आइने से चिपककर खड़े होगे तो अपना अक्स नज़र नहीं आयेगा, उसकी मौज़ूदगी होगी मगर आइने में देखे जाने का मकसद तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कि अक्स से थोड़ी दूरी न बनाकर रखी जाए।
ठीक इसी तरह एक दूसरा उदाहरण ये कि अपने गिरेबां में झांकना बड़ा मुश्किल होता है, गर्दन ही नहीं मुड़ सकती इतनी कि अपना ही गिरेबां दिख सके । शायद इसीलिए इसे कहावत के तौर पर इस्तेमाल किया गया कि अगर कोई अपने गिरेबां तक में अपनी निगाह पहुंचा सकता तो उसमें अपनी अकड़ होने का भ्रम न रहता और सब-कुछ अच्छा हो जाता ...फिर तो झगड़ा ही किस बात का रहता...न कोई हमलावर रहता न कोई पीड़ित। खैर, ये बड़े जोखिम का काम है अपने गिरेबां में झांकना।
देश की तमाम समस्याओं और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए हम हमेशा कहते हैं कि सरकार ने ये नहीं किया, नेताओं ने देश को तबाह कर दिया, बाबाओं ने धर्म को व्यापार में तब्दील और न जाने क्या क्या...
बात वहीं आ जाती है कि अपने गिरेबां में झांकने की बजाय हम दूसरे के गिरेबां को चाक कारने में जुटे रहते हैं। अब देखिए ना कि सरकार हो, नेता हों, बाबा हों, बलात्कारी हों, कोई भी हो, इस तरह के सभी पैरासाइट्स को पनपाने के लिए हमारी अपनी सोच और अपने भीतर बैठे डर ही जिम्मेदार हैं।
हालिया आसाराम प्रकरण को ही लीजिए, ये हमारे भीतर के डर ही हैं जिनके चलते हम उनके खिलाफ बरसों पहले से आ रही दुष्कर्म, हत्या और ज़मीनों पर नाजायज तरीके से कब्ज़े की शिकायतों पर ध्यान देने और दिलाने से कतराते रहे।
हम उन तथ्यों को भी नज़रंदाज करते रहे जिसमें बा-सुबूत आसाराम को महिलाओं और बच्चों के साथ दुष्कर्म करते पाया गया बल्कि उनके आश्रम में कोई भी पुरुष किसी भी महिला या बच्ची से यौनसंबंध स्थापित कर सकता था जिसे आसाराम व उनके चेले प्रभु के साथ संबंध बनाने का नाम देते रहे।
ये कुछ वो हकीकतें हैं जिनके भुक्तभोगी अब हिम्मत करके धीरे-धीरे ही सही, सामने ला रहे हैं। जो अब भी दबी हैं, वो कितनी भयानक होंगी। इज़्ज़त के ढकोसलों ने हमने अपनी घरेलू औरतों को भी बाज़ार के हवाले कर दिया। एक ऐसा बाजार जिसने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
तभी तो ये संभव हो सका कि आसूमल जैसा साधारण सा व्यक्ित आसाराम तक का सफर तय कर पाया। ये नाकामी किसी सिस्टम की नहीं, हमारी अपनी नाकारा हो चुकी सोच की है जो आज भी अपराधी के तीन गुनाहों तक उसके सुधरने का इंतज़ार करती है।
दायरों में बंधी सोच अब तो आज़ाद होनी चाहिये... अब तो आसाराम जैसे अपराधियों के साये में पले स्वच्छंद यौन अपराधियों के प्रदर्शनों को गैरकानूनी घोषित किया जाना चाहिये..।
- अलकनंदा सिंह
ठीक इसी तरह एक दूसरा उदाहरण ये कि अपने गिरेबां में झांकना बड़ा मुश्किल होता है, गर्दन ही नहीं मुड़ सकती इतनी कि अपना ही गिरेबां दिख सके । शायद इसीलिए इसे कहावत के तौर पर इस्तेमाल किया गया कि अगर कोई अपने गिरेबां तक में अपनी निगाह पहुंचा सकता तो उसमें अपनी अकड़ होने का भ्रम न रहता और सब-कुछ अच्छा हो जाता ...फिर तो झगड़ा ही किस बात का रहता...न कोई हमलावर रहता न कोई पीड़ित। खैर, ये बड़े जोखिम का काम है अपने गिरेबां में झांकना।
देश की तमाम समस्याओं और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए हम हमेशा कहते हैं कि सरकार ने ये नहीं किया, नेताओं ने देश को तबाह कर दिया, बाबाओं ने धर्म को व्यापार में तब्दील और न जाने क्या क्या...
बात वहीं आ जाती है कि अपने गिरेबां में झांकने की बजाय हम दूसरे के गिरेबां को चाक कारने में जुटे रहते हैं। अब देखिए ना कि सरकार हो, नेता हों, बाबा हों, बलात्कारी हों, कोई भी हो, इस तरह के सभी पैरासाइट्स को पनपाने के लिए हमारी अपनी सोच और अपने भीतर बैठे डर ही जिम्मेदार हैं।
हालिया आसाराम प्रकरण को ही लीजिए, ये हमारे भीतर के डर ही हैं जिनके चलते हम उनके खिलाफ बरसों पहले से आ रही दुष्कर्म, हत्या और ज़मीनों पर नाजायज तरीके से कब्ज़े की शिकायतों पर ध्यान देने और दिलाने से कतराते रहे।
हम उन तथ्यों को भी नज़रंदाज करते रहे जिसमें बा-सुबूत आसाराम को महिलाओं और बच्चों के साथ दुष्कर्म करते पाया गया बल्कि उनके आश्रम में कोई भी पुरुष किसी भी महिला या बच्ची से यौनसंबंध स्थापित कर सकता था जिसे आसाराम व उनके चेले प्रभु के साथ संबंध बनाने का नाम देते रहे।
ये कुछ वो हकीकतें हैं जिनके भुक्तभोगी अब हिम्मत करके धीरे-धीरे ही सही, सामने ला रहे हैं। जो अब भी दबी हैं, वो कितनी भयानक होंगी। इज़्ज़त के ढकोसलों ने हमने अपनी घरेलू औरतों को भी बाज़ार के हवाले कर दिया। एक ऐसा बाजार जिसने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
तभी तो ये संभव हो सका कि आसूमल जैसा साधारण सा व्यक्ित आसाराम तक का सफर तय कर पाया। ये नाकामी किसी सिस्टम की नहीं, हमारी अपनी नाकारा हो चुकी सोच की है जो आज भी अपराधी के तीन गुनाहों तक उसके सुधरने का इंतज़ार करती है।
दायरों में बंधी सोच अब तो आज़ाद होनी चाहिये... अब तो आसाराम जैसे अपराधियों के साये में पले स्वच्छंद यौन अपराधियों के प्रदर्शनों को गैरकानूनी घोषित किया जाना चाहिये..।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें