शनिवार, 28 दिसंबर 2013

जीते जी मक्‍खियों को निगलती पीढ़ी

हमारे यहां अकसर कहा जाता है कि किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्धि पाने के लिए जितनी मेहनत करनी होती है, उससे कहीं ज्‍यादा उसे बरकारार रखने में जरूरी होती है लेकिन कई बार ऐसा देखा गया है कि बरकरार रखने वाली यही चुनौती उन पीढ़ियों के लिए बोझ बन जाती है जो इन विरासतों की गवाह बनती हैं। फिर उनके लिए इस तरह प्रसिद्धि पाने और उसे बनाये रखने के लिए स्‍थापित नियमों में फेरबदल की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती...पीढ़ियां फिर भी इन चुनौतियों से जूझ रही हैं क्‍योंकि जीवन है तो आशा है और आशा है तो चुनौतियां भी अवश्‍य बनी ही रहती हैं।
अब देखिए न ...लगभग पूरे देश में ही चल निकली कांग्रेस विरोधी लहर की रफ्तार धीमी करने के लिए, पार्टी के 'युवराज' और मोदी द्वारा दिये गये नये नाम 'शहजा़दे' के वज़न को ढोते हुए राहुल गांधी पिछले दिनों जब मुज़फ्फ़रनगर के दंगापीड़ितों से मिलने पहुंचे तो तमाम राजनैतिक बातों, नारों और सांत्‍वनाओं के बीच उनके चेहरे पर एक 'बेचारगी' झलक रही थी। ये बेचारगी किसी गरीब की नहीं थी, बल्‍कि गरीबों और असहायों के सामने 'बड़े होने' की लाचारगी से उपजी 'कुछ ना' कर पाने की थी।
दरअसल, राजनीति ने राहुल गांधी को लेकर आमजन के बीच कुछ ऐसी धारणाएं स्‍थापित  कर दी हैं कि हम इनका नाम आते ही एक भ्रष्‍टाचारी पार्टी के किसी गेम खेलने वाले विलेन की तस्‍वीर को सामने पाते हैं या फिर देश के अहम मुद्दों पर चुप्‍पी साधे तमाशबीन नेता के तौर पर आंकने लगते हैं और इस सबके बीच जो कुछ घटित होता है उसे हम एक रटे रटाये अंदाज़ में देखते हैं कि वो सोनिया गांधी के बेटे हैं..फिलहाल सत्‍ताधारी पार्टी के सबसे ताकतवर नेता हैं...आदि आदि।
बेशक, दागी सांसदों को लेकर संसद के रुख पर अध्‍यादेश को नॉनसेंस कहने वाले,पार्टी का कुनबा बढ़ाने के लिए भी नई-नई तकनीकें आजमाने वाले, और अब आदर्श सोसाइटी घोटाले की जांच रिपोर्ट को खारिज करने वालों पर सवालिया निशान लगाकर राहुल गांधी ने बार-बार यह जताने की कोशिश की है कि सरकार जिस तरह काम करती रही है वह बिल्‍कुल भी सही नहीं है परंतु उनके कहने की टाइमिंग गड़बड़ रहती है और वो अपने शब्‍दों को जाया करते दिखते हैं। यह महज इसलिए कि विरासत की राजनीति को ढोने की मजबूरी उन्‍हें ''अपनी तरह'' से कुछ करने नहीं दे रही।
एक दूसरा उदाहरण हैं उत्‍तर प्रदेश की कमान संभालने वाले मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव का। मुलायम सिंह के स्‍थापित नियम अखिलेश के राजनैतिक कॅरियर को पूरी तरह ज़मींदोज करने पर उतारू हैं।अपने बेटे को मुलायमसिंह अभी तक मुख्‍यमंत्री मान ही नहीं पाये ।अखिलेश के हर कदम पर उन्‍हें मंच से सरेआम डांट देना ,उनकी आलोचना करना, जबरन उनकी टीम पर अपनी पसंद थोपना, कुछ ऐसे बिंदु हैं जो अखिलेश की लाचारगी को बढ़ा ही रहे हैं, काम करना तो दूर वो अपनी तरह से सोच भी नहीं पा रहे वरना क्‍या कारण है कि जो अखिलेश ,पद की शपथ लेने के बाद जोश से लबरेज़ दिखते थे आज वो हर बात पर खुंदक निकालते नज़र आते हैं।
सोनिया गांधी हों या मुलायम सिंह..... या ऐसे ही दूसरे राजनैतिक धुरंधर, सभी को समझ लेना चाहिए कि राजनीतिक विरासतों को ढोने का वक्‍त अब बीत चुका है। यह नये प्रयोगों का दौर है। जब हम आज की पीढ़ी को स्‍कूलों से लेकर कॅरियर तक अपना रास्‍ता खुद चुनने की वकालत करते हैं तो राजनीति में इससे परहेज क्‍यों ? राजनीति तो खालिस पब्‍लिक से जुड़ा ऐसा मामला है, जो कॅरियर कम और जनसेवा अधिक है। ''आप'' की दिल्‍ली में जीत एक नये दौर की कहानी रच गई है । राहुल गांधी और अखिलेश यादव भी इस परिवर्तन को भलीभांति समझ रहे हैं मगर वो विरासत की राजनीति ढोने पर मजबूर हैं और दूध में पड़ी मक्‍खी को जीते जी निगलने के लिए सिर्फ इसलिए विवश हैं क्‍योंकि वह उन राजनैतिक हस्‍तियों (व्‍यापारियों) के  उत्‍तराधिकारी  हैं  जिन्‍होंने अपने बच्‍चों को भी नहीं बख्‍शा।
- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

कश्‍मीर में मुस्लिम महिलाएं दोबारा कर सकेंगी निकाह

श्रीनगर। 
जम्मू कश्मीर में पिछले कई सालों से गायब अपने पतियो का इंतजार कर रही महिलाओं को मुस्लिम धार्मिक गुरूओं ने बड़ी राहत दी है। उन्होंने गुरूवार को दिए एक फतवे में उन महिलाओं को दोबारा निकाह (शादी) करने की इजाजत दे दी है जिनके पति पिछले चार या उससे अधिक सालों से गायब हैं। दो दशक पहले घाटी में आतंक पनपना शुरू हुआ था जिसके कारण कई महिलाओं के पति गायब हो गए थे। ये धार्मिक धर्मगुरू ऎसी महिलाओं के दोबारा निकाह करने को लेकर आयोजित एक समारोह में हिस्सा लेने आए थे।
समारोह का आयोजन करने वाले गैर सरकारी संगठन "एहसास" के प्रमुख बशीर अहमद डार ने कहा कि धार्मिक गुरू इस बात के समर्थन में थे कि राज्य में पिछले दो दशक में आतंकी घटनाओं के कारण जिन महिलाओं के पति इस दौरान गायब हुए, वे गायब होने के चार साल बाद दोबारा निकाह कर सकेंगी।
मामले को लेकर तीन चरणों में चली मंत्रणा के बाद धार्मिक गुरू इस बात पर राजी हो गए कि जो महिलाएं दोबारा निकाह करना चाहती हैं, वे गायब होने के चार साल बाद ऎसा कर सकती हैं। ऎसे मामलों में संपत्ति को लेकर कोई भी फैसला पवित्र कोरान और हदीश में दिए गए नियमों के अनुसार लिया जाएगा।
देश में लागू मुस्लिम मैरिज एक्ट 1939 के तहत मुस्लिम कानून के तहत जिस महिला ने निकाह किया है, वह तलाक के लिए अर्जी दायर कर सकती है अगर उसका पति चार या उससे अधिक समय से गायब है। इस फतवे का महिलाओं ने खुलकर समर्थन किया है।

रविवार, 22 दिसंबर 2013

महिलाओं की तस्‍करी का रेड अलर्ट

देश में छोटी बच्चियों से लेकर बड़ी लड़कियों को देह व्यापार के दलदल में झोंकने का गोरखधंधा जोरों पर है, वो अलग बात है कि दिल्ली जैसे कुछ बड़े शहरों में देह-व्यापर को सरकार ने कानूनी तौर पर "रेड अलर्ट" घोषित कर रखा है, लेकिन एक चौंकानी वाली रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि बड़ी उम्र की महिलाओं को तस्करी के जरिए देह व्यापार के हवाले किया जा रहा है।

मजदूर तबका लगाता है बोली
राष्ट्रीय महिला आयोग ने पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार में महिला तस्करी के मामलों पर संज्ञान लेकर एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें लड़कियों और 40-45 साल की अविवाहित महिलाओं तस्करी होती है, जिन्हें मजदूर वर्ग बोली लगाकर खरीदकर जिंदगी भर चाहरदीवारी की जंजीरों में गुलाम बनाकर रखता है, जिसमें यह औरत घर के काम करने से लेकर घर के कई मर्दो के साथ शारीरिक संबध बनाने को भी मजबूर होती है।

काम के बदले धोखा
महिला आयोग की रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया है इन महिलाओं और लड़कियों की गरीबी का फायदा उठाकर इन्हें काम देने की बात कहकर इनका 20-25 हजार में सौदा कर दिया जाता है, इन्हें खरीदने वाले लोग घर में कैद करके हवश का शिकार बनाते हैं, जब ये महिलाएं मौका मिलने पर पुलिस से शिकायत करती हैं, तो पुलिस भी कोई सहयोग नहीं करती है। तस्करी के चंगुल में फंसने वाली यह ज्यादातर महिलाएं अनूसूचित या जनजाति से ताल्लुक रखती हैं।


रीति-रिवाज भी जिम्मेदार
महिला आयोग ने अपनी इस रिपोर्ट में बंगाल के कई क्षेत्रों शादी की पारंपरिक रीति- रिवाजों को तस्करी के लिए जिम्मेदार बताया है, जिसमें शादी के बाद दूल्हा- दुल्हन लापता हो जाते हैं, और कई बार ऎसे मामलों में पति ही अपनी पत्नी का सौदा कर देता है। लड़की के माता-पिता गुमशुदगी की रिपोर्ट भी दर्ज कराते हैं, लेकिन पुलिस का लचर रवैया, शेल्टर होम्स का अभाव, हेल्प लाइन नंबर के ठीक से काम नहीं करने के कारण महिला तस्करी को रोकने में बड़ी बाधा है।

सख्त कानून की मांग
देहव्यापार के लिए लड़कियों और महिलाओं की तस्करी पर शिकंजा कसने के लिए महिला आयोग ने इमॉरल ट्रैफिकिंग प्रीवेंशन एक्ट 1956 को सख्त बनाने की मांग की है, और आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में घर के बड़े सदस्यों और लड़कियों को कार्यक्रमों के जरिए भी जागरूक करने की मांग की है। जांच में इस बात का खुलासा हुआ है कि एससी-एसटी प्रीवेंशन ऑफ एट्रोसिटी एक्ट 1989 के तहत कई मामलों में पुलिस केस भी दर्ज नहीं करती है, इससे महिला तस्करों को और बढ़ावा मिल रहा है। -एजेंसी

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

भारत में क्रिस्टी ने की पहली नीलामी


ब्रिटिश नीलाम घर क्रिस्टी ने गुरुवार को अपने इतिहास में पहली बार भारत में नीलामी की। यह सूचना स्थानीय आम सूचना साधनों द्वारा दी गयी। नीलामी में शामिल की गयी सबसे महंगी चीज़ भारतीय अमूर्त चित्रकार वासुदेव गायतोंडे द्वारा बनायी गयी एक शीर्षकहीन तसवीर रही जो करीब 33 लाख डालर में बिक गयी। नीलामी मुंबई में हुई।

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ग्रहक का नाम नहीं बताया गया। नीलाम की गयी दूसरी सबसे महंगी चीज़ तैय्यब मेहता का चित्र है जो 27 लाख डालर में बिक गया। इस नीलामी का विषय 20वीं सदी की भारतीय कला है। कुल मिलाकर उस में 83 कलाकृतियाँ पेश की गयीं जिन में पेंटिंगें, स्केच और मूर्तियाँ शामिल हैं। उनमें रवीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृतियाँ भी शामिल हैं जिनको भारत की राष्ट्रीय संपदा माना जाता है।



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_ Alaknanda singh

नई पुस्‍तक: अजय- रोल ऑफ दी डाइस

भारत के महान महाकाव्य का दूसरा पक्ष भी हो सकता है इसको अपनी कल्‍पना व तथ्‍यों को नए रूप में प्रस्तुत करती है अजय।
आनन्द नीलाकान्तन की दूसरी पुस्तक - अजय पार्ट 1- रोल ऑफ दि डाइस, जय या सामान्य रूप से विख्यात महाभारत  की कहानी है लेकिन इसमें कुछ अलग बात है। इतिहास को विजेताओं द्वारा लिखा जाता है और हारने वाली पक्ष को निंदा सहनी पड़ती है और उसे चुप करा दिया जाता है। अजय- रोल ऑफ डाइस  में सुयोधन (जिसे तिरस्कृत रूप से दुर्योधन के रूप में जाना जाता है)- हस्तिनापुर के युवराज, कौरव वंश, उसके समर्थक जो कि अपने-अपने विश्वास के अनुसार मृत्यु तक लड़ते रहे, के पक्ष को मजबूती से पेश किया गया है।
पुस्तक की शुरूआत कौरवों और पांडवों के बाल्यकाल से होती है जिस दौरान प्रत्येक बालक द्वारा अपने अपने स्वभाव और कौशल को दिखाया जाता है, जिन्हें भावी घटनाओं में बड़ी भूमिकाएं निभानी हैं। भीम के पास शारीरिक और बाहुबल है लेकिन उसके पास दिमाग की कमी है। सुयोधन, मूर्खतापूर्ण दुस्साहस तक जोशीला तथा जिद्दी है। ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठर वह ब्राह्मण विचारधाराओं और मान्यताओं के रंग में रंगा हुआ था। राजकुमारों के बड़े होने के साथ साथ हस्तिनापुर के राजमहल में साजिश और भी गहरी होती चली जाती है, इसीकी छाया में उनकी शक्तिशाली माताओं की द्वन्द्वात्मक महत्वकाक्षाएं तथा शासक के प्रभुत्वशाली प्रतिनिधि के रूप में काम करने वाले भीष्म द्वारा लागू कड़ी क्षत्रिय आचार संहिताएं भी निहित थीं। निहित स्वार्थों के हाथों में भाग्य के मोहरे, चचेरे भाई तथा उनके संगी साथी, अपरिहार्य रूप से परस्पर विंध्वंसकारी द्वन्द्व तथा परम अराजकता की ओर अग्रसर होते हैं।
गुरू द्रोणाचार्य को आमतौर पर ब्राह्मण वंश के महान योद्धा के रूप में अभिकल्पित किया जाता है परंतु हमें यहां पर उसकी कुछ मूलभूत कमजोरियों या कमियों तथा उसकी कठोर विचारधारायें  भी देखने को मिलती हैं जिनके कारण वह कमजोर तथा घमंडी दोनों ही बन जाता है।हमारे देश में एकलव्य की कहानी तथा द्रोण के शिष्य बनकर एक कुशल धनुर्धर बनने की उसकी ललक से सभी परिचित हैं। अंतत:, द्रोण उसे गुरूदक्षिणा  के रूप में अपना अंगूठा काट कर देने के लिए कहते हैं। आमतौर पर इस बात का संबंध स्थापित नहीं किया जाता है कि द्रोण द्वारा इस भयावह अनुरोध को क्यों किया गया था। उसने कुन्ती से यह वादा किया था वह अर्जुन को इस धरा का सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाएगा। एकलव्य, जो कि एक गरीब निषाद (निम्न जाति) से संबंधित था, उसके रास्ते का रोड़ा था। कुरूओं ने, द्रोण की जीविका तथा उसके पुत्र के भविष्य को अपने हाथों में रखा था। उनकी कृपाओं के कारण ही द्रोण ने एकलव्य की प्रतिभा का हनन किया और उसे क्षत्रिय राजकुमार अर्थात अर्जुन को सौंप दिया।
आनन्द नीलकान्तन ने महाभारत  काल की सोच, जीवनशैली तथा जातिगत प्रभुत्व को बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है जिसमें दक्षतापूर्वक युद्ध से पूर्व घटनाओं तथा चुनौतियों की श्रृंखलाओं को दक्षतापूर्वक बुना गया है जो अंतत: एक नाटकीय रूप से दुखद घटना से सहबद्ध हो जाती हैं। महाभारत  के परम्परागत व्याख्याकार उन तथ्यों की उपेक्षा करते हैं जिन्हें लेखक ने कुशलतापूर्वक अपने व्याख्यान में शामिल किया है; अर्जुन वह पहला व्यक्ति नहीं था जिसने द्रौपदी के स्वयम्बर  में मछली की आंख में तीर मारा था, बल्कि ऐसा कर्ण, अंग के राजा ने किया था; कृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा के दिल में सुयोधन के प्रति नफरत तथा अर्जुन के प्रति प्रेम पैदा किया था जिसके कारण उसने सुयोधन को छोड़कर कर अर्जुन से शादी की थी; वैदिक कानून के अनुसार एक महिला चार पुरूषों से शादी कर सकती है लेकिन इसके बाद उसे वेश्या माना जाता था। इसके ठीक उलट पांडवों के बीच में शत्रुता को रोकने के लिए कुन्ती ने इस कानून के प्रति आंखें मूंद लीं तथा द्रौपदी को पांच भाइयों की एक पत्नी बनने के लिए मजबूर किया गया।
पुस्तक में सुयोधन द्वारा उन मानकों के प्रति प्रश्नों का उल्लेख किया गया है जिनमें कुछ लोगों के उत्थान तथा शेष लोगों को निर्धनता की ओर धकेल दिया जाता है। उन्हें वरिष्ठ जातियों की मनमानियों के आधार पर जीवित रहने के लिए मजूबर किया जाता है। एक विरल तथा पारदर्शी रूप से पुस्तक में उसे दृढ़ प्रतिबद्धताओं को मानने वाला व्यक्ति दर्शाया गया है। यहां तक कि जब अर्जुन द्वारा उसके पहली प्रेमिका अर्थात सुभद्रा को छीन लिया जाता है, वह विरोध नहीं करता है तथा इस बात को समझता है कि सुभद्रा ऐसा चाहती होगी न कि उसके चचेरे भाई की ऐसी चाहत रही होगी। सुयोधन को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया है जो कि दृढ़तापूर्वक इस बात पर यकीन करता है कि शिक्षा, पुरस्कार तथा मान्यता का आधार गुण होने चाहिए न कि जाति। वह परम्परागत व्यहार के युग में अकेला ही अपनी बात को कहता है। पुस्तक के चरम बिन्दु पर, शिक्षा अध्ययन की समाप्ति पर, जब अर्जुन जाति के आधार पर कर्ण से द्वन्द्व करने के लिए इंकार कर देता है, तो इसी सुयोधन द्वारा हर मानक को तोड़ा जाता है और वह कर्ण को अर्जुन के समकक्ष बनाने के लिए उसे अंग देश का सम्राट नियुक्त कर देता है जिसके कारण उसे कुलीन वर्ग तथा पुरोहितों दोनो की ही नाराज़गी का सामना करना पड़ता है
शकुनि, जो गंधार का राजकुमार है तथा पारिवारिक लड़ाई-झगड़े पुरोधा है। उसे आमतौर पर परम्परागत व्याख्याकारों द्वारा न उठाई गई अनेक बुराईयों के साथ प्रस्तुत किया गया है। जीवन्तता के साथ, हम यह देखते हैं कि किस प्रकार से भारत को नष्ट करके उसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रहती है और उसके द्वारा उठाए गए हर कदम के पीछे यही बदले की आग काम करती है कि किस प्रकार से भीष्म ने उसके स्वयं के देश गंधार को नष्ट किया था, उसकी बहन राजकुमारी गंधारी का अपहरण किया था ताकि उसे हस्तिनापुर के नेत्रहीन राजकुमार धृतराष्ट्र की पत्नी बनाया जा सके। वह बहुत ही चतुर तथा समझदार है, और वह सुयोधन को युधिष्ठर, जो कि जुआ खेलने का शौकीन है, को द्युतक्रीड़ा में चुनौती देने का सुझाव देता है। उसके पिता की हड्डियों से बने हेरफेर किए जा सकने वाले पांसों के साथ खेलते हुए, शकुनि द्वारा कौरवों की तरफ से तब तक जीत हासिल की जाती है, जब तक कि पांडव अपना सबकुछ –जमीन, सम्पत्ति, जाति तथा यहां तक कि उन सभी की एक पत्नी द्रौपदी को भी नहीं हार जाते हैं। जब द्रौपदी को कौरव वंश के सामने लाए जाने का आदेश दिया जाता है, तो पुस्तक यहीं समाप्त होती है जबकि द्रौपदी का भाग्य अब कौरवों के हाथ में होता है।

यही समीक्षात्‍मक व्याख्या ''अजय'' बुक के दूसरे पार्ट अर्थात् 'राइज ऑफ काली' के साथ जारी रहेगी, संभवत: जिसे 2014 में जारी किया जाना है।
Book- AJAYA- Role of the Dice
Author- Anand Neelkantan
Publication- Leadstart publication

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

कबूतरों की तरह आंख क्‍यों मूंदे रहें हम ?

कल पूरा दिन 16 दिसंबर के बलात्‍कार कांड पर जिस तरह कैंडल मार्च और बयानबाजी की होड़ सी लगी रही उसने महिला सुरक्षा से संबंधित एक साथ कई बिन्‍दुओं पर सोचने को विवश कर दिया। मैं पूरे दिन, दिन के उजाले में निकाले जाने वाले कैंडल मार्च देखती रही, उनमें घटना की गंभीरता से कतई अनजान हंसते-खेलते लोगों को देखा, इलेक्‍ट्रोनिक मीडियाई बहस में शामिल होने वाली शख्‍सियतों को देखा, अपने गांव से लेकर दिल्‍ली तक मकान, रोजगार व अन्‍य सुविधाभोगी वस्‍तुओं को राज्‍य व केंद्र सरकार की अनुकंपा से जुटाने वाले मां- बाप के आंसुओं में सराबोर कहानी देखी व सुनी...बड़ा अजीब था सब-कुछ, एकदम घालमेल हुए जा रहे थे सारे सीन।
इस पूरे दिन के आक्रोष और अपनी-अपनी तरह से भावनाओं को कैश करते लोगों के बीच गायब होती जा रहीं वो घटनायें भी मुझे साल रहीं थीं जिनका ग्राफ मेरे सामने था, यह बताने के लिए कि आज हम किसी बलात्‍कार को किस तरह लेते हैं, यह मात्र एक घटना बनता है या इससे भी इतर कुछ और सोचने पर बाध्‍य करता है, क्‍या यह लिंगानुपात के गड़बड़ाने का ख़ामियाजा है जिसे औरतें-लड़कियां चुका रही हैं या कानूनी और सामाजिक जवाबदेही को आईना दिखा रहा था।  
इसी संदर्भ में एक रिपोर्ट पढ़ रही थी जिसे न्‍यूज एजेंसी रायटर्स के माध्‍यम से हाल ही में लंदन की कानूनी सहायता देने वाली संस्‍था ''TrustLaw (www.trust.org/trustlaw)'' संस्‍था द्वारा 'महिला सुरक्षा' की बावत, एक सर्वे के रूप में जारी किया गया।
इसमें ''महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक'' देशों की श्रेणी में भारत को  अफगानिस्‍तान- कांगो- पाकिस्‍तान के बाद चौथे नंबर पर रखा गया है। सर्वे का आधार भ्रूण हत्‍या से लेकर जघन्‍य बलात्‍कार तक होने वाले अपराधों की संख्‍या को बनाया गया है।
गौरतलब है कि TrustLaw ने सिर्फ सरकारी व अधिकृत आंकड़ों को ही अपने सर्वे का आधार का आधार बनाया है। इनमें वो आंकड़े और हकीकतें शामिल नहीं हैं जो तमाम कारणों से सरकारी फाइलों तक पहुंच ही नहीं सके। TrustLaw ने पूर्व गृहसचिव मधुकर गुप्‍ता से प्राप्‍त अधिकृत जानकारी के आधार पर दर्ज़ किया कि करीब 100 मिलियन (दस करोड़) महिलायें प्रतिवर्ष ह्यूमन ट्रैफिकिंग में झोंक दी जाती हैं तो दूरदराज़ के गांवों से शहरों में मजदूरी और घरेलू नौकरी का लालच देकर लाई गई तमाम बच्‍चियां और औरतें वेश्‍यालयों के हवाले कर दी जाती हैं, यदि उन्‍हें सामाजिक संगठन छुड़ा भी लें तो उनके ही परिवारीजन उन्‍हें स्‍वीकार नहीं करते । सर्वे रिपोर्ट में बालिग होने से पूर्व ही शादी और भ्रूण हत्‍या के ज़रिये गायब हुई लड़कियां तो पूरी महिला-आबादी का 44.5% बतायी गईं। विश्‍व में हम चाहे कितनी भी तरक्‍की का ढिंढोरा पीट लें मगर इस सर्वे से इतना तो ज़ाहिर हो ही गया कि देश में महिलाओं की स्‍थिति व उनकी सुरक्षा को लेकर विश्‍वभर में हमारी छवि सवालों के घेरे में आ गई है।
नैतिकता की बात तो सामाजिक स्‍तर पर इतना पीछे धकेल दी गई है कि आज घर में ही माता पिता अपने बच्‍चों, खासकर बेटों को, रिश्‍तों की अहमियत नहीं बता पाते। संस्‍कारों की बात को पिछड़ेपन की निशानी और इमोशंस को टैक्‍नोलॉजी के सहारे छोड़ा जाना महिलाओं के लिए जानलेवा बन गया है। अब अकेली निर्भया ही क्‍यों, आसाराम बापू..नारायण साईं...से लेकर तरुण तेजपाल व जज अशोक गांगुलिओं से पीड़ितों की...लंबी फेहरिस्‍त है जिन्‍होंने 'शिकारियों' समेत नैतिकता और समाज के सारे स्‍थापित नियमों का वो चेहरा सामने ला दिया है जिससे घिन आती है। बहरहाल, इसका इलाज भी खुद हम ही ढूढ़ सकते हैं। इसका हल कैंडल मार्च और आंसुओं भरी दासतां से अब आगे बढ़ना चाहिये। बस ।
इसका इलाज ढूंढने के लिए एकबार हमें फिर उस सनातनी दौर में लौटना होगा जिसने धर्म को साथ लेकर बड़े ही वैज्ञानिक और सामाजिक तरीकों से इंसानी मनोदशा का न केवल अध्‍ययन किया बल्‍कि हर समस्‍या का सहज व सरल उपाय भी दिया। सनातन धर्म में निहित संस्‍कारों की बुनियाद को जब से हमने खोखले आदर्श बताकर खारिज करना शुरू किया है तभी से हम सामाजिक विकृतियों के शिकार हो रहे हैं। यकीन न हो तो थोड़ा सा समय निकाल कर उस ओर मुड़कर देखिए.....यक़ीनन सच्‍चाई का अहसास जरूर होगा...और उन खामियों का भी जिनका बड़ा खामियाजा आधी आबादी को भुगतना पड़ रहा है।

- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

गीता जयंती पर विशेष: धर्म संस्‍थापनार्थाय...

कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सग्ङोस्त्वकर्मणि।।
अर्थात्
"तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए  तू कर्मों के फल की इच्‍छा मत कर तथा तेरी कर्म 'न' करने में भी  आसक्ति न हो।।"
इस सहित करीब 700 श्‍लोकों को बोलने में लगभग 4 घंटे का समय  लगता है मगर कृष्‍ण ने अर्जुन को 'साइकिकली कम्‍युनिकेट' करके इसे  महाभारत का अध्‍यात्‍मिक रणवाक्‍य बना दिया जो आज भी अक्षरश:  हमारे जीवन में लागू होता रहता है और जब हम ऐसा नहीं कर पाते तो  अतिक्रमणवादी हो जाते हैं, ये निश्‍चित है। फिर चाहे वह अतिक्रमण  किसी भी स्‍तर पर हो। अतिक्रमण से क्‍लेश और युद्ध का जन्‍म लेना  स्‍वाभाविक है। सो इन विकट होती स्‍थितियों को जनकल्‍याणकारी बनाने  का एक सुनिश्‍चित मार्ग है श्रीमद्भगवद्गीता।
आज के दिन यानि मार्गशीर्ष महीना, शुक्‍लपक्ष की एकादशी (मोक्षदा) को  ऐतिहासिक व पौराणिक दृष्‍टि से महत्‍वपूर्ण श्रीमद्भगवद्‌गीता शब्‍दरूप में  जनकल्‍याण के लिए श्रीकृष्‍ण द्वारा कही गईं। महाभारत की महागाथा में  श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया यह  कर्म-संदेश एक उपनिषद् है जिसमें अलग अलग 11 उपनिषदों का  ज्ञान-मर्म समाया है।
श्रीकृष्‍ण ने जानबूझकर इसकी पृष्ठभूमि युद्धक्षेत्र रखी ताकि सिर्फ अर्जुन  ही नहीं बल्‍कि आज (वर्तमान) तक और आने वाले (भविष्‍य) समय में  भी ये संदेश दिया जा सके कि जीवन की समस्याओं में उलझकर उन  से पलायन करना कायरता है, पुरुषार्थ नहीं। महाभारत के महानायक  अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में हताश  हो जाते हैं और यही हताशा यही अनिश्‍चयकारी व विनाशकारी हो जाती  है। श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन को माध्‍यम बनाकर दरअसल पूरी मानवजाति के  लिए संदेश दिया कि स्‍वकर्म करो, सफलता निश्‍चित है।
श्रीकृष्‍ण कहते हैं, ''पार्थ! अपने कर्म को अपने स्वभाव के अनुसार सरल  रूप से करते रहो, अपनी आत्‍मा के लिए करो। निजस्‍वभाव से किया  गया कर्म प्राकृतिक होगा, और जो प्राकृतिक होगा वह अनिष्‍टकारी हो ही  नहीं सकता। अनिष्‍ट वही करेगा जो अप्राकृतिक हो, जो अप्राकृतिक है  उसके अनैतिक होने की संभावना है और अनैतिकता कभी भी  धर्मस्‍थापना या धर्मपालन नहीं करेगी, ये निश्‍चित है। सो हे योद्धा! तू  निजकर्म कर, युद्ध कर, धर्मस्‍थापन के लिए। स्वाभाविक कर्म करते हुए  बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग मान।''
समस्‍या से भयभीत होने और पलायन करने का अपुरुषार्थकारी काम
जीवन की श्रेष्‍ठता को अनुपयोगी बना देता है और जो अनुपयोगी है उसी  को कर्मशील बनाने के लिए श्रीकृष्‍ण ने गीता के कर्मप्रधान होने का  प्रेरणादायी संकलन हमें उपलब्‍ध कराया यानि हम जैसे हैं वैसे ही अपनी  मूलप्रकृति के अनुरूप आचरण करें, धर्म का मोलभाव नहीं किया जा  सकता इसलिये उचित कर्तव्‍य करें।
गीता जयंती पर इतना ही कहना है कि अब फिर से समय हमें इस  महाग्रंथ के एक एक श्‍लोक की ओर ले जा रहा है कि अब तो मानवता  व धर्मस्‍थापन के लिए एकजुट हो जाना चाहिए।
- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

महायोद्धा की महागाथा है अर्जुन

भारतीय पौराणिक साहित्‍य में महाकाव्‍य महाभारत की कथाओं को आम जनमानस सर्वाधिक अपने करीब पाता आया है और संपूर्ण महाभारत भगवान कृष्‍ण द्वारा अर्जुन से कहे गये गीता के उपदेशों में सिमट आती है अर्थात् कृष्‍ण और अर्जुन के आसपास घूमती कथाओं और इनमें सिमटे जीवनदर्शन को आमजन ने सर्वाधिक करीब से देखा और इस तरह इसके केंद्रबिंदु बने कृष्‍ण और अर्जुन।
पौराणिक अध्‍ययनकर्ताओं के अनुसार गीताप्रेस गोरखपुर ने कुछ वर्षों पहले 16 खंडों में महाभारत का प्रकाशन किया था और इन 16 खंडों में जितनी भी कथायें अर्जुन से संबंधित थीं, वे सभी अगर एक स्‍थान पर देखनी हों तो अनुजा चंद्रमौलि द्वारा लिखी हुई पुस्‍तक ''अर्जुन'' को देखना-पढ़ना एक सुखद अनुभव रहेगा।अंग्रेजी माध्‍यम के पाठकों के लिए पौराणिक महत्‍व की पुस्‍तकों को वैज्ञानिक व सामाजिक दृष्‍टिकोण से सामने लाने में लीडस्‍टार्ट पब्‍लिकेशन ने कई लेखकों का व उनकी कृतियों का परिचय समय समय पर हमसे कराया है। इसी श्रंखला में लीडस्‍टार्ट पब्‍लिकेशन की प्‍लेटिनम प्रेस द्वारा प्रकाशित और अनुजा चंद्रमौलि द्वारा लिखी गई पुस्‍तक -
''Saga of a Pandava Warrior - Prince ARJUNA '' महाभारत के धनुर्धर नायक अर्जुन को जानने का सर्वथा उचित माध्‍यम जान पड़ता है। मूलत: अंग्रेजी भाषा में लिखी गई यह पुस्‍तक पाण्डव योद्धा राजकुमार अर्जुन की गाथा को इतना विस्‍तृत रूप में पढ़कर ये तो कहना ही पड़ेगा कि लेखिका अनुजा ने जिस भाषागत सरलता व गाथाओं के मर्मस्‍पर्शी शिल्‍प का प्रयोग किया है उसकी प्रशंसा किये बिना कोई नहीं रह सकता।
पुस्‍तक की अलग अलग कथाओं में किसी प्रकरण को अर्जुन के द्वारा बताया जाना तो कहीं लेखिका द्वारा सुनाया जाना, कथाओं में विविधिता लाने के उद्देश्‍य से किया गया है, हालांकि इसे प्रथम दृष्‍टया पढ़कर भ्रम की स्‍थिति उत्‍पन्‍न होती है कि कथा कौन कह रहा है, पाठक किस को लेकर पात्रों को अपने करीब महसूस करे । सभी कथायें सर्वथा शुभ माने जाने वाले 21 भागों में विभाजित की गई हैं , इसलिए कोई भी कथा नीरसता से दूर रही। पूरी पुस्‍तक में अर्जुन के जन्‍म, उनका पालन पोषण, अर्जुन में संबंधों का निर्वाह करने की कुशलता , पारिवारिक मूल्‍यों के लिए किये जाने वाले त्‍याग, भाइयों के सुख व एकता के लिए सर्वाधिक प्रिय द्रोपदी से दूरी बनाये रखना और जहां  उनके नायकत्‍व को एक आयाम देता है, वहीं कृष्‍ण के प्रति उनका प्रेम-विश्‍वास, क्षत्रियोचित दृढ़ता के साथ साथ तत्‍कालीन राजनैतिक परिस्‍थितियों के अनुरूप विवाह करना और उन्‍हें सम्‍मानपूर्वक निभाना आदि कुछ विशेषताओं ने अर्जुन को संपूर्ण महाभारत के केंद्र में ला दिया। संभवत: लेखिका को भी ''अर्जुन'' इन्‍हीं विविधताओं के कारण अपने लेखन के लिए उचित ''नायक'' लगे ।
अनुजा द्वारा लिखी इस पहली कृति ने हमें यह उत्‍सुकता व भरोसा दोनों दिया है कि हमें हमारे इतिहास के पौराणिक महत्‍व को पुन: नये सिरे से जानने के अवसर असीमित हैं । अनुजा के ''अर्जुन'' न केवल पढ़ने योग्‍य हैं बल्‍कि इसे यदि नई पीढ़ी में पारिवारिक मूल्‍यों व संस्‍कारों को आधुनिक समय के अनुसार अपनाने का प्रयास करती कृति कहा जाये तो गलत ना होगा।    
Book : Saga of a Pandava Warrior-Prince 'ARJUNA'
Writer: Anuja Chandramouli,
       contact at - anujamouli@gmail.com
Publication : Platinum Press, An Imprint of --
             LEADSTART PUBLICATION Pvt.Ltd
             www.leadstartcorp.com

                                                                                                   - अलकनंदा सिंह,
                                                                                                      www. Legendews.in

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

ऐतिहासिक चित्रों की नीलामी 19 को

मुंबई। 
नीलामी गृह "क्रिस्टी" भारतीय चित्रकारों की उन कलाकृतियों की भारत में ही नीलामी करेगी जिन्हें "राष्ट्रीय सम्पदा" माना जाता है। नीलामी का आयोजन मुम्बई में 19 दिसंबर को किया जाएगा। "क्रिस्टी" के एक प्रवक्ता ने नीलामी का आयोजन भारत में करने का यह कारण बताया है कि भारतीय संग्रहकर्ता "क्रिस्टी" द्वारा आयोजित कई अंतर्राष्ट्रीय नीलामियों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं।
मुम्बई में रवीन्द्रनाथ टैगोर, अबनीन्द्रनाथ टैगोर, गगनेंद्रनाथ टैगोर, नंदलाल बोस, जामिनी रॉय और अमृता शेरगिल जैसे चित्रकारों के 83 चित्रों की नीलामी की जाएगी।

चंद्रप्रकाश देवल को बिहारी पुरस्कार

नईदिल्‍ली। 
के. के. बिड़ला फाउंडेशन ने वर्ष 2013 के 23वें बिहारी पुरस्कार के लिए चंद्रप्रकाश देवल के राजस्थानी भाषा में लिखे गये काव्य संग्रह हिरणा़ मूंन साध वन चरणा को चुना गया है।फाउंडेशन द्वारा यहां आज जारी विज्ञप्ति में बताया गया कि इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2010 में किया गया था। बिहारी पुरस्कार के रूप में एक प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिह्न और एक लाख रूपये का पुरस्कार दिया जायेगा।
इसमें बताया गया है कि वर्ष 2013 का 23वां बिहारी पुरस्कार राजस्थानी भाषा के लेखक चंद्रप्रकाश देवल को दिया जायेगा। यह पुरस्कार उनके काव्य संग्रह हिरणा़ मूंन साध वन चरणा के लिये दिया जायेगा।
बिहारी पुरस्कार राजस्थान के हिन्दी या राजस्थानी भाषा के लेखकों को प्रदान किया जाता है। पहला बिहारी पुरस्कार 1991 में डा़ जयसिंह नीरज को उनके काव्य संग्रह ढाणी का आदमी के लिए प्रदान किया गया था।
- एजेंसी

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

पराजितों के मनोविज्ञान की गाथा है..... 'असुर'

मुंबई । 21वीं सदी का वर्तमान युग, पौराणिक गाथाओं को वैचारिक कसौटी पर कसे जाने का युग है और इस युग में ऐसे कहानीकारों और उपन्‍यासकारों का सामने आना कम से कम नई पीढ़ी और नई सोच वालों के लिए बेहद अहम है जो गाथाओं को वैज्ञानिक तथ्‍यों के साथ सामाजिक सरोकारों से भी जोड़कर देखते हैं या देखने को आतुर रहते हैं।
भारतीय संस्‍कृति के अनुसार अपने लेखन को माता-पिता को समर्पित करने वाले तथा उन्‍हें अपना पौराणिक ज्ञान का प्रेरणास्रोत बताने वाले लेखक आनंद नीलकांतन की कृति ASURA : TALE OF THE VANQUISHED अर्थात् ''असुर : पराजितों की कहानी'' है। ये न केवल अपने ध्‍येय को साधती है बल्‍कि हमें सावधान भी करती है, कि समाज के द्वारा प्रतिपादित जन ही नायक हों या हमारे आराध्‍य हों, ऐसा आवश्‍यक तो नहीं। समाज में वे भी हमारे लिए सोचने का विषय हो सकते हैं जो वंचित हैं, शोषित हैं या जिन्‍हें जीतकर कोई अभिजात्‍य वर्गीय 'नायक' बना।

संभवत: पहली बार असुरों को घृणा की दृष्‍टि से देखने वाले समाज को लेखक आनंद ने यह सोचने पर विवश किया है कि प्रत्‍येक सच का एक दूसरा पहलू भी होता है जिसे पूर्णरूपेण न जानकर हम उसके साथ अन्‍याय ही करते हैं।

लीडस्‍टार्ट पब्‍लिकेशन द्वारा प्रकाशित पुस्‍तक 'असुर' में निश्‍चितत: ही पुस्‍तक का नायक रावण है और शुरू से अंत तक पूरी कहानी को वह अपने दृष्‍टिकोण से व्‍याख्‍यायित करता जाता है। हालांकि लेखक आनंद ने मानवजनित गलतियों का ठीकरा, किस तरह जनता को भोगना होता है, इसे भी बखूबी बयान किया है। पुस्‍तक में सोच का धरातल सामान्‍य रखा गया है जहां दो सभ्‍यताओं के वाहक हैं, उनके बीच द्वंद हैं, महात्‍वाकांक्षाओं के टकराव हैं, सुर यानि संभ्रांतजन और असुर यानि वंचित-शोषित-असभ्‍य, एक ओर अपनी दस विशेष शक्‍तियों के साथ अतिमहात्‍वाकांक्षी रावण है तो दूसरी ओर संभ्रांत समाज को हांकने वाले समाज के प्रतिपादित नायक देवगण हैं।

पुस्‍तक में लेखक आनंद रावण के माध्‍यम से यह बताने में सफल हुये हैं कि एक सामान्‍यजन अपनी महात्‍वाकांक्षाओं से आत्‍मबल विकसित कर ले तो वह अद्भुत-अभूतपूर्व बन सकता है, वह समाज में व्‍याप्‍त सामंती सोच और श्रेष्‍ठता के पक्षपाती मानदंडों को आमजन के लिए सुलभ बना सकता है।

वर्तमान में जो स्‍थितियां हमारे समाज में अवनमन का कारण बनी हुई हैं, देखा जाये तो आनंद का ये 'असुर' समाज के स्‍थापित दकियानूसी कायदे कानूनों से जूझने का व सामंती सोचों को बदलने का एक उपक्रम दिखाई देता है। पुस्‍तक में कहानी को रावण के माध्‍यम से कहा जाना, हो सकता है कि प्रथमदृष्‍टया अतिशीघ्र प्रचार पाने का माध्‍यम लगे परंतु पौराणिक गाथाओं को लेकर कुछ अलग सोचने वालों के लिए लेखक की यह कोशिश शोध का विषय तो होगी। यूं भी लकीर के फकीर न बनना और समाज को गाथाओं के दबे पक्ष से परिचित कराये रखना आज के साहित्‍यवर्ग में भारी चुनौती है जिसे आनंद ने बखूबी पार किया है।नि:संदेह आज के प्रयोगवादी व वैचारिक प्रगतिवादी युग में सभी के लिए 'असुर' एकउत्‍कृष्‍ट कृति है।       

Book :  ASURA- Tale of the  vanquished

Author : Anand neelkantan

Publication : Platinum Press, An Imprint of --
 LEADSTART PUBLICATION Pvt.Ltd

 -अलकनंदा सिंह,   Legend News

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

पूर्ण तो करना बाकी है....अभी

5 दिसंबर: श्री अरविंद की पुण्‍यतिथि पर विशेष


एक वाकये से शुरुआत करना चाहूंगी जिसे कहीं बहुत पहले पढ़ा था मैंने कि- जब गुरू रवीन्‍द्रनाथ टैगोर अपनी मृत्‍यु के कुछ क्षण पहले आंखें मूंदे पड़े थे तो किसी मित्र ने सांत्‍वना देने के लिहाज से उनसे कहा कि तुम ने अब तक बहुत कुछ कर लिया..बहुत कुछ पा  लिया...बहुत कुछ गुन लिया...बहुत कुछ गा लिया ..बजा लिया...लिख पढ़ लिया ...अब तुम अपने मन को एकदम शांत रखो और ईश्‍वर के चरणों में मन रमाओ। गुरूदेव ने तुरंत अपनी थकी हुई .. अलसाई सी आंखों में चमक लाकर लगभग गुस्‍साते हुये उस मित्र से कहा - ये क्‍या बकवास करते हो...मैं अभी तक कुछ गा कहां सका हूं..मैं तो अभी तक साज ही जमा रहा था...कभी मृदंग, तो कभी सितार, तो कभी बांसुरी को उलट पलटभर पाया हूं....जिसे तुम या और लोग मेरा गाना समझ रहे थे वो तो अभी तक गाने की तैयारी मात्र थी बस ! गाना तो अभी सीखना है , उसमें पहले मन रमाना होगा तब कहीं जाकर  सुर साध पाऊंगा...और देखो मैं इस तरह बिना गाये ही संसार से चले जा रहा हूं, इसका मुझे खेद हो रहा है...मैं बिना गाये मरना तो नहीं चाहूंगा...इस अधूरेपन के साथ मुझे शांति किस तरह मिलेगी भला...  ।
यूं तो आज से दो दिन बाद अर्थात् 5 दिसंबर को मनाये जानी वाली श्री अरविंद की पुण्‍यतिथि पर गुरू रवीन्‍द्रनाथ टैगोर को लेकर इस वाकये का ज़िक्र करना आपको कुछ अटपटा जरूर लग रहा होगा मगर जो कुछ श्री अरविंद के बारे में कहना है, वह इसके बिना पूरी तरह से कहा भी नहीं जा सकता। 'विज्ञान के दर्शन को कविता में ढालने' की अद्भुत क्षमता के कारण ही श्री अरविंद एकमात्र ऐसे व्‍यक्‍ति हुए जो पूरी तरह से अलग दिखने वाली तीन धाराओं का सम्‍मिश्रण कर सके। विज्ञान विकास की बात करता है तो दर्शन बुद्धि और आध्‍यात्‍म की सीढ़ी है और कविता ...कविता न तो विज्ञान के नियमों को मानती है और न दर्शन की बुद्धिवादिता को, फिर भी श्री अरविंद ऐसा कर पाने में समर्थ रहे कि तीनों को एक ही दृष्‍टि से तीन तीन कोणों से देखा जा सके।
पश्‍चिमी शिक्षा के प्रभाव को श्री अरविंद के दर्शन में बड़े स्‍तर पर पाया जाता है जो हमेशा वैज्ञानिक तरीके से अपने तर्क प्रस्‍तुत करता है, सब-कुछ सटीक दिखाने की कोशिश में परफेक्‍शनिस्‍ट बनने को प्रेरित करता है। श्री अरविंद का दर्शन उनके गणितज्ञ होने को भी दिखाता है । जो खालिस गणितज्ञ है या विज्ञानी सोच के  दायरे में रहता है, वह बेहद कैलकुलेटिव भी हो जाता है और जो कैलकुलेटिव हो जाता है वह संसार के अस्‍तित्‍व को भी गणित के ज़रिये ही हल करना चाहता है । ऐसा करने में बुद्धि एक उपकरण बन जाती है
और उपकरणों से प्रयोग किये जा सकते हैं ...बहुत ज्‍यादा बुद्धिवादियों के बीच पहुंचा जा सकता है ..उन्‍हें शरीर से लेकर आत्‍मा के विकास की कैमिस्‍ट्री समझाई जा सकती है मगर यही उक्‍ति कुछ कम बुद्धिवालों पर फिट नहीं बैठती...वहां तर्क नहीं चलते ..वहां कोई स्‍थापित नियम नहीं चलता ...सब कुछ अपने हृदय के स्‍पंदन पर निर्भर करता है। कम ज्ञानियों में बुद्धि पर हावी रहता है हृदय का स्‍पंदन । उनमें विचार होता है मगर वह वैज्ञानिक कसौटियों पर उतरने को कतई तैयार नहीं होता ,उसका अपना ही सिद्धांत होता है कि जो महसूस हुआ ..वह तो है ...महसूस हो रहा है तो ईश्‍वर भी है और जीवन भी और नहीं हो रहा तो किसी भी गणित से उसे महसूस नहीं करवाया जा सकता ..अर्थात्  हृदय वालों के लिए बाकी सब थ्‍योरी बेमानी होती हैं।
श्री अरविंद ने अपने महाकाव्‍य सावित्री के ज़रिये जो आत्‍मा और योग के नये सूत्रों का विचार किया, वह निश्‍चितत: ही नया और अद्भुत प्रयोग सिद्ध हुआ है विश्‍व में परंतु वह आम जनमानस में रवीन्‍द्रनाथ टैगोर से कुछ अलग रहा । श्री अरविंद हमेशा ही पूर्णता के सिद्धांत की बात करते रहे , हमेशा पूर्णता के अनुभव बांटते रहे और कविता में भी वे पूर्णता को पाने के लिए लालायित रहे । भारतीय जनमानस में पूर्णता को सिर्फ ईश्‍वर तक ही माना गया है वह कभी मनुष्‍य में समायेगी, ऐसा कम सोचा जाता है । पूर्णता की उच्‍चता के कारण श्री अरविंद का आमजन  में 'प्रभाव' किसी तरह कम रहा, ये तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता परंतु यह तो निश्‍चित है इसी 'पूर्णता' के कारण ही वह आमजन से उतना घुलमिल नहीं पाया, जितना टैगोर का प्रभाव आमजन में घुला हुआ था ।
इसीलिए मुझे आज कहीं पढ़ी हुईं रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की उक्‍त पंक्‍तियां  याद हो आईं कि अभी  तो मैंने साज संभाले हैं ...अभी गाया कहां है..गाना तो शेष है... सब-कुछ अपूर्ण है ...पूर्ण करना बाकी है...इसीलिए अपने अपने समय में श्री अरविंद और रवीन्‍द्रनाथ दोनों ही सार्थक बने रहे। श्री अरविंद को याद करना यानि दर्शन सिद्धांतों की पूर्णता पर फिर से गर्व करने के अहसास को जीना है।
- अलकनंदा सिंह



सोमवार, 2 दिसंबर 2013

अंतर्राष्ट्रीय दासता उन्मूलन दिवस आज

आज यानि 2 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय दासता उन्मूलन दिवस मनाया जाता है | इसी दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानव-व्यापार और वेश्यावृत्ति से संघर्ष की अभिसंधि स्वीकृत की थी| यह दिवस मनाने का उद्देश्य यह है कि आधुनिक युग में दासता के जो रूप प्रचलित हैं उनसे संघर्ष किया जाए| इन रूपों में प्रमुख हैं - मानव-व्यापार, यौन शोषण, बाल-श्रम, ज़बरन विवाह, वधुओं की बिक्री, विधवाओं को धरोहर में दिया जाना, तथा सशस्त्र टकरावों में उपयोग के लिए बच्चों को ज़बरदस्ती भरती किया जाना|
आजकल संसार में दो करोड़ दस लाख स्त्री-पुरुष और बच्चे दासता में जी रहे हैं| - एजेंसी