संबंधों के सिमटते दायरों और सभ्यता व संस्कृति के क्षरण को लेकर बहसों से जुड़ा अरबों का करोबार दुनिया में फैला है । स्वयं हिन्दुस्तान में न जाने कितने साधु संत,न जाने कितने आश्रम, नाजाने कितनी स्वयंसेवी व समाजसेवी संस्थायें हैं फिर भी आज तक संबंधों को बचाने की और उनमें निरंतरता लाने की मशक्कत जारी है जबकि इसका समाधान हमारे इतिहास और हमारे पूर्वजों के ज्ञान में बाकायदा मिलता है ।
अकसर ऐसा होता है कि हम दूसरों को जानने का तो प्रयास लगातार करते रहते हैं मगर कभी खुद अपने भीतर झांकने की कोशिश तक नहीं करते। यह हमारी, स्वयं को सर्वज्ञ समझने व औरों में ताकाझांकी, करने जैसी दो बुरी प्रवृत्तियां हैं।
इन दोनों ही प्रवृत्तियों से निकला हमारी सोच का एक अच्छा पक्ष ये रहा कि इसने हमें न सिर्फ अपनी आत्मिक वृहदता का ज्ञान कराया बल्कि हमें एक पूर्ण पुरुष दिया और उसके सखाभाव का परिचय कराती एक पूर्ण स्त्री भी दी जो हमें स्वयं को हर रूप में जानने की सीढ़ी बन सकते हैं। संबंधों की पूर्णता पर बहस यदि इन दोनों ही सखा-सखी से जुड़े अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों से जोड़कर की जाये तो परिणाम सार्थक निकल सकते हैं। जो भी हो हमारी इन्हीं ताकाझांकी वाली प्रवृत्तियों ने ही, हमारे हजारों वर्ष पुराने इतिहास से और उसके ऐसे चरित्रों से भी परिचित कराया है जो आज भी प्रेरणादायी हैं।
जी हां, और वो पूर्ण पुरुष हैं श्रीकृष्ण और उनसे जुड़ी प्रत्येक वो घटना, जो मात्र घटना न होकर प्रसंग बन गई। इन्हीं प्रसंगों में 'द्रौपदी से श्रीकृष्ण का नाता' भी आता है जिसे आजतक पूर्णरूपेण तो कोई भी परिभाषित नहीं कर पाया है परन्तु सखी और सखा का ये अनूठा रिश्ता आज भी अपनी सतही सोच के चलते सतही तौर पर ही जाना जा सका है और संबंधों की ये सतही स्थिति आज हमारे अनेक प्रश्नों की वजह भी बनी हुई है। हमें स्वयं को जानने और समाज को बताने के लिए हमारे ये ऐतिहासिक चरित्र काफी सहायता कर सकते हैं।
अब देखिए ना, जिसतरह कृष्ण हमारे लिए किसी पहेली से कम नहीं रहे ठीक वैसे ही द्रौपदी भी बनीं रही। वो असामान्य हस्ती थीं- क्योंकि धर्म, न्याय और प्रेम के साथ धीरज का सामंजस्य बनाकर चलना आसान नहीं होता, वह भी अपनी अस्मिता को अक्षुण्ण रखकर।
अभी तक जितने भी धर्म और इतिहास के ज्ञाता हुये हैं उन्होंने द्रौपदी को मात्र 'पांच पतियों की स्त्री' या 'जिसके पीछे महाभारत हुआ' के रूप में एक सामान्य से लगने वाले चरित्र के रूप में पेश किया, द्रौपदी के आध्यात्मिक पक्ष को उन्होंने नकार सा दिया जबकि कृष्ण ने उन्हें इसी आध्यात्मिक आधार पर अपनी सखी बनाया था।
साहित्यिक दृष्टि से भी अपनी अपनी कल्पनाओं के आधार पर द्रौपदी को जानने का बहुत प्रयास किया गया तो वहीं आलोचनाओं का अंबार भी द्रौपदी के हिस्से खूब ही आया बल्कि इतना कि मां-बाप अपनी संतानों का नाम द्रौपदी रखने से बचने लगे। चारित्रिक आचरण पर भी लांक्षन खूब झेले द्रौपदी ने द्वापर युग से लेकर अब तक झेल रही है । हद तो तब होती है जब पुरुष आज भी अपने 'अनेक स्त्रियों के साथ संबंधों ' को उचित ठहराते हुये स्वयं की तुलना कृष्ण से कर बैठते हैं ठीक इसी प्रकार स्त्रियां भी अपने 'इतर संबंधों' को द्रौपदी की तुला पर तोलती हैं। यह बिल्कुल ऐसा ही है कि थाली के पानी में दिखने वाले चंद्रमा को हम वास्तविक समझने लगते हैं।
द्रौपदी और कृष्ण के संबंधों को मापने पर आज तक बहस जारी है क्योंकि बहस का मुद्दा भी तो वहीं से पनपता है जो अबूझ रह जाता है और ये तब तक मौजूद रहेगा जब तक हम स्वयं को जानने से दूर भागते रहेंगे। हम अकसर उतना ही जान पाते हैं जितना हम जानना चाहते हैं या अपने बारे में जानते हैं, अपने से आगे बढ़ता हुआ कुछ दिखाई ही नहीं देता । इसीलिए आज भी यह मानना कठिन हो रहा है कि आखिर कोई स्त्री अपनी 'शुचिता' बनाये रखकर भी पांच पांच पतियों के साथ कैसे पत्नीधर्म निभा पाई। यदि द्रौपदी इतनी ही सामान्य या लांक्षना की पात्र होतीं तो क्या कृष्ण धर्म स्थापना के लिए 'महाभारत' और महाभारत के लिए द्रौपदी का चयन करते ? संभवत: नहीं, क्योंकि द्रौपदी सामान्य स्त्री नहीं थी। वह संबंधों की एक ऐसी निरंतरता थी जो व्यक्ति से व्यक्ति तक धर्म का अलग अलग संदेश देती रही अपने अंतिम समय तक। बिल्कुल कृष्ण की तरह जिन्होंने व्यक्तिगत आक्षेपों को लेकर सिर्फ धर्म का प्रतिदान किया। जहां तक बात है पांच पतियों के बावजूद शुचिता की तो वह भी उसके प्रेम की अनन्तता के कारण ही संभव हो सका, जिसमें कहीं कोई दुविधा नहीं ,कहीं कोई द्वैत नहीं। संभवत: इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा कि 'तुम कौन हो, तुम्हारे जन्म का औचित्य क्या है?' इसका उत्तर तुम्हारे अपने अंतर में अपनी आत्मा में छुपा है, यदि तुमने उससे सवाल करना शुरू कर दिया तो तुम्हें किसी से सवाल करने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी और जब एकबारगी ये सिलसिला चल निकलेगा तो...द्रौपदी की शुचिता पर सारे सवाल बेमानी हो जायेंगे।
बात इतनी सी है कि जिनसे हमें संबंधों को उचित ढंग से निबाहने और समाज को सुदृढ़ बनाने की प्रेरणा लेनी चाहिए उनमें द्रौपदी और श्रीकृष्ण का सखी - सखा संबंध सर्वोत्तम उदाहरण है। धर्म पर चलने के लिए व्यक्तिगत स्वार्थों और व्याक्तिगत हितों से आगे बढ़कर हम जब तक नहीं सोचेंगे तब तक हम द्रौपदी जैसे चरित्रों पर उंगली तो उठाते ही रहेंगे, संशयों में भी जियेंगे कि आखिर कैसे द्रौपदी को पांच महासतियों में गिना गया। महासतियां मतलब पांच पवित्रतम स्त्रियां...ये सिर्फ इसलिए नहीं था कि वो कृष्ण की सखी थीं। ये बात बढ़ी अर्थपूर्ण मानी जाती रही है और ये इस तथ्य की सूचक है कि द्रौपदी प्रेम की अनंतता को स्वयं परिभाषित कर पाई और स्त्रियों के लिए उन मानदंडों की स्थापना कर पाई कि जिनमें वह एक ही समय कई कर्तव्यों को पूरा कर सकती है। आज भी स्त्रियां यह सब कर हरी हैं परंतु अपनी अपनी खूंटियों से बंधकर और ये खूंटी कोई प्रत्यक्ष हों ,ऐसा नहीं हैं ,कई अप्रत्यक्ष भी हैं,उनकी अपनी सोचों को जो बांधे हुये हैं। जब तक ऐसा बना रहेगा तब तक पुरुष और स्त्री दोनों ही समाज में संबंधों की शुचिता के लिए प्रश्नों को खड़ा करते रहेंगे। निश्चित ही ये स्थिति समाज के ,धर्म के ठेकेदारों के लिए मुफीद बनी रहेगी वहीं हम स्वयं को जानने से बहुत दूर निकल गये होंगे।
- अलकनंदा सिंह
अकसर ऐसा होता है कि हम दूसरों को जानने का तो प्रयास लगातार करते रहते हैं मगर कभी खुद अपने भीतर झांकने की कोशिश तक नहीं करते। यह हमारी, स्वयं को सर्वज्ञ समझने व औरों में ताकाझांकी, करने जैसी दो बुरी प्रवृत्तियां हैं।
इन दोनों ही प्रवृत्तियों से निकला हमारी सोच का एक अच्छा पक्ष ये रहा कि इसने हमें न सिर्फ अपनी आत्मिक वृहदता का ज्ञान कराया बल्कि हमें एक पूर्ण पुरुष दिया और उसके सखाभाव का परिचय कराती एक पूर्ण स्त्री भी दी जो हमें स्वयं को हर रूप में जानने की सीढ़ी बन सकते हैं। संबंधों की पूर्णता पर बहस यदि इन दोनों ही सखा-सखी से जुड़े अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों से जोड़कर की जाये तो परिणाम सार्थक निकल सकते हैं। जो भी हो हमारी इन्हीं ताकाझांकी वाली प्रवृत्तियों ने ही, हमारे हजारों वर्ष पुराने इतिहास से और उसके ऐसे चरित्रों से भी परिचित कराया है जो आज भी प्रेरणादायी हैं।
जी हां, और वो पूर्ण पुरुष हैं श्रीकृष्ण और उनसे जुड़ी प्रत्येक वो घटना, जो मात्र घटना न होकर प्रसंग बन गई। इन्हीं प्रसंगों में 'द्रौपदी से श्रीकृष्ण का नाता' भी आता है जिसे आजतक पूर्णरूपेण तो कोई भी परिभाषित नहीं कर पाया है परन्तु सखी और सखा का ये अनूठा रिश्ता आज भी अपनी सतही सोच के चलते सतही तौर पर ही जाना जा सका है और संबंधों की ये सतही स्थिति आज हमारे अनेक प्रश्नों की वजह भी बनी हुई है। हमें स्वयं को जानने और समाज को बताने के लिए हमारे ये ऐतिहासिक चरित्र काफी सहायता कर सकते हैं।
अब देखिए ना, जिसतरह कृष्ण हमारे लिए किसी पहेली से कम नहीं रहे ठीक वैसे ही द्रौपदी भी बनीं रही। वो असामान्य हस्ती थीं- क्योंकि धर्म, न्याय और प्रेम के साथ धीरज का सामंजस्य बनाकर चलना आसान नहीं होता, वह भी अपनी अस्मिता को अक्षुण्ण रखकर।
अभी तक जितने भी धर्म और इतिहास के ज्ञाता हुये हैं उन्होंने द्रौपदी को मात्र 'पांच पतियों की स्त्री' या 'जिसके पीछे महाभारत हुआ' के रूप में एक सामान्य से लगने वाले चरित्र के रूप में पेश किया, द्रौपदी के आध्यात्मिक पक्ष को उन्होंने नकार सा दिया जबकि कृष्ण ने उन्हें इसी आध्यात्मिक आधार पर अपनी सखी बनाया था।
साहित्यिक दृष्टि से भी अपनी अपनी कल्पनाओं के आधार पर द्रौपदी को जानने का बहुत प्रयास किया गया तो वहीं आलोचनाओं का अंबार भी द्रौपदी के हिस्से खूब ही आया बल्कि इतना कि मां-बाप अपनी संतानों का नाम द्रौपदी रखने से बचने लगे। चारित्रिक आचरण पर भी लांक्षन खूब झेले द्रौपदी ने द्वापर युग से लेकर अब तक झेल रही है । हद तो तब होती है जब पुरुष आज भी अपने 'अनेक स्त्रियों के साथ संबंधों ' को उचित ठहराते हुये स्वयं की तुलना कृष्ण से कर बैठते हैं ठीक इसी प्रकार स्त्रियां भी अपने 'इतर संबंधों' को द्रौपदी की तुला पर तोलती हैं। यह बिल्कुल ऐसा ही है कि थाली के पानी में दिखने वाले चंद्रमा को हम वास्तविक समझने लगते हैं।
द्रौपदी और कृष्ण के संबंधों को मापने पर आज तक बहस जारी है क्योंकि बहस का मुद्दा भी तो वहीं से पनपता है जो अबूझ रह जाता है और ये तब तक मौजूद रहेगा जब तक हम स्वयं को जानने से दूर भागते रहेंगे। हम अकसर उतना ही जान पाते हैं जितना हम जानना चाहते हैं या अपने बारे में जानते हैं, अपने से आगे बढ़ता हुआ कुछ दिखाई ही नहीं देता । इसीलिए आज भी यह मानना कठिन हो रहा है कि आखिर कोई स्त्री अपनी 'शुचिता' बनाये रखकर भी पांच पांच पतियों के साथ कैसे पत्नीधर्म निभा पाई। यदि द्रौपदी इतनी ही सामान्य या लांक्षना की पात्र होतीं तो क्या कृष्ण धर्म स्थापना के लिए 'महाभारत' और महाभारत के लिए द्रौपदी का चयन करते ? संभवत: नहीं, क्योंकि द्रौपदी सामान्य स्त्री नहीं थी। वह संबंधों की एक ऐसी निरंतरता थी जो व्यक्ति से व्यक्ति तक धर्म का अलग अलग संदेश देती रही अपने अंतिम समय तक। बिल्कुल कृष्ण की तरह जिन्होंने व्यक्तिगत आक्षेपों को लेकर सिर्फ धर्म का प्रतिदान किया। जहां तक बात है पांच पतियों के बावजूद शुचिता की तो वह भी उसके प्रेम की अनन्तता के कारण ही संभव हो सका, जिसमें कहीं कोई दुविधा नहीं ,कहीं कोई द्वैत नहीं। संभवत: इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा कि 'तुम कौन हो, तुम्हारे जन्म का औचित्य क्या है?' इसका उत्तर तुम्हारे अपने अंतर में अपनी आत्मा में छुपा है, यदि तुमने उससे सवाल करना शुरू कर दिया तो तुम्हें किसी से सवाल करने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी और जब एकबारगी ये सिलसिला चल निकलेगा तो...द्रौपदी की शुचिता पर सारे सवाल बेमानी हो जायेंगे।
बात इतनी सी है कि जिनसे हमें संबंधों को उचित ढंग से निबाहने और समाज को सुदृढ़ बनाने की प्रेरणा लेनी चाहिए उनमें द्रौपदी और श्रीकृष्ण का सखी - सखा संबंध सर्वोत्तम उदाहरण है। धर्म पर चलने के लिए व्यक्तिगत स्वार्थों और व्याक्तिगत हितों से आगे बढ़कर हम जब तक नहीं सोचेंगे तब तक हम द्रौपदी जैसे चरित्रों पर उंगली तो उठाते ही रहेंगे, संशयों में भी जियेंगे कि आखिर कैसे द्रौपदी को पांच महासतियों में गिना गया। महासतियां मतलब पांच पवित्रतम स्त्रियां...ये सिर्फ इसलिए नहीं था कि वो कृष्ण की सखी थीं। ये बात बढ़ी अर्थपूर्ण मानी जाती रही है और ये इस तथ्य की सूचक है कि द्रौपदी प्रेम की अनंतता को स्वयं परिभाषित कर पाई और स्त्रियों के लिए उन मानदंडों की स्थापना कर पाई कि जिनमें वह एक ही समय कई कर्तव्यों को पूरा कर सकती है। आज भी स्त्रियां यह सब कर हरी हैं परंतु अपनी अपनी खूंटियों से बंधकर और ये खूंटी कोई प्रत्यक्ष हों ,ऐसा नहीं हैं ,कई अप्रत्यक्ष भी हैं,उनकी अपनी सोचों को जो बांधे हुये हैं। जब तक ऐसा बना रहेगा तब तक पुरुष और स्त्री दोनों ही समाज में संबंधों की शुचिता के लिए प्रश्नों को खड़ा करते रहेंगे। निश्चित ही ये स्थिति समाज के ,धर्म के ठेकेदारों के लिए मुफीद बनी रहेगी वहीं हम स्वयं को जानने से बहुत दूर निकल गये होंगे।
- अलकनंदा सिंह
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