आयातित सोच से चलता समाज, अपनी भाषा और अपनी मूल सोच को ही नहीं बल्कि वह अपने भविष्य को भी वहीं धरती में गाड़ देता जहां से उसकी जड़ें निकली हैं। ”NASA” के बहाने अब इन जड़ों को और ताकतवर बनाने का मौका हमारे पास पुन: आया है, निश्चित ही यह उसी स्वर्णिम युग का न्यौता है जिस युग की स्थापना आर्यभट्ट, वराह मिहिर, भास्कर, चरक और सुश्रुत जैसे वैज्ञानिकों और गणितज्ञों ने की, इनका महत्वपूर्ण कार्य संस्कृत में ही हुआ। हमारे वेदों, पुराणों, शास्त्रों का एक एक श्लोक पूर्णत: एल्गोरिद्म पर आधारित है।
आज के अत्यधिक डिजिटलाइज्ड युग में हमें अपनी इस ”गलती” को सुधारने का वृहत्तर मौका मिला है क्योंकि संस्कृत और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का संबंध प्रगाढ़ होता जा रहा है।
नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने “संस्कृत और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर ” NASA संस्कृत और कृत्रिम बुद्धिमत्ता में ज्ञान का प्रतिनिधित्व” पर जो काम किया है, वह अद्भुत है।
विश्वस्तरीय कंप्यूटर वैज्ञानिक यह साबित कर चुके हैं और इसी पर आगे भी लगातार काम कर रहे हैं कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, मशीनी भाषा और कंप्यूटर एलगोरिदम के लिए ‘संस्कृत’ ही सबसे उपयुक्त भाषा है।
गणित, कंप्यूटिंग में किसी कार्य के लिये आवश्यक चरणों के समूह यानि अल्गोरिदम को लेकर कंप्यूटर जगत के विद्वानों का मानना है कि संस्कृत चूंकि नियमों पर आधारित तार्किक व्याकरण से सजी है इसलिए यह एलगोरिदम लेखन के लिए सबसे उपयुक्त या मशीन लर्निंग और कृत्रिम बुद्धिमता में भी उपयोगी है।
‘पोंगा पंडितों’ की भाषा कहकर जिस संस्कृत का मजाक बनाया गया, आज वही संस्कृत अध्यात्म, दर्शन, भक्ति, कर्मकांड या साहित्य तक ही सीमित नहीं रही बल्कि अब यह ज्ञान और विज्ञान के लिए महत्वपूर्ण बन गई है। संस्कृत भाषा, साहित्य और विज्ञान की परंपरा हमारे बौद्धिक विकास की शानदार यात्रा को दिखाती है।
यहां तक कि भारतीय गणित तो एल्गोरिद्म से भरा पड़ा है। इन एल्गोरिद्म के सिद्धान्त तथा उनकी उपपत्तियाँ भी अनेक टीका ग्रन्थों में उपस्थित हैं। आर्यभट्ट के अनुसार किसी संख्या के वर्ग, घन, वर्गमूल तथा घनमूल निकालने की कई कई एल्गोरिद्म (कलनविधियाँ) हैं। इसी तरह शुल्बसूत्रों में विभिन्न यज्ञ-वेदियाँ बनाने की एल्गोरिद्मिक विधियाँ दी गयीं हैं।
तो बात ये है कि हमें गुलाम बनाने से पहले जिस मैकाले ने हमारी भाषा, हमारे पौराणिक, वैदिक ज्ञान को तिरस्कृत किया, आज वही ज्ञान हमें वापस अपने चरम की ओर ले जाने आया है , देखना यह है कि हम इस अवसर का लाभ कितना और कैसे उठा पाते हैं। हमें वास्तविक पौधा चाहिए ज्ञान का, डेकोरेटिव ज्ञान का खमियाजा तो अबतक काफी भुगत चुके, अपनी पीढ़ियां बरबाद कर लीं, अपनी संस्कृतियों और ज्ञान को भुलाकर, समय है अपनी जड़ों की ओर वापसी का।
- अलकनंदा सिंंह