अंगवर्द्धक
यंत्रों, तेलों और वैक्यूम थेरेपियों के साथ साथ , अब तो जापानी
तेलों की मैन एंड वुमैन रेंज भी पूरे विवरण के साथ जब अखबारों के पेजों की
शोभा बढ़ा रही हों तब उम्र के दो साल इधर उधर करने से क्या सच में कोई फर्क पड़ेगा ....?
कभी आपने दीमक लगे पेड़ को देखा है ? दीमक लग जाने पर भी उसकी पत्तियां हरी बनी रहती हैं बहुत दिनों तक जब तक कि पेड़ पूरी तरह खोखला ना हो जाए...क्योंकि दीमक हमेशा जड़ को पकड़ती है। ऐसे में हम चाहे जितने भी पेस्टीसाइड्स और ग्रोथ हारमोन्स उसके पत्तों पर छिड़कें, उस पेड़ को पूर्वावस्था में लाना लगभग नामुमकिन ही होता है। जब तक जड़ में लगी दीमक को खत्म न किया जाए, तब तक कोई प्रयास उस पेड़ को नहीं बचा सकते।
ठीक यही बात समाज, उसकी शुभचिंतक इकाइयों और उसकी चुनी गई संस्थाओं पर भी लागू होती है, जो कि भारी परिवर्तन के दौर में स्थापित समाजिक मूल्यों से उपजी दीमक की आहट को नहीं पहचान रही हैं। और बस असमंजस में नित नये कानून थोपे चली जा रही हैं।
पिछले दिनों केंद्रीय महिला एवं बालविकास मंत्री मेनका गांधी की अध्यक्षता वाले एक पैनल ने सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र 18 से घटाकर 16 साल करने की सिफारिश की है। इस पैनल ने यह भी सुझाव दिया कि 16 साल की उम्र के बाद दोनों में यौन समझ रहती है।
फिलहाल प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सैक्सुअल ऑफेंसस (पोक्सो) और क्रिमिनल लॉ अमेन्डमेन्ट ऐक्ट (ऐन्टी रेप लॉ) दोनों में सहमति की उम्र 18 साल है। 18 साल से कम उम्र वालों को नाबालिग माना गया है।
रिपोर्ट की इस विवादास्पद संस्तुतियों समेत अन्य मुद्दों पर विचार के लिए 20 जुलाई को कानून, गृह, स्वास्थ्य समेत अन्य लोगों की बैठक बुलाई गई है। इस प्रस्ताव को महिला एवं बाल अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा समर्थन दिए जाने की सम्भावना है क्योंकि सहमति से यौन सम्बंध बनाने पर उम्र के आड़े आने से युवाओं में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है ( ऐसा इस पैनल का मानना है ) ।
प्रस्ताव से सहमत होने वालों का यह भी मानना है कि थानों और अदालतों में भी ऐसे झूठे मामलों की संख्या बढ़ रही है जहां लड़की के अभिभावक उम्र का हवाला देते हुए लड़कों पर शिकंजा कस देते हैं।
उल्लेखनीय है कि निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद सहमति से सम्बंध बनाने की उम्र 16 से 18 वर्ष कर दी गई थी। उम्र बढ़ाने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि इससे श्रम और यौन व्यापार के लिए लड़कियों के अवैध व्यापार पर रोक लग सकेगी।
तर्क वितर्कों के बीच जो एक अहम बात है, वह यह कि उम्र घटाने या बढ़ाने की इस कवायद से पहले उन प्रचार माध्यमों पर रोक लगाई जाए जो अश्लीलता फैलाने के कारखाने बने हुए हैं। जिनकी लालसा ने किशोरों, युवाओं को न केवल सेक्स सामग्री का प्रथम उपभोक्ता मान लिया है बल्कि उसे अपराध की ओर जाने का मार्ग भी बता दिया है ।
मीडिया के लगभग सभी माध्यम अश्लील विज्ञापनों को बेरोकटोक दिखा रहे हैं । वो समाज के लिए अपने उत्तरदायित्व से भी मुंह मोड़े हुए हैं। आम आदमी वो चाहे किसी भी आयुवर्ग का हो, जब उसे खुलेआम दिखाया जा रहा है कि फलां तेल और कैप्सूल से 'जवानी के मजे' लिए जा सकते हैं तो क्या हम किशोरों- किशोरियों से उम्मीद करें कि वो इन विज्ञापनों की ओर ध्यान नहीं देंगे। वह भी तब जबकि यह उम्र भावनाओं के विचलन का सबसे कमजोर समय होता है।
कुछ समाचार वेबसाइट्स तो बाकायदा डेटिंग साइट्स चलाती हैं, कुछ अपना एक निश्चित कॉलम या पूरा वेबजेज ही सेक्स समस्याओं के लिए समर्पित रखती हैं ताकि हिट्स ज्यादा मिल सकें, इसी तरह हिंदी के राष्ट्रीय अखबारों में पेज नं. 10 से लेकर पेज नं.15 तक तरह-तरह के अंगवर्द्धक यंत्रों, तेलों और वैक्यूम थेरेपियों को समर्पित होते हैं, अब तो जापानी तेलों की मैन एंड वुमैन रेंज भी पूरे विवरण के साथ अखबारों के पेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
हर रोज इन जैसे तमाम विज्ञापनों की भरमार न जाने कितने किशोरों, युवाओं, अधेड़ों और तो और वृद्धों की नजर से रूबरू होती होगी और उनकी नैतिकता का इम्तिहान लेती होगी। इनमें से हर उम्र को ये अपने अपने तरह से प्रभावित अवश्य करती होगी। किसी को उत्सुकता होती होगी तो किसी की अतृप्त इच्छायें ''कुछ भी'' करने को उकसाती होंगी, उनमें से कितने नैतिकता के इम्तिहान में खरे उतरते होंगे, कहना मुश्किल है। ज़ाहिर है कि यौन अपराधों की नींव तो ये मीडिया के विज्ञापन ही रख रहे हैं । इस ग्लोबल युग में जब कि कमोवेश हर तीसरे चौथे व्यक्ति के पास स्मार्टफोन और नेट की सुविधा है, अखबार भी पढ़े ही जा रहे हैं, तब इन विज्ञापनों की ओर से आंखें नहीं मूंदी जानी चाहिए।
मेनका गांधी हों या निर्भया कांड के बाद चेती मनमोहन सरकार, दोनों अपने-अपने तरीके से उम्र को कम या ज्यादा करने के पीछे पड़ी हैं, जबकि वो जिस वजह से सहमति से सेक्स की उम्र पर इतनी रस्साकशी करती रहीं या कर रही हैं, तब तक निष्फल ही रहेगी जब तक अखबारों और चैनलों और वेबमीडिया के जरिये फैलाई जा रही इस अश्लीलता को पाबंद नहीं किया जाता।
यूं भी किसी अपराध के लिए उकसाना जब कानूनन जुर्म है तो क्या इन विज्ञापनों की भाषा-शैली-और अश्लीलता हदें पार देने वाले चित्रों के लिए सरकार कोई कदम क्यों नहीं उठाती । अश्लील साहित्य रखना और बेचना जब अपराध है तो समाचार माध्यमों को ऐसा ही अपराध करने पर सरकारें चुप क्यों लगाए हैं।
सहमति से सेक्स की उम्र दो साल इधर हो या उधर, इस पर बहस से पहले अश्लीलता के इस खुलेआम व्यापार पर रोक लगाई चाहिए । किशोर वय हो या अधेड़, पुरुष हो या स्त्री, नैतिकता के दायरे तो सभी के लिए हैं, कोई यदि इन्हें पार करता है तो निश्चित ही वह पूरे समाज के लिए चिंता का विषय बन जाता है।
जहां तक बात है सेक्स पर सहमति और असहमति की, तो 16 वर्ष की उम्र में सेक्स की समझ भले ही आ जाती हो मगर रासायनिक, मनोवैज्ञानिक शरीरिक परिवर्तनों को सिर्फ सेक्स तक ही सीमित करके नहीं देखा जा सकता , इसके आफ्टर इफेक्ट्स का सामना क्या 16 साल की उम्र में किया जा सकता है।
सो मेनका गांधी जी ! सेक्स हार्मोन बनने की प्रक्रिया तो सरकारी पैनल डिसाइड नहीं कर सकते ना ... मगर जो अनैतिक हो रहा है और सम्मानीय समाचार माध्यमों द्वारा किया जा रहा है, उसे रोक कर आप समाज में महामारी की तरह फैलती जा रही बलात्कार की घटनाओं से नई पीढ़ी को बचा अवश्य सकती हैं। उसे जबरन पढ़वाये जा रहे अश्लील विज्ञापनों से निजात दिला सकती हैं।
वेबहिट्स, सर्कुलेशन, विज्ञापन रेवेन्यू के लिए समाज और खासकर नई पीढ़ी को दीमक की तरह चाटने वालों का इलाज, सहमति से सेक्स की उम्र पर बतियाने से आगे जाकर करना होगा। आखिर तो आप महिला व बाल विकास दोनों के कल्याण वाला मंत्रालय संभाल रही हैं... और दोनों ही समाज में अश्लीलता फैलाने वालों के पहले शिकार बनते हैं। दीमक का ये रूप लाइलाज नहीं है, बस कुछ हिम्मतभरी गाइडलाइन्स की आवश्यकता है और जो माध्यम ऐसा कर रहे हैं, उन्हें समाज के प्रति जिम्मेदारी का अहसास करवाने की भी...।
प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सैक्सुअल ऑफेंसस (पोक्सो) और क्रिमिनल लॉ अमेन्डमेन्ट ऐक्ट (ऐन्टी रेप लॉ) भी तभी असरदार हो सकेंगे। ये युवाओं का जीवन है, कोई जापानी तेल के शोध का कारखाना नहीं।
- अलकनंदा सिंह
कभी आपने दीमक लगे पेड़ को देखा है ? दीमक लग जाने पर भी उसकी पत्तियां हरी बनी रहती हैं बहुत दिनों तक जब तक कि पेड़ पूरी तरह खोखला ना हो जाए...क्योंकि दीमक हमेशा जड़ को पकड़ती है। ऐसे में हम चाहे जितने भी पेस्टीसाइड्स और ग्रोथ हारमोन्स उसके पत्तों पर छिड़कें, उस पेड़ को पूर्वावस्था में लाना लगभग नामुमकिन ही होता है। जब तक जड़ में लगी दीमक को खत्म न किया जाए, तब तक कोई प्रयास उस पेड़ को नहीं बचा सकते।
ठीक यही बात समाज, उसकी शुभचिंतक इकाइयों और उसकी चुनी गई संस्थाओं पर भी लागू होती है, जो कि भारी परिवर्तन के दौर में स्थापित समाजिक मूल्यों से उपजी दीमक की आहट को नहीं पहचान रही हैं। और बस असमंजस में नित नये कानून थोपे चली जा रही हैं।
पिछले दिनों केंद्रीय महिला एवं बालविकास मंत्री मेनका गांधी की अध्यक्षता वाले एक पैनल ने सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र 18 से घटाकर 16 साल करने की सिफारिश की है। इस पैनल ने यह भी सुझाव दिया कि 16 साल की उम्र के बाद दोनों में यौन समझ रहती है।
फिलहाल प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सैक्सुअल ऑफेंसस (पोक्सो) और क्रिमिनल लॉ अमेन्डमेन्ट ऐक्ट (ऐन्टी रेप लॉ) दोनों में सहमति की उम्र 18 साल है। 18 साल से कम उम्र वालों को नाबालिग माना गया है।
रिपोर्ट की इस विवादास्पद संस्तुतियों समेत अन्य मुद्दों पर विचार के लिए 20 जुलाई को कानून, गृह, स्वास्थ्य समेत अन्य लोगों की बैठक बुलाई गई है। इस प्रस्ताव को महिला एवं बाल अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा समर्थन दिए जाने की सम्भावना है क्योंकि सहमति से यौन सम्बंध बनाने पर उम्र के आड़े आने से युवाओं में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है ( ऐसा इस पैनल का मानना है ) ।
प्रस्ताव से सहमत होने वालों का यह भी मानना है कि थानों और अदालतों में भी ऐसे झूठे मामलों की संख्या बढ़ रही है जहां लड़की के अभिभावक उम्र का हवाला देते हुए लड़कों पर शिकंजा कस देते हैं।
उल्लेखनीय है कि निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद सहमति से सम्बंध बनाने की उम्र 16 से 18 वर्ष कर दी गई थी। उम्र बढ़ाने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि इससे श्रम और यौन व्यापार के लिए लड़कियों के अवैध व्यापार पर रोक लग सकेगी।
तर्क वितर्कों के बीच जो एक अहम बात है, वह यह कि उम्र घटाने या बढ़ाने की इस कवायद से पहले उन प्रचार माध्यमों पर रोक लगाई जाए जो अश्लीलता फैलाने के कारखाने बने हुए हैं। जिनकी लालसा ने किशोरों, युवाओं को न केवल सेक्स सामग्री का प्रथम उपभोक्ता मान लिया है बल्कि उसे अपराध की ओर जाने का मार्ग भी बता दिया है ।
मीडिया के लगभग सभी माध्यम अश्लील विज्ञापनों को बेरोकटोक दिखा रहे हैं । वो समाज के लिए अपने उत्तरदायित्व से भी मुंह मोड़े हुए हैं। आम आदमी वो चाहे किसी भी आयुवर्ग का हो, जब उसे खुलेआम दिखाया जा रहा है कि फलां तेल और कैप्सूल से 'जवानी के मजे' लिए जा सकते हैं तो क्या हम किशोरों- किशोरियों से उम्मीद करें कि वो इन विज्ञापनों की ओर ध्यान नहीं देंगे। वह भी तब जबकि यह उम्र भावनाओं के विचलन का सबसे कमजोर समय होता है।
कुछ समाचार वेबसाइट्स तो बाकायदा डेटिंग साइट्स चलाती हैं, कुछ अपना एक निश्चित कॉलम या पूरा वेबजेज ही सेक्स समस्याओं के लिए समर्पित रखती हैं ताकि हिट्स ज्यादा मिल सकें, इसी तरह हिंदी के राष्ट्रीय अखबारों में पेज नं. 10 से लेकर पेज नं.15 तक तरह-तरह के अंगवर्द्धक यंत्रों, तेलों और वैक्यूम थेरेपियों को समर्पित होते हैं, अब तो जापानी तेलों की मैन एंड वुमैन रेंज भी पूरे विवरण के साथ अखबारों के पेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
हर रोज इन जैसे तमाम विज्ञापनों की भरमार न जाने कितने किशोरों, युवाओं, अधेड़ों और तो और वृद्धों की नजर से रूबरू होती होगी और उनकी नैतिकता का इम्तिहान लेती होगी। इनमें से हर उम्र को ये अपने अपने तरह से प्रभावित अवश्य करती होगी। किसी को उत्सुकता होती होगी तो किसी की अतृप्त इच्छायें ''कुछ भी'' करने को उकसाती होंगी, उनमें से कितने नैतिकता के इम्तिहान में खरे उतरते होंगे, कहना मुश्किल है। ज़ाहिर है कि यौन अपराधों की नींव तो ये मीडिया के विज्ञापन ही रख रहे हैं । इस ग्लोबल युग में जब कि कमोवेश हर तीसरे चौथे व्यक्ति के पास स्मार्टफोन और नेट की सुविधा है, अखबार भी पढ़े ही जा रहे हैं, तब इन विज्ञापनों की ओर से आंखें नहीं मूंदी जानी चाहिए।
मेनका गांधी हों या निर्भया कांड के बाद चेती मनमोहन सरकार, दोनों अपने-अपने तरीके से उम्र को कम या ज्यादा करने के पीछे पड़ी हैं, जबकि वो जिस वजह से सहमति से सेक्स की उम्र पर इतनी रस्साकशी करती रहीं या कर रही हैं, तब तक निष्फल ही रहेगी जब तक अखबारों और चैनलों और वेबमीडिया के जरिये फैलाई जा रही इस अश्लीलता को पाबंद नहीं किया जाता।
यूं भी किसी अपराध के लिए उकसाना जब कानूनन जुर्म है तो क्या इन विज्ञापनों की भाषा-शैली-और अश्लीलता हदें पार देने वाले चित्रों के लिए सरकार कोई कदम क्यों नहीं उठाती । अश्लील साहित्य रखना और बेचना जब अपराध है तो समाचार माध्यमों को ऐसा ही अपराध करने पर सरकारें चुप क्यों लगाए हैं।
सहमति से सेक्स की उम्र दो साल इधर हो या उधर, इस पर बहस से पहले अश्लीलता के इस खुलेआम व्यापार पर रोक लगाई चाहिए । किशोर वय हो या अधेड़, पुरुष हो या स्त्री, नैतिकता के दायरे तो सभी के लिए हैं, कोई यदि इन्हें पार करता है तो निश्चित ही वह पूरे समाज के लिए चिंता का विषय बन जाता है।
जहां तक बात है सेक्स पर सहमति और असहमति की, तो 16 वर्ष की उम्र में सेक्स की समझ भले ही आ जाती हो मगर रासायनिक, मनोवैज्ञानिक शरीरिक परिवर्तनों को सिर्फ सेक्स तक ही सीमित करके नहीं देखा जा सकता , इसके आफ्टर इफेक्ट्स का सामना क्या 16 साल की उम्र में किया जा सकता है।
सो मेनका गांधी जी ! सेक्स हार्मोन बनने की प्रक्रिया तो सरकारी पैनल डिसाइड नहीं कर सकते ना ... मगर जो अनैतिक हो रहा है और सम्मानीय समाचार माध्यमों द्वारा किया जा रहा है, उसे रोक कर आप समाज में महामारी की तरह फैलती जा रही बलात्कार की घटनाओं से नई पीढ़ी को बचा अवश्य सकती हैं। उसे जबरन पढ़वाये जा रहे अश्लील विज्ञापनों से निजात दिला सकती हैं।
वेबहिट्स, सर्कुलेशन, विज्ञापन रेवेन्यू के लिए समाज और खासकर नई पीढ़ी को दीमक की तरह चाटने वालों का इलाज, सहमति से सेक्स की उम्र पर बतियाने से आगे जाकर करना होगा। आखिर तो आप महिला व बाल विकास दोनों के कल्याण वाला मंत्रालय संभाल रही हैं... और दोनों ही समाज में अश्लीलता फैलाने वालों के पहले शिकार बनते हैं। दीमक का ये रूप लाइलाज नहीं है, बस कुछ हिम्मतभरी गाइडलाइन्स की आवश्यकता है और जो माध्यम ऐसा कर रहे हैं, उन्हें समाज के प्रति जिम्मेदारी का अहसास करवाने की भी...।
प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सैक्सुअल ऑफेंसस (पोक्सो) और क्रिमिनल लॉ अमेन्डमेन्ट ऐक्ट (ऐन्टी रेप लॉ) भी तभी असरदार हो सकेंगे। ये युवाओं का जीवन है, कोई जापानी तेल के शोध का कारखाना नहीं।
- अलकनंदा सिंह
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