आज कबीर जयंती पर विशेष
:
तमाम रस्मो-रिवाजों को ताक पर रखकर ईश्वर को भजने की एक नई और अनोखी परिभाषा गढ़ने वाले सूफी संत कबीर की जयंती एक बार फिर आ गई । तारीख की मोहताज कबीर जयंती और कुछ सीख दे न दे पर इतना जरूर बताती है कि कैसे एक अनपढ़, अनगढ़ से व्यक्ति ने पूरे विश्व को महज सूत की गांठें सुलझाते सुलझाते और उन्हें बुनते हुए यह बता दिया कि ईश्वर को पाने के लिए उनकी सभी विचारधाराओं और उपासना के तरीकों पर हुई बहसों का कोई खास मतलब नहीं। इन ढकोसलों से यदि ईश्वर को पाने की बात तो दूर उसके होने को महसूस भी किया जा सकता तो देश में आदिकाल से आज तक लाखों लोग यूं तमाम आश्रमों की खाक न छान रहे होते।
कबीर कहते भी हैं -
कबीर प्रेम न चाखिया, चाखि ना लिया साव, सूने घर का पाहुना,ज्यों आवे त्यों जाव।
सभी धर्मों के बड़े-बड़े महापंडितों को ये सोचने समझने में जहां अपने धर्मग्रंथों को खंगालना पड़ता था, शास्त्रार्थ करना पड़ता था कि ईश्वर आखिर है क्या, वो कहां मिलता है, उसका क्या स्वरूप है, वह दिखता कैसा है, वह आयेगा कैसे... वहीं कबीर बड़ी सहजता से अपने मैं को व्याख्यायित करते हुए साधारण सी भाषा में बताते हैं कि मेरा मन तो ''सूने घर का पाहुना'' ...है जहां किसी के न तो आने पर कोई बंधन है और ना जाने पर कोई रोक लगी है। ये शून्य है जिसमें जैसे चाहो, वैसे ईश्वर को स्थान दे दो।
कबीर की दृष्टि में 'सूना घर' यानि मन एकदम सूना है, खाली है, निर्विकार है, निश्छल है परंतु निराश नहीं है, बल्कि निर्गुण का स्वागत को मन खाली बैठा है। मन इतना सूना है कि जहां कोई निषेध नहीं और ना ही कोई आमंत्रण देने वाला है। स्व को जानने व समझने और उससे रूबरू होने का इतना सहज तरीका तो केवल कबीर ही ढूढ़ पाये और शास्त्रों के ज्ञाता महापंडितों को बता भी गये कि जो कुछ है ''स्व'' ही है। जिसे आना है... आये, जिसे जाना है... जाये, घर एकदम खाली है। जहां होने को तो 'स्व' मौजूद है मगर नहीं होने को उसका विचार तक नहीं है आसपास, एकदम अविरल धारा की भांति...अनंत में समाते चले जाने की ओर...।
एक जुलाहे ने सूत की गिरहें खोलते खोलते मन की... आत्मा की और ईश्वर प्राप्ति की जितनी गिरहें थीं, सब खोलकर रख दीं,वह भी इतनी सरलता के साथ कि ईश्वर को महसूस करने के लिए किसी भी बाहरी वस्तु या व्यक्ति की जरूरत नहीं, बस स्वयं को जान लेना इसकी पहली तथा आखिरी जरूरत है। भक्तिकाल के सूफीयाना समय में कबीर ने कपड़े बुनने के संग ईश्वर पाने की उत्कट आकांक्षा को जिस तरह बुना और उसका सरलीकरण किया, वह तामझामों वाले मठाधीशों के वजूद पर और उनके तौरतरीकों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। कबीर ने बार बार कहा कि बाहर खोजने से कुछ नहीं मिलेगा...अपने भीतर झांको । ये सिर्फ संभव है स्वयं के शून्य बनते चले जाने से। प्रेम गली अति सांकरी, जामे दो ना समाय... सच ही तो है। जब साधारण जीवन में हम देखें तो प्रेम होते ही कोई भी दो व्यक्तित्व एक ही बन जाते है, परस्पर आत्मसात हो जाते हैं।
उस परम प्रेम के उदय का अर्थ ही ये है कि पूरी रूप-रेखा मिटा दो। ना नाम बचे ना ठिकाना । खुद को मिटा देने का अर्थ ही कबीर हो जाना है ।
परमात्मा को पाने के लिए कबीर हो जाना जरूरी भी है क्योंकि जब तक ' मैं ' है, घर सूना नहीं है तो किसी भी पाहुना (मेहमान) के आने पर हलचल होगी ही, ऐसे में परमात्मा को देखना संभव नहीं हो पायेगा । बाधा गिरानी है स्वत: ही, और जब गिर जाती है तो तुम्हारी आंखें निर्मल हो कर खुलती हैं बिना किसी भाव के कि मैं हूं। तुम बिलकुल 'ना-कुछ' की तरह होते हो। एक शून्य ! उस शून्य में तत्क्षण वह प्रवेश कर जाता है। जैसे ही शून्य हुए, वह अतिथि आ जाता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, तुम उसे चूकते रहोगे। जिस दिन तुम खाली होओगे, वह तुम्हें भर देता है।
कबीर की जयंती के बहाने एक अनपढ़ व अनगढ़ संत परजितनी श्रद्धा अचानक लोगों की फूट पड़ी है और उसकी धारा अपना प्रवाह तेज करती जा रही है, उन्हें लेकर शोध हो रहे हैं,उनके निर्गुण ज्ञान पर अपने अपने मत रखे जा रहे हैं, वह पर्याप्त नहीं है क्योंकि कबीर होना और कबीर को व्याख्यायित करना दो अलग अलग बातें हैं । व्याख्यायित भी वही कर रहे हैं जो कबीर के शब्दों को पकड़ कर लटके हुए हैं जिन्होंने 'स्व' को ढूढ़ने का कोई यत्न नहीं किया, ना जानते हैं स्व को और ना ही जानने की इच्छा है। यानि सबकुछ बस खानापूरी ही हो रही है। शब्दों से खेला जा रहा है,बस ।
नि:संदेह भक्ति के इस आडंबरपूर्ण युग में कबीर को समझना तथा उनका अनुसरण करना बहुत जरूरी हो गया है परंतु सवाल यह है कि क्या उसके लिए एक अदद जयंती काफी है और क्या मात्र कबीर के चंद दोहों को रट लेने भर से हम उनके उस संदेश को पा सकते हैं जिसका महत्व करीब 500 साल पहले भी था और आज भी है।
बेहतर होगा कि आज के इस दौर में कबीर पर शोध करने की बजाय उन्हें समझने की कोशिश करें, ठीक वैसे जैसे कबीर का अपना जीवन था। बिना बनावट का और बिना दिखावट का। सरल, सहज और सात्विक।
- अलकनंदा सिंह
तमाम रस्मो-रिवाजों को ताक पर रखकर ईश्वर को भजने की एक नई और अनोखी परिभाषा गढ़ने वाले सूफी संत कबीर की जयंती एक बार फिर आ गई । तारीख की मोहताज कबीर जयंती और कुछ सीख दे न दे पर इतना जरूर बताती है कि कैसे एक अनपढ़, अनगढ़ से व्यक्ति ने पूरे विश्व को महज सूत की गांठें सुलझाते सुलझाते और उन्हें बुनते हुए यह बता दिया कि ईश्वर को पाने के लिए उनकी सभी विचारधाराओं और उपासना के तरीकों पर हुई बहसों का कोई खास मतलब नहीं। इन ढकोसलों से यदि ईश्वर को पाने की बात तो दूर उसके होने को महसूस भी किया जा सकता तो देश में आदिकाल से आज तक लाखों लोग यूं तमाम आश्रमों की खाक न छान रहे होते।
कबीर कहते भी हैं -
कबीर प्रेम न चाखिया, चाखि ना लिया साव, सूने घर का पाहुना,ज्यों आवे त्यों जाव।
सभी धर्मों के बड़े-बड़े महापंडितों को ये सोचने समझने में जहां अपने धर्मग्रंथों को खंगालना पड़ता था, शास्त्रार्थ करना पड़ता था कि ईश्वर आखिर है क्या, वो कहां मिलता है, उसका क्या स्वरूप है, वह दिखता कैसा है, वह आयेगा कैसे... वहीं कबीर बड़ी सहजता से अपने मैं को व्याख्यायित करते हुए साधारण सी भाषा में बताते हैं कि मेरा मन तो ''सूने घर का पाहुना'' ...है जहां किसी के न तो आने पर कोई बंधन है और ना जाने पर कोई रोक लगी है। ये शून्य है जिसमें जैसे चाहो, वैसे ईश्वर को स्थान दे दो।
कबीर की दृष्टि में 'सूना घर' यानि मन एकदम सूना है, खाली है, निर्विकार है, निश्छल है परंतु निराश नहीं है, बल्कि निर्गुण का स्वागत को मन खाली बैठा है। मन इतना सूना है कि जहां कोई निषेध नहीं और ना ही कोई आमंत्रण देने वाला है। स्व को जानने व समझने और उससे रूबरू होने का इतना सहज तरीका तो केवल कबीर ही ढूढ़ पाये और शास्त्रों के ज्ञाता महापंडितों को बता भी गये कि जो कुछ है ''स्व'' ही है। जिसे आना है... आये, जिसे जाना है... जाये, घर एकदम खाली है। जहां होने को तो 'स्व' मौजूद है मगर नहीं होने को उसका विचार तक नहीं है आसपास, एकदम अविरल धारा की भांति...अनंत में समाते चले जाने की ओर...।
एक जुलाहे ने सूत की गिरहें खोलते खोलते मन की... आत्मा की और ईश्वर प्राप्ति की जितनी गिरहें थीं, सब खोलकर रख दीं,वह भी इतनी सरलता के साथ कि ईश्वर को महसूस करने के लिए किसी भी बाहरी वस्तु या व्यक्ति की जरूरत नहीं, बस स्वयं को जान लेना इसकी पहली तथा आखिरी जरूरत है। भक्तिकाल के सूफीयाना समय में कबीर ने कपड़े बुनने के संग ईश्वर पाने की उत्कट आकांक्षा को जिस तरह बुना और उसका सरलीकरण किया, वह तामझामों वाले मठाधीशों के वजूद पर और उनके तौरतरीकों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। कबीर ने बार बार कहा कि बाहर खोजने से कुछ नहीं मिलेगा...अपने भीतर झांको । ये सिर्फ संभव है स्वयं के शून्य बनते चले जाने से। प्रेम गली अति सांकरी, जामे दो ना समाय... सच ही तो है। जब साधारण जीवन में हम देखें तो प्रेम होते ही कोई भी दो व्यक्तित्व एक ही बन जाते है, परस्पर आत्मसात हो जाते हैं।
उस परम प्रेम के उदय का अर्थ ही ये है कि पूरी रूप-रेखा मिटा दो। ना नाम बचे ना ठिकाना । खुद को मिटा देने का अर्थ ही कबीर हो जाना है ।
परमात्मा को पाने के लिए कबीर हो जाना जरूरी भी है क्योंकि जब तक ' मैं ' है, घर सूना नहीं है तो किसी भी पाहुना (मेहमान) के आने पर हलचल होगी ही, ऐसे में परमात्मा को देखना संभव नहीं हो पायेगा । बाधा गिरानी है स्वत: ही, और जब गिर जाती है तो तुम्हारी आंखें निर्मल हो कर खुलती हैं बिना किसी भाव के कि मैं हूं। तुम बिलकुल 'ना-कुछ' की तरह होते हो। एक शून्य ! उस शून्य में तत्क्षण वह प्रवेश कर जाता है। जैसे ही शून्य हुए, वह अतिथि आ जाता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, तुम उसे चूकते रहोगे। जिस दिन तुम खाली होओगे, वह तुम्हें भर देता है।
कबीर की जयंती के बहाने एक अनपढ़ व अनगढ़ संत परजितनी श्रद्धा अचानक लोगों की फूट पड़ी है और उसकी धारा अपना प्रवाह तेज करती जा रही है, उन्हें लेकर शोध हो रहे हैं,उनके निर्गुण ज्ञान पर अपने अपने मत रखे जा रहे हैं, वह पर्याप्त नहीं है क्योंकि कबीर होना और कबीर को व्याख्यायित करना दो अलग अलग बातें हैं । व्याख्यायित भी वही कर रहे हैं जो कबीर के शब्दों को पकड़ कर लटके हुए हैं जिन्होंने 'स्व' को ढूढ़ने का कोई यत्न नहीं किया, ना जानते हैं स्व को और ना ही जानने की इच्छा है। यानि सबकुछ बस खानापूरी ही हो रही है। शब्दों से खेला जा रहा है,बस ।
नि:संदेह भक्ति के इस आडंबरपूर्ण युग में कबीर को समझना तथा उनका अनुसरण करना बहुत जरूरी हो गया है परंतु सवाल यह है कि क्या उसके लिए एक अदद जयंती काफी है और क्या मात्र कबीर के चंद दोहों को रट लेने भर से हम उनके उस संदेश को पा सकते हैं जिसका महत्व करीब 500 साल पहले भी था और आज भी है।
बेहतर होगा कि आज के इस दौर में कबीर पर शोध करने की बजाय उन्हें समझने की कोशिश करें, ठीक वैसे जैसे कबीर का अपना जीवन था। बिना बनावट का और बिना दिखावट का। सरल, सहज और सात्विक।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें