एक कहानी है - भगवान और धर्म, पीड़ा और दुख के संबंध में जो हाल ही में कहीं पढ़ी है। आम्रपाली अपने समय की बहुत प्रसिद्ध नर्तकी थी। उसने एक बार महात्मा बुद्ध से भेंट की। थोड़ी देर बातचीत के बाद उनसे पूछा -'भंते! आप मेरे पास कभी क्यों नहीं आते।' महात्मा बुद्ध बोले-'अभी जरूरत नहीं है, जिस दिन जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।' समय बीतता गया और धीरे धीरे वह नर्तकी बूढ़ी हो गई। देखते देखते उसकी खूबसूरती कम होती चली गई। रोज पहुंचने वाले लोग भी अब उससे बचने लगे। हालत यह हो गई कि अब उसके पास कोई मिलने ही नहीं आता था। तब एक दिन महात्मा बुद्ध वहां पहुंचे और बोले-'प्रिय! मैं आ गया।' आम्रपाली ने कहा-'भंते! अब तो समय बीत गया। अब मुझमें बचा ही क्या है? वह शारीरिक सौंदर्य तो अब रहा नहीं। आप इतने दिनों बाद आज क्यों आए?' महात्मा बुद्ध ने कहा-'प्रिये! यही तो समय है आने का। पहले तुझे मेरी आवश्यकता भी नहीं थी। धर्म की आवश्यकता तो तुझे अब महसूस हो रही है। समझ ले, मैं उसकी पूर्ति करने आया हूं।' पीड़ा और दुख के समय ही भगवान और धर्म को याद किया जाता है।
आम्रपाली की कहानी पढ़कर अब एक प्रश्न यहीं से उपजता है कि जब पीड़ा होगी दुख होगा क्या ईश्वर तभी याद आयेंगे, ईश्वर हमारे ही पास है, इसका अहसास भी तभी होना चाहिए क्या जब पीड़ा हो, ये तो शर्त हो गई ईश्वर को याद करने की। ये तो अनिवार्यता हो गई कि ईश्वर को हमेशा जहन में रखने के लिए पीड़ा का और दुख का होना जरूरी है। अनिवार्यता है यानि निश्चित ही ये बाध्यता भी है और बाध्यता है यानि ये तो नियम बन गया है। तात्पर्य यही हुआ कि ईश्वर के लिए दुख की अनिवार्यता को नियम बना दिया गया। नियमों में बंधकर सामाजिक संरचना को तो चलाया जा सकता है , सृष्टि की सारी आवश्यकताओं पर खरा भी उतरा जा सकता है मगर ईश्वर को नहीं पाया जा सकता । ईश्वर तो सिर्फ और सिर्फ मन की, आत्मा की निश्छलता से ही पाया जा सकता है। हां, इस निश्छलता के लिए अवश्य अपने भीतर झांकना होगा और तभी उपजेगा प्रेम। एक निश्छल प्रेम...। प्रेम का उमड़ना और उमड़ कर ईश्वर को पाने की यात्रा निश्चित ही दुख या पीड़ा वाली बैसाखी की मोहताज नहीं तो फिर इस बैसाखी को हम क्यों ढोयें। क्यों ना हम प्रसन्न रहते हुये, प्रसन्न करते हुये, प्रसन्न देखते व दूसरों को दिखते हुये ईश्वर का हर वस्तु-व्यक्ति में अनुभव करें और उसकी निकटता का आनंद लें।
अकसर लोग पूछ बैठते हैं कि ईश्वर के प्रति प्रेम उपजने की क्या गारंटी है। इनके लिए एक ही जवाब होता है कि एक बार दूसरों से अपनी अपेक्षाओं की शर्त हटाकर तो देखिए सभी प्रेममय लगेंगे क्योंकि अपेक्षायें प्रेम को ठहरने ही नहीं देतीं,वे प्रतिदान मांगती हैं और जो मांग रहा है वह तो भिखारी हो जाता है ना...वह प्रेमी नहीं रह पाता...और जब प्रेम नहीं रहता तो ईश्वर कैसे रहेगा, ऐसी स्थिति में प्रेमविहीनता या यूं कहें कि आत्मा के संग वैक्यूम जन्मता है जो पीड़ा को जन्म देता है , जो दुख को अनिवार्य बताता है ।
आम्रपाली के संदर्भ में हो सकता है बुद्ध ने त्याग और पीड़ा को ऊपर रखा क्योंकि वे त्याग और उससे उपजी पीड़ा को ही ईश्वर को पाने का एकमात्र रास्ता बता पाये या जान पाये। इस संदर्भ में कृष्ण का रास्ता ज्यादा आसान और सर्वग्राह्य व सुलभ है, बस एक बार निश्छल हो जाया जाये। आत्मा तक पहुंचने के लिए कृष्ण का प्रेममयी हो जाने का और प्रेममयी कर देने का रास्ता आनंद का रास्ता है जो अपेक्षाओं से उपजे दुख को भी दूर कर देता है और प्रेममयी बनाकर आत्मा व ईश्वर दोनों का ही पग पग पर स्वागत करता है। इसे यूं भी जाना जा सकता है कि शर्तों और अपेक्षाओं से तो कारोबार होता है और ईश्वर कोई कारोबार नहीं...कि जिसका लेनदेन हो सके , उसमें तो रमा जा सकता है बस।
-अलकनंदा सिंह
आम्रपाली की कहानी पढ़कर अब एक प्रश्न यहीं से उपजता है कि जब पीड़ा होगी दुख होगा क्या ईश्वर तभी याद आयेंगे, ईश्वर हमारे ही पास है, इसका अहसास भी तभी होना चाहिए क्या जब पीड़ा हो, ये तो शर्त हो गई ईश्वर को याद करने की। ये तो अनिवार्यता हो गई कि ईश्वर को हमेशा जहन में रखने के लिए पीड़ा का और दुख का होना जरूरी है। अनिवार्यता है यानि निश्चित ही ये बाध्यता भी है और बाध्यता है यानि ये तो नियम बन गया है। तात्पर्य यही हुआ कि ईश्वर के लिए दुख की अनिवार्यता को नियम बना दिया गया। नियमों में बंधकर सामाजिक संरचना को तो चलाया जा सकता है , सृष्टि की सारी आवश्यकताओं पर खरा भी उतरा जा सकता है मगर ईश्वर को नहीं पाया जा सकता । ईश्वर तो सिर्फ और सिर्फ मन की, आत्मा की निश्छलता से ही पाया जा सकता है। हां, इस निश्छलता के लिए अवश्य अपने भीतर झांकना होगा और तभी उपजेगा प्रेम। एक निश्छल प्रेम...। प्रेम का उमड़ना और उमड़ कर ईश्वर को पाने की यात्रा निश्चित ही दुख या पीड़ा वाली बैसाखी की मोहताज नहीं तो फिर इस बैसाखी को हम क्यों ढोयें। क्यों ना हम प्रसन्न रहते हुये, प्रसन्न करते हुये, प्रसन्न देखते व दूसरों को दिखते हुये ईश्वर का हर वस्तु-व्यक्ति में अनुभव करें और उसकी निकटता का आनंद लें।
अकसर लोग पूछ बैठते हैं कि ईश्वर के प्रति प्रेम उपजने की क्या गारंटी है। इनके लिए एक ही जवाब होता है कि एक बार दूसरों से अपनी अपेक्षाओं की शर्त हटाकर तो देखिए सभी प्रेममय लगेंगे क्योंकि अपेक्षायें प्रेम को ठहरने ही नहीं देतीं,वे प्रतिदान मांगती हैं और जो मांग रहा है वह तो भिखारी हो जाता है ना...वह प्रेमी नहीं रह पाता...और जब प्रेम नहीं रहता तो ईश्वर कैसे रहेगा, ऐसी स्थिति में प्रेमविहीनता या यूं कहें कि आत्मा के संग वैक्यूम जन्मता है जो पीड़ा को जन्म देता है , जो दुख को अनिवार्य बताता है ।
आम्रपाली के संदर्भ में हो सकता है बुद्ध ने त्याग और पीड़ा को ऊपर रखा क्योंकि वे त्याग और उससे उपजी पीड़ा को ही ईश्वर को पाने का एकमात्र रास्ता बता पाये या जान पाये। इस संदर्भ में कृष्ण का रास्ता ज्यादा आसान और सर्वग्राह्य व सुलभ है, बस एक बार निश्छल हो जाया जाये। आत्मा तक पहुंचने के लिए कृष्ण का प्रेममयी हो जाने का और प्रेममयी कर देने का रास्ता आनंद का रास्ता है जो अपेक्षाओं से उपजे दुख को भी दूर कर देता है और प्रेममयी बनाकर आत्मा व ईश्वर दोनों का ही पग पग पर स्वागत करता है। इसे यूं भी जाना जा सकता है कि शर्तों और अपेक्षाओं से तो कारोबार होता है और ईश्वर कोई कारोबार नहीं...कि जिसका लेनदेन हो सके , उसमें तो रमा जा सकता है बस।
-अलकनंदा सिंह
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