25.06.1975 के दिन लोकतंत्र पर लगे दाग को ढोते हुए हमें 39 साल हो गये मगर मेरे बचपन की वो स्मृतियां आज भी ज़हन में बराबर कौंध रही हैं कि किस तरह से प्रभावशाली लोग भी घरों में छुपने को विवश हुए जा रहे थे। चारों तरफ अफरातफरी मची थी।
तब छह साल की उम्र में मैं अपने आसपास होने वाली हलचलों को सिर्फ देख सकती थी मगर तब मैं इतनी छोटी थी कि उसे महसूस कर पाना मेरे दिमाग के पार था। बस घर की बालकनी में बैठी गली में पुलिस को देखकर भागती भीड़, दौड़ते लोगों में से कुछेक को पकड़ कर लेजाते पुलिसवाले अंकल...मां की किसी को कुछ ना बताने की पक्की हिदायत के संग ऊपर से झांकती मैं भी पुलिस को देखकर नीचे को झुक जाती, छुप जाती...। कभी ये छुपनछुपाई वाला खेल लगता तो कभी बड़ा अजीब सा ...कि हम घर में...कैद से ये कौन सा खेल खेल रहे हैं।
रात को जो एकाध बल्व रोशनी के लिए जलाकर छोड़ दिया जाता था, उसे भी मां नहीं जलाती थीं।
'क्यों नहीं जलाती हो वो आंगन के बाहर वाला बल्व, पूछने पर वो हरबार एक ही बात कहतीं कि तेरे 'ताऊ जी' को कुछ डाकू ढूढ़ रहे हैं, जिन्होंने पुलिस की वर्दी पहनी हुई है, वो घर घर जाकर पूछ रहे हैं कि ताऊ जी कहां हैं, अगर वो रोशनी देखेंगे तो ताऊ जी को पकड़ ले जायेंगे ना, इसीलिए बल्व अभी नहीं जलायेंगे।' जब बड़ी हुई तो जाना कि जिस घर में हम रहते थे वो जनसंघियों का घर था जिसके मालिक बड़े ताऊ जी थे, जिन्होंने मेरे पिता के व्यवहार से खुश होकर रहने को दिया था।
पापा सरकारी डॉक्टर थे बरेली के पचपेड़ा हॉस्पीटल में, अब बहुत ज्यादा तो याद नहीं कुछ । कुछ भूली सी स्मृतियां हैं जैसे कि एक नदी बहती थी घर के पास में जिसको पहले नाव से पार करते थे, फिर हॅस्पीटल आता था, बड़ी खूबसूरत सी जगह थी, फिल्मी स्टाइल वाली...बड़ा सा कंपाउंड जिसमें घुसते ही बाईं ओर बहुत ही सुंदर नन्हीं सी चारदीवारी से सजा हुआ सा एक कुंआ था जिसमें हल्की गिरारी वाली बाल्टी झूलती रहती थी। कंपाउंड के दाईं ओर हॉस्पीटल के लिए तीन कमरे दिए गये थे। कंपाउंड के ठीक बीच में बेहद खूबसूरत मंदिर था, मंदिर में कौन से भगवान विराजे थे... अब ये तो ठीक ठीक ठीक याद नहीं मगर उसकी घंटियों से मुझे लटकना अच्छा लगता था। हम वहां कुल डेढ़ साल ही रह पाये और इसी दौरान वो घटनायें घटीं जिन्हें अब हम इमरजेंसी के नाम से जानते हैं , उनकी भयावहता की बात करते हैं क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसी घटनायें एक दाग होती हैं ...बस।
उन दिनों की स्मृतियों में तैर जाते हैं वो दिन कि कैसे पुलिस से बचने के लिए मां के द्वारा वो अटपटी सी हरकतें किया जाना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था मुझे।ये भी अच्छा नहीं लगता था कि मेरे डॉक्टर पिता रात रात भर हॉस्पीटल में रहें ।मां बताती थीं कि पापा को सीएमओ से आदेश मिला था कि कम से कम डेढ़ सौ केस तो हर रोज करने ही हैं।केस का मतलब लोगों की नसबंदी कर देना था जो तब हम बच्चों की समझ से परे था कि बिना बीमारी के ऑपरेशन क्यों किये जा रहे हैं सबके।खैर... धरपकड़ के इसी माहौल में मंदिर के पुजारी बाबा को भी पकड़ लिया गया। बाद में घर में सब कानाफूसी कर रहे थे कि बाबा की भी नसबंदी करा दी गई। पापा मां को बता रहे थे कि हम क्या करें पुलिस का पहरा रहता है ,वो ही पकड़ कर लाते हैं और हमें तो हर हाल में ऑपरेशन करना होता है। छोटी सी बच्ची मैं नहीं जानती थी कि क्यों पूरा लगभग डेढ़ साल से ज्यादा का वक्त पापा का ऐसे बीता, ये तब ही जाना जब बड़ी हुई कि पापा जैसे और भी लोग थे जो सरकारी आदेशों को मानने के आगे विवश थे।
बहरहाल अब कह सकती हूं कि पता नहीं वो कैसे कैसे दिन थे और कैसी कैसी जागती सी रातें कि आज भी हम उन काली स्मृतियों को भुला नहीं पा रहे हैं।
आज 39 साल बाद भी मुझे वो सारे सीन याद हैं जस की तस।
- अलकनंदा सिंह
तब छह साल की उम्र में मैं अपने आसपास होने वाली हलचलों को सिर्फ देख सकती थी मगर तब मैं इतनी छोटी थी कि उसे महसूस कर पाना मेरे दिमाग के पार था। बस घर की बालकनी में बैठी गली में पुलिस को देखकर भागती भीड़, दौड़ते लोगों में से कुछेक को पकड़ कर लेजाते पुलिसवाले अंकल...मां की किसी को कुछ ना बताने की पक्की हिदायत के संग ऊपर से झांकती मैं भी पुलिस को देखकर नीचे को झुक जाती, छुप जाती...। कभी ये छुपनछुपाई वाला खेल लगता तो कभी बड़ा अजीब सा ...कि हम घर में...कैद से ये कौन सा खेल खेल रहे हैं।
रात को जो एकाध बल्व रोशनी के लिए जलाकर छोड़ दिया जाता था, उसे भी मां नहीं जलाती थीं।
'क्यों नहीं जलाती हो वो आंगन के बाहर वाला बल्व, पूछने पर वो हरबार एक ही बात कहतीं कि तेरे 'ताऊ जी' को कुछ डाकू ढूढ़ रहे हैं, जिन्होंने पुलिस की वर्दी पहनी हुई है, वो घर घर जाकर पूछ रहे हैं कि ताऊ जी कहां हैं, अगर वो रोशनी देखेंगे तो ताऊ जी को पकड़ ले जायेंगे ना, इसीलिए बल्व अभी नहीं जलायेंगे।' जब बड़ी हुई तो जाना कि जिस घर में हम रहते थे वो जनसंघियों का घर था जिसके मालिक बड़े ताऊ जी थे, जिन्होंने मेरे पिता के व्यवहार से खुश होकर रहने को दिया था।
पापा सरकारी डॉक्टर थे बरेली के पचपेड़ा हॉस्पीटल में, अब बहुत ज्यादा तो याद नहीं कुछ । कुछ भूली सी स्मृतियां हैं जैसे कि एक नदी बहती थी घर के पास में जिसको पहले नाव से पार करते थे, फिर हॅस्पीटल आता था, बड़ी खूबसूरत सी जगह थी, फिल्मी स्टाइल वाली...बड़ा सा कंपाउंड जिसमें घुसते ही बाईं ओर बहुत ही सुंदर नन्हीं सी चारदीवारी से सजा हुआ सा एक कुंआ था जिसमें हल्की गिरारी वाली बाल्टी झूलती रहती थी। कंपाउंड के दाईं ओर हॉस्पीटल के लिए तीन कमरे दिए गये थे। कंपाउंड के ठीक बीच में बेहद खूबसूरत मंदिर था, मंदिर में कौन से भगवान विराजे थे... अब ये तो ठीक ठीक ठीक याद नहीं मगर उसकी घंटियों से मुझे लटकना अच्छा लगता था। हम वहां कुल डेढ़ साल ही रह पाये और इसी दौरान वो घटनायें घटीं जिन्हें अब हम इमरजेंसी के नाम से जानते हैं , उनकी भयावहता की बात करते हैं क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसी घटनायें एक दाग होती हैं ...बस।
उन दिनों की स्मृतियों में तैर जाते हैं वो दिन कि कैसे पुलिस से बचने के लिए मां के द्वारा वो अटपटी सी हरकतें किया जाना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था मुझे।ये भी अच्छा नहीं लगता था कि मेरे डॉक्टर पिता रात रात भर हॉस्पीटल में रहें ।मां बताती थीं कि पापा को सीएमओ से आदेश मिला था कि कम से कम डेढ़ सौ केस तो हर रोज करने ही हैं।केस का मतलब लोगों की नसबंदी कर देना था जो तब हम बच्चों की समझ से परे था कि बिना बीमारी के ऑपरेशन क्यों किये जा रहे हैं सबके।खैर... धरपकड़ के इसी माहौल में मंदिर के पुजारी बाबा को भी पकड़ लिया गया। बाद में घर में सब कानाफूसी कर रहे थे कि बाबा की भी नसबंदी करा दी गई। पापा मां को बता रहे थे कि हम क्या करें पुलिस का पहरा रहता है ,वो ही पकड़ कर लाते हैं और हमें तो हर हाल में ऑपरेशन करना होता है। छोटी सी बच्ची मैं नहीं जानती थी कि क्यों पूरा लगभग डेढ़ साल से ज्यादा का वक्त पापा का ऐसे बीता, ये तब ही जाना जब बड़ी हुई कि पापा जैसे और भी लोग थे जो सरकारी आदेशों को मानने के आगे विवश थे।
बहरहाल अब कह सकती हूं कि पता नहीं वो कैसे कैसे दिन थे और कैसी कैसी जागती सी रातें कि आज भी हम उन काली स्मृतियों को भुला नहीं पा रहे हैं।
आज 39 साल बाद भी मुझे वो सारे सीन याद हैं जस की तस।
- अलकनंदा सिंह