”हमें जा जा के कहना पड़ता था हम हैं यहीं हैं,
कि जब मौजूदगी मौजूदगी होती नहीं थी।”
देश , समाज या परिवार में बदलाव कहीं भी लाना हो , पहले खुद को बदलना होता है… परेशानी कुछ भी हो पहले खुद को संभलना पड़ता है …दूसरों में खामियां ढूंढ़ने से पहले खुद को पाक करना होता है… कल ऐसा ही कुछ ऐतिहासिक घटा उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की आला हज़रत दरगाह पर जब एक फतवा बरेली के प्रभावशाली आला हजरत दरगाह के मौलवियों ने जारी किया। प्रगतिशील फतवे जारी करने के लिए मशहूर तहरीक-ए-तहफ्फुज सुन्नियत ने यह ऐतिहासिक फतवा जारी करके इंसानियत को बचाए रखने वाला निर्णय किया है जो न जाने कितने भटके हुए नौजवानों पर मनोवैज्ञानिक असर करेगा।
फतवे में कहा गया किअगर कोई व्यक्ति आतंकी कनैक्शन के कारण मारा जाता है तो उसे दफन करते समय ‘नमाज-ए-जनाजा’ नहीं पढ़ा जाएगा। सुन्नी बरेलवी मरकज़ का ये मनोवैज्ञानिक सुधार वाले कदम की जितनी तारीफ की जाए , वह कम ही है।
कल ईद-उल-फितर के मौके पर गुमराह नौजवानों और कट्टरपंथियों को एक कड़ा संदेश देते हुए मौलवियों के इस फतवे को जहां आम मुसलमानों की आतंकवाद से जुड़े होने की इमेज को बदलने का कदम माना जएगा। वहीं सियासतदानों को आतंकवाद के नाम पर अपनी रोटियां सेंकने से भी रोकेगा।
बस, ये ही हिंदुस्तान है… और यहां सुधारों का कदम उठाने के लिए हर संस्था आजाद भी है और काबिल भी, बस जरूरत थी उस शिद्दत को समझने की कि इसकी शुरुआत कहां से हो।
बरेली के प्रभावशाली अला हजरत दरगाह के मौलवियों ने आतंकवाद से जुड़े किसी भी शख्स और उसके हिमायतियों को दफन करने से पहले पढ़ी जाने वाली आखिरी नमाज पर रोक लगा दी है। इससे बड़ी उस व्यक्ति के लिए ज़िल्लत की बात और क्या हो सकती है कि उसे आखिरी नमाज भी हासिल ना हो सके।
ज़ाहिर है कि मौलवियों का ये एक कदम भ्रमित होकर आतंकवाद की ओर जाने वालों व उसके घरवालों पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाएगा। कल मस्जि़द में ईद की इबादत के बाद दरगाह के मौलवियों ने अपने समर्थकों से आतंकवाद से जुड़े लोगों का बहिष्कार करने की अपील की। दरगाह अला हजरत की एक शाखा तहरीक-ए-तहफ्फुज सुन्नियत के जनरल सेक्रटरी मुफ्ती मोहम्मद सलीम नूरी ने कहा कि ईद के इस मौके पर सुन्नी बरेलवी मरकज़ ने एक कड़ा संदेश भेजा है कि कोई भी मौलाना, मुफ्ती या कोई अन्य धार्मिक नेता आतंकवाद से जुड़े किसी भी शख्स को दफन करने से पहले ‘नमाज-ए-जनाजा’ नहीं पढ़ेगा।
उन्होंने कहा कि ‘हम आतंकवाद के खिलाफ अपना कड़ा विरोध दर्ज कराना चाहते हैं।’
गौरतलब है कि ‘नमाज-ए-जनाजा’ एक विशेष प्रार्थना होती है जो किसी की मौत पर मौलवियों द्वारा पढ़ी जाती है। यह किसी को दफन करने से पहले पढ़ी जाती है।
अभी तक फतवों को लेकर फैली हुई भ्रांतियों को भी सुन्नी बरेलवी मरकज़ ने बता दिया है कि समाज व देश का भला सोच कर ही कौम को तरक्की हासिल हो सकती है, आतंकवाद और आतंकवादी न किसी के हुए हैं ना ही हो सकते हैं। उनके एक कदम का भुगतान पूरा परिवार करता है।
गौरतलब है कि तहरीक-ए-तहफ्फुज सुन्नियत को प्रगतिशील फतवे जारी करने के लिए जाना जाता है। यह संस्था पहले भी ऐसे फतवे जारी करती रही है।
इससे पहले 18 जुलाई को मौलवियों ने फतवा जारी किया था कि इस्लाम में अनिवार्य ‘ज़कात’ आधुनिक शिक्षा और हाई-टेक गैजेट्स के लिए दान किया जाना चाहिए। इसके अलावा जून में जारी किए गए एक अन्य फतवे में मौलवियों ने फैसला सुनाया था कि महिलाएं अपना व्यापार खुद चला सकती हैं।
अफसोस होता है उस मीडिया पर जो विवादित फतवों पर तो चार चार दिन तक बहस कर सकती है मगर इस तरह के देशहितकारी और समाजहितकारी फतवों पर चुप्पी साध जाती है।
- अलकनंदा सिंह
कि जब मौजूदगी मौजूदगी होती नहीं थी।”
देश , समाज या परिवार में बदलाव कहीं भी लाना हो , पहले खुद को बदलना होता है… परेशानी कुछ भी हो पहले खुद को संभलना पड़ता है …दूसरों में खामियां ढूंढ़ने से पहले खुद को पाक करना होता है… कल ऐसा ही कुछ ऐतिहासिक घटा उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की आला हज़रत दरगाह पर जब एक फतवा बरेली के प्रभावशाली आला हजरत दरगाह के मौलवियों ने जारी किया। प्रगतिशील फतवे जारी करने के लिए मशहूर तहरीक-ए-तहफ्फुज सुन्नियत ने यह ऐतिहासिक फतवा जारी करके इंसानियत को बचाए रखने वाला निर्णय किया है जो न जाने कितने भटके हुए नौजवानों पर मनोवैज्ञानिक असर करेगा।
फतवे में कहा गया किअगर कोई व्यक्ति आतंकी कनैक्शन के कारण मारा जाता है तो उसे दफन करते समय ‘नमाज-ए-जनाजा’ नहीं पढ़ा जाएगा। सुन्नी बरेलवी मरकज़ का ये मनोवैज्ञानिक सुधार वाले कदम की जितनी तारीफ की जाए , वह कम ही है।
कल ईद-उल-फितर के मौके पर गुमराह नौजवानों और कट्टरपंथियों को एक कड़ा संदेश देते हुए मौलवियों के इस फतवे को जहां आम मुसलमानों की आतंकवाद से जुड़े होने की इमेज को बदलने का कदम माना जएगा। वहीं सियासतदानों को आतंकवाद के नाम पर अपनी रोटियां सेंकने से भी रोकेगा।
बस, ये ही हिंदुस्तान है… और यहां सुधारों का कदम उठाने के लिए हर संस्था आजाद भी है और काबिल भी, बस जरूरत थी उस शिद्दत को समझने की कि इसकी शुरुआत कहां से हो।
बरेली के प्रभावशाली अला हजरत दरगाह के मौलवियों ने आतंकवाद से जुड़े किसी भी शख्स और उसके हिमायतियों को दफन करने से पहले पढ़ी जाने वाली आखिरी नमाज पर रोक लगा दी है। इससे बड़ी उस व्यक्ति के लिए ज़िल्लत की बात और क्या हो सकती है कि उसे आखिरी नमाज भी हासिल ना हो सके।
ज़ाहिर है कि मौलवियों का ये एक कदम भ्रमित होकर आतंकवाद की ओर जाने वालों व उसके घरवालों पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाएगा। कल मस्जि़द में ईद की इबादत के बाद दरगाह के मौलवियों ने अपने समर्थकों से आतंकवाद से जुड़े लोगों का बहिष्कार करने की अपील की। दरगाह अला हजरत की एक शाखा तहरीक-ए-तहफ्फुज सुन्नियत के जनरल सेक्रटरी मुफ्ती मोहम्मद सलीम नूरी ने कहा कि ईद के इस मौके पर सुन्नी बरेलवी मरकज़ ने एक कड़ा संदेश भेजा है कि कोई भी मौलाना, मुफ्ती या कोई अन्य धार्मिक नेता आतंकवाद से जुड़े किसी भी शख्स को दफन करने से पहले ‘नमाज-ए-जनाजा’ नहीं पढ़ेगा।
उन्होंने कहा कि ‘हम आतंकवाद के खिलाफ अपना कड़ा विरोध दर्ज कराना चाहते हैं।’
गौरतलब है कि ‘नमाज-ए-जनाजा’ एक विशेष प्रार्थना होती है जो किसी की मौत पर मौलवियों द्वारा पढ़ी जाती है। यह किसी को दफन करने से पहले पढ़ी जाती है।
अभी तक फतवों को लेकर फैली हुई भ्रांतियों को भी सुन्नी बरेलवी मरकज़ ने बता दिया है कि समाज व देश का भला सोच कर ही कौम को तरक्की हासिल हो सकती है, आतंकवाद और आतंकवादी न किसी के हुए हैं ना ही हो सकते हैं। उनके एक कदम का भुगतान पूरा परिवार करता है।
गौरतलब है कि तहरीक-ए-तहफ्फुज सुन्नियत को प्रगतिशील फतवे जारी करने के लिए जाना जाता है। यह संस्था पहले भी ऐसे फतवे जारी करती रही है।
इससे पहले 18 जुलाई को मौलवियों ने फतवा जारी किया था कि इस्लाम में अनिवार्य ‘ज़कात’ आधुनिक शिक्षा और हाई-टेक गैजेट्स के लिए दान किया जाना चाहिए। इसके अलावा जून में जारी किए गए एक अन्य फतवे में मौलवियों ने फैसला सुनाया था कि महिलाएं अपना व्यापार खुद चला सकती हैं।
अफसोस होता है उस मीडिया पर जो विवादित फतवों पर तो चार चार दिन तक बहस कर सकती है मगर इस तरह के देशहितकारी और समाजहितकारी फतवों पर चुप्पी साध जाती है।
- अलकनंदा सिंह
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