कुछ ऐसा ही माहौल तैयार करने की कोशिश की जा रही है आजकल भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को लेकर। राजनैतिक लोग अगर उनकी आलोचना या प्रशंसा करें तो समझ में भी आता है मगर जब इस बहती धारा में बुद्धिजीवी वर्ग भी अपने हाथ धोने लगे और खुद की गंभीरता व निष्पक्षता पर खुद ही प्रश्नचिन्ह लगाने लगे तो उनकी बुद्धिमत्ता को तमगों से अलग करके देखने पर हमारा विवश होना स्वाभाविक है।
तो क्या बुद्धिजीवी वर्ग अपनी स्थापित मान्यताएं बदल रहा है...क्या समय के साथ बुद्धिमत्ता के अर्थ बदल रहे हैं...?
हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता और मछुआरों के विषय को उठाने वाले लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार आर. एन. जोए डीक्रूज को नरेंद्र मोदी के समर्थन में फेसबुक पर पोस्ट डालने के बाद जबर्दस्त विरोध और धमकियों का सामना करना पड़ा और उन्हें धमकी भरे मेल भेजे गए। इतना ही नहीं, उनकी पोस्ट के विरोध में लेखन क्षेत्र से ही जुड़े कुछ नामचीन लोगों ने तो चेतावनी तक दे डाली। कुछ ने उन्हें धमकी दी कि उनके नये ताज़ा उपन्यास ‘आझी सूझ उलागु’ के अंग्रेजी अनुवाद को, जो कि अभी प्रकाशन की प्रक्रिया में है, रोका जा सकता है।
गौरतलब है कि मछुआरों के 100 साल के इतिहास पर लिखे गए उनके उपन्यास 'करकई' के लिए उन्हें वर्ष 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था और उनके ताजा उपन्यास 'आझी सूझ उलागु' को वर्ष 2005 में राज्य सरकार द्वारा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास का पुरस्कार भी मिला है।
आज़ादी के बाद संभवत: ऐसा पहली बार ही होगा किसी 'एक व्यक्ति' की आलोचना के लिए देश से लेकर विदेश तक हर कोई अपना गला खंखार रहा है और अब अन्य बुद्धिजीवियों के साथ-साथ साहित्यकारों का इसमें कूदना, फटे में टांग अड़ाने जैसा है।
निश्चित ही साहित्यकारों को समाज, राजनीति जैसे विषय पर बोलना चाहिए मगर डीक्रूज के साथ जो हो रहा है , वह किसी पवित्र उद्देश्य से नहीं बल्कि स्वयं को पब्लिसाइज करने के लिए और दबंगई दर्शाने के लिए किया जा रहा है, जो कि साहित्य जगत के लिए बेहद शर्मनाक है।
गोवा में जब सिर्फ मोदी को चुनावी अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया तभी से बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग मोदी-विरोध के सहारे अपनी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता को पब्लिसाइज करने में लग गया। यहां तक कि प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति भी इस आलोचनाई परेड में शामिल हो चुके हैं जिसमें मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के बाद साहित्यकार यूआर अनंत मूर्ति भी हैं, जिन्होंने यहां तक कह दिया था कि यदि मोदी देश का नेतृत्व संभालते हैं तो वे देश ही छोड़ देंगे। इससे एक बात तो स्पष्ट हो गई कि सोच भले ही उनकी सीमित और एक ही पक्ष देखने की आदी हो मगर अपने इस तिकड़मी बयान से वे साहित्यिक जमात में बतौर पक्के सेक्यूलरिस्ट छा तो गये ही। हम सब बखूबी जानते हैं कि देश के किसी भी क्षेत्र में प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त कर लेना बौद्धिकता की श्रेष्ठता का पैमाना नहीं हो सकता क्योंकि... ''अगर ऐसा होता तो नोबेल पुरस्कार लेकर अमर्त्य सेन अर्थशास्त्र के चाणक्य बन चुके होते, और उन्होंने देश तो क्या दुनिया से गरीबी को फ़ना कर दिया होता...अगर ऐसा होता तो नाकामी की महागाथा लिखने के लिए मनमोहन सिंह लेखकों के हीरो ना बने होते...।''
बहरहाल, बहुत सारे अगर मगर के बीच इतना तो कहा ही जाना चाहिए कि ''नरेंद्र मोदी बनाम सभी'' का यह शोर साहित्यकारों के क्षुद्र मानसिकता का भी विच्छेदन किये दे रहा है और इससे उनके सारे कलुष सामने आने लगे हैं, इससे उनकी ख्याति बटोरने की तिलिस्मी तिकड़में भी नमूदार हो गई हैं । आम पाठक वर्ग को भी तो मालूम हो कि हमें जो आदर्श की सीख देते हैं, समाज की कुरीतियों पर प्रहार करते हैं , वह असल में अपने ही किसी साथी या मछुआरे तबके से आने वाले लेखक को नीचा दिखाने में भी पीछे नहीं रहते । उपन्यासकार आर. एन. जोए डीक्रूज इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।
आश्चर्य की बात तो यह है कि दक्षिण से लेकर गुजरात तक मछुआरों पर शोध और फिर उसे उपन्यास में ढालने वाले डीक्रूज ने जब नरेंद्र मोदी सरकार की प्रशंसा लिखी और वर्ष 2013 में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी हुये, तो तब साहित्य के कियी क्षत्रप ने कोई ऐसा प्रश्न क्यों नहीं उठाया मगर जैसे ही मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाये गये तब अचानक सब एकसाथ कथित रूप से सेक्यूलर हो उठे । साहित्य के क्षेत्र में मौजूद मलिनता को साफ करने के लिए कौन सामने आयेगा, ये तो अभी नहीं कहा जा सकता मगर इतना अवश्य है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के जितने भी पैमाने साहित्य में अभी तक स्थापित रहे थे , वे सभी अपनी असली रंगत में आ रहे हैं, नरेंद्र मोदी के बहाने ही सही...सच में समय बदल रहा है...।
- अलकनंदा सिंह
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