जिस तरह अति कट्टरवादिता किसी भी समाज के लिए ज़हर बन जाती है उसी तरह अति उदारवादिता भी ज़हर का ही काम करती है। मानवाधिकारवादी इसी अति का शिकार होते रहे हैं। कोई आतंकी को फांसी दिए जाने का विरोध करता है तो कोई
आतंकवाद को धर्म और मजहब से जोड़ कर दहशत फैलाने वाले को ‘बेचारा’ घोषित
करने पर आमादा रहता है। कोई नक्सलवाद को सरकार, पूंजीवाद और भेदभाव जनित
समस्या बताकर नक्सलवाद की भेंट चढ़े जवानों की शहादत से मुंह फेर लेने की
बात कहता है तो कोई बलात्कारी के भी मानवाधिकार की बात करता है।
कानून के लचीलेपन का फायदा वो गैर सरकारी संगठन भी उठाते रहे हैं जो मानवाधिकारवादी होने का तमगा स्वयं लटकाए घूमते हैं। बिना ये सोचे कि देश और समाज के दुश्मन सिर्फ सजा के हकदार होते हैं और इनके अधिकारों की बात करना कानून-व्यवस्था पर प्रश्न खड़े करना है। इसके अलावा भी दोषी की तरफदारी करना अपराधी के साथ शामिल होने जैसा ही है।
हकीकत में ऐसा करने वालों की मानसिकता सिर्फ खबरों में रहने और सेंसेशन फैलाकर अपने लिए सुर्खियां बटोरने तक ही होती है, वे न अपराधी का भला चाहते हैं ना देश का, और न कानून को सही मानते हैं।
बहरहाल, अब केंद्र सरकार ने कुछ नए फैसले लेकर इन कथित मानवाधिकारवादियों की मानसिकता पर लगाम लगाने का प्रयास किया है। अपराधियों को जानने के बहाने व अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अपनी सेंसेशनल खबरें, डॉक्यूमेंटरी और आर्टिकल को प्रकाशित या प्रदर्शित करना अब उनके लिए आसान नहीं रहेगा।
अब नए सरकारी फैसले के मुताबिक जेल में बंद कैदियों पर आर्टिकल लिखने या इंटरव्यू लेने के इरादे से कोई जर्नलिस्ट, एनजीओ ऐक्टिविस्ट्स या फिल्ममेकर्स को जेल में एंट्री नहीं दी जाएगी। हां, इस पाबंदी से कुछ स्पेशल मामलों में छूट होगी।
खबर के मुताबिक यह फैसला इसलिए लिया गया है क्योंकि जेल में बंद कैदियों के कई इंटरव्यूज़ लगातार सामने आए। इंटरव्यू लेने वालों में ब्रिटिश फिल्ममेकर लेसली उडविन का नाम भी शामिल है, जिन्होंने 16 दिसंबर को हुए रेप ममाले में कैद, आरोपी से इंटरव्यू लेकर इस घटना पर एक डाक्युमेंट्री बनाई थी। उनकी इस इंडियाज डॉटर नाम की डॉक्युमेंट्री ने दोषियों की मानसिकता को सबके सामने लाकर रखा, जिसे देखकर लोगों की भावनाएं भड़क उठी थीं।
गृह मंत्रालय में संयुक्त सचिव कुमार आलोक ने सभी प्रांतों और केंद्र शासित राज्यों को भेजे एडवाइज़री में कहा है कि किसी भी व्यक्ति, प्रेस, एनजीओ, कंपनी को जेल के भीतर शोध करने, डाक्युमेंट्री बनाने, आर्टिकल या इंटरव्यू के मकसद से प्रवेश की इजाजत सामान्य रूप से नहीं दी जानी चाहिए।
हालांकि, वैसे विज़िटर्स, प्रेस या डॉक्युमेंट्री मेकर्स को कंसिडर करने की भी बात की गई है, जिनके आर्टिकल, डॉक्यूमेट्री या रिसर्च से अथॉरिटी को किसी पॉज़िटिव सोशल मेसेज का एहसास होगा।
खबर है कि यदि जेल के अधिकारियों से इस तरह की अनुमति मिल भी जाती है तो विज़िटर्स को सिक्यॉरिटी अमाउंट के रूप में एक लाख रुपए जमा करना पड़ेगा।
इतना ही नहीं, इंटरव्यू या डॉक्युमेंट्री बनाने वालों को केवल हैंडीकैम, कैमरा, टेप रिकॉर्डर ले जाने की इजाजत मिलेगी जबकि मोबाइल, पेपर्स, किताब या कलम वे अंदर नहीं ले जा सकेंगे।
यदि जेल के सुपरिन्टेंडेंट को लगेगा कि कोई खास रिकॉर्डिंग गलत है या वह गैर-जरूरी है तो उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप करने का भी अधिकार होगा।
कुल मिलाकर इससे एक लाभ यह जरूर होगा कि जो मीडियाकर्मी, मीडिया हाउसेस, सामाजकि संगठन आदि अपने पेशे या सामाजिक जिम्मेदारी की आड़ में अपनी कुंठित मंशा पूरी करते हैं, उन्हें वो मौका नहीं मिल पायेगा। और हां, नेक नीयत वालों के लिए सरकार ने अब भी रास्ता छोड़ दिया है।
अतिवाद के इन मानवाधिकारवादियों को एक सबक हदें पहचानने के लिए एक शेर मुजफ्फर हनफी का कुछ यूं है कि-
कानून के लचीलेपन का फायदा वो गैर सरकारी संगठन भी उठाते रहे हैं जो मानवाधिकारवादी होने का तमगा स्वयं लटकाए घूमते हैं। बिना ये सोचे कि देश और समाज के दुश्मन सिर्फ सजा के हकदार होते हैं और इनके अधिकारों की बात करना कानून-व्यवस्था पर प्रश्न खड़े करना है। इसके अलावा भी दोषी की तरफदारी करना अपराधी के साथ शामिल होने जैसा ही है।
हकीकत में ऐसा करने वालों की मानसिकता सिर्फ खबरों में रहने और सेंसेशन फैलाकर अपने लिए सुर्खियां बटोरने तक ही होती है, वे न अपराधी का भला चाहते हैं ना देश का, और न कानून को सही मानते हैं।
बहरहाल, अब केंद्र सरकार ने कुछ नए फैसले लेकर इन कथित मानवाधिकारवादियों की मानसिकता पर लगाम लगाने का प्रयास किया है। अपराधियों को जानने के बहाने व अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अपनी सेंसेशनल खबरें, डॉक्यूमेंटरी और आर्टिकल को प्रकाशित या प्रदर्शित करना अब उनके लिए आसान नहीं रहेगा।
अब नए सरकारी फैसले के मुताबिक जेल में बंद कैदियों पर आर्टिकल लिखने या इंटरव्यू लेने के इरादे से कोई जर्नलिस्ट, एनजीओ ऐक्टिविस्ट्स या फिल्ममेकर्स को जेल में एंट्री नहीं दी जाएगी। हां, इस पाबंदी से कुछ स्पेशल मामलों में छूट होगी।
खबर के मुताबिक यह फैसला इसलिए लिया गया है क्योंकि जेल में बंद कैदियों के कई इंटरव्यूज़ लगातार सामने आए। इंटरव्यू लेने वालों में ब्रिटिश फिल्ममेकर लेसली उडविन का नाम भी शामिल है, जिन्होंने 16 दिसंबर को हुए रेप ममाले में कैद, आरोपी से इंटरव्यू लेकर इस घटना पर एक डाक्युमेंट्री बनाई थी। उनकी इस इंडियाज डॉटर नाम की डॉक्युमेंट्री ने दोषियों की मानसिकता को सबके सामने लाकर रखा, जिसे देखकर लोगों की भावनाएं भड़क उठी थीं।
गृह मंत्रालय में संयुक्त सचिव कुमार आलोक ने सभी प्रांतों और केंद्र शासित राज्यों को भेजे एडवाइज़री में कहा है कि किसी भी व्यक्ति, प्रेस, एनजीओ, कंपनी को जेल के भीतर शोध करने, डाक्युमेंट्री बनाने, आर्टिकल या इंटरव्यू के मकसद से प्रवेश की इजाजत सामान्य रूप से नहीं दी जानी चाहिए।
हालांकि, वैसे विज़िटर्स, प्रेस या डॉक्युमेंट्री मेकर्स को कंसिडर करने की भी बात की गई है, जिनके आर्टिकल, डॉक्यूमेट्री या रिसर्च से अथॉरिटी को किसी पॉज़िटिव सोशल मेसेज का एहसास होगा।
खबर है कि यदि जेल के अधिकारियों से इस तरह की अनुमति मिल भी जाती है तो विज़िटर्स को सिक्यॉरिटी अमाउंट के रूप में एक लाख रुपए जमा करना पड़ेगा।
इतना ही नहीं, इंटरव्यू या डॉक्युमेंट्री बनाने वालों को केवल हैंडीकैम, कैमरा, टेप रिकॉर्डर ले जाने की इजाजत मिलेगी जबकि मोबाइल, पेपर्स, किताब या कलम वे अंदर नहीं ले जा सकेंगे।
यदि जेल के सुपरिन्टेंडेंट को लगेगा कि कोई खास रिकॉर्डिंग गलत है या वह गैर-जरूरी है तो उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप करने का भी अधिकार होगा।
कुल मिलाकर इससे एक लाभ यह जरूर होगा कि जो मीडियाकर्मी, मीडिया हाउसेस, सामाजकि संगठन आदि अपने पेशे या सामाजिक जिम्मेदारी की आड़ में अपनी कुंठित मंशा पूरी करते हैं, उन्हें वो मौका नहीं मिल पायेगा। और हां, नेक नीयत वालों के लिए सरकार ने अब भी रास्ता छोड़ दिया है।
अतिवाद के इन मानवाधिकारवादियों को एक सबक हदें पहचानने के लिए एक शेर मुजफ्फर हनफी का कुछ यूं है कि-
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