ओ ओंकार आदि मैं जाना । लिखि औ मेटें ताहि ना माना ।।
ओ ओंकार लिखे जो कोई । सोई लिखि मेटणा न होई ।।
ये चार पंक्तियां अपनी कही गई साखियों में र्निगुण सन्त - कवि महात्मा कबीर ने बोलीं, गाईं और बताया कि उन्होंने
जिस ईश्वरीय सत्ता को माना , ध्यान किया तथा
उसे अपने शब्दों के जादू में भी बांधा,वह एकमात्र अक्षर था
'ॐ' । उन्होंने एकमात्र ॐ को स्वीकारा,उसे ईश्वर माना और
इस पर "साखियाँ" भी लिखीं । सनातन
धर्म ही क्यों या फिर कबीर ही क्यों बल्कि भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी ॐ को
उतना ही महत्व प्राप्त है । जैसे कि बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग, जप एवं उपासना के लिए
प्रचुरता से होता रहा है जिसके अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना
जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है जो कि दसों इंद्रियों को कंट्रोल करता
है । जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया है ।
गुरु नानक ने भी ॐ के महत्व को बताते हुए अपने अनुयायियों को बताया कि
"ओम सतनाम कर्ता पुरुष निभौं निर्वेर अकालमूर्त" अर्थात् ॐ सत्यनाम जपनेवाला
पुरुष निर्भय, बैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है ।
"ॐ" ब्रह्माण्ड का नाद है एवं मनुष्य के अन्तर में स्थित ईश्वर
का प्रतीक । जो ईश्वर है जो अक्षर होते हुये भी अनाक्षर है, जो प्राणवान प्रकृति
के हर कण, सांस में मौजूद है इसीलिए जिसे प्रणव
भी कहा गया है , वह एकमात्र ॐ है ।
अक्षर का अर्थ जिसका कभी क्षरण न हो । ऐसे तीन अक्षरों— अ उ और म से मिलकर
बना है ॐ । यह प्रायोगिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्माण्ड में हर समय ॐ की ध्वनि
प्रवाहित होती रहती है । हमारी हर सांस से ॐ की ही ध्वनि निकलती है और यही सांस की
गति को नियंत्रित करती है ।
सनातन धर्म में तो सृष्टि के इस सबसे शक्तिशाली आदिअक्षर ॐ के बिना आराधना
ही संभव नहीं, प्रकृति के साथ चलने और उसकी ध्वनि तक के लिए श्रद्धा प्रगट करने का इससे
बड़ा उदाहरण और कहीं नहीं मिलेगा। उपनिषदों में बताया गया है कि किसी भी मंत्र से पहले
यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है । किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों
के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है। ॐ से रहित
कोई मंत्र फलदायी नहीं होता , चाहे उसका कितना भी जाप हो । मंत्र के रूप में मात्र
ॐ भी पर्याप्त है । माना जाता है कि एक बार ॐ का जाप हज़ार बार किसी मंत्र के जाप से
महत्वपूर्ण है ।
अपनी इसी महत्ता के कारण ॐ का दूसरा नाम प्रणव ( परमेश्वर ) है । "तस्य
वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं
ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता । छान्दोग्य
उपनिषद में ऋषियों ने गाया है - "ॐ इत्येतत् अक्षरः" अर्थात् "ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित
है।"
ॐ के महत्व को श्रीभगवदगीता गीता जी के आठवें अध्याय में बताया है कि जो ॐ
अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त
करता है । चूंकि ॐ तीन अक्षरों से बना है अ
उ म् जिसमें "अ" का अर्थ है आर्विभाव
या उत्पन्न होना , "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है
मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना अर्थात् किसी जीवन की यात्रा में
आदि से अंत तक ॐ की उपस्थिति होना । ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म
की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना । यही
कारण है कि जब हम किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाते हैं तो वहाँ मौजूद अगाध ऊर्जा
को ग्रहण करके स्वयं को हर आकांक्षा से मुक्त होता हुआ महसूस करते हैं, एकदम किसी परिंदे की
भांति ।
उपनिषदों से लेकर कबीर या कबीर से लेकर उपनिषद तक अपनी उपस्थिति बताता या
इसे यूं भी कहें कि ॐ मात्र एक अक्षर नहीं
बल्कि अ,उ,म से बनी जीवन को संचालित करती वह वायु है जो अपनी यात्रा को अनादिकाल से
आज तक और आगे भी अनादिकाल तक चलाती रहेगी ।
- अलकनंदा सिंह
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