्भगवतगीता का मनन इस ऊहापोही स्थिति से बचायेगा और निश्चित ही जिस खुशी के लिए हम ग्राहक बनते जा रहे हैं वह हमारे भीतर ही से उपजेगी। अब यह तो प्रामाणिकता के साथ सिद्ध भी किया जाता रहा है कि हमारी समस्याओं का हल श्रीमद्भगवतगीता में मौजूद है ।
गीता, हमें मन और भावों के स्तर पर जाकर इनकी यानि 'भावों की' व्याख्या करती दिखती है जिसे टैक्नोसेवी समाज से इतर रहकर ही समझा जा सकता है, फिजिकली या मेंटली दोनों ही स्थितियों में गीता को शब्दरूप में ना देखकर उसे यदि अपने आत्मा पर ठकठका के देखा जाये तो ना जाने कितने और गूढ़ रहस्य स्वयं अपने ही पता चलेंगे। अपनी साइकोलॉजी अपनी फीलिंग्स और अपने भीतर बैठे तमाम डर को किनारे कर यदि देखा जाये तो निश्चित ही अपने उन भावों तक पहुंचाजा सकता है जो मन की अपनी बात कहता है। और अपने मन के भीतर झांक पानाही तो खुशी का रास्ता है। यकीन मानिए कि यदि ऐसा कर पाये तो फिर किसी मंत्र बांटने वाले की जरूरत नहीं रह जायेगी। जरूरत है तो बस...साइकोलॉजी की इनर फीलिंग से चलकर आती अपनी टेलीपैथिक कम्युनिकेशन को बस एक बार आजमाने की....खुशी स्वयं सामने होगी।
- अलकनंदा सिंह
दरअसल भाव और भावना टेक्नोलॉजी से नहीं आते, इसकी कोई टेक्नीक नहीं कि भाव जो मन से उपजते हैं वो कब और किस तरह आयेंगे। भावों का हमारे मन पर छाने का कोई समय निर्धारित नहीं होता। वो तो बस आते हैं और जब आते हैं तब सारा विज्ञान और सारी टेक्नीक पीछे छूट जाती है। भावों के साथ अगर कोई चलता है तो केवल मन। एक मन ही है जिससे ही संचालित होती है सोचने और विचारने की शक्ति।
आज के महा तकनीकी काल में भावों का मन पर आच्छादित होना बिल्कुल ऐसे ही है जैसे कहीं वीराने में बहार से उपजा हो कोई आल्हादन और इसी आल्हादन से उपजेगी खुशी...।
श्रीमद्भगवतगीता का मनन इस ऊहापोही स्थिति से बचायेगा और निश्चित ही जिस खुशी के लिए हम ग्राहक बनते जा रहे हैं वह हमारे भीतर ही से उपजेगी। अब यह तो प्रामाणिकता के साथ सिद्ध भी किया जाता रहा है कि हमारी समस्याओं का हल श्रीमद्भगवतगीता में मौजूद है ।
गीता, हमें मन और भावों के स्तर पर जाकर इनकी यानि 'भावों की' व्याख्या करती दिखती है जिसे टैक्नोसेवी समाज से इतर रहकर ही समझा जा सकता है, फिजिकली या मेंटली दोनों ही स्थितियों में गीता को शब्दरूप में ना देखकर उसे यदि अपने आत्मा पर ठकठका के देखा जाये तो ना जाने कितने और गूढ़ रहस्य स्वयं अपने ही पता चलेंगे। अपनी साइकोलॉजी अपनी फीलिंग्स और अपने भीतर बैठे तमाम डर को किनारे कर यदि देखा जाये तो निश्चित ही अपने उन भावों तक पहुंचाजा सकता है जो मन की अपनी बात कहता है। और अपने मन के भीतर झांक पानाही तो खुशी का रास्ता है। यकीन मानिए कि यदि ऐसा कर पाये तो फिर किसी मंत्र बांटने वाले की जरूरत नहीं रह जायेगी। जरूरत है तो बस...साइकोलॉजी की इनर फीलिंग से चलकर आती अपनी टेलीपैथिक कम्युनिकेशन को बस एक बार आजमाने की....खुशी स्वयं सामने होगी।
- अलकनंदा सिंह
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