सोमवार, 29 मार्च 2021

संस्कृत और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस: समय है अपनी जड़ों की ओर वापसी का

 प्लास्ट‍िक से न‍िर्म‍ित डेकोरेट‍िव पौधे चाहे क‍ितने ही सुंदर क्यों ना हों, उनको देखकर न तो मन शांत होता है और न ही प्रफुल्ल‍ित, जबक‍ि वास्तव‍िक पौधों की देखभाल में अनेक झंझट रहते हुए भी सुकून उन्हीं से म‍िलता है। यही बात देवभाषा संस्कृत के बारे में है, जहां हमारे हीनभाव ने अंग्रेजी जैसी डेकोरेट‍िव भाषा को तो घरों में सजा ल‍िया और वास्तव‍िक आनंद देने वाली ‘संस्कृत’ को गंवारू भाषा ठहरा द‍िया। नतीज़ा यह हुआ क‍ि ज‍िन आव‍िष्कारों को दुन‍िया मानती है, हम उन्हीं पर नहीं इतरा सके।

आयात‍ित सोच से चलता समाज, अपनी भाषा और अपनी मूल सोच को ही नहीं बल्क‍ि वह अपने भव‍िष्य को भी वहीं धरती में गाड़ देता जहां से उसकी जड़ें न‍िकली हैं। ”NASA” के बहाने अब इन जड़ों को और ताकतवर बनाने का मौका हमारे पास पुन: आया है, न‍िश्च‍ित ही यह उसी स्वर्ण‍िम युग का न्यौता है ज‍िस युग की स्थापना आर्यभट्ट, वराह मिहिर, भास्कर, चरक और सुश्रुत जैसे वैज्ञानिकों और गणितज्ञों ने की, इनका महत्वपूर्ण कार्य संस्कृत में ही हुआ। हमारे वेदों, पुराणों, शास्त्रों का एक एक श्लोक पूर्णत: एल्गोर‍िद्म पर आधार‍ित है।

आज के अत्यध‍िक ड‍िजि‍टलाइज्ड युग में हमें अपनी इस ”गलती” को सुधारने का वृहत्तर मौका म‍िला है क्योंक‍ि संस्कृत और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का संबंध प्रगाढ़ होता जा रहा है।

नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने “संस्कृत और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर ” NASA संस्कृत और कृत्रिम बुद्धिमत्ता में ज्ञान का प्रतिनिधित्व” पर जो काम क‍िया है, वह अद्भुत है।

व‍िश्वस्तरीय कंप्यूटर वैज्ञान‍िक यह साब‍ित कर चुके हैं और इसी पर आगे भी लगातार काम कर रहे हैं क‍ि आर्टिफीश‍ियल इंटेलिजेंस, मशीनी भाषा और कंप्यूटर एलगोरिदम के लिए ‘संस्कृत’ ही सबसे उपयुक्त भाषा है।

गणित, कंप्यूटिंग में किसी कार्य के लिये आवश्यक चरणों के समूह यान‍ि अल्गोरिदम को लेकर कंप्यूटर जगत के विद्वानों का मानना है कि संस्कृत चूंक‍ि नियमों पर आधारित तार्किक व्याकरण से सजी है इसल‍िए यह एलगोरिदम लेखन के लिए सबसे उपयुक्त या मशीन लर्निंग और कृत्रिम बुद्धिमता में भी उपयोगी है।

‘पोंगा पंड‍ितों’ की भाषा कहकर ज‍िस संस्कृत का मजाक बनाया गया, आज वही संस्कृत अध्यात्म, दर्शन, भक्ति, कर्मकांड या साहित्य तक ही सीमित नहीं रही बल्क‍ि अब यह ज्ञान और विज्ञान के ल‍िए महत्वपूर्ण बन गई है। संस्कृत भाषा, साहित्य और विज्ञान की परंपरा हमारे बौद्धिक विकास की शानदार यात्रा को द‍िखाती है।

यहां तक क‍ि भारतीय गणित तो एल्गोर‍िद्म से भरा पड़ा है। इन एल्गोर‍िद्म के सिद्धान्त तथा उनकी उपपत्तियाँ भी अनेक टीका ग्रन्थों में उपस्थ‍ित हैं। आर्यभट्ट के अनुसार किसी संख्या के वर्ग, घन, वर्गमूल तथा घनमूल निकालने की कई कई एल्गोर‍िद्म (कलनविधियाँ) हैं। इसी तरह शुल्बसूत्रों में विभिन्न यज्ञ-वेदियाँ बनाने की एल्गोर‍िद्मि‍क विधियाँ दी गयीं हैं।

तो बात ये है क‍ि हमें गुलाम बनाने से पहले ज‍िस मैकाले ने हमारी भाषा, हमारे पौराण‍िक, वैद‍िक ज्ञान को त‍िरस्कृत क‍िया, आज वही ज्ञान हमें वापस अपने चरम की ओर ले जाने आया है , देखना यह है क‍ि हम इस अवसर का लाभ क‍ितना और कैसे उठा पाते हैं। हमें वास्तव‍िक पौधा चाह‍िए ज्ञान का, डेकोरेट‍िव ज्ञान का खम‍ियाजा तो अबतक काफी भुगत चुके, अपनी पीढ़‍ियां बरबाद कर लीं, अपनी संस्कृत‍ियों और ज्ञान को भुलाकर, समय है अपनी जड़ों की ओर वापसी का।

- अलकनंदा स‍िंंह  

सोमवार, 15 मार्च 2021

आधा सच बोलने वाले ये मीड‍ियाजीवी…आख‍िर चाहते क्या हैं

 महाभारत युद्ध के बीचों बीच अश्वत्थामा की मृत्यु को लेकर बोला गया ‘आधा सच’ आज तक अपने स‍िर पर से अभ‍िशाप को नहीं हटा पाया क्योंक‍ि इसी आधे सच ने युद्ध के अंति‍म पर‍िणाम को बदल द‍िया। यही ‘आधा सच’ महत्वपूर्ण बात को अंधे कुंए में डाल स‍िर्फ और स‍िर्फ भ्रम का कारोबार करता है, और जब आधा सच कथ‍ित बुद्ध‍िजीव‍ियों द्वारा बोला जाए तो…? तो सोचना पड़ जाता है क‍ि हम और हमारी श‍िक्षा, बुद्ध‍िमत्ता और सोच इस तरह व‍िध्वंस पर आमादा क्यों है। क्यों हम देश, देशवासी, नई पीढ़ी और संपन्नता के ह‍ित में नहीं सोच पा रहे। क्यों हमारे स्वार्थ और व‍िचारधारायें प्रगत‍ि के ल‍िए तैयार नहीं।

कल एक ही खबर दो अलग अलग समाचारपत्र में पढ़ीं, पहली थी ”नई श‍िक्षा नीत‍ि में अब इंजीन‍ियर‍िंग करने वालों के ल‍िए भौत‍िकी, रसायन शास्त्र और गण‍ित अन‍िवार्य नहीं होंगे बल्क‍ि वैकल्प‍िक होंगे तो इसके ठीक व‍िपरीत दूसरे समाचारपत्र में इसी खबर को एआईसीटीई का ‘यू-टर्न’ बताते हुए इन व‍िषयों को इंजीन‍ियर‍िंग के ल‍िए अन‍िवार्य बता द‍िया गया। इस कारस्तानी के बाद ब‍िना पूरी खबर पढ़े मृणाल पांडेय जैसी वर‍िष्ठ पत्रकार और उनके पूरे ग्रुप ने तुरंत नई श‍िक्षानीत‍ि पर तंज़ कस अपनी भड़ास भी न‍िकाल डाली, इतना ही नहीं एआईसीटीई को मानस‍िकरूप से द‍िवाल‍िया लोगों का संस्थान बता इसपर भगवाकरण का आरोप भी मढ़ द‍िया क‍ि ये लोग देश को पोंगापंथी युग में ले जाना चाहते हैं।

हकीकत ये है क‍ि ये व‍िषय वैकल्प‍िक हैं परंतु स‍िर्फ बायोटैक्नोलॉजी, एग्रीकल्चरल इंजीन‍िर‍िंग और इंटीर‍ियर ड‍िजाइन‍िंग जैसे व‍िषयों के ल‍िए ज‍िनमें क‍ि इनका सामान्य स्कूली ज्ञान ही काफी होगा, तो बच्चों पर अनावश्यक बोझा क्यों डाला जाये। अभी तक इस बोझ ने शोध, बुद्ध‍िमत्ता व व्यवहार‍िक ज्ञान को कुंद करते हुए ड‍िग्र‍ीधारि‍यों की जमात ही तो खड़ी की। कोरोना काल ने ऐसे ड‍िग्रीधार‍ियों का सच सामने ला द‍िया क‍िसी चाय की टपरी खोली तो कोई खेती करने लगा, आख‍िर क्यों ? इसका जवाब यही है क‍ि श‍िक्षा का अध‍िकतम ह‍िस्सा, ज़मीनी हकीक़त नहीं स‍िखाता। क्या इस श‍िक्षा नीत‍ि की आलोचना स‍िर्फ इसल‍िए की जानी चाह‍िए क‍ि वह हमें हमारी प्राचीन ज्ञान की थात‍ियों की ओर मुड़कर देखने को कहती है, उन्हें हू-ब-हू अपनाने की नहीं उसमें और इज़ाफा करने को कहती है।
न‍िश्च‍ित रूप से नई श‍िक्षा नीत‍ि पर भी मंथन हो और इससे जो भी अमृत या व‍िष न‍िकले उस पर भी चर्चा हो बशर्ते हम क्वांटम, अणु, वैद‍िक गण‍ित, ज्योत‍िषीय गणना देने वाले भारत को आगे ले जाना चाहें। ज्ञान और श‍िक्षा में फर्क करना सीखें, नैत‍िक शास्त्र, दर्शन और सामाज‍िक दाय‍ित्व का बोध इसके केंद्र में हो। हमें यह नहीं भूलना चाह‍िए क‍ि कुछ साल पहले तक योग को भी हमारे पत्रकार साथी मुंह ब‍िचकाकर ही देखते थे। पत्रकार‍िता से जुड़े लोगों पर वृहत्तर दाय‍ित्व है परंतु जब ये ही पक्षपाती होंगे और भ्रम फैलायेंगे तो … । इस पर भी सोचना होगा।

- अलकनंदा स‍िंह 

बुधवार, 10 मार्च 2021

शिवरात्रि: श‍िव और कृष्ण के युग्म का सान‍िध्य स‍िर्फ ब्रज में ही


 जो क‍िसी का नहीं, वो श‍िव का और जो श‍िव का उसे फ‍िर क्या चाह‍िए, जी हां आज ऐसे ही औघड़दानी की आराधना पूरा देश ही नहीं, व‍िश्वभर में की जा रही है। व‍िश्वभर में जहां जहां सनातन की उपस्थ‍ित‍ि है, वहां वहां श‍िव भी उपस्थ‍ित हैं।


ब्रजभूम‍ि पर आज शिवचतुर्दशी…शिवरात्रि…शिवविवाह का दिन…शिव महिमा गायन का दिन है, इसील‍िए ब्रज में बरसाना की प्रसिद्ध लठामार होली की पहली चौपाई गोस्वामी समाज द्वारा आज ही से न‍िकाली जाएगी, जिसे लाड़ली महल से निकाल कर रंगीली गली के शिव मंदिर ”रंगेश्वर” तक लाया जाएगा और ब्रज में 40 द‍िवसीय होली का जो जोर बसंत पंचमी से शुरू हुआ था वह अपने चरम की ओर बढ़ता जाएगा। गोस्वामी समाज द्वारा क‍िए जाने वाले समाज गायन की कड़ी इस ”चौपाई गायन” में भक्त‍िकालीन रस‍िक कव‍ियों के पद का गायन क‍िया जाता है ज‍िसके माध्यम से श्रीकृष्ण के योगी बनकर सख‍ियों के बीच जाने की लीला का वर्णन होगा। भभूत रमाए श‍िव और योगी बनकर आए श्री कृष्ण का सख‍ियों के बीच आना प्रेम तत्व का परम नहीं तो क्या है। पूरा का पूरा ब्रज क्षेत्र श्रीकृष्ण और श‍िव के इस परमयोग का साक्षी रहा है, आज भी इसकी अनुभूत‍ि कदम कदम पर की जा सकती है।

शिव जैसा भोला भंडारी जो नाचता है तो नटराज और गाता है तो विशिष्‍ट रागों का निर्माता, योगसाधना में रत हो तो 112 विधियों को प्रतिपादित कर दे और प्रेमी तो ऐसा क‍ि जो व‍िरह में संपूर्ण ब्रहमांड को उथलपुथल ही कर दे… परंतु ब्रजवासी भलीभांति‍ जानते हैं श‍िव और श्री कृष्ण के इस युग्म का सान‍िध्य पाना क‍ितना सहज है।
श‍िव को लेकर यही सहजता आदि गुरू शंकराचार्य ने भी प्रगट की, जब अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय मांगा। बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है…

यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||
अर्थात्

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…।

तो ऐसी है श‍िव की सहज प्राप्त‍ि जो धर्म, गुरुओं और उनकी उंगली पकड़ने वालों के लिए एक सबक भी हो सकती है।

शिव के ज‍िस रूप को पाने के लिए हम इतने लालायित रहते हैं, वो हमारे ही भीतर घुला हुआ है, हर श्‍वास-नि:श्‍वास में है, उसे हम विलग नहीं कर सकते। और जो ऐसा करते हैं वह कोरा नाटक रचते हैं।

श‍िव की सहजता को लेकर पं.व‍िद्यान‍िवास म‍िश्र ने क्या खूब कहा है क‍ि मूर्त‍िरूप में व‍िष्णु सोने, तांबे और श‍िला के बनाए जाते हैं परंतु श‍िव तो म‍िट्टी का पार्थ‍िव बनकर ही प्रसन्न हैं, पार्थ‍िव बनाया और पीपल के नीचे ढुलका द‍िया, न रुद्री
… ना स्नानार्घ्य, न फूल ना धूप-अगर, कुछ भी तो आवश्यक नहीं..।
तो आइये हम भी ऐसे ही श‍िव की आराधना करें..जो सहज है, सरल है और आद‍िगुरु शंकराचार्य की भांत‍ि कह सकें… शिवोहम् शिवोहम् ।

- अलकनंदा स‍िंंह 

सोमवार, 1 मार्च 2021

#RealtionshipCrisis: आंकड़े बोल रहे हैं… बढ़ रही है कुमाताओं की संख्या


 मशहूर शायर बशीर बद्र का एक शेर है-

”काटना, पिसना
और निचुड़ जाना
अंतिम बूँद तक….
ईख से बेहतर
कौन जाने है,
मीठे होने का मतलब?”


मां भी ऐसी ही ईख होती है जो बच्चे के ल‍िए कटती, प‍िसती, न‍िचुड़ती रहती है अपनी अंत‍िम बूंद तक…और मीठी सी ज‍िंदगी के सपने के साथ साथ ही कठ‍िनाइयों से लड़ने का साहस भी उसके अंतस में प‍िरोती जाती है…ताक‍ि जब वह जाग्रत हो उठे तो संसार को सुख, उत्साह और प्रगत‍ि से भर दे।

परंतु…ऊपर ल‍िखे शब्दों से अलग भी एक दुन‍िया है ज‍िसमें मां, बच्चे के सामने ईख की तरह कोई ‘मीठा’ नहीं परोसती बल्क‍ि उसके अंतस को लांक्षना के उन कंकड़-पत्थरों से भर देती है जो अपराध का वटवृक्ष बन जाता है। मां को मह‍िमामंड‍ित करने वाले कसीदों के बीच ”कल‍ियुगी मांओं” से जुड़ी ऐसी ऐसी खबरें भी सुनने-पढ़ने को म‍िल रही हैं जो तत्क्षण यह सोचने पर बाध्य करती हैं क‍ि ”सच! क्या कोई मां ऐसा भी कर सकती है”।

इन्हीं खबरों में सबसे ज्यादा संख्या उन मांओं की होती है जो स‍िर्फ और स‍िर्फ अपनी कामनापूर्त‍ि के ल‍िए परपुरुष के साथ संबंध बनाती हैं, घर से भाग जाती हैं, अवैध संबंधों के चलते अपने साथी की हत्या तक करने- कराने से बाज नहीं आतीं, इन्हीं संबंधों के चलते कई बार इन मह‍िलाओं को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है। आए द‍िन म‍िलने वाली लाशें इन संबंधों की पर‍िणत‍ि बतातीं हैं। अंतत:  यही कृत्य उनके  बच्चों को संवेदनाहीन बनाकर अपराध‍ की ओर धकेल देते हैं। आंकड़े गवाह हैं क‍ि अध‍िकांशत: बाल अपराध‍ियों के पीछे मांओं द्वारा क‍िए गए ये कृत्य ही होते हैं।

एनसीआरबी (नेशनल क्राइम र‍िकॉर्ड ब्यूरो) के अनुसार भारत में बाल अपराधि‍यों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, प‍िछले एक साल में ही 11 फीसदी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। बच्चों के खिलाफ अपराध का आंकड़ा 2015 में जहां 94172 था, वहीं 2016 में यह आंकड़ा 106958 तक पहुंच गया और अब यान‍ि 2020-2021 की शुरुआत में ही हर दिन बच्चों के खिलाफ 350 अपराध दर्ज किए जा रहे हैं।

बाल अपराध‍ियों के बारे में ये आंकड़े आइना द‍िखा रहे हैं क‍ि मां अपने मातृत्व में कहां चूक रही हैं, वे नई पीढ़ी को कौन सा रूप दे रही हैं, पैदा तो वो देश का भविष्‍य बनने के ल‍िए होते हैं परंतु उन्हें रक्तबीज बनाया जा रहा है।

दुखद बात यह भी है क‍ि‍ ऐसी भयंकर नकारात्मक घटनाओं के बावजूद हर संभव प्रयास क‍िया जाता है क‍ि उस मां के प्रत‍ि तरह-तरह से सहानुभूत‍ि‍यां प्रदर्श‍ित की जायें जबक‍ि मां के इस दूसरे रूप ने बाल अपराध‍ियों की एक लंबी चौड़ी फौज खड़ी कर दी है।

व्यक्त‍िगत आजादी और उच्छृंखलता से चलकर अपराध तक पहुंचने वाला मार्ग स‍िर्फ और स‍िर्फ एक बीमार समाज को ही जन्म दे सकता है, इसके अत‍िर‍िक्त और कुछ नहीं। ये मांएं ऐसा ही कर रही हैं।

रमेंद्र जाखू द्वारा रच‍ित इन चार पंक्त‍ियां के साथ बात खत्म –

”मैं वसीयत कर रहा हूँ
कि मेरे मरने के बाद
मेरी आग उस शख़्स को मिले
जो अंधेरे के ख़िलाफ़
इक जलती हुई मशाल है
जिसका साहस कभी कुंद नहीं होता।”

हमें भी यह साहस करना होगा क‍ि पूरी की पूरी पीढ़ी को बरबाद करने वाली मांओं को मह‍िला के प्रति सहानुभूत‍ि की आड़ में ना छुपाएं।

- अलकनंदा स‍िंंह