अंग्रेजी की एक प्रचलित लोक-कहावत है कि-
The third Gender: They clap loudly but not able to produce any thing. They can always deceive but can't conceive .
सदियों से स्थापित ये एक ऐसा सूत्रवाक्य है जो प्राकृतिक विकृतियों व लैंगिक कमियों के साथ पैदा हुये व्यक्ति-विशेषों के पूरे के पूरे वज़ूद को परिभाषित करता आया है। किसी नाकारा व्यक्ति को तो हम सीधे ही कह देते हैं कि ये तो हिजड़ा है, इससे कुछ नहीं होने वाला । हमेशा ही इस सूत्रवाक्य को कुछ इस तरह प्रयोग किया गया कि यह नाकाबिलों की पहचान बन गया और उन्हें दुत्कारने का एक माध्यम भी। जो लैंगिक कमियां उनकी प्रकृतिक कमजोरी थीं, वे ही उन्हें समाज में आत्मसमान के साथ जीने से वंचित रखने में लगीं रहीं।
अब वर्षों की अधिकार पाने की जद्दोजहद रंग लाई और कल सुप्रीम कोर्ट जिस तरह से 'हारमोनल असंतुलन के मारों' के लिए ईश्वर बनकर आया, वह न केवल देश का बल्कि विश्व का ऐसा सबसे बड़ा फैसला है जिसने पूरी की पूरी 'एक अलग कौम' बना दिये गये समाज के वंचितों को सामान्य जीवन की राह दिखाई है।
जी हां, कभी किन्नर तो कभी हिजड़े कहे जाने वाले, स्त्री और पुरुष के अलावा अब ट्रांसजेंडर्स को भी वही सारे हक हासिल होंगे जो कानूनी तौर पर देश के किसी भी नागरिक को मिलने चाहिये। समाज की बेहतरी और लाखों किन्नरों को देश की मुख्यधारा में लाने की यह कोशिश अभी सुप्रीम कोर्ट से निकली भर है, मगर है बड़ी महत्वपूर्ण । ये भी सच है कि सामाजिक रिश्तों में अभी इसे धरातल पर लाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी।
लांक्षन के रूप में कहा जाने वाला यह शब्द अब समाज में इज्ज़त पा सकेगा, कम से कम कानूनी रूप से तो रास्ता साफ ही हो गया है। अपनी पैदाइश से लेकर परवरिश और जीवन के हर अच्छे-बुरे कदम के लिए दुत्कारे जाने वाले हिजड़े अब सुप्रीम कोर्ट से आगे की राह बनाने के लिए कमर कस लें, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट से भी ज्यादा कठिन है समाज में सम्मान पाने की राह।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने कल अपने इस अहम फैसले में किन्नरों या ट्रांसजेंडर्स को तीसरे लिंग के रूप में अलग पहचान दे दी है। इससे पहले उन्हें मजबूरी में अपना जेंडर 'पुरुष' या 'महिला' बताना पड़ता था। सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही ट्रांसजेंडर्स को सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के रूप में पहचान करने के लिए कहा है ताकि सरकारें उन्हें उनका हक दिलाने के जरूरी उपाय करें।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेते वक्त या नौकरी देते वक्त ट्रांसजेंडर्स की पहचान तीसरे लिंग के रूप में की जाए। सुप्रीम कोर्ट जस्टिस के. एस. राधकृष्णन ने कहा कि किन्नरों या तीसरे लिंग की पहचान के लिए कोई कानून न होने की वजह से उनके साथ शिक्षा या जॉब के क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जा सकता।
यह पहली बार हुआ है, जब तीसरे लिंग को औपचारिक रूप से पहचान मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीसरे लिंग को ओबीसी माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इन्हें शिक्षा और नौकरी में ओबीसी के तौर पर रिजर्वेशन दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारें तीसरे लिंग वाली कम्युनिटी के सामाजिक कल्याण के लिए योजनाएं चलाएं और उनके प्रति समाज में हो रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए जागरूकता अभियान चलाएं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इनके लिए स्पेशल पब्लिक टॉइलट बनाए जाएं और सात ही उनकी हेल्थ से जुड़े मामलों को देखने के लिए स्पेशल डिपार्टमेंट बनाए जाएं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर कोई अपना सेक्स चेंज करवाता है तो उसे उसके नए सेक्स की पहचान मिलेगी और इसमें कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।
एक अनुमान के मुताबिक इस निर्णय के बाद लगभग 2000 साल से उत्पीड़न झेल रहे लगभग 10 लाख हिजड़ों को सामान्य व्यक्ति की तरह जीने का अधिकार मिला है। प्राकृतिक प्रकोप मानकर जिस कमी को अपमान का पर्याय बना दिया गया था, वही लैंगिक कमी अब मां-बाप-परिजनों के लिए शर्मिंदगी की वजह नहीं बनेगी, इसका उन परिवारों को कितना संतोष मिला होगा जिन्होंने एक शारीरिक कमी के कारण अपने बच्चे त्याग दिये या जिन बच्चों ने अपने परिवारीजनों के चेहरों पर जबरन त्यागे जाने की लाचारी और बेबसी देखी ।
फिलहाल तो ये निर्णय मील का पत्थर साबित होगा क्योंकि पारिवारिक समारोहों में भीख की तरह नेग मांगने, अप्राकृतिक यौन व्यवहारों के लिए कमोडिटी बनने, सामान्य व्यक्तियों द्वारा हिकारत से देखे जाने की रोजमर्रा की लगभग जानलेवा समस्याओं से बचा कर सुप्रीमकोर्ट ने इन सभी ट्रांसजेंडर्स के लिए समाज के तानेबाने में फिट होने के लिए नींव तो रख ही दी। हमें तो लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी और कल्कि सुब्रह्मण्यम जैसे ट्रांसजेंडर्ड हीरो को दाद देनी चाहिए कि सन् 2012 से सुप्रीम कोर्ट में जिन अधिकारों की लड़ाई वे लड़ रहे थे, उसे आखिर एक मुकाम मिल गया। इस संबंध में दोनों एक ही बात कहते हैं कि अभी तो सुधारों की नींव का ये पहला पत्थर है, रास्ता तो समाज में ट्रांसजेंडर्स की स्वीकार्यता और उन्हें बराबरी का हक पाने तक का बनाना है ताकि न तो हम ट्रांसजेंडर्स ही और ना ही हमारे परिवार हमें अभिशाप समझें।
अब उस सूत्रवाक्य को भी बदलने का समय आ गया है जो कहता है कि-
''वे सिर्फ जोर से ताली बजा सकते हैं, कुछ पैदा नहीं कर सकते...
वे स्वयं एक धोखा हैं क्योंकि वे कभी गर्भधारण नहीं कर सकते...
वे धरती पर बोझ हैं जिन्हें बस ढोया जा सकता है...इनसे मुक्ति नहीं... ''।
-अलकनंदा सिंह
The third Gender: They clap loudly but not able to produce any thing. They can always deceive but can't conceive .
सदियों से स्थापित ये एक ऐसा सूत्रवाक्य है जो प्राकृतिक विकृतियों व लैंगिक कमियों के साथ पैदा हुये व्यक्ति-विशेषों के पूरे के पूरे वज़ूद को परिभाषित करता आया है। किसी नाकारा व्यक्ति को तो हम सीधे ही कह देते हैं कि ये तो हिजड़ा है, इससे कुछ नहीं होने वाला । हमेशा ही इस सूत्रवाक्य को कुछ इस तरह प्रयोग किया गया कि यह नाकाबिलों की पहचान बन गया और उन्हें दुत्कारने का एक माध्यम भी। जो लैंगिक कमियां उनकी प्रकृतिक कमजोरी थीं, वे ही उन्हें समाज में आत्मसमान के साथ जीने से वंचित रखने में लगीं रहीं।
अब वर्षों की अधिकार पाने की जद्दोजहद रंग लाई और कल सुप्रीम कोर्ट जिस तरह से 'हारमोनल असंतुलन के मारों' के लिए ईश्वर बनकर आया, वह न केवल देश का बल्कि विश्व का ऐसा सबसे बड़ा फैसला है जिसने पूरी की पूरी 'एक अलग कौम' बना दिये गये समाज के वंचितों को सामान्य जीवन की राह दिखाई है।
जी हां, कभी किन्नर तो कभी हिजड़े कहे जाने वाले, स्त्री और पुरुष के अलावा अब ट्रांसजेंडर्स को भी वही सारे हक हासिल होंगे जो कानूनी तौर पर देश के किसी भी नागरिक को मिलने चाहिये। समाज की बेहतरी और लाखों किन्नरों को देश की मुख्यधारा में लाने की यह कोशिश अभी सुप्रीम कोर्ट से निकली भर है, मगर है बड़ी महत्वपूर्ण । ये भी सच है कि सामाजिक रिश्तों में अभी इसे धरातल पर लाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी।
लांक्षन के रूप में कहा जाने वाला यह शब्द अब समाज में इज्ज़त पा सकेगा, कम से कम कानूनी रूप से तो रास्ता साफ ही हो गया है। अपनी पैदाइश से लेकर परवरिश और जीवन के हर अच्छे-बुरे कदम के लिए दुत्कारे जाने वाले हिजड़े अब सुप्रीम कोर्ट से आगे की राह बनाने के लिए कमर कस लें, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट से भी ज्यादा कठिन है समाज में सम्मान पाने की राह।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने कल अपने इस अहम फैसले में किन्नरों या ट्रांसजेंडर्स को तीसरे लिंग के रूप में अलग पहचान दे दी है। इससे पहले उन्हें मजबूरी में अपना जेंडर 'पुरुष' या 'महिला' बताना पड़ता था। सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही ट्रांसजेंडर्स को सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के रूप में पहचान करने के लिए कहा है ताकि सरकारें उन्हें उनका हक दिलाने के जरूरी उपाय करें।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेते वक्त या नौकरी देते वक्त ट्रांसजेंडर्स की पहचान तीसरे लिंग के रूप में की जाए। सुप्रीम कोर्ट जस्टिस के. एस. राधकृष्णन ने कहा कि किन्नरों या तीसरे लिंग की पहचान के लिए कोई कानून न होने की वजह से उनके साथ शिक्षा या जॉब के क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जा सकता।
यह पहली बार हुआ है, जब तीसरे लिंग को औपचारिक रूप से पहचान मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीसरे लिंग को ओबीसी माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इन्हें शिक्षा और नौकरी में ओबीसी के तौर पर रिजर्वेशन दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारें तीसरे लिंग वाली कम्युनिटी के सामाजिक कल्याण के लिए योजनाएं चलाएं और उनके प्रति समाज में हो रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए जागरूकता अभियान चलाएं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इनके लिए स्पेशल पब्लिक टॉइलट बनाए जाएं और सात ही उनकी हेल्थ से जुड़े मामलों को देखने के लिए स्पेशल डिपार्टमेंट बनाए जाएं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर कोई अपना सेक्स चेंज करवाता है तो उसे उसके नए सेक्स की पहचान मिलेगी और इसमें कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।
एक अनुमान के मुताबिक इस निर्णय के बाद लगभग 2000 साल से उत्पीड़न झेल रहे लगभग 10 लाख हिजड़ों को सामान्य व्यक्ति की तरह जीने का अधिकार मिला है। प्राकृतिक प्रकोप मानकर जिस कमी को अपमान का पर्याय बना दिया गया था, वही लैंगिक कमी अब मां-बाप-परिजनों के लिए शर्मिंदगी की वजह नहीं बनेगी, इसका उन परिवारों को कितना संतोष मिला होगा जिन्होंने एक शारीरिक कमी के कारण अपने बच्चे त्याग दिये या जिन बच्चों ने अपने परिवारीजनों के चेहरों पर जबरन त्यागे जाने की लाचारी और बेबसी देखी ।
फिलहाल तो ये निर्णय मील का पत्थर साबित होगा क्योंकि पारिवारिक समारोहों में भीख की तरह नेग मांगने, अप्राकृतिक यौन व्यवहारों के लिए कमोडिटी बनने, सामान्य व्यक्तियों द्वारा हिकारत से देखे जाने की रोजमर्रा की लगभग जानलेवा समस्याओं से बचा कर सुप्रीमकोर्ट ने इन सभी ट्रांसजेंडर्स के लिए समाज के तानेबाने में फिट होने के लिए नींव तो रख ही दी। हमें तो लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी और कल्कि सुब्रह्मण्यम जैसे ट्रांसजेंडर्ड हीरो को दाद देनी चाहिए कि सन् 2012 से सुप्रीम कोर्ट में जिन अधिकारों की लड़ाई वे लड़ रहे थे, उसे आखिर एक मुकाम मिल गया। इस संबंध में दोनों एक ही बात कहते हैं कि अभी तो सुधारों की नींव का ये पहला पत्थर है, रास्ता तो समाज में ट्रांसजेंडर्स की स्वीकार्यता और उन्हें बराबरी का हक पाने तक का बनाना है ताकि न तो हम ट्रांसजेंडर्स ही और ना ही हमारे परिवार हमें अभिशाप समझें।
अब उस सूत्रवाक्य को भी बदलने का समय आ गया है जो कहता है कि-
''वे सिर्फ जोर से ताली बजा सकते हैं, कुछ पैदा नहीं कर सकते...
वे स्वयं एक धोखा हैं क्योंकि वे कभी गर्भधारण नहीं कर सकते...
वे धरती पर बोझ हैं जिन्हें बस ढोया जा सकता है...इनसे मुक्ति नहीं... ''।
-अलकनंदा सिंह
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