एक बार कृष्ण को द्वारिका के लिए विदा करते समय कुंती कहती हैं-
''विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥८॥''
कुंती कृष्ण से कष्ट की याचना करती है ताकि कष्ट कृष्ण के दर्शन करा सकें मगर आनंदकारी कृष्ण कहते हैं और समझाते भी हैं कि कष्ट की याचना ठीक नहीं। इसी के साथ वह कहते हैं कि मैं जिस पर कृपा करना चाहता हूं, उसे कष्ट ही देता हूं। इसके बड़े मनोवैज्ञानिक कारण हैं । सुख की लंबाई अहुत कम होती है उसकी गहराई भी बहुत कम होती है इसीलिए सुख में कोई भी उच्छृंखल हो सकता है, वह सबको दिखाना चाहता है कि वह सुखी है, सुख में कुछ भी गहरा नहीं रह जाता, सब उथला उथला... जबकि दुख...दुख तो इसके ठीक उलट होता है, वह 'शैलो' नहीं होता, वह गहरा होता है, उसकी लंबाई भी ज्यादा होती है । दुख सिर्फ दुख ही नहीं देता, वह मांजता भी है , निखारता भी है इसीलिए कृष्ण कुंती की इस कष्ट मांगने की चतुराई वाली इच्छा पर मुस्कुरा देते हैं कि आत्मा और स्वयं अपने को तलाशने, निखारने के लिए उन्होंने कितनी आसानी और चालाकी से ईश्वर को पाने का माध्यम खोज लिया ।
आजकल हममें से अधिकांश व्यक्ति थोड़ा सा दुख होने पर भी परेशान होने लगते हैं। घबराकर सोचते हैं कि अब जीवन का सफर या तो यहीं तक है बस या फिर जीवन में सिर्फ सुख ही होना चाहिये। सच तो ये है कि किसी भी संकट की घड़ी में धैर्य न खोकर उस दुख के साथ बहने का प्रयास करना चाहिये क्योंकि स्व्यं को,स्वजनों को और स्वमित्रों को इसी एक माध्यम से जाना जा सकता है।
दुख मनाते रहना समस्याओं के समाधान में आड़े आता है। विपरीत परिस्थितियों को अपनी ओर मोड़ने के लिए कुछ दूर तक उनके बहाव में बहकर देखना चाहिए, ताकि उनसे निकलने का रास्ता ढूढ़ना आसान हो जाये। परिस्थितियां विपरीत नहीं होतीं वरन् हमारी इच्छायें उनके साथ तालमेल नहीं बिठा पातीं और हम दोष उन्हें देने लगते हैं, जो किसी भी कारण से उन परिस्थितियों के कारक होते हैं।
जीवन का हर क्षण जो कष्टदायी लगता है (जबकि होता नहीं है) उसमें से भी सकारात्मक बदलाव के संकेत ढूढ़ना और समय को अपनी गति से चलने देना, हर दुख से उबरने का पुरुषार्थी तरीका है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जीवन के प्रवाह की सभी वास्तविकताओं से परिचित कराते हुये दुख ना मानने का ही उपदेश दिया। संपूर्ण गीता का आधार ही दुख से जीवन के मूल्यों को परिष्कृत करना बताया गया है। दुख के गहनतम क्षण ही हमें ऊर्जा की ओर झांकने को प्रेरित करते हैं और हमें स्वयं को जानने और दुख के कारण व निवारण को भी तलाशने का रास्ता सुझाते हैं । इसलिए निज ऊर्जा के भीतर जाने का रास्ता आखिर हम रोकें क्यों? उसे प्रवाहित क्यों ना होने दें, क्यों ना उसके साथ ही हम भी बहें, अपने अंतस की ओर...।
अत: दुख के साथ बहकर तो देखें, स्वयं ईश्वर का साथ हर समय अपने होने का आभास देता रहेगा, स्व को पहचानने का और स्व से मिलने वाले सुख की ओर जाने का ये बेहद सरल उपाय है ।
- अलकनंदा सिंह
''विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥८॥''
कुंती कृष्ण से कष्ट की याचना करती है ताकि कष्ट कृष्ण के दर्शन करा सकें मगर आनंदकारी कृष्ण कहते हैं और समझाते भी हैं कि कष्ट की याचना ठीक नहीं। इसी के साथ वह कहते हैं कि मैं जिस पर कृपा करना चाहता हूं, उसे कष्ट ही देता हूं। इसके बड़े मनोवैज्ञानिक कारण हैं । सुख की लंबाई अहुत कम होती है उसकी गहराई भी बहुत कम होती है इसीलिए सुख में कोई भी उच्छृंखल हो सकता है, वह सबको दिखाना चाहता है कि वह सुखी है, सुख में कुछ भी गहरा नहीं रह जाता, सब उथला उथला... जबकि दुख...दुख तो इसके ठीक उलट होता है, वह 'शैलो' नहीं होता, वह गहरा होता है, उसकी लंबाई भी ज्यादा होती है । दुख सिर्फ दुख ही नहीं देता, वह मांजता भी है , निखारता भी है इसीलिए कृष्ण कुंती की इस कष्ट मांगने की चतुराई वाली इच्छा पर मुस्कुरा देते हैं कि आत्मा और स्वयं अपने को तलाशने, निखारने के लिए उन्होंने कितनी आसानी और चालाकी से ईश्वर को पाने का माध्यम खोज लिया ।
आजकल हममें से अधिकांश व्यक्ति थोड़ा सा दुख होने पर भी परेशान होने लगते हैं। घबराकर सोचते हैं कि अब जीवन का सफर या तो यहीं तक है बस या फिर जीवन में सिर्फ सुख ही होना चाहिये। सच तो ये है कि किसी भी संकट की घड़ी में धैर्य न खोकर उस दुख के साथ बहने का प्रयास करना चाहिये क्योंकि स्व्यं को,स्वजनों को और स्वमित्रों को इसी एक माध्यम से जाना जा सकता है।
दुख मनाते रहना समस्याओं के समाधान में आड़े आता है। विपरीत परिस्थितियों को अपनी ओर मोड़ने के लिए कुछ दूर तक उनके बहाव में बहकर देखना चाहिए, ताकि उनसे निकलने का रास्ता ढूढ़ना आसान हो जाये। परिस्थितियां विपरीत नहीं होतीं वरन् हमारी इच्छायें उनके साथ तालमेल नहीं बिठा पातीं और हम दोष उन्हें देने लगते हैं, जो किसी भी कारण से उन परिस्थितियों के कारक होते हैं।
जीवन का हर क्षण जो कष्टदायी लगता है (जबकि होता नहीं है) उसमें से भी सकारात्मक बदलाव के संकेत ढूढ़ना और समय को अपनी गति से चलने देना, हर दुख से उबरने का पुरुषार्थी तरीका है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जीवन के प्रवाह की सभी वास्तविकताओं से परिचित कराते हुये दुख ना मानने का ही उपदेश दिया। संपूर्ण गीता का आधार ही दुख से जीवन के मूल्यों को परिष्कृत करना बताया गया है। दुख के गहनतम क्षण ही हमें ऊर्जा की ओर झांकने को प्रेरित करते हैं और हमें स्वयं को जानने और दुख के कारण व निवारण को भी तलाशने का रास्ता सुझाते हैं । इसलिए निज ऊर्जा के भीतर जाने का रास्ता आखिर हम रोकें क्यों? उसे प्रवाहित क्यों ना होने दें, क्यों ना उसके साथ ही हम भी बहें, अपने अंतस की ओर...।
अत: दुख के साथ बहकर तो देखें, स्वयं ईश्वर का साथ हर समय अपने होने का आभास देता रहेगा, स्व को पहचानने का और स्व से मिलने वाले सुख की ओर जाने का ये बेहद सरल उपाय है ।
- अलकनंदा सिंह
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