कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सग्ङोस्त्वकर्मणि।।
अर्थात्
"तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल की इच्छा मत कर तथा तेरी कर्म 'न' करने में भी आसक्ति न हो।।"
इस सहित करीब 700 श्लोकों को बोलने में लगभग 4 घंटे का समय लगता है मगर कृष्ण ने अर्जुन को 'साइकिकली कम्युनिकेट' करके इसे महाभारत का अध्यात्मिक रणवाक्य बना दिया जो आज भी अक्षरश: हमारे जीवन में लागू होता रहता है और जब हम ऐसा नहीं कर पाते तो अतिक्रमणवादी हो जाते हैं, ये निश्चित है। फिर चाहे वह अतिक्रमण किसी भी स्तर पर हो। अतिक्रमण से क्लेश और युद्ध का जन्म लेना स्वाभाविक है। सो इन विकट होती स्थितियों को जनकल्याणकारी बनाने का एक सुनिश्चित मार्ग है श्रीमद्भगवद्गीता।
आज के दिन यानि मार्गशीर्ष महीना, शुक्लपक्ष की एकादशी (मोक्षदा) को ऐतिहासिक व पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता शब्दरूप में जनकल्याण के लिए श्रीकृष्ण द्वारा कही गईं। महाभारत की महागाथा में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया यह कर्म-संदेश एक उपनिषद् है जिसमें अलग अलग 11 उपनिषदों का ज्ञान-मर्म समाया है।
श्रीकृष्ण ने जानबूझकर इसकी पृष्ठभूमि युद्धक्षेत्र रखी ताकि सिर्फ अर्जुन ही नहीं बल्कि आज (वर्तमान) तक और आने वाले (भविष्य) समय में भी ये संदेश दिया जा सके कि जीवन की समस्याओं में उलझकर उन से पलायन करना कायरता है, पुरुषार्थ नहीं। महाभारत के महानायक अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में हताश हो जाते हैं और यही हताशा यही अनिश्चयकारी व विनाशकारी हो जाती है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को माध्यम बनाकर दरअसल पूरी मानवजाति के लिए संदेश दिया कि स्वकर्म करो, सफलता निश्चित है।
श्रीकृष्ण कहते हैं, ''पार्थ! अपने कर्म को अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो, अपनी आत्मा के लिए करो। निजस्वभाव से किया गया कर्म प्राकृतिक होगा, और जो प्राकृतिक होगा वह अनिष्टकारी हो ही नहीं सकता। अनिष्ट वही करेगा जो अप्राकृतिक हो, जो अप्राकृतिक है उसके अनैतिक होने की संभावना है और अनैतिकता कभी भी धर्मस्थापना या धर्मपालन नहीं करेगी, ये निश्चित है। सो हे योद्धा! तू निजकर्म कर, युद्ध कर, धर्मस्थापन के लिए। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग मान।''
समस्या से भयभीत होने और पलायन करने का अपुरुषार्थकारी काम
जीवन की श्रेष्ठता को अनुपयोगी बना देता है और जो अनुपयोगी है उसी को कर्मशील बनाने के लिए श्रीकृष्ण ने गीता के कर्मप्रधान होने का प्रेरणादायी संकलन हमें उपलब्ध कराया यानि हम जैसे हैं वैसे ही अपनी मूलप्रकृति के अनुरूप आचरण करें, धर्म का मोलभाव नहीं किया जा सकता इसलिये उचित कर्तव्य करें।
गीता जयंती पर इतना ही कहना है कि अब फिर से समय हमें इस महाग्रंथ के एक एक श्लोक की ओर ले जा रहा है कि अब तो मानवता व धर्मस्थापन के लिए एकजुट हो जाना चाहिए।
- अलकनंदा सिंह
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सग्ङोस्त्वकर्मणि।।
अर्थात्
"तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल की इच्छा मत कर तथा तेरी कर्म 'न' करने में भी आसक्ति न हो।।"
इस सहित करीब 700 श्लोकों को बोलने में लगभग 4 घंटे का समय लगता है मगर कृष्ण ने अर्जुन को 'साइकिकली कम्युनिकेट' करके इसे महाभारत का अध्यात्मिक रणवाक्य बना दिया जो आज भी अक्षरश: हमारे जीवन में लागू होता रहता है और जब हम ऐसा नहीं कर पाते तो अतिक्रमणवादी हो जाते हैं, ये निश्चित है। फिर चाहे वह अतिक्रमण किसी भी स्तर पर हो। अतिक्रमण से क्लेश और युद्ध का जन्म लेना स्वाभाविक है। सो इन विकट होती स्थितियों को जनकल्याणकारी बनाने का एक सुनिश्चित मार्ग है श्रीमद्भगवद्गीता।
आज के दिन यानि मार्गशीर्ष महीना, शुक्लपक्ष की एकादशी (मोक्षदा) को ऐतिहासिक व पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता शब्दरूप में जनकल्याण के लिए श्रीकृष्ण द्वारा कही गईं। महाभारत की महागाथा में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया यह कर्म-संदेश एक उपनिषद् है जिसमें अलग अलग 11 उपनिषदों का ज्ञान-मर्म समाया है।
श्रीकृष्ण ने जानबूझकर इसकी पृष्ठभूमि युद्धक्षेत्र रखी ताकि सिर्फ अर्जुन ही नहीं बल्कि आज (वर्तमान) तक और आने वाले (भविष्य) समय में भी ये संदेश दिया जा सके कि जीवन की समस्याओं में उलझकर उन से पलायन करना कायरता है, पुरुषार्थ नहीं। महाभारत के महानायक अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में हताश हो जाते हैं और यही हताशा यही अनिश्चयकारी व विनाशकारी हो जाती है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को माध्यम बनाकर दरअसल पूरी मानवजाति के लिए संदेश दिया कि स्वकर्म करो, सफलता निश्चित है।
श्रीकृष्ण कहते हैं, ''पार्थ! अपने कर्म को अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो, अपनी आत्मा के लिए करो। निजस्वभाव से किया गया कर्म प्राकृतिक होगा, और जो प्राकृतिक होगा वह अनिष्टकारी हो ही नहीं सकता। अनिष्ट वही करेगा जो अप्राकृतिक हो, जो अप्राकृतिक है उसके अनैतिक होने की संभावना है और अनैतिकता कभी भी धर्मस्थापना या धर्मपालन नहीं करेगी, ये निश्चित है। सो हे योद्धा! तू निजकर्म कर, युद्ध कर, धर्मस्थापन के लिए। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग मान।''
समस्या से भयभीत होने और पलायन करने का अपुरुषार्थकारी काम
जीवन की श्रेष्ठता को अनुपयोगी बना देता है और जो अनुपयोगी है उसी को कर्मशील बनाने के लिए श्रीकृष्ण ने गीता के कर्मप्रधान होने का प्रेरणादायी संकलन हमें उपलब्ध कराया यानि हम जैसे हैं वैसे ही अपनी मूलप्रकृति के अनुरूप आचरण करें, धर्म का मोलभाव नहीं किया जा सकता इसलिये उचित कर्तव्य करें।
गीता जयंती पर इतना ही कहना है कि अब फिर से समय हमें इस महाग्रंथ के एक एक श्लोक की ओर ले जा रहा है कि अब तो मानवता व धर्मस्थापन के लिए एकजुट हो जाना चाहिए।
- अलकनंदा सिंह
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