बुधवार, 25 जून 2014

इमरजेंसी...मेरे बालमन में अबतक छपी है

25.‍06.1975 के दिन लोकतंत्र पर लगे दाग को ढोते हुए हमें 39 साल हो गये मगर मेरे बचपन की वो स्‍मृतियां आज भी ज़हन में बराबर कौंध रही हैं कि किस तरह से प्रभावशाली लोग भी घरों में छुपने को विवश हुए जा रहे थे। चारों तरफ अफरातफरी मची थी।
तब छह साल की उम्र में मैं अपने आसपास होने वाली हलचलों को सिर्फ देख सकती थी मगर तब मैं इतनी छोटी थी कि उसे महसूस कर पाना मेरे दिमाग के पार था। बस घर की बालकनी में बैठी गली में पुलिस को देखकर भागती भीड़, दौड़ते लोगों में से कुछेक को पकड़ कर लेजाते पुलिसवाले अंकल...मां की किसी को कुछ ना बताने की पक्‍की हिदायत के संग ऊपर से झांकती मैं भी पुलिस को देखकर नीचे को झुक जाती, छुप जाती...। कभी ये छुपनछुपाई वाला खेल लगता तो कभी बड़ा अजीब सा ...कि हम घर में...कैद से ये कौन सा खेल खेल रहे हैं।
रात को जो एकाध बल्‍व रोशनी के लिए जलाकर छोड़ दिया जाता था, उसे भी मां नहीं जलाती थीं।
'क्‍यों नहीं जलाती हो वो आंगन के बाहर वाला बल्‍व, पूछने पर वो हरबार एक ही बात कहतीं कि तेरे 'ताऊ जी' को कुछ डाकू ढूढ़ रहे हैं, जिन्‍होंने पुलिस की वर्दी पहनी हुई है, वो घर घर जाकर पूछ रहे हैं कि ताऊ जी कहां हैं, अगर वो रोशनी देखेंगे तो ताऊ जी को पकड़ ले जायेंगे ना, इसीलिए बल्‍व अभी नहीं जलायेंगे।' जब बड़ी हुई तो जाना कि जिस घर में हम रहते थे वो जनसंघियों का घर था जिसके मालिक बड़े ताऊ जी थे, जिन्‍होंने मेरे पिता के व्‍यवहार से खुश होकर रहने को दिया था।
पापा सरकारी डॉक्‍टर थे बरेली के पचपेड़ा हॉस्‍पीटल में, अब बहुत ज्‍यादा तो याद नहीं कुछ । कुछ भूली सी स्‍मृतियां हैं जैसे कि एक नदी बहती थी घर के पास में जिसको पहले नाव से पार करते थे, फिर हॅस्‍पीटल आता था, बड़ी खूबसूरत सी जगह थी, फिल्‍मी स्‍टाइल वाली...बड़ा सा कंपाउंड जिसमें घुसते ही बाईं ओर बहुत ही सुंदर नन्‍हीं सी चारदीवारी से सजा हुआ सा एक कुंआ था जिसमें हल्‍की गिरारी वाली बाल्‍टी झूलती रहती थी। कंपाउंड के दाईं ओर हॉस्‍पीटल के लिए तीन कमरे दिए गये थे। कंपाउंड के ठीक बीच में बेहद खूबसूरत मंदिर था, मंदिर में कौन से भगवान विराजे थे... अब ये तो ठीक ठीक ठीक याद नहीं मगर उसकी घंटियों से मुझे लटकना अच्‍छा लगता था। हम वहां कुल डेढ़ साल ही रह पाये और इसी दौरान वो घटनायें घटीं जिन्‍हें अब हम इमरजेंसी के नाम से जानते हैं , उनकी भयावहता की बात करते हैं क्‍योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसी घटनायें एक दाग होती हैं ...बस।
उन दिनों की स्‍मृतियों में तैर जाते हैं वो दिन कि कैसे पुलिस से बचने के लिए मां के द्वारा वो अटपटी सी हरकतें किया जाना बिल्‍कुल भी अच्‍छा नहीं लगता था मुझे।ये भी अच्‍छा नहीं लगता था कि मेरे डॉक्‍टर पिता रात रात भर हॉस्‍पीटल में रहें ।मां बताती थीं कि पापा को सीएमओ से आदेश मिला था कि कम से कम डेढ़ सौ केस तो हर रोज करने ही हैं।केस का मतलब लोगों की नसबंदी कर देना था जो तब हम बच्‍चों की समझ से परे था कि बिना बीमारी के ऑपरेशन क्‍यों किये जा रहे हैं सबके।खैर... धरपकड़ के इसी माहौल में मंदिर के पुजारी बाबा को भी पकड़ लिया गया। बाद में घर में सब कानाफूसी कर रहे थे कि बाबा की भी नसबंदी करा दी गई। पापा मां को बता रहे थे कि हम क्‍या करें पुलिस का पहरा रहता है ,वो ही पकड़ कर लाते हैं और हमें तो हर हाल में ऑपरेशन करना होता है। छोटी सी बच्‍ची मैं नहीं जानती थी कि क्‍यों पूरा लगभग डेढ़ साल से ज्‍यादा का वक्‍त पापा का ऐसे बीता, ये तब ही जाना जब बड़ी हुई कि पापा जैसे और भी लोग थे जो सरकारी आदेशों को मानने के आगे विवश थे। 
बहरहाल अब कह सकती हूं कि पता नहीं वो कैसे कैसे दिन थे और कैसी कैसी जागती सी रातें कि आज भी हम उन काली स्‍मृतियों को भुला नहीं पा रहे हैं।
आज 39 साल बाद भी मुझे वो सारे सीन याद हैं जस की तस।
- अलकनंदा सिंह
 

शनिवार, 21 जून 2014

शर्तों के बंधन यानि दूरी को आमंत्रण

एक कहानी है - भगवान और धर्म, पीड़ा और दुख के संबंध  में जो हाल ही में  कहीं पढ़ी है। आम्रपाली अपने समय की बहुत प्रसिद्ध नर्तकी थी। उसने एक बार महात्मा बुद्ध से भेंट की। थोड़ी देर बातचीत के बाद उनसे पूछा -'भंते! आप मेरे पास कभी क्यों नहीं आते।' महात्मा बुद्ध बोले-'अभी जरूरत नहीं है, जिस दिन जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।' समय बीतता गया और धीरे धीरे वह नर्तकी बूढ़ी हो गई। देखते देखते उसकी खूबसूरती कम होती चली गई। रोज पहुंचने वाले लोग भी अब उससे बचने लगे। हालत यह हो गई कि अब उसके पास कोई मिलने ही नहीं आता था। तब एक दिन महात्मा बुद्ध वहां पहुंचे और बोले-'प्रिय! मैं आ गया।' आम्रपाली ने कहा-'भंते! अब तो समय बीत गया। अब मुझमें बचा ही क्या है? वह शारीरिक सौंदर्य तो अब रहा नहीं। आप इतने दिनों बाद आज क्यों आए?' महात्मा बुद्ध ने कहा-'प्रिये! यही तो समय है आने का। पहले तुझे मेरी आवश्यकता भी नहीं थी। धर्म की आवश्यकता तो तुझे अब महसूस हो रही है। समझ ले, मैं उसकी पूर्ति करने आया हूं।' पीड़ा और दुख के समय ही भगवान और धर्म को याद किया जाता है।
आम्रपाली की कहानी पढ़कर अब एक प्रश्‍न यहीं से उपजता है कि जब पीड़ा होगी दुख होगा क्‍या  ईश्‍वर तभी  याद आयेंगे, ईश्‍वर हमारे ही पास है, इसका अहसास भी तभी होना चाहिए क्‍या जब पीड़ा हो, ये तो शर्त हो गई ईश्‍वर को याद करने की। ये तो अनिवार्यता हो गई कि ईश्‍वर को हमेशा जहन में रखने के लिए पीड़ा का और दुख का होना जरूरी है। अनिवार्यता है यानि निश्‍चित ही ये बाध्‍यता भी है  और बाध्‍यता है यानि ये तो नियम बन गया है। तात्‍पर्य यही हुआ कि ईश्‍वर के लिए दुख की अनिवार्यता को नियम बना दिया गया। नियमों में बंधकर सामाजिक संरचना को तो चलाया जा सकता है , सृष्‍टि की सारी आवश्‍यकताओं पर खरा भी उतरा जा सकता है मगर ईश्‍वर को नहीं पाया जा सकता ।  ईश्‍वर तो सिर्फ और सिर्फ मन की, आत्‍मा की निश्‍छलता से ही पाया जा  सकता है। हां, इस निश्‍छलता के लिए अवश्‍य अपने भीतर झांकना  होगा और तभी उपजेगा प्रेम। एक निश्‍छल प्रेम...। प्रेम का उमड़ना और उमड़ कर  ईश्‍वर को  पाने की यात्रा निश्‍चित ही दुख या पीड़ा वाली बैसाखी की मोहताज नहीं तो फिर इस बैसाखी को हम क्‍यों ढोयें। क्‍यों ना हम प्रसन्‍न रहते हुये, प्रसन्‍न करते हुये, प्रसन्‍न देखते व दूसरों को दिखते हुये ईश्‍वर का हर वस्‍तु-व्‍यक्‍ति में अनुभव करें और उसकी निकटता का आनंद लें।
अकसर लोग पूछ बैठते हैं कि ईश्‍वर के प्रति प्रेम उपजने की क्‍या गारंटी है। इनके लिए एक ही जवाब होता है कि एक बार दूसरों से अपनी अपेक्षाओं की शर्त हटाकर तो देखिए सभी प्रेममय  लगेंगे क्‍योंकि अपेक्षायें प्रेम को ठहरने ही नहीं देतीं,वे प्रतिदान मांगती हैं और जो मांग रहा है वह तो भिखारी हो जाता है ना...वह प्रेमी नहीं रह पाता...और जब प्रेम  नहीं रहता तो ईश्‍वर कैसे रहेगा, ऐसी स्‍थिति में प्रेमविहीनता या यूं कहें कि आत्‍मा के संग वैक्‍यूम जन्‍मता है जो  पीड़ा को जन्‍म  देता है , जो दुख को अनिवार्य बताता है ।
आम्रपाली के संदर्भ में हो सकता है बुद्ध ने त्‍याग और पीड़ा को ऊपर रखा क्‍योंकि वे त्‍याग और उससे उपजी पीड़ा को ही ईश्‍वर को पाने का एकमात्र रास्‍ता बता पाये या जान पाये। इस संदर्भ में कृष्‍ण का रास्‍ता ज्‍यादा आसान और सर्वग्राह्य व सुलभ है, बस एक बार निश्‍छल हो जाया जाये। आत्‍मा तक पहुंचने के लिए कृष्‍ण का प्रेममयी हो जाने का और प्रेममयी कर देने का रास्‍ता आनंद का रास्‍ता है जो अपेक्षाओं से उपजे दुख को भी दूर कर देता है और प्रेममयी बनाकर आत्‍मा व  ईश्‍वर दोनों का ही पग पग पर स्‍वागत करता है। इसे यूं भी जाना जा सकता है कि शर्तों और अपेक्षाओं से तो कारोबार होता है और ईश्‍वर कोई कारोबार नहीं...कि जिसका लेनदेन हो सके , उसमें तो रमा जा सकता है बस।
-अलकनंदा सिंह


ली चैप्टर ऑन-द बिगनिंग

भारतीय लोक-कला और संस्कृति की चौंकाने वाली विविधता हमेशा से कौतुहल का विषय रही है. ग्लोबलाईज़ेशन ने लोक-कलाओं को दुनिया के मंच पर पहुंचने के सपने दिए. हालांकि ख़ुद भारतीय युवा पीढ़ी ने लोकसंगीत को वो तवज्जो नहीं दी. जहां आज बहुसंख्यक युवा पाश्चात्य संगीत की दीवाने है वही देश के पूर्वोत्तर कोने नागालैंड से निकला है अनोखा युवा लोक गीत बैंड "टेटसेओ सिस्टर्स"
टेटसेओ सिस्टर्स की ख़ासियत यह है कि यह टेटसेओ परिवार की चार बहनों से मिलकर बना है. मुतसेवेलु (मर्सी), अज़िन (अज़ी), कुवेलु (कुकु), अलुन (लूलू).
ये बहनें कोहिमा में रहती है और नागालैंड के चाखेसंग आदिवासी जाति से हैं. वहां के लोक गीत "ली" गाते है. टेटसेओ सिस्टर्स के माता-पिता दोनों सरकारी अध्यापक रह चुके हैं और दोनों ही चर्च में गीत गाया करते थे.
घर में संगीत का माहौल होने के कारण चारों बहनें भी संगीत से बचपन से जुड़ी रहीं। चारों बहनों ने 1994 में अपनी कला का पहला कार्यक्रम अपने स्कूल में दिया था.
इसके बाद उन्हें अपनी कला के प्रदर्शन करने के कई निमंत्रण मिलते रहे.
साल 2000 में इस बैंड को एक शो में टेटसेओ सिस्टर्स का नाम मिला.
टेटसेओ सिस्टर्स ने कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की है.
इसमें साल 2008 में बैंकॉक में हुई नार्थ ईस्ट ट्रेड अपॉर्च्यूनिटी समिट, 2010 कॉमनवेल्थ खेलों का क्वीन बैटन रिले शामिल है.
2011 में टेटसेओ सिस्टर्स ने अपनी पहली ऐल्बम बनाई "ली चैप्टर ओने-द बिगनिंग".
बैंड की चुनौती
जहां देश के दूसरे राज्यों में लड़कियों के बैंड बन तो जाते हैं पर वक़्त के साथ बिखर जाते हैं या अपना अस्तित्व खो देते हैं. वहीं टेटसेओ सिस्टर्स बैंड के साथ ऐसा नहीं हुआ.
बैंड की सदस्या मर्सी कहती है "शुक्र है यहाँ (कोहिमा) में लड़का और लड़की का कोई भेद भाव नहीं है. हमें अपने भाइयों और माता पिता से काफ़ी सहयोग मिला है पर हमारे लिए चुनौती ये है हम देश के ऐसे कोने में है जहा शो मिलना मुश्किल होता है और हम सभी विद्यार्थी हैं और अज़ी की शादी हो चुकी है तो हर बार एक साथ जाना मुमकिन नहीं हो पाता. कई बार हम दो लोग चले जाते हैं.''
मर्सी ये भी बताती हैं कि शो में पैसे तो अच्छे-ख़ासे मिलते हैं लेकिन शो हमेशा नहीं मिलते. अगर शहर से बाहर जाकर शो करना पड़े तो कई बार अपने पैसे ख़र्च करने पड़ते हैं.
नागालैंड का संगीत
उत्तर पूर्वी संगीत के जानकार आयुष्मान दत्ता और आर के सुरेश का कहना है कि " उत्तर पूर्वी संगीत की खोज हाल ही में हुई है और सांस्कृतिक संगीत का कोई लिखित या ऑडियो विज़ुअल दस्तावेज नहीं है. ये बुज़ुर्ग से दूसरी पीढ़ी को मौखिक तौर पर ही मिलती है."
आयुष्मान दत्ता कहते हैं की "अंग्रेज़ जब आए थे तब तक कोई प्रशासन नहीं था और यहाँ उग्र सैनिक आदिवासी रहा करते थे अंग्रेज़ों ने सभी को एक कर दिया और नागालैंड बना. कई लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया. नागालैंड के लोक गीतों में उग्रता और युद्ध की व्याख्या होती है और लोक गीत के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी इसे जीवित रखा है."
आयुष्मान इस बैंड के योगदान पर बात करते हुए कहते हैं, "टेटसेओ सिस्टर्स की बात करें तो उनके लोक गीत ली है जो चाखेसंग आदिवासिओ का लोक गीत है. उन्होंने ली गीत को विज्ञान में ढला है. उनकी ख्याति की वजह से अब देश के दूसरे भाग नागालैंड को भी पहचानते हैं."
युवाओं का रुख़
टेटसेओ सिस्टर्स, आर के सुरेश और आयुष्मान दत्ता तीनों मानते हैं कि 5-7 सालों में उत्तर पूर्वी संगीत में युवाओं की रुचि बढ़ी है इसका एक बड़ा कारण टीवी और इंटरनेट क्रांति है.
मर्सी का कहना है कि "आज के कई युवा अपने जड़ों से रूबरू होना चाहते हैं इसलिए लोकगीतों की लोकप्रियता बढ़ रही है."
वहीं आयुष्मान दत्ता मानते हैं कि "सरकार के पास लोकगीतों को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं हैं पर उनमें और अधिक ज़मीनी काम करने की ज़रूरत है."
-सुप्रिया सोगले

शुक्रवार, 20 जून 2014

कवि केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार

नई दिल्‍ली। 
हिन्दी के प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह को 49 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जायेगा। भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई ने शुक्रवार को यहां यह घोषणा की। मंडलोई ने बताया कि सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने शुक्रवार की अपनी बैठक में सिंह को इस पुरस्कार के लिए सर्वथा योग्य पाया। सिंह को पुरस्कार में 11 लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र वाग्देवी की प्रतिमा, प्रतीक चिह्न, शाल आदि भेंट किये जायेंगें।
केदारनाथ सिंह का जन्म 1934 ई में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ था। बनारस विश्वविद्यालय से 1956 ई में हिन्दी में एम ए और 1964 में पी-एच डी की उपाधि प्राप्त करने वाले केदारनाथ सिंह हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं।
केदारनाथ सिंह जवाहर लाल विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। केदारनाथ सिंह समकालीन हिन्दी कविता के प्रमुख कवि हैं। केदारनाथ सिंह अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के कवि हैं।
कविता संग्रह
अभी बिल्कुल अभी
जमीन पक रही है
यहाँ से देखो
बाघ
अकाल में सारस
उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ
तालस्ताय और साइकिल
आलोचना
कल्पना और छायावाद
आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान
मेरे समय के शब्द
मेरे साक्षात्कार
संपादन
ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन)
समकालीन रूसी कविताएँ
कविता दशक
साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)
- एजेंसी

गुरुवार, 19 जून 2014

रोमांच और सबक की गाथा : फीफा 2014

खेल को खेल की तरह ही लेना चाहिए, इसमें जीत और हार तो लगी ही रहती है... जो आज है वह कल नहीं रहेगा और जो कल था वह फिर से वापस आयेगा... इस तरह के खुद को सांत्‍वना देने वाले और आध्‍यात्‍मिक जुमलों तक की बौछार तब होने लगती है जब कोई भी टीम अपने सबसे ऊंचे पायदान से नीचे गिरती  है।
फीफा वर्ल्‍ड कप 2014 में विश्‍व फुटबॉल की सिरमौर रही स्‍पेन की टीम का हश्र ये बताने को काफी है कि कोई भी सफलता हो या असफलता, स्‍थाई नहीं होती। प्रकृति के विपरीत भला कोई कैसे जा सकता है । समय के साथ चलते हैं, इसके अपने नियम और कानून, बदलाव तो निश्‍चित होता है। 
वर्ल्‍ड कप पहले भी दोहराव से उकताते रहे हैं अत: इस बार भी ब्राजील के रियो डि जेनेरियो ने अपनी इसी दोहराव को मिटाकर नई गाथा लिखी और इसका नायक बना चिली। चिली ने कल के मैच में इतिहास गढ़ते हुए 2008 और 2012 में यूरो  कप और 2010 में फुटबॉल का विश्‍वविजेता बने स्‍पेन को वर्ल्‍डकप के पहले ही दौर में बाहर का रास्‍ता दिखा दिया । स्‍पेन का यूं वर्ल्‍ड कप से निकल बाहर होना पूरे स्‍पेनिश खेलप्रेमियों के लिए तो दुखदायी रहा ही मगर स्‍पेन के सम्राट जुआन कार्लोस को विदाई भी इस हार की टीस से नहीं बच सकी। इत्‍तिफाकन कल के ही दिन सम्राट ने गद्दी छोड़कर उसे अपने उत्‍तराधिकारी फिलिप 6th को कार्यभार सौंपा था।
इस मामले में स्‍पेनिश मीडिया की भी सराहना करनी होगी, जिसने टीम की हार के बावजूद जनता में सकारात्‍मक एप्रोच बनाये रखी, जिसने शर्मनाक तरीके से पहले ही दौर में बाहर हुई फुटबॉल टीम की हार की खबर को पिछले पेज पर छापा जबकि नये राजा का स्‍वागत करती हुई उत्‍साही खबरों को फ्रंट पेज पर। मकसद था कि इससे जनता के बीच गहन निराशावादी क्षणों में भी न तो टीम के प्रति गुस्‍सा उभरेगा और ना ही अन्‍य उभरते खिलाड़ियों में निराशा पननेगी। मीडिया की यह सेल्‍फकंट्रोलिंग एप्रोच सराही जानी चाहिए कि कैसे मीडिया हार के दुख को भी भुलाने में मदद कर सकता है।
हमेशा विश्‍वविजेता बने रहने के अतिविश्‍वास सहित प्रतिस्‍पर्द्धी टीमों को कमतर आंकना तथा इस सोच के कारण अपने ही द्वारा स्‍थापित 'टीका-टाका' शैली में समय के अनुसार कोई बदलाव न करना स्‍पेन को भारी पड़ गया। ये कुछ ऐसे कारण रहे जो दूसरी विश्‍वविजेता टीमों के लिए भी सबक हो सकते हैं। हर खेल के अपने नियम होते हैं और हर टीम की अपनी विशेष स्‍ट्रेटजी होती है, इसी के साथ जुड़ी होती है ये शर्त भी कि अपनी स्‍ट्रेटजी का पता दूसरी किसी प्रतिस्‍पर्द्धी टीम को न लग जाये क्‍योंकि ऐसा होने  पर विरोधी टीम सेफगेम की अपनी अलग स्‍ट्रेटजी ईजाद कर लेती है । स्‍पेनिश टीम को अपनी छोटे छोटे पास देने वाली 'टीका-टाका' शैली पर अतिविश्‍वास था। हालांकि जानकारों ने उन्‍हें बार-बार चेतावनियां भी दीं कि उनकी इस विधा को इसी वर्ल्‍ड कप में कई टीमें अपना चुकी हैं यानि स्‍वयं स्‍पेन को सावधान रहना होगा अपनी ही 'टीका-टाका' शैली वाली इस स्‍ट्रेटजी के दोहराव से... मगर उसने किसी की सलाह पर ध्‍यान नहीं दिया बल्‍कि इसके उलट टीम के कोच विंसेंट डेल बोस्‍क और इकेर कैंसियास  लगातार कहते रहे कि टीका-टाका ही हमारा हथियार है...विडंबना देखिए कि स्‍पेनिश टीम अपने हथियार की धार के आगे ही ढेर हो गई। यूरो 2008 और 2012 की चैम्पियन और मौजूदा विश्व विजेता स्पेन की टीम इस बार ग्रुप मुक़ाबले से आगे नहीं बढ़ पाई। पहले मैच में जहाँ नीदरलैंड्स ने उसे 5-1 से बुरी तरह हराया, तो चिली ने 2-0 से हराकर इस विश्व कप में उसका सफ़र ही ख़त्म कर दिया।
स्‍पेन टीम के कोच विसेंट डेल बॉस्क़ की टीम में उनके सुनहरे दौर के कई खिलाड़ी हैं जिन्होंने फ़ुटबॉल की दुनिया में असाधारण वर्चस्व स्थापित किया। उन्होंने छोटे-छोटे पास और मूवमेंट वाले अपने 'टिकी-टाका' शैली से इस खेल को एक तरह से अपने वश में ही कर लिया था। और अब यही टिकी-टाका शैली का प्रचार उनकी कमजोर कड़ी बन गया। नतीजा देखिए कि एक ओर तो चिली की टीम ने पिछले विश्‍वकप में स्‍पेन से मिली हार का बदला ले लिया तथा विश्‍वकप को नये हीरो खोजने की राह पर ला खड़ा किया तो दूसरी ओर हर विश्‍व विजेता टीम को यह सोचने और गांठ बांध लेने की भी सीख दी है कि रणनीतियों का उजागर होना किसी भी लड़ाई को हारने का पहला कदम होता है। निश्‍चित रूप से इस हार से स्‍पेन ही नहीं, हर वो टीम सबक लेगी जो इस बार फीफा की विश्‍वविजेता टीम होगी।
भारी उलटफेरों से भरा रहेगा ये फीफा वर्ल्‍ड कप...अब देखिए ना स्‍पेन की हार पर लिखते लिखते उरुग्‍वे ने इंग्‍लैंड को मात दे दी...देखते हैं हर रोज का ये रोमांच कल कौन सी खबर लाता है।
- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 12 जून 2014

कबीर: सूने घर का पाहुना

आज कबीर जयंती पर विशेष :
तमाम रस्‍मो-रिवाजों को ताक पर रखकर ईश्‍वर को भजने की एक नई और अनोखी परिभाषा  गढ़ने वाले सूफी संत कबीर की जयंती एक बार फिर आ गई । तारीख की मोहताज कबीर जयंती और कुछ सीख दे न दे पर इतना जरूर बताती है कि कैसे एक अनपढ़, अनगढ़ से व्‍यक्‍ति ने पूरे विश्‍व को महज सूत की गांठें सुलझाते सुलझाते और उन्‍हें बुनते हुए यह बता दिया कि ईश्‍वर को पाने के लिए उनकी सभी  विचारधाराओं और उपासना के तरीकों पर हुई बहसों का कोई  खास मतलब नहीं। इन ढकोसलों से यदि ईश्‍वर को पाने की बात तो दूर उसके होने को महसूस भी  किया जा सकता तो देश में  आदिकाल से आज तक लाखों लोग यूं तमाम आश्रमों की खाक न छान रहे होते।
कबीर कहते भी हैं -
कबीर प्रेम  न चाखिया, चाखि ना लिया साव, सूने घर का पाहुना,ज्यों आवे त्यों जाव।
सभी धर्मों के बड़े-बड़े महापंडितों को ये सोचने समझने में जहां अपने धर्मग्रंथों को खंगालना पड़ता था, शास्‍त्रार्थ करना पड़ता था कि ईश्‍वर आखिर है क्‍या, वो कहां मिलता है, उसका  क्‍या स्‍वरूप है, वह दिखता कैसा है, वह आयेगा कैसे... वहीं  कबीर बड़ी सहजता से अपने मैं को व्‍याख्‍यायित करते हुए साधारण सी भाषा में बताते हैं  कि मेरा मन तो ''सूने घर का पाहुना'' ...है जहां किसी के न तो आने पर कोई बंधन है और ना जाने पर कोई रोक लगी है। ये शून्‍य है जिसमें जैसे चाहो, वैसे ईश्‍वर को स्‍थान दे दो।
कबीर की दृष्‍टि में 'सूना घर' यानि मन एकदम सूना है, खाली है, निर्विकार है, निश्‍छल है परंतु निराश नहीं है, बल्‍कि  निर्गुण का स्‍वागत को मन खाली बैठा है। मन इतना सूना है  कि जहां कोई निषेध नहीं और ना ही कोई आमंत्रण देने वाला है। स्‍व को जानने व समझने और उससे रूबरू होने का इतना  सहज तरीका तो केवल कबीर ही ढूढ़ पाये और शास्‍त्रों के ज्ञाता  महापंडितों को बता भी गये कि जो कुछ है ''स्‍व'' ही है। जिसे आना है... आये, जिसे जाना है... जाये, घर एकदम खाली है। जहां होने को तो 'स्‍व'  मौजूद है मगर नहीं होने को उसका विचार तक नहीं है आसपास, एकदम अविरल धारा की भांति...अनंत में समाते चले जाने की ओर...।
एक जुलाहे ने सूत की गिरहें खोलते खोलते मन की...  आत्‍मा की और ईश्‍वर प्राप्‍ति की जितनी गिरहें थीं, सब खोलकर रख दीं,वह भी इतनी सरलता के साथ कि ईश्‍वर  को महसूस करने के लिए किसी भी बाहरी वस्‍तु या व्‍यक्‍ति की जरूरत नहीं, बस स्‍वयं को जान लेना इसकी पहली तथा आखिरी जरूरत है।  भक्‍तिकाल के सूफीयाना समय में कबीर ने कपड़े बुनने के संग ईश्‍वर पाने की उत्‍कट आकांक्षा को जिस तरह बुना और उसका सरलीकरण किया, वह तामझामों वाले मठाधीशों के वजूद पर  और उनके तौरतरीकों पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाता है। कबीर ने बार बार कहा कि बाहर खोजने से कुछ नहीं मिलेगा...अपने भीतर झांको । ये सिर्फ संभव है स्‍वयं के शून्‍य बनते चले जाने से। प्रेम गली अति सांकरी, जामे दो ना समाय... सच ही तो है। जब साधारण जीवन में हम देखें तो प्रेम होते ही कोई भी दो व्‍यक्‍तित्‍व एक ही बन जाते है, परस्‍पर आत्‍मसात हो जाते हैं।
उस परम प्रेम के उदय का अर्थ ही ये है कि पूरी रूप-रेखा मिटा दो। ना नाम बचे ना ठिकाना । खुद को मिटा देने का अर्थ ही कबीर हो जाना है ।
परमात्मा को पाने के लिए  कबीर हो जाना जरूरी भी है क्‍योंकि जब तक ' मैं ' है, घर सूना नहीं है तो किसी भी पाहुना (मेहमान) के आने पर हलचल होगी ही, ऐसे में  परमात्‍मा को देखना संभव नहीं हो पायेगा । बाधा गिरानी है स्‍वत: ही, और जब गिर  जाती है तो तुम्हारी आंखें निर्मल हो कर खुलती हैं बिना किसी भाव के कि मैं हूं। तुम बिलकुल 'ना-कुछ' की तरह होते हो। एक शून्य ! उस शून्य में तत्क्षण वह प्रवेश कर जाता है। जैसे ही  शून्य हुए, वह अतिथि आ जाता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, तुम उसे चूकते रहोगे। जिस दिन तुम खाली होओगे, वह तुम्हें भर देता है।
कबीर की जयंती के बहाने एक अनपढ़ व अनगढ़ संत परजितनी श्रद्धा अचानक लोगों की फूट पड़ी है और उसकी धारा अपना प्रवाह तेज करती जा रही है, उन्‍हें लेकर शोध हो रहे हैं,उनके निर्गुण ज्ञान पर अपने अपने मत रखे जा रहे हैं, वह पर्याप्‍त नहीं है क्‍योंकि कबीर होना और कबीर को व्‍याख्‍यायित करना दो अलग अलग बातें हैं । व्‍याख्‍यायित भी वही कर रहे हैं जो कबीर के शब्‍दों को पकड़ कर लटके हुए हैं जिन्‍होंने 'स्‍व' को ढूढ़ने का कोई यत्‍न नहीं किया, ना जानते हैं स्‍व  को और ना ही जानने की इच्‍छा है। यानि सबकुछ बस खानापूरी ही हो रही है। शब्‍दों से खेला जा रहा है,बस ।
नि:संदेह भक्‍ति के इस आडंबरपूर्ण युग में कबीर को समझना तथा उनका अनुसरण करना बहुत जरूरी हो गया है परंतु सवाल यह है कि क्‍या उसके लिए एक अदद जयंती काफी है और क्‍या मात्र कबीर के चंद दोहों को रट लेने भर से हम उनके उस संदेश को पा सकते हैं जिसका महत्‍व करीब 500 साल पहले भी था और आज भी है।
बेहतर होगा कि आज के इस दौर में कबीर पर शोध करने की बजाय उन्‍हें समझने की कोशिश करें, ठीक वैसे जैसे कबीर का अपना जीवन था। बिना बनावट का और बिना दिखावट का। सरल, सहज और सात्‍विक।
- अलकनंदा सिंह
 

गुरुवार, 5 जून 2014

वन्‍स अपऑन ए उत्‍तरप्रदेश

कभी जिसे उत्तर प्रदेश नहीं बल्‍कि उत्‍तम प्रदेश कह कर राजनीतिक पार्टियां वोट बटोर बटोर कर शासन चलाया करती थीं, अलग अलग वर्गों,जातियों और संप्रदायों के बल पर अपनी-अपनी पीठ थपथपाया करती थीं। वे बरबाद होती कानून व्‍यवस्‍था के बावजूद अपने मुंह मियां मिठ्ठू  बनने  के लिए  कोई ना कोई वजह ढूंढ़ लिया करती थीं, आज उसी उत्‍तरप्रदेश (कहीं से भी उत्‍तम नहीं)  की औरतें अपने इन्‍हीं राजनैतिक रहनुमाओं की करतूतों के आफ्टर इफेक्‍ट्स झेलने को विवश हैं।
हाल ही में समाजवादी पार्टी के मुखिया से लेकर उनके तमाम अन्‍य पदाधिकारी बदायूं में हुई बलात्‍कार व हत्‍या के मामले में कानून व्‍यवस्‍था की धज्‍जियों के उड़ने से इतने परेशां नहीं हैं जितने कि लोगों और मीडिया के सवालों से। वे अपना मुंह को छिपाने को ऐसी बचकाना और बेवकूफी भरी हरकतें कर रहे हैं, ऐसे हास्‍यास्‍पद बयान दे रहे हैं कि हर उत्‍तरप्रदेशवासी हतप्रभ  हैं, ऐसों को चुनकर सत्‍ता सौंपने के लिए । आमजन अब तो इन्‍हें गरिया भी नहीं पा रहे, बल्‍कि इनके संभावित हश्र पर, इनकी बयानबाजियों पर तरस खा रहे हैं, उन्‍हें घिन आ रही है इनकी सोच पर।
ज़रा विचार कीजिए...कि किस तरह ये ऐसे हास्‍यास्‍पद बयान देकर घर में अपने ही घर की औरतों-बच्‍चियों से आंखें मिला पाते होंगे ये तथाकथित माननीय। लोकसभा चुनावों के दौरान समाजवादी मुखिया द्वारा चुनाव के अति उत्‍साह में बोले गये वो बोल ''लड़के हैं, लड़कों से तो गलती हो जाती है। ऐसी गलती पर फांसी चढ़ाना उचित नहीं है'', आज भी जनता के जहन से जा नहीं पा रहे।  यही बोल तो सपा की न केवल लोकसभा में हार का एक कारण बने बल्‍कि मौजूदा कानून व्‍यवस्‍थागत छीछालेदर के लिए भी जिम्‍मेदार माने जा रहे हैं। सपाइयों की सोच यहीं तक रहती तो गनीमत थी, अब तो मुलायम सिंह व अखिलेश और रामगोपाल यादव तो ऐलानिया तौर पर कह रहे हैं कि इन हालातों से हमारे ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला..., मीडिया को  सिर्फ उत्‍तरप्रदेश में ही रेप दिखते हैं... और हमें मालूम है क्‍या करना है...आप हमें मत सिखाइये...। आप अपना काम कीजिए।
बयानों की इन्‍हीं बेहूदा बानगियों के बीच एक हफ्ता होने जा रहा है, फिर भी प्रदेश में वीभत्‍सता और क्रूरता का आलम थम नहीं रहा है। बदायूं -बरेली-मुज़फ्फरनगर-सीतापुर-देवरिया-मथुरा-फिरोजाबाद...की श्रृंखला कहां जाकर थमेगी, कहा नहीं जा सकता। मगर इतना अवश्‍य है कि सपा ने जो ताबूत अपने लिए तैयार कर लिया है, अब उसमें खुद वही कील ठोक रहे हैं, गिनती चल रही है कीलों की। देखते जाइये... अगर अब भी यह नहीं सुधरे तो आखिरी कील भी ये खुद अपने हाथों ठोकेंगे।
बदायूं  घटना की तो अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी निंदा की  जा रही है।  देश व प्रदेश के लिए इससे ज्‍यादा अपमानजनक और क्‍या होगा कि संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ तक चिंता जता रहा है, हालांकि संघ के सचिव बॉन की मून ने पूरे विश्‍व की महिलाओं की सुरक्षा पर हमलों की बावत उत्‍तरप्रदेश की इस घटना का भी उल्‍लेख किया मगर किया तो सही, यही हमारे लिए  क्‍या डूब मरने वाली बात नहीं ?
बहरहाल, जिम्‍मेदार नेता कानून व्‍यवस्‍थागत कोई सबक सीखे हैं या आगे सीखेंगे, ऐसा फिलहाल के बयानों से तो नहीं लगता, अलबत्‍ता ये जरूर है कि अब आने वाले विधानसभा चुनावों तक ये अपनी सरकार बनाये रख पायें, यही इनके लिए उपलब्‍धि होगी। उत्‍तरप्रदेश जो कभी उत्‍तमप्रदेश नहीं बन पाया, अब इस गिरावट के बाद अपने उत्‍थान की ओर ही चलेगा,ये निश्‍चित है क्‍योंकि गिरने की भी अपनी एक सीमा होती है।
-अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 3 जून 2014

कष्‍ट की याचना क्‍यों ?

एक बार कृष्‍ण को द्वारिका के लिए विदा करते समय कुंती कहती हैं-
''विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥८॥''
कुंती  कृष्‍ण से कष्‍ट की याचना करती है ताकि कष्‍ट कृष्‍ण के दर्शन करा सकें मगर आनंदकारी कृष्‍ण कहते हैं और समझाते भी हैं कि कष्‍ट की याचना ठीक नहीं। इसी के साथ वह कहते हैं कि मैं जिस पर कृपा करना चाहता हूं, उसे कष्‍ट ही देता हूं। इसके बड़े  मनोवैज्ञानिक कारण हैं । सुख की लंबाई अहुत कम होती है उसकी गहराई भी बहुत कम होती है इसीलिए सुख में कोई भी उच्‍छृंखल हो सकता है, वह सबको दिखाना चाहता है कि वह सुखी है, सुख में कुछ भी गहरा नहीं रह जाता, सब उथला उथला... जबकि दुख...दुख तो इसके ठीक उलट होता है, वह 'शैलो' नहीं होता, वह गहरा होता है, उसकी लंबाई भी ज्‍यादा होती है । दुख सिर्फ दुख ही नहीं देता, वह मांजता भी है , निखारता भी है इसीलिए कृष्‍ण कुंती की इस कष्‍ट मांगने की चतुराई वाली  इच्‍छा पर मुस्‍कुरा देते हैं कि आत्‍मा और स्‍वयं अपने को तलाशने, निखारने के लिए उन्‍होंने कितनी आसानी और चालाकी से ईश्‍वर को पाने का माध्‍यम खोज लिया ।
आजकल हममें से अधिकांश व्‍यक्‍ति थोड़ा सा दुख होने पर भी परेशान होने लगते हैं। घबराकर सोचते हैं कि अब जीवन का सफर या तो यहीं तक है बस या फिर जीवन में सिर्फ सुख ही होना चाहिये।  सच तो ये है कि किसी भी संकट की घड़ी में धैर्य न खोकर उस दुख के साथ बहने का प्रयास करना चाहिये क्‍योंकि स्‍व्‍यं को,स्‍वजनों को और स्‍वमित्रों को इसी एक माध्‍यम से जाना जा सकता है।
दुख मनाते रहना समस्‍याओं के समाधान में आड़े आता है। विपरीत परिस्‍थितियों को अपनी ओर मोड़ने  के लिए कुछ दूर तक उनके बहाव में बहकर देखना चाहिए, ताकि उनसे निकलने का रास्‍ता ढूढ़ना आसान हो जाये। परिस्‍थितियां विपरीत नहीं होतीं वरन् हमारी इच्‍छायें उनके साथ तालमेल नहीं बिठा पातीं और हम दोष उन्‍हें देने लगते हैं, जो किसी  भी कारण से उन परिस्‍थितियों के कारक होते  हैं।
जीवन का हर क्षण जो कष्‍टदायी लगता है (जबकि होता नहीं है) उसमें से भी सकारात्‍मक बदलाव के संकेत ढूढ़ना और समय को अपनी गति से चलने देना, हर दुख से उबरने का पुरुषार्थी तरीका है। कृष्‍ण ने गीता में अर्जुन को जीवन के प्रवाह की सभी वास्‍तविकताओं से परिचित कराते हुये दुख ना मानने का ही उपदेश दिया। संपूर्ण गीता का आधार ही दुख से जीवन के मूल्‍यों को परिष्‍कृत करना बताया गया है। दुख के गहनतम क्षण ही हमें ऊर्जा की ओर झांकने को प्रेरित करते हैं और हमें स्‍वयं को जानने और दुख के कारण व निवारण को भी तलाशने का रास्‍ता सुझाते हैं । इसलिए निज ऊर्जा के भीतर जाने का रास्‍ता आखिर हम रोकें  क्‍यों? उसे प्रवाहित क्‍यों ना होने दें, क्‍यों ना उसके साथ ही हम भी बहें, अपने अंतस की ओर...।
अत: दुख के साथ बहकर तो देखें, स्‍वयं ईश्‍वर का साथ हर समय अपने होने का आभास देता रहेगा, स्‍व को पहचानने का और स्‍व से मिलने वाले सुख की ओर जाने का ये बेहद सरल उपाय है ।

- अलकनंदा सिंह

रविवार, 1 जून 2014

पहले हिन्दू राष्ट्र था अफगानिस्तान

अफगानिस्तान और पाकिस्तान को छोड़कर भारत के इतिहास की कल्पना नहीं की जा सकती। कहना चाहिए की वह 7वीं सदी तक अखंड भारत का एक हिस्सा था। अफगान पहले एक हिन्दू राष्ट्र था। बाद में यह बौद्ध राष्ट्र बना और अब वह एक इस्लामिक राष्ट्र है।
17वीं सदी तक अफगानिस्तान नाम का कोई राष्ट्र नहीं था। अफगानिस्तान नाम का विशेष-प्रचलन अहमद शाह दुर्रानी के शासन-काल (1747-1773) में ही हुआ। इसके पूर्व अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था जिसमें गांधार, कम्बोज, कुंभा, वर्णु, सुवास्तु आदि क्षेत्र थे।
यहां हिन्दूकुश नाम का एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसके उस पार कजाकिस्तान, रूस और चीन जाया जा सकता है। ईसा के 700 साल पूर्व तक यह स्थान आर्यों का था। ईसा पूर्व 700 साल पहले तक इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसके बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है।
अफगानिस्तान की सबसे बड़ी होटलों की श्रृंखला का नाम ‘आर्याना' था और हवाई कंपनी भी ‘आर्याना' के नाम से जानी जाती थी। इस्लाम के पहले अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था।
पारसी मत के प्रवर्तक जरथ्रुष्ट द्वारा रचित ग्रंथ ‘जिंदावेस्ता' में इस भूखंड को ऐरीन-वीजो या आर्यानुम्र वीजो कहा गया है। आज भी अफगानिस्तान के गांवों में बच्चों के नाम आपको कनिष्क, आर्यन, वेद आदि मिलेंगे।
उत्तरी अफगानिस्तान का बल्ख प्रांत दुनिया की कुछ बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विरासतों को सहेजे हुए है। इसके कुछ प्राचीन शहरों को दुनिया के सभी शहरों का जनक कहा जाता है। ये बल्ख के तराई इलाकों की समतल भूमि है जिसके प्राचीन व्यापारिक मार्ग ने खानाबदोशों, योद्धाओं, साहसी लोगों और धर्म प्रचारकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इन लोगों ने अपने पीछे यहां ऐसे रहस्यों को छोड़ा जिन्हें पुरातत्वविदों ने खोजना शुरू ही किया है।
पिछले वर्ष ही अफगानिस्तान में 5,000 साल पुराना एक विमान मिला है। इस विमान के महाभारतकालीन होने का अनुमान है। यह खुलासा 'वायर्ड डॉट कॉम' की एक रिपोर्ट में किया गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान की एक प्राचीन गुफा में रखा प्राचीन भारत का एक विमान पाया गया है। अब सवाल है कि ये इतने वर्षों तक सुरक्षित कैसे रहा। दरअसल, यह विमान 'टाइम वेल' में फंसा हुआ है। इसी कारण सुरक्षित बना हुआ है।
'टाइम वेल' इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शॉकवेव्स से सुरक्षित क्षेत्र होता है और इस कारण से इस विमान के पास जाने की चेष्टा करने वाला कोई भी व्यक्ति इसके प्रभाव के कारण गायब या अदृश्य हो जाता है।
कहा जा रहा है कि यह विमान महाभारतकाल का है और इसके आकार-प्रकार का विवरण महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में‍ किया गया है। इस कारण से इसे गुफा से निकालने की कोशिश करने वाले कई अमेरिकी सील कमांडो गायब हो गए हैं या फिर मारे गए हैं।
करीब 3,500 साल पहले एकेश्वरवादी धर्म की स्थापना करने वाले दार्शनिक जोरास्टर यहीं रहते थे। 13वीं शताब्दी के महान कवि रूमी का जन्म भी अफगानिस्तान में ही हुआ था। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनी और गुरु गोरखनाथ अफगानिस्तान के ही पठान जाति के बाशिंदे थे।
पठान पख्तून होते हैं। पठान को पहले पक्ता कहा जाता था। ऋग्वेद के चौथे खंड के 44वें श्लोक में भी पख्तूनों का वर्णन 'पक्त्याकय' नाम से मिलता है। इसी तरह तीसरे खंड का 91वें श्लोक आफरीदी कबीले का जिक्र 'आपर्यतय' के नाम से करता है।
दरअसल, अंग्रेजी शासन में पिंडारियों के रूप में जो अंग्रेजों से लड़े, वे विशेषकर पठान और जाट ही थे। पठान जाट समुदाय का ही एक वर्ग है। कुछ लोग इन्हें बनी इसराइलियों का वंशज मानते हैं।
अफगानिस्तान में पहले आर्यों के कबीले आबाद थे और वे सभी वैदिक धर्म का पालन करते थे, फिर बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद यह स्थान बौद्धों का गढ़ बन गया। यहां के सभी लोग ध्यान और रहस्य की खोज में लग गए।
इस्लाम के आगमन के बाद यहां एक नई क्रांति की शुरुआत हुई। बुद्ध के शांति के मार्ग को छोड़कर ये लोग क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। शीतयुद्ध के दौरान अफगानिस्तान को तहस-नहस कर दिया गया। यहां की संस्कृति और प्राचीन धर्म के चिह्न मिटा दिए गए।
17वीं सदी तक दुनिया में अफगानिस्तान नाम का कोई देश नहीं था अर्थात आज से मात्र 300 वर्ष पूर्व तक अफगानिस्तान एक नाम से कोई राष्ट्र नहीं था। 6टी सदी तक यह एक हिन्दू और बौद्ध बहुल क्षेत्र था। यहां के अलग-अलग क्षेत्रों में हिन्दू राजा राज करते थे। उनकी जाति कुछ भी रही हो, लेकिन वे सभी आर्य थे। वे तुर्क और पठान आर्यवंशीय राजा थे। कम्बोज को कुछ लोग कान्यकुब्ज भी कहते थे। संपूर्ण धरतीवासियों के लिए अफगानिस्तान व्यापार का प्रमुख केंद्र था।
अंतिम हिन्दूशाही राजवंश:
सन् 843 ईस्वी में कल्लार नामक राजा ने हिन्दूशाही की स्थापना की। तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रुतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिन्दू या बौद्घ राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था। ये स्वयं को कनिष्क का वंशज भी मानते थे।
हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह' या ‘महाराज धर्मपति' कहा जाता था। इन राजाओं में कल्लार, सामंतदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनंदपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं।
इन राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया, लेकिन 1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटी खा गया।
चीनी यात्री युवानच्वांग ने इस्लाम व अफगानिस्तान के बौद्धकाल का इतिहास लिखा है। गौतम बुद्ध अफगानिस्तान में लगभग 6 माह ठहरे थे। बौद्धकाल में अफगानिस्तान की राजधानी बामियान हुआ करती थी।
सिकंदर का आक्रमण 328 ईसा पूर्व के समय हुआ, जब यहां प्रायः फारस के हखामनी शाहों का शासन था। आर्यकाल में यह क्षे‍त्र अखंड भारत का हिस्सा था। ईरान के पार्थियन तथा भारतीय शकों के बीच बंटने के बाद अफगानिस्तान के आज के भू-भाग पर सासानी शासन आया।
विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में पख्तून लोगों और अफगान नदियों का उल्लेख है। सुदास-संवरण के बीच हुए दाशराज्ञ युद्घ में ‘पख्तूनों' का उल्लेख पुरू (ययाति के कुल के) कबीले के सहयोगियों के रूप में हुआ है।
जिन नदियों को आजकल हम आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरुद आदि नामों से जानते हैं, उन्हें प्राचीन भारतीय लोग क्रमश: वक्षु, कुभा, कुरम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे।
जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कंधार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शां, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में क्रमश: कुभा या कुहका, गंधार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर (पेशावर), सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था।
महाभारत में गांधारी के देश के अनेक संदर्भ मिलते हैं। हस्तिनापुर के राजा संवरण पर जब सुदास ने आक्रमण किया तो संवरण की सहायता के लिए जो ‘पस्थ' लोग पश्चिम से आए, वे पठान ही थे।
छांदोग्य उपनिषद, मार्कंडेय पुराण, ब्राह्मण ग्रंथों तथा बौद्घ साहित्य में इसका विस्तार से वर्णन पढ़कर लगता है कि हिन्दुओं का मूल स्थान तो सिन्धु के आसपास का क्षे‍त्र ही है। यदि अफगानिस्तान को अपने स्मृति-पटल से हटा दिया जाए तो भारत का सांस्कृतिक-इतिहास लिखना असंभव है।
चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि सन् 383 से लेकर 810 तक अनेक बौद्घ ग्रंथों का चीनी अनुवाद अफगान बौद्घ भिक्षुओं ने ही किया था। बौद्घ धर्म की ‘महायान' शाखा का प्रारंभ अफगानिस्तान में ही हुआ। आजकल हम जिस बगराम हवाई अड्डे का नाम बहुत सुनते हैं, वह कभी कुषाणों की राजधानी था। उसका नाम था कपीसी।
पुले-खुमरी से 16 किमी उत्तर में सुर्ख कोतल नामक जगह में कनिष्क-काल के भव्य खंडहर अब भी देखे जा सकते हैं। इन्हें आजकल ‘कुहना मस्जिद' के नाम से जाना जाता है। पेशावर और लाहौर के संग्रहालयों में इस काल की विलक्षण कलाकृतियां अब भी सुरक्षित हैं।
अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों में अनेक मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष मिलते हैं। काबुल के आसामाई मंदिर को 2,000 साल पुराना बताया जाता है। आसामाई पहाड़ पर खड़ी पत्थर की दीवार को ‘हिन्दूशाहों' द्वारा निर्मित परकोटे के रूप में देखा जाता है।
काबुल का संग्रहालय बौद्घ अवशेषों का खजाना रहा है। अफगान अतीत की इस धरोहर को पहले इस्लामिक मुजाहिदीन और अब तालिबान ने लगभग नष्ट कर दिया है। बामियान की सबसे ऊंची और विश्वप्रसिद्घ बुद्घ प्रतिमाओं को भी उन्होंने लगभग नष्ट कर दिया।
यह आश्चर्य की बात है कि इन हारते हुए ‘हिन्दूशाही' राजाओं के बारे में अरबी और फारसी इतिहासकारों ने तारीफ के पुल बांधे हुए हैं। अल-बेरूनी और अल-उतबी ने लिखा है कि हिन्दूशाहियों के राज में मुसलमान, यहूदी और बौद्घ लोग मिल-जुलकर रहते थे। उनमें भेदभाव नहीं किया जाता था।
इन राजाओं ने सोने के सिक्के तक चलाए। हिन्दूशाहों के सिक्के इतने अच्छे होते थे कि सन् 908 में बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुक्तदीर ने वैसे ही देवनागरी सिक्कों पर अपना नाम अरबी में खुदवाकर नए सिक्के जारी करवा दिए।
मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार हिन्दूशाही की लूट का माल जब गजनी में प्रदर्शित किया गया तो पड़ोसी मुल्कों के राजदूतों की आंखें फटी की फटी रह गईं। भीमनगर (नगरकोट) से लूट गए माल को गजनी तक लाने के लिए ऊंटों की कमी पड़ गई।
महमूद गजनी को सत्ता और लूटपाट के अलावा इस्लाम का नशा भी सवार था इसीलिए वह जीते हुए क्षेत्रों के मंदिरों, शिक्षा केंद्रों, मंडियों और भवनों को नष्ट करता जाता था और स्थानीय लोगों को जबरन मुसलमान बनाता जाता था।
आज वे सभी अफगानी हिन्दू अब मुसलमान हैं। यह बात अल-बेरूनी, अल-उतबी, अल-मसूदी और अल-मकदीसी जैसे मुस्लिम इतिहासकारों ने भी लिखी है।
-एजेंसी