साल में एक बार पंद्रह दिन के लिए अपने बुज़ुर्गों को श्रद्धा अर्पित करने का समय शुरू हो चुका है। लगभग हर सनातनी परिवार में इसे मनाया जाता है मगर आज नई पीढ़ी की हाइटेक सोच से लेकर महंगाई जैसी समस्याएं इस श्रद्धापर्व को मनाये जाने के तरीके और औचित्य पर तमाम सवाल उठाते हुये हावी हो रही हैं। उन लोगों को, जो सनातनी परंपराओं को धर्म बना बैठे हैं, अब सटीक जवाब खोज लेने चाहिये।
अब देखिए ना....पंडित जी सुनाये जा रहे थे कि श्राद्ध कैसे करने चाहिये, क्यों करने चाहिए आदि आदि ...अभी अभी अपनी अपनी जॉब से जैसे-तैसे छुट्टी लेकर आये दादी के दोनों पोते पास बैठे ऊब रहे थे....जबकि वे दोनों अपने दादा से बेहद प्यार करते थे। दरअसल तर्क की कसौटी पर वे तय नहीं कर पा रहे थे कि उनके दादा-परदादा जो मर गये, वो कैसे यहां बनाये गये पकवानों को खाने के लिए आ सकते हैं। जो जीवित हैं और भूखे हैं, भूख से मर रहे हैं उन्हें भोजन कराने की बात हम क्यों नहीं सोचते।
दरअसल बेतुके तर्कों को परंपरागत ढर्रे पर चलाते-चलाते आज की हाइटेक पीढ़ी के सामने हमने उन्हें इतना बोझिल बना दिया है कि यह पीढ़ी उससे ऊबने लगी है। वह उसे वैज्ञानिक आधार पर समझना चाहता है कि धर्म में उसकी कितनी अहमियत है, कितनी जरूरत है.. और क्यों है ...किसके लिए है ... पुरानी पीढ़ी इनके पालन की अनिवार्यता नई पीढ़ी पर थोप रही है तो इसके पीछे सुदृढ़ तर्क क्या है, इसके बारे में कोई सटीक उत्तर नहीं मिलता, तर्क की कसौटी पर ये परंपराएं तो कब का दम तोड़ चुकी हैं, अब तो इन्हें बस ढोया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि नई पीढ़ी अपने बुज़र्गों को याद नहीं करना चाहती और वो याद रखती भी है मगर इस तरह बाध्यता उसे तर्कों के द्वंद्व में धकेल देती है जबकि गीता को मानें तो..
नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयंत्यापो न शोषयति मारुतः ।।
अर्थात् भौतिक तापों से ऊपर है आत्मा और आत्मा कभी नहीं मरता/मरती... तो फिर श्रद्धा का अर्पण किसे और क्यों ?
जो मारे जा चुके हैं उनके नाम पर ये कैसा विरोधाभास परोसते आ रहे हैं.. कि एक ओर तो हम आज की पीढ़ी को गीता के उपदेशों से जीवन के हर पहलू को तलाशने व समझने की सीख देते हैं और दूसरे ही पल उन्हें तर्कहीन अंधकार को हूबहू मानने पर बाध्य कर रहे हैं...फिर शिकायत किससे कि भई हमारी नई पीढ़ी परंपराओं से दूर हो रही है...यह सनातनी परंपराओं का राग अलापने वालों को सोचना चाहिए।
हमारे काका एक लोक कहावत सुनाया करते थे कि
''जे जीवते बात ना पुच्छियां, ते मरे धड़ाधड़ पिट्टियां... ''
तो कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोक कहावत और गीता के उपदेश स्वयं को फिर से खंगालने की बात कहते हैं, फिर क्यों ढर्रों पर चलने की बात की जाये। सोचना होगा।
- अलकनंदा सिंह
अब देखिए ना....पंडित जी सुनाये जा रहे थे कि श्राद्ध कैसे करने चाहिये, क्यों करने चाहिए आदि आदि ...अभी अभी अपनी अपनी जॉब से जैसे-तैसे छुट्टी लेकर आये दादी के दोनों पोते पास बैठे ऊब रहे थे....जबकि वे दोनों अपने दादा से बेहद प्यार करते थे। दरअसल तर्क की कसौटी पर वे तय नहीं कर पा रहे थे कि उनके दादा-परदादा जो मर गये, वो कैसे यहां बनाये गये पकवानों को खाने के लिए आ सकते हैं। जो जीवित हैं और भूखे हैं, भूख से मर रहे हैं उन्हें भोजन कराने की बात हम क्यों नहीं सोचते।
दरअसल बेतुके तर्कों को परंपरागत ढर्रे पर चलाते-चलाते आज की हाइटेक पीढ़ी के सामने हमने उन्हें इतना बोझिल बना दिया है कि यह पीढ़ी उससे ऊबने लगी है। वह उसे वैज्ञानिक आधार पर समझना चाहता है कि धर्म में उसकी कितनी अहमियत है, कितनी जरूरत है.. और क्यों है ...किसके लिए है ... पुरानी पीढ़ी इनके पालन की अनिवार्यता नई पीढ़ी पर थोप रही है तो इसके पीछे सुदृढ़ तर्क क्या है, इसके बारे में कोई सटीक उत्तर नहीं मिलता, तर्क की कसौटी पर ये परंपराएं तो कब का दम तोड़ चुकी हैं, अब तो इन्हें बस ढोया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि नई पीढ़ी अपने बुज़र्गों को याद नहीं करना चाहती और वो याद रखती भी है मगर इस तरह बाध्यता उसे तर्कों के द्वंद्व में धकेल देती है जबकि गीता को मानें तो..
नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयंत्यापो न शोषयति मारुतः ।।
अर्थात् भौतिक तापों से ऊपर है आत्मा और आत्मा कभी नहीं मरता/मरती... तो फिर श्रद्धा का अर्पण किसे और क्यों ?
जो मारे जा चुके हैं उनके नाम पर ये कैसा विरोधाभास परोसते आ रहे हैं.. कि एक ओर तो हम आज की पीढ़ी को गीता के उपदेशों से जीवन के हर पहलू को तलाशने व समझने की सीख देते हैं और दूसरे ही पल उन्हें तर्कहीन अंधकार को हूबहू मानने पर बाध्य कर रहे हैं...फिर शिकायत किससे कि भई हमारी नई पीढ़ी परंपराओं से दूर हो रही है...यह सनातनी परंपराओं का राग अलापने वालों को सोचना चाहिए।
हमारे काका एक लोक कहावत सुनाया करते थे कि
''जे जीवते बात ना पुच्छियां, ते मरे धड़ाधड़ पिट्टियां... ''
तो कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोक कहावत और गीता के उपदेश स्वयं को फिर से खंगालने की बात कहते हैं, फिर क्यों ढर्रों पर चलने की बात की जाये। सोचना होगा।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें