लोक यानि जड़ें और जड़ों का अर्थ है अपने ज़हन में झांकना या अंतर्मन की ओर देखना। व्यक्ति, कला या समाज कोई भी ,जो अपने लोक से कट जाये वह अस्तित्वहीन हो जाता है और जो अस्तित्वहीन हो जाये उसे भला कोई क्योंकर याद करेगा। इसका सीधा सीधा मतलब ये रहा कि जो अपनी जड़ों की ओर नहीं देखते, वो अपने ज़हन में भी नहीं झांकते और ऐसा करते हुए वे अपने ही अस्तित्व को तलाशते रह जाते हैं, बिल्कुल सांसविहीन जीवन की तरह । लोक में समाई है हमारे शब्दों की भी दुनिया । हमारा ज़हन या अंतर्मन भी वही बोलता है जिसमें वह पलता है, पोसा जाता है, संस्कारों के रास्ते वह अपने दुख और सुखों को जानता है , उन्हें महसूस करते हुये अनुभव करते हुये बड़ा होता है । फिर जब यही अनुभव शब्दों में ढलते हैं तब पैदा होता है कोई एक गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ , जो अपने कालजयी उपन्यास 'वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालीट्यूड - One Hundred Years of Solitude (Spanish: Cien años de soledad) ' को गढ़ते हुये स्वयं बुएंडिया फैमिली के मुखिया जोस अरकाडियो बुएंडिया बनकर दुनिया को यह बता देता है कि हमारे लोकजीवन में ही कई ऐसी सच्चाइयां दबी हुई हैं जो कथित प्रयोगवादी और संभ्रांत जीवन का आधार रही है , वे नींव के वो पत्थर हैं जिनपर कई मारकेज़ छपते चले गये होंगे चुपचाप ,एकदम दम साधे... ।
यूरोपीय देशों की ज़हीन जीवन शैली और प्रयोगों पर आधारित सभ्यता वाले अपने से एकदम उलट मैक्सिकन और लैटिन अमरीकी सभ्यता को 'अनपढ़ों-गंवारों की सभ्यता' मानते रहे।इसी चलन को तोड़ा एक लेखक ने जो जीवन जीने के तौर तरीकों और संस्कारों के नंगे सच को लेखनीबद्ध करते गये । ये थे गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ जिन्होंने शायद ही कभी सोचा हो कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ऐसे माइलस्टोन्स गढ़ के जा रहे हैं जो साहित्य ही नहीं जीवन के अंधेरे सचों से दोचार होने में उन्हें अपने ''एकांत'' की ताकत का अनुभव करायेंगे।
अब वो ही गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ नहीं रहे जिन्हें कभी पाठकों ने कल्पनाओं का जादूगर तो कभी आलोचकों ने मैजिक ऑफ़ रिलिजन कहा लेकिन स्वयं मार्खेज अपनी नज़र में एक ट्रांसलेटर से ज्यादा खुद को कुछ नहीं समझते थे। वो कहते थे, ‘लोगों की नज़र में जो शब्दों का कमाल है , वह लैटिन अमरीकी जीवन का ऐसा नंगा सच है जो बुलंदियों पर रहने वालों को आसानी से नज़र नहीं आता, मैंने तो इस खौफनाक रोमांचक सच को प्रस्तुत भर किया है,बस। मैं एक जिम्मेदार दर्शक की भूमिका निभा रहा हूं इस सच को सामने लाने में, इसके अलावा कुछ नहीं... । मैंने जो देखा,जो सुना, जो एहसास किया, उसे बस ज्यों का त्यों पूरी ईमानदारी के साथ दुनिया के सामने रख दिया|’ लैटिन अमरीका से बाहर की जो दुनिया है, वह भी इस सच से परिचित हो, मेरी यही कोशिश रही है और आगे भी रहेगी।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुये कोलंबिया के इस महान उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के कालजयी उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालीट्यूड’ के लिए न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था कि यह ‘बुक ऑफ जेनेसिस’ के बाद साहित्य की पहली कृति है जिसे पूरी मानव जाति को पढ़ना चाहिए ।
यूं तो मारकेज़ का सफर १९५० में रोम और पेरिस में स्पेक्टेटर के संवाददाता के रूप में शुरू हुआ जो १९५९ से १९६१ तक क्यूबा की संवाद एजेंसी के लिए हवाना और न्यूयार्क में काम करने तक चला। पत्रकार होने के साथ साथ वह एक निर्वासित योद्धा थे, जो पत्रकारिता के कारण ही अपनी बौद्धिक रियासत के लिए जंग लड़ते रहे, वामपंथी विचारधारा की ओर झुकाव के कारण उन पर अमेरिका और कोलम्बिया सरकारों द्वारा देश में प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगाया हुआ था, लेकिन इसका उनके जीवन और चेहरे में कभी मलाल नहीं दिखा । संभवतः उनका यथार्थवाद इसीलिए इतना जीवंत था क्योंकि वो खौफनाक खूनी जीवन कल्पना में नहीं उतार रहे थे उसे यथार्थ में जी रहे थे ।
'लीफ स्टॉर्म एंड अदर स्टोरीज' उनका पहला कहानी-संग्रह १९५५ में प्रकाशित हुआ । इसकी कहानियां खौफ के सच से भरी थीं, 'नो वन राइट 'टु द कर्नल एंड अदर स्टोरीज' और 6आइज़ ऑफ ए डॉग' संग्रहों के साथ उनके उपन्यास सौ साल का एकांत (वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालीच्यूड) को १९८२ में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनके तिलिस्मी यथार्थवाद के ग्रे वर्ल्ड ने यूरोपीय वैज्ञानिकों को विवश किया कि वे छायाओं में भी जीवन को मानें और तलाशें। मार्खेज का बचपन अपने नाना नानी के घर उत्तरी कोलंबिया के एक बड़े ही ख़स्ताहाल शहर आर्काटका में गुजरा था इसीलिए वह अपने लेखक होने का श्रेय अपनी नानी और किस्से कहानियों से भरी स्थितियों को देते हैं जिनमें वो पले, बढ़े। शायद इसीलिए मारकेज़ हमें यानि भरतीयों के अधिक करीब दिखाई देते हैं, जहां कहानीकारों और उपन्यासकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन को दादी-नानी की नज़रों से व्यक्त किया और करवाया। भारतीय सभ्यता में रची बसी दादी - नानी की कहानियों का अपनापन क्या हम भुला सकते हैं। हम भारतीयों की भांति ही मारकेज़ की कहानियां हमें बताती हैं कि अपने लोकजीवन से जुड़ा होना, उसके अच्छाइयां और बुराइयां दोनों ही प्रगति के हर सच को जानने का एक बढ़िया साधन हो सकती हैं। लोक से त्याग करके पाई हुई प्रगति अंतर्मन को खुश नहीं रख पायेगी और हम स्वयं से दूर होते जायेंगे, ये निश्चित है। हम लोक जीवन के मार्मिक अनुभवों को जियें और उन्हें प्रगति के लिए सहायक मानें ना कि प्रयोगवादी बनकर अपनी जड़ों का ही तिरस्कार करें। फिलहाल ऐसा हो रहा है तभी तो नक्सली जैसी समस्यायें देश को ग्रसित किये जा रही हैं।
आज मारकेज़ को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि तभी पूरी होगी जब हम अपनी नींवों का आदर और उनकी जीवटता से सबक लेंगे।
और अंत में मारकेज़ का ही ये सूत्रवाक्य कि -
यूरोपीय देशों की ज़हीन जीवन शैली और प्रयोगों पर आधारित सभ्यता वाले अपने से एकदम उलट मैक्सिकन और लैटिन अमरीकी सभ्यता को 'अनपढ़ों-गंवारों की सभ्यता' मानते रहे।इसी चलन को तोड़ा एक लेखक ने जो जीवन जीने के तौर तरीकों और संस्कारों के नंगे सच को लेखनीबद्ध करते गये । ये थे गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ जिन्होंने शायद ही कभी सोचा हो कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ऐसे माइलस्टोन्स गढ़ के जा रहे हैं जो साहित्य ही नहीं जीवन के अंधेरे सचों से दोचार होने में उन्हें अपने ''एकांत'' की ताकत का अनुभव करायेंगे।
अब वो ही गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ नहीं रहे जिन्हें कभी पाठकों ने कल्पनाओं का जादूगर तो कभी आलोचकों ने मैजिक ऑफ़ रिलिजन कहा लेकिन स्वयं मार्खेज अपनी नज़र में एक ट्रांसलेटर से ज्यादा खुद को कुछ नहीं समझते थे। वो कहते थे, ‘लोगों की नज़र में जो शब्दों का कमाल है , वह लैटिन अमरीकी जीवन का ऐसा नंगा सच है जो बुलंदियों पर रहने वालों को आसानी से नज़र नहीं आता, मैंने तो इस खौफनाक रोमांचक सच को प्रस्तुत भर किया है,बस। मैं एक जिम्मेदार दर्शक की भूमिका निभा रहा हूं इस सच को सामने लाने में, इसके अलावा कुछ नहीं... । मैंने जो देखा,जो सुना, जो एहसास किया, उसे बस ज्यों का त्यों पूरी ईमानदारी के साथ दुनिया के सामने रख दिया|’ लैटिन अमरीका से बाहर की जो दुनिया है, वह भी इस सच से परिचित हो, मेरी यही कोशिश रही है और आगे भी रहेगी।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुये कोलंबिया के इस महान उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के कालजयी उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालीट्यूड’ के लिए न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था कि यह ‘बुक ऑफ जेनेसिस’ के बाद साहित्य की पहली कृति है जिसे पूरी मानव जाति को पढ़ना चाहिए ।
यूं तो मारकेज़ का सफर १९५० में रोम और पेरिस में स्पेक्टेटर के संवाददाता के रूप में शुरू हुआ जो १९५९ से १९६१ तक क्यूबा की संवाद एजेंसी के लिए हवाना और न्यूयार्क में काम करने तक चला। पत्रकार होने के साथ साथ वह एक निर्वासित योद्धा थे, जो पत्रकारिता के कारण ही अपनी बौद्धिक रियासत के लिए जंग लड़ते रहे, वामपंथी विचारधारा की ओर झुकाव के कारण उन पर अमेरिका और कोलम्बिया सरकारों द्वारा देश में प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगाया हुआ था, लेकिन इसका उनके जीवन और चेहरे में कभी मलाल नहीं दिखा । संभवतः उनका यथार्थवाद इसीलिए इतना जीवंत था क्योंकि वो खौफनाक खूनी जीवन कल्पना में नहीं उतार रहे थे उसे यथार्थ में जी रहे थे ।
'लीफ स्टॉर्म एंड अदर स्टोरीज' उनका पहला कहानी-संग्रह १९५५ में प्रकाशित हुआ । इसकी कहानियां खौफ के सच से भरी थीं, 'नो वन राइट 'टु द कर्नल एंड अदर स्टोरीज' और 6आइज़ ऑफ ए डॉग' संग्रहों के साथ उनके उपन्यास सौ साल का एकांत (वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालीच्यूड) को १९८२ में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनके तिलिस्मी यथार्थवाद के ग्रे वर्ल्ड ने यूरोपीय वैज्ञानिकों को विवश किया कि वे छायाओं में भी जीवन को मानें और तलाशें। मार्खेज का बचपन अपने नाना नानी के घर उत्तरी कोलंबिया के एक बड़े ही ख़स्ताहाल शहर आर्काटका में गुजरा था इसीलिए वह अपने लेखक होने का श्रेय अपनी नानी और किस्से कहानियों से भरी स्थितियों को देते हैं जिनमें वो पले, बढ़े। शायद इसीलिए मारकेज़ हमें यानि भरतीयों के अधिक करीब दिखाई देते हैं, जहां कहानीकारों और उपन्यासकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन को दादी-नानी की नज़रों से व्यक्त किया और करवाया। भारतीय सभ्यता में रची बसी दादी - नानी की कहानियों का अपनापन क्या हम भुला सकते हैं। हम भारतीयों की भांति ही मारकेज़ की कहानियां हमें बताती हैं कि अपने लोकजीवन से जुड़ा होना, उसके अच्छाइयां और बुराइयां दोनों ही प्रगति के हर सच को जानने का एक बढ़िया साधन हो सकती हैं। लोक से त्याग करके पाई हुई प्रगति अंतर्मन को खुश नहीं रख पायेगी और हम स्वयं से दूर होते जायेंगे, ये निश्चित है। हम लोक जीवन के मार्मिक अनुभवों को जियें और उन्हें प्रगति के लिए सहायक मानें ना कि प्रयोगवादी बनकर अपनी जड़ों का ही तिरस्कार करें। फिलहाल ऐसा हो रहा है तभी तो नक्सली जैसी समस्यायें देश को ग्रसित किये जा रही हैं।
आज मारकेज़ को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि तभी पूरी होगी जब हम अपनी नींवों का आदर और उनकी जीवटता से सबक लेंगे।
और अंत में मारकेज़ का ही ये सूत्रवाक्य कि -
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें