मिर्जा़ गा़लिब ने यह कहते हुये ना जाने कितने जन्मों का सफर तय किया होगा,ना जाने कितनी बदहालियों को अपनी इन लाइनों में समेटा होगा कि..
''आह को चाहिए एक उम्र, असर होने तक...'', हर आह को अपना असर दिखाने तक उम्र का पूरे का पूरा एक दौर तय करना होता है ।
किन्हीं भी आहों के 'असर में आने तक' की यह उम्र कितनी होगी..इसकी कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह तो आहों की शिद्दत पर निर्भर करता है । इसीलिए आहों को अपने प्रकट रूप में आने तक का यह दौर शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिस्थितियों से तय होता आया है ।
मिर्जा़ ग़ालिब ने 'आह' निकलने की प्रक्रिया को शब्दों में पिरोकर बताया । कष्ट और लाचारी जब हद से गुजरती है तब इनसे उपजती है आह ...तब से ही शुरू हो जाता है उसके 'असर' तक चलते जाने का सिलसिला..और ये तब तक जारी रहता है, जब तक कि अपेक्षित परिणाम ना हासिल कर ले। मिर्जा़ ने तो सोचा भी ना होगा कि उनके इन लफ़्जों में कितनी जिंदगियों और बेबसों का सच समेटा हुआ है...और वो अनायास ही कहते गये कि
'...कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ के सर होने तक'
सत्ताएं किसी की भी हों ... देश की, गांव की, घर की या फिर निजी संबंधों की, हमेशा बलशाली ही सत्ताधारी होता है। बल की उपस्थिति उसके हर निर्णय में रहती है कि अगर 'वह' मौजूद है तो बस 'वह' ही मौजूद है ।
उस 'वह ही' की मौजूदगी का अर्थ यह भी होता है कि उसका विवेक उसकी पीठ के पीछे हो गया है, और जो पीठ के पीछे है वह 'निर्णय के दौरान' अपनी राय स्पष्टत: जताने में नाकाम होगा ही। विवेकहीन बल के निर्णयों से न्याय की आशा नहीं की जा सकती इसीलिए बलशाली अधिकांशत: निरंकुश हो जाते हैं और अपने निर्णयों से 'प्रभावितों' के लिए आततायी ही सिद्ध होते हैं।
तभी तो दबे हुओं की आवाजें ..आवाजें ना होकर, आह बन जाती है..वे आहें अपने 'असर' में आने का इंतजा़र करती रहती हैं कि वे कब स्पष्ट आवाज़ बन पायें अपनी बात कहने के लिए...
इसीलिए मिर्जा़ कहते भी हैं कि..
''ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक....''
खैर, अब उन सबकी आहों का असर शुरू हो चुका है जो बलहीन थे और हैं भी ,ये असर दिख भी रहा है ।
अब देखिए ना..इसे पिछले सालों से चर्चा में लगातार आते जा रहे छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न व बलात्कार के मामलों में उठती आवाजों से समझा जा सकता है। साथ ही हैरानी की बात ये भी है कि उतनी ही शिद्दत से उठाई जा रही है समलैंगिकों के अधिकारों की बात भी....।
अच्छे-खासे स्त्री पुरुषों का समलिंगी होते जाना आखिर क्या है ? क्या ये सिर्फ विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण का खो जाना भर है ? क्या ये प्राकृतिक है ? क्या ये अभी-अभी ही उपजी है ? क्या ये उत्कृष्ट सृष्टि की रचना के लिए सही अवस्था है ? क्या ये मानसिक व शारीरिक तौर पर प्रकृति का कोप नहीं है ?
हो भी सकता है.. ऐसा हो। ये भी हो सकता है कि शारीरिक शोषितों की 'साइकोलॉजिकल एंटीइनकंबेंसी' ही हो ?
ज़रा बताएं..? ये शोषितों द्वारा मानवजाति को मिली बद्दुआ सरीखी ही तो हैं ....जो कहती हैं कि हमारे साथ हुये अन्याय को तुम्हारी कई पीढ़ियां भुगतेंगीं...ये पूरा का पूरा मसला ही भावनाओं और अधिकारों के बीच झूलता है । यूं तो समलिंगी होना कोई अजूबा नहीं है या ऐसा नहीं है कि पहले बलात्कार नहीं होते थे या जबरन वेश्यावृत्ति,बाल वेश्यावृत्ति या पुरुष वेश्यावृत्ति नहीं थी मगर तब तक इन 'जबरन संबंधों' के शिकारों की आहों में कुछ असर बाकी रहा होगा....जो अब उबलकर बाहर आयेगा ही...धीरे धीरे ही सही..मगर आ रहा है..
हाल ही में पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले, जहां से हमारे राष्ट्रपति महोदय ताल्लुक रखते हैं, की पंचायत के कबीलाई आदेश में देखा जा सकता है । पंचायत फरमान सुनाती है कि गांव की युवती अगर गैरजाति के व्यक्ति से संबंध रखे तो बतौर सजा़ उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाये....। ये महज एक उदाहरण है मगर इस जैसे तमाम घिनौने प्रकरणों से लेकर धर्म, मीडिया, राजनीति, समाजसेवा और कानून से जुड़ी हस्तियों के बलात् कारनामों तक...लंबी फेहरिस्त है जबर्दस्ती की।
इसके अलावा खापों के खौफ़ से तमाम शहरों में दरबदर हो चुके प्रेमीजोड़ों की दास्तां हो ...वेश्यालयों में जकड़ी गई निरीह बच्चियां हों...पुरुष वेश्याओं की ल्रगातार बढ़ रही तादाद हो...नपुंसकों का बढ़ता अनुपात हो..या फिर लैंगिक-मानसिक विकृतियों के साथ जी रहे लोग....ये सब वो परिस्थितियां हैं जो आधी आबादी के 'पूरे अस्तित्व' पर जबरन कब्जा़ करने से ही जन्मी हैं । इस विकृत रूप के आने वाले परिणामों का अंदाजा भी लगाते हुये डर लगता है ।
अब तो हाल ये हो गया है कि किसी भी विकृति को विकृति ही नहीं माना जा रहा है। बल्कि उसे मानवाधिकारों के खाते में डाल दिया जाता है। खैर, आज का ये टॉपिक लैंगिक बहस का है भी नहीं, इस बावत तो बहस लंबी खिंचेगी, इसलिए इस पर बात फिर कभी ।
फिलहाल, आप अपने ज़हन में झांककर देखिए और सोचिए कि क्या गांवों से लेकर पब तक भोग की ये विकृत लालसा उन औरतों और निरीहों की 'आह' नहीं है जिन्हें बलवानों ने रौंदा। कमजोरों को जीवन जीने की उत्कट इच्छा को रौंदकर वे तो आगे बढ़ गये और पीछे छोड़ गये वे आहें और उन्हें भुगतती पीढ़ियां..
इसीलिए मिर्जा़ ग्रा़लिब ने अपनी इस नज़्म को कुछ यूं लपेटा कि .....
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक ।
हमारे लिए तो बेहतर होगा कि समस्याओं के तकनीकी पक्ष की बजाय उन्हें ज़हनी तौर पर अपने भीतर उतारकर भी देखें और जब भी हम ऐसा कर पायेंगे तभी से शुरुआत समझिये उन सभी आहों का हिसाब चुकता हो जाने की, जो कमजोरों और असहायों पर ज़ुल्मों से निकलती हैं। अब और नहीं की तर्ज़ पर हमें लैंगिक अपराधों को समूल नष्ट करना होगा...एक साथ चलकर..फिर कहीं निर्भया न रो सके..वीरभूम की आदिवासी पंचायत हावी ना हो सके... ।
''आह को चाहिए एक उम्र, असर होने तक...'', हर आह को अपना असर दिखाने तक उम्र का पूरे का पूरा एक दौर तय करना होता है ।
किन्हीं भी आहों के 'असर में आने तक' की यह उम्र कितनी होगी..इसकी कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह तो आहों की शिद्दत पर निर्भर करता है । इसीलिए आहों को अपने प्रकट रूप में आने तक का यह दौर शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिस्थितियों से तय होता आया है ।
मिर्जा़ ग़ालिब ने 'आह' निकलने की प्रक्रिया को शब्दों में पिरोकर बताया । कष्ट और लाचारी जब हद से गुजरती है तब इनसे उपजती है आह ...तब से ही शुरू हो जाता है उसके 'असर' तक चलते जाने का सिलसिला..और ये तब तक जारी रहता है, जब तक कि अपेक्षित परिणाम ना हासिल कर ले। मिर्जा़ ने तो सोचा भी ना होगा कि उनके इन लफ़्जों में कितनी जिंदगियों और बेबसों का सच समेटा हुआ है...और वो अनायास ही कहते गये कि
'...कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ के सर होने तक'
सत्ताएं किसी की भी हों ... देश की, गांव की, घर की या फिर निजी संबंधों की, हमेशा बलशाली ही सत्ताधारी होता है। बल की उपस्थिति उसके हर निर्णय में रहती है कि अगर 'वह' मौजूद है तो बस 'वह' ही मौजूद है ।
उस 'वह ही' की मौजूदगी का अर्थ यह भी होता है कि उसका विवेक उसकी पीठ के पीछे हो गया है, और जो पीठ के पीछे है वह 'निर्णय के दौरान' अपनी राय स्पष्टत: जताने में नाकाम होगा ही। विवेकहीन बल के निर्णयों से न्याय की आशा नहीं की जा सकती इसीलिए बलशाली अधिकांशत: निरंकुश हो जाते हैं और अपने निर्णयों से 'प्रभावितों' के लिए आततायी ही सिद्ध होते हैं।
तभी तो दबे हुओं की आवाजें ..आवाजें ना होकर, आह बन जाती है..वे आहें अपने 'असर' में आने का इंतजा़र करती रहती हैं कि वे कब स्पष्ट आवाज़ बन पायें अपनी बात कहने के लिए...
इसीलिए मिर्जा़ कहते भी हैं कि..
''ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक....''
खैर, अब उन सबकी आहों का असर शुरू हो चुका है जो बलहीन थे और हैं भी ,ये असर दिख भी रहा है ।
अब देखिए ना..इसे पिछले सालों से चर्चा में लगातार आते जा रहे छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न व बलात्कार के मामलों में उठती आवाजों से समझा जा सकता है। साथ ही हैरानी की बात ये भी है कि उतनी ही शिद्दत से उठाई जा रही है समलैंगिकों के अधिकारों की बात भी....।
अच्छे-खासे स्त्री पुरुषों का समलिंगी होते जाना आखिर क्या है ? क्या ये सिर्फ विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण का खो जाना भर है ? क्या ये प्राकृतिक है ? क्या ये अभी-अभी ही उपजी है ? क्या ये उत्कृष्ट सृष्टि की रचना के लिए सही अवस्था है ? क्या ये मानसिक व शारीरिक तौर पर प्रकृति का कोप नहीं है ?
हो भी सकता है.. ऐसा हो। ये भी हो सकता है कि शारीरिक शोषितों की 'साइकोलॉजिकल एंटीइनकंबेंसी' ही हो ?
ज़रा बताएं..? ये शोषितों द्वारा मानवजाति को मिली बद्दुआ सरीखी ही तो हैं ....जो कहती हैं कि हमारे साथ हुये अन्याय को तुम्हारी कई पीढ़ियां भुगतेंगीं...ये पूरा का पूरा मसला ही भावनाओं और अधिकारों के बीच झूलता है । यूं तो समलिंगी होना कोई अजूबा नहीं है या ऐसा नहीं है कि पहले बलात्कार नहीं होते थे या जबरन वेश्यावृत्ति,बाल वेश्यावृत्ति या पुरुष वेश्यावृत्ति नहीं थी मगर तब तक इन 'जबरन संबंधों' के शिकारों की आहों में कुछ असर बाकी रहा होगा....जो अब उबलकर बाहर आयेगा ही...धीरे धीरे ही सही..मगर आ रहा है..
हाल ही में पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले, जहां से हमारे राष्ट्रपति महोदय ताल्लुक रखते हैं, की पंचायत के कबीलाई आदेश में देखा जा सकता है । पंचायत फरमान सुनाती है कि गांव की युवती अगर गैरजाति के व्यक्ति से संबंध रखे तो बतौर सजा़ उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाये....। ये महज एक उदाहरण है मगर इस जैसे तमाम घिनौने प्रकरणों से लेकर धर्म, मीडिया, राजनीति, समाजसेवा और कानून से जुड़ी हस्तियों के बलात् कारनामों तक...लंबी फेहरिस्त है जबर्दस्ती की।
इसके अलावा खापों के खौफ़ से तमाम शहरों में दरबदर हो चुके प्रेमीजोड़ों की दास्तां हो ...वेश्यालयों में जकड़ी गई निरीह बच्चियां हों...पुरुष वेश्याओं की ल्रगातार बढ़ रही तादाद हो...नपुंसकों का बढ़ता अनुपात हो..या फिर लैंगिक-मानसिक विकृतियों के साथ जी रहे लोग....ये सब वो परिस्थितियां हैं जो आधी आबादी के 'पूरे अस्तित्व' पर जबरन कब्जा़ करने से ही जन्मी हैं । इस विकृत रूप के आने वाले परिणामों का अंदाजा भी लगाते हुये डर लगता है ।
अब तो हाल ये हो गया है कि किसी भी विकृति को विकृति ही नहीं माना जा रहा है। बल्कि उसे मानवाधिकारों के खाते में डाल दिया जाता है। खैर, आज का ये टॉपिक लैंगिक बहस का है भी नहीं, इस बावत तो बहस लंबी खिंचेगी, इसलिए इस पर बात फिर कभी ।
फिलहाल, आप अपने ज़हन में झांककर देखिए और सोचिए कि क्या गांवों से लेकर पब तक भोग की ये विकृत लालसा उन औरतों और निरीहों की 'आह' नहीं है जिन्हें बलवानों ने रौंदा। कमजोरों को जीवन जीने की उत्कट इच्छा को रौंदकर वे तो आगे बढ़ गये और पीछे छोड़ गये वे आहें और उन्हें भुगतती पीढ़ियां..
इसीलिए मिर्जा़ ग्रा़लिब ने अपनी इस नज़्म को कुछ यूं लपेटा कि .....
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक ।
हमारे लिए तो बेहतर होगा कि समस्याओं के तकनीकी पक्ष की बजाय उन्हें ज़हनी तौर पर अपने भीतर उतारकर भी देखें और जब भी हम ऐसा कर पायेंगे तभी से शुरुआत समझिये उन सभी आहों का हिसाब चुकता हो जाने की, जो कमजोरों और असहायों पर ज़ुल्मों से निकलती हैं। अब और नहीं की तर्ज़ पर हमें लैंगिक अपराधों को समूल नष्ट करना होगा...एक साथ चलकर..फिर कहीं निर्भया न रो सके..वीरभूम की आदिवासी पंचायत हावी ना हो सके... ।
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