5 दिसंबर: श्री अरविंद की पुण्यतिथि पर विशेष
एक वाकये से शुरुआत करना चाहूंगी जिसे कहीं बहुत पहले पढ़ा था मैंने कि- जब गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पहले आंखें मूंदे पड़े थे तो किसी मित्र ने सांत्वना देने के लिहाज से उनसे कहा कि तुम ने अब तक बहुत कुछ कर लिया..बहुत कुछ पा लिया...बहुत कुछ गुन लिया...बहुत कुछ गा लिया ..बजा लिया...लिख पढ़ लिया ...अब तुम अपने मन को एकदम शांत रखो और ईश्वर के चरणों में मन रमाओ। गुरूदेव ने तुरंत अपनी थकी हुई .. अलसाई सी आंखों में चमक लाकर लगभग गुस्साते हुये उस मित्र से कहा - ये क्या बकवास करते हो...मैं अभी तक कुछ गा कहां सका हूं..मैं तो अभी तक साज ही जमा रहा था...कभी मृदंग, तो कभी सितार, तो कभी बांसुरी को उलट पलटभर पाया हूं....जिसे तुम या और लोग मेरा गाना समझ रहे थे वो तो अभी तक गाने की तैयारी मात्र थी बस ! गाना तो अभी सीखना है , उसमें पहले मन रमाना होगा तब कहीं जाकर सुर साध पाऊंगा...और देखो मैं इस तरह बिना गाये ही संसार से चले जा रहा हूं, इसका मुझे खेद हो रहा है...मैं बिना गाये मरना तो नहीं चाहूंगा...इस अधूरेपन के साथ मुझे शांति किस तरह मिलेगी भला... ।
यूं तो आज से दो दिन बाद अर्थात् 5 दिसंबर को मनाये जानी वाली श्री अरविंद की पुण्यतिथि पर गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर को लेकर इस वाकये का ज़िक्र करना आपको कुछ अटपटा जरूर लग रहा होगा मगर जो कुछ श्री अरविंद के बारे में कहना है, वह इसके बिना पूरी तरह से कहा भी नहीं जा सकता। 'विज्ञान के दर्शन को कविता में ढालने' की अद्भुत क्षमता के कारण ही श्री अरविंद एकमात्र ऐसे व्यक्ति हुए जो पूरी तरह से अलग दिखने वाली तीन धाराओं का सम्मिश्रण कर सके। विज्ञान विकास की बात करता है तो दर्शन बुद्धि और आध्यात्म की सीढ़ी है और कविता ...कविता न तो विज्ञान के नियमों को मानती है और न दर्शन की बुद्धिवादिता को, फिर भी श्री अरविंद ऐसा कर पाने में समर्थ रहे कि तीनों को एक ही दृष्टि से तीन तीन कोणों से देखा जा सके।
पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव को श्री अरविंद के दर्शन में बड़े स्तर पर पाया जाता है जो हमेशा वैज्ञानिक तरीके से अपने तर्क प्रस्तुत करता है, सब-कुछ सटीक दिखाने की कोशिश में परफेक्शनिस्ट बनने को प्रेरित करता है। श्री अरविंद का दर्शन उनके गणितज्ञ होने को भी दिखाता है । जो खालिस गणितज्ञ है या विज्ञानी सोच के दायरे में रहता है, वह बेहद कैलकुलेटिव भी हो जाता है और जो कैलकुलेटिव हो जाता है वह संसार के अस्तित्व को भी गणित के ज़रिये ही हल करना चाहता है । ऐसा करने में बुद्धि एक उपकरण बन जाती है
और उपकरणों से प्रयोग किये जा सकते हैं ...बहुत ज्यादा बुद्धिवादियों के बीच पहुंचा जा सकता है ..उन्हें शरीर से लेकर आत्मा के विकास की कैमिस्ट्री समझाई जा सकती है मगर यही उक्ति कुछ कम बुद्धिवालों पर फिट नहीं बैठती...वहां तर्क नहीं चलते ..वहां कोई स्थापित नियम नहीं चलता ...सब कुछ अपने हृदय के स्पंदन पर निर्भर करता है। कम ज्ञानियों में बुद्धि पर हावी रहता है हृदय का स्पंदन । उनमें विचार होता है मगर वह वैज्ञानिक कसौटियों पर उतरने को कतई तैयार नहीं होता ,उसका अपना ही सिद्धांत होता है कि जो महसूस हुआ ..वह तो है ...महसूस हो रहा है तो ईश्वर भी है और जीवन भी और नहीं हो रहा तो किसी भी गणित से उसे महसूस नहीं करवाया जा सकता ..अर्थात् हृदय वालों के लिए बाकी सब थ्योरी बेमानी होती हैं।
श्री अरविंद ने अपने महाकाव्य सावित्री के ज़रिये जो आत्मा और योग के नये सूत्रों का विचार किया, वह निश्चितत: ही नया और अद्भुत प्रयोग सिद्ध हुआ है विश्व में परंतु वह आम जनमानस में रवीन्द्रनाथ टैगोर से कुछ अलग रहा । श्री अरविंद हमेशा ही पूर्णता के सिद्धांत की बात करते रहे , हमेशा पूर्णता के अनुभव बांटते रहे और कविता में भी वे पूर्णता को पाने के लिए लालायित रहे । भारतीय जनमानस में पूर्णता को सिर्फ ईश्वर तक ही माना गया है वह कभी मनुष्य में समायेगी, ऐसा कम सोचा जाता है । पूर्णता की उच्चता के कारण श्री अरविंद का आमजन में 'प्रभाव' किसी तरह कम रहा, ये तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता परंतु यह तो निश्चित है इसी 'पूर्णता' के कारण ही वह आमजन से उतना घुलमिल नहीं पाया, जितना टैगोर का प्रभाव आमजन में घुला हुआ था ।
इसीलिए मुझे आज कहीं पढ़ी हुईं रवीन्द्रनाथ टैगोर की उक्त पंक्तियां याद हो आईं कि अभी तो मैंने साज संभाले हैं ...अभी गाया कहां है..गाना तो शेष है... सब-कुछ अपूर्ण है ...पूर्ण करना बाकी है...इसीलिए अपने अपने समय में श्री अरविंद और रवीन्द्रनाथ दोनों ही सार्थक बने रहे। श्री अरविंद को याद करना यानि दर्शन सिद्धांतों की पूर्णता पर फिर से गर्व करने के अहसास को जीना है।
- अलकनंदा सिंह
एक वाकये से शुरुआत करना चाहूंगी जिसे कहीं बहुत पहले पढ़ा था मैंने कि- जब गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पहले आंखें मूंदे पड़े थे तो किसी मित्र ने सांत्वना देने के लिहाज से उनसे कहा कि तुम ने अब तक बहुत कुछ कर लिया..बहुत कुछ पा लिया...बहुत कुछ गुन लिया...बहुत कुछ गा लिया ..बजा लिया...लिख पढ़ लिया ...अब तुम अपने मन को एकदम शांत रखो और ईश्वर के चरणों में मन रमाओ। गुरूदेव ने तुरंत अपनी थकी हुई .. अलसाई सी आंखों में चमक लाकर लगभग गुस्साते हुये उस मित्र से कहा - ये क्या बकवास करते हो...मैं अभी तक कुछ गा कहां सका हूं..मैं तो अभी तक साज ही जमा रहा था...कभी मृदंग, तो कभी सितार, तो कभी बांसुरी को उलट पलटभर पाया हूं....जिसे तुम या और लोग मेरा गाना समझ रहे थे वो तो अभी तक गाने की तैयारी मात्र थी बस ! गाना तो अभी सीखना है , उसमें पहले मन रमाना होगा तब कहीं जाकर सुर साध पाऊंगा...और देखो मैं इस तरह बिना गाये ही संसार से चले जा रहा हूं, इसका मुझे खेद हो रहा है...मैं बिना गाये मरना तो नहीं चाहूंगा...इस अधूरेपन के साथ मुझे शांति किस तरह मिलेगी भला... ।
यूं तो आज से दो दिन बाद अर्थात् 5 दिसंबर को मनाये जानी वाली श्री अरविंद की पुण्यतिथि पर गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर को लेकर इस वाकये का ज़िक्र करना आपको कुछ अटपटा जरूर लग रहा होगा मगर जो कुछ श्री अरविंद के बारे में कहना है, वह इसके बिना पूरी तरह से कहा भी नहीं जा सकता। 'विज्ञान के दर्शन को कविता में ढालने' की अद्भुत क्षमता के कारण ही श्री अरविंद एकमात्र ऐसे व्यक्ति हुए जो पूरी तरह से अलग दिखने वाली तीन धाराओं का सम्मिश्रण कर सके। विज्ञान विकास की बात करता है तो दर्शन बुद्धि और आध्यात्म की सीढ़ी है और कविता ...कविता न तो विज्ञान के नियमों को मानती है और न दर्शन की बुद्धिवादिता को, फिर भी श्री अरविंद ऐसा कर पाने में समर्थ रहे कि तीनों को एक ही दृष्टि से तीन तीन कोणों से देखा जा सके।
पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव को श्री अरविंद के दर्शन में बड़े स्तर पर पाया जाता है जो हमेशा वैज्ञानिक तरीके से अपने तर्क प्रस्तुत करता है, सब-कुछ सटीक दिखाने की कोशिश में परफेक्शनिस्ट बनने को प्रेरित करता है। श्री अरविंद का दर्शन उनके गणितज्ञ होने को भी दिखाता है । जो खालिस गणितज्ञ है या विज्ञानी सोच के दायरे में रहता है, वह बेहद कैलकुलेटिव भी हो जाता है और जो कैलकुलेटिव हो जाता है वह संसार के अस्तित्व को भी गणित के ज़रिये ही हल करना चाहता है । ऐसा करने में बुद्धि एक उपकरण बन जाती है
और उपकरणों से प्रयोग किये जा सकते हैं ...बहुत ज्यादा बुद्धिवादियों के बीच पहुंचा जा सकता है ..उन्हें शरीर से लेकर आत्मा के विकास की कैमिस्ट्री समझाई जा सकती है मगर यही उक्ति कुछ कम बुद्धिवालों पर फिट नहीं बैठती...वहां तर्क नहीं चलते ..वहां कोई स्थापित नियम नहीं चलता ...सब कुछ अपने हृदय के स्पंदन पर निर्भर करता है। कम ज्ञानियों में बुद्धि पर हावी रहता है हृदय का स्पंदन । उनमें विचार होता है मगर वह वैज्ञानिक कसौटियों पर उतरने को कतई तैयार नहीं होता ,उसका अपना ही सिद्धांत होता है कि जो महसूस हुआ ..वह तो है ...महसूस हो रहा है तो ईश्वर भी है और जीवन भी और नहीं हो रहा तो किसी भी गणित से उसे महसूस नहीं करवाया जा सकता ..अर्थात् हृदय वालों के लिए बाकी सब थ्योरी बेमानी होती हैं।
श्री अरविंद ने अपने महाकाव्य सावित्री के ज़रिये जो आत्मा और योग के नये सूत्रों का विचार किया, वह निश्चितत: ही नया और अद्भुत प्रयोग सिद्ध हुआ है विश्व में परंतु वह आम जनमानस में रवीन्द्रनाथ टैगोर से कुछ अलग रहा । श्री अरविंद हमेशा ही पूर्णता के सिद्धांत की बात करते रहे , हमेशा पूर्णता के अनुभव बांटते रहे और कविता में भी वे पूर्णता को पाने के लिए लालायित रहे । भारतीय जनमानस में पूर्णता को सिर्फ ईश्वर तक ही माना गया है वह कभी मनुष्य में समायेगी, ऐसा कम सोचा जाता है । पूर्णता की उच्चता के कारण श्री अरविंद का आमजन में 'प्रभाव' किसी तरह कम रहा, ये तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता परंतु यह तो निश्चित है इसी 'पूर्णता' के कारण ही वह आमजन से उतना घुलमिल नहीं पाया, जितना टैगोर का प्रभाव आमजन में घुला हुआ था ।
इसीलिए मुझे आज कहीं पढ़ी हुईं रवीन्द्रनाथ टैगोर की उक्त पंक्तियां याद हो आईं कि अभी तो मैंने साज संभाले हैं ...अभी गाया कहां है..गाना तो शेष है... सब-कुछ अपूर्ण है ...पूर्ण करना बाकी है...इसीलिए अपने अपने समय में श्री अरविंद और रवीन्द्रनाथ दोनों ही सार्थक बने रहे। श्री अरविंद को याद करना यानि दर्शन सिद्धांतों की पूर्णता पर फिर से गर्व करने के अहसास को जीना है।
- अलकनंदा सिंह
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