मशहूर शायर बशीर बद्र का एक शेर है-
”काटना, पिसना
और निचुड़ जाना
अंतिम बूँद तक….
ईख से बेहतर
कौन जाने है,
मीठे होने का मतलब?”
मां भी ऐसी ही ईख होती है जो बच्चे के लिए कटती, पिसती, निचुड़ती रहती है अपनी अंतिम बूंद तक…और मीठी सी जिंदगी के सपने के साथ साथ ही कठिनाइयों से लड़ने का साहस भी उसके अंतस में पिरोती जाती है…ताकि जब वह जाग्रत हो उठे तो संसार को सुख, उत्साह और प्रगति से भर दे।
परंतु…ऊपर लिखे शब्दों से अलग भी एक दुनिया है जिसमें मां, बच्चे के सामने ईख की तरह कोई ‘मीठा’ नहीं परोसती बल्कि उसके अंतस को लांक्षना के उन कंकड़-पत्थरों से भर देती है जो अपराध का वटवृक्ष बन जाता है। मां को महिमामंडित करने वाले कसीदों के बीच ”कलियुगी मांओं” से जुड़ी ऐसी ऐसी खबरें भी सुनने-पढ़ने को मिल रही हैं जो तत्क्षण यह सोचने पर बाध्य करती हैं कि ”सच! क्या कोई मां ऐसा भी कर सकती है”।
इन्हीं खबरों में सबसे ज्यादा संख्या उन मांओं की होती है जो सिर्फ और सिर्फ अपनी कामनापूर्ति के लिए परपुरुष के साथ संबंध बनाती हैं, घर से भाग जाती हैं, अवैध संबंधों के चलते अपने साथी की हत्या तक करने- कराने से बाज नहीं आतीं, इन्हीं संबंधों के चलते कई बार इन महिलाओं को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है। आए दिन मिलने वाली लाशें इन संबंधों की परिणति बतातीं हैं। अंतत: यही कृत्य उनके बच्चों को संवेदनाहीन बनाकर अपराध की ओर धकेल देते हैं। आंकड़े गवाह हैं कि अधिकांशत: बाल अपराधियों के पीछे मांओं द्वारा किए गए ये कृत्य ही होते हैं।
एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के अनुसार भारत में बाल अपराधियों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, पिछले एक साल में ही 11 फीसदी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। बच्चों के खिलाफ अपराध का आंकड़ा 2015 में जहां 94172 था, वहीं 2016 में यह आंकड़ा 106958 तक पहुंच गया और अब यानि 2020-2021 की शुरुआत में ही हर दिन बच्चों के खिलाफ 350 अपराध दर्ज किए जा रहे हैं।
बाल अपराधियों के बारे में ये आंकड़े आइना दिखा रहे हैं कि मां अपने मातृत्व में कहां चूक रही हैं, वे नई पीढ़ी को कौन सा रूप दे रही हैं, पैदा तो वो देश का भविष्य बनने के लिए होते हैं परंतु उन्हें रक्तबीज बनाया जा रहा है।
दुखद बात यह भी है कि ऐसी भयंकर नकारात्मक घटनाओं के बावजूद हर संभव प्रयास किया जाता है कि उस मां के प्रति तरह-तरह से सहानुभूतियां प्रदर्शित की जायें जबकि मां के इस दूसरे रूप ने बाल अपराधियों की एक लंबी चौड़ी फौज खड़ी कर दी है।
व्यक्तिगत आजादी और उच्छृंखलता से चलकर अपराध तक पहुंचने वाला मार्ग सिर्फ और सिर्फ एक बीमार समाज को ही जन्म दे सकता है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। ये मांएं ऐसा ही कर रही हैं।
रमेंद्र जाखू द्वारा रचित इन चार पंक्तियां के साथ बात खत्म –
”मैं वसीयत कर रहा हूँ
कि मेरे मरने के बाद
मेरी आग उस शख़्स को मिले
जो अंधेरे के ख़िलाफ़
इक जलती हुई मशाल है
जिसका साहस कभी कुंद नहीं होता।”
हमें भी यह साहस करना होगा कि पूरी की पूरी पीढ़ी को बरबाद करने वाली मांओं को महिला के प्रति सहानुभूति की आड़ में ना छुपाएं।
- अलकनंदा सिंंह
बहुत सुन्दर उद्धरण, आलेख और संकलन , बहुत ज्ञान वर्धक, विचारणीय पोस्ट , बधाई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भ्रमर जी
हटाएंबिल्कुल सही लिखा है आपने।🌻
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम जी
हटाएंअलकनंदा जी निशब्द और स्तब्ध हूँ एक बार फिर ! हिन्दुस्तान ,जहाँ कहा जाता है कि पूत कपूत हो जाते हैं माता कुमाता नहीं हो सकती , के बारे में ऐसी भी शोध पर आधारित मनहूस खबर सुनना किसी अभिशाप से कम नहीं |साधन -संपन्न देश में बच्चों को अभिभावकों या कहें कथित 'आधुनिका ' माओं के हाथों इतना उत्पीडन मिल रहा है इससे दुखद कुछ नहीं हो सकता | कथित 'सभ्य' समाज पर स्याह धब्बा है ये कलुषित चलन | धन कमाने के जूनून में नयी पीढ़ी की लडकियों को संस्कार शायद परिवार से नहीं मिल पा रहे अथवा वे अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के चलते नैतिक और चारित्रिक पतन की राह पर चल पड़ी इसका निर्णय कौन करे | ! बहुत वेदना हुई इस जानकारी से | आपका बहत बहुत आभार इस जानकारी के लिए | सादर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद , रेणु जी, बहुत बहुत आभार, लेख के मर्म को इतनी सटीकता से व्याख्यायित करने के लिए ..आपकी टिप्प्णी बहुमूल्य है
हटाएंसही कहा रेणु जी ने हमने तो अब तक यही सुना है और अमल भी करते आये है कि -"माता कुमाता नहीं हो सकती"
जवाब देंहटाएंलेकिन आज का जो समाज है वो माताओं के कुमाता होने के परिणाम स्वरूप ही है। ये हालत सिर्फ चरित्रहीन माताओं के कारण ही नहीं है
वरन वो माताएं भी उतनी ही दोषी है जो घरेलु औरत होने के वावजूद भी सिर्फ और सिर्फ अपनी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति में लगी रहती है और बच्चें बिलखते रहते है। अपने आस-पास ही ऐसी माताओं के बढ़ते तादाद को आप देख सकती है। आये दिन सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो देखने को मिल जाते है जहाँ माँ-बाप फोन में ही लगे है और बच्चें....रामभरोसे पड़े रहते है।
आपने जो आँकड़े बताये है वो तो दिल दहलाने के लिए काफी है। स्थिति चिंतनीय है। इस लेख के लिए दिल से आभार आपका अलकनंदा जी
धन्यवाद , कामिनी जी, बहुत बहुत आभार कि आपने लेख के मर्म को समझा..आपकी टिप्प्णी बहुमूल्य है
हटाएंकड़वा सच
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विभा जी
हटाएंचिंतन परक लेख , समाज की सत्यता से साक्षात्कार कराता
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अभिलाषा जी
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शांतनु जी
हटाएंगंभीर समस्या को इंगित करता सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी
हटाएंअलकनंदाजी, आज माता के कुमाता बनने का मुख्य कारण है - 'जी ले अपनी जिंदगी' या 'क्या मैं अपनी जिंदगी ना जिऊँ, मेरी ख्वाहिशों का क्या?' जैसी सोच !!!
जवाब देंहटाएंमेरा निजी विचार है कि माँ बनने के बाद तो स्त्री की जिंदगी अपनी रह ही नहीं जाती, वह उस जिंदगी के साथ जुड़ जाती है जिसको नौ महीने कोख में रख दुनिया में वही लाई है। अब उसके हर क्रियाकलाप उसके बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए होते हैं।
धन्यवाद मीना जी, आपने शतप्रतिशत सही कहा, मगर चूक तो हमारी अब भी बनी हुई है कि हम अपनी बेटियों को सब सिखा रहे हैं , बस अच्छा इंसान नही... बना रहे
हटाएंविचारणीय आलेख...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विकास जी
हटाएंबहुत कुछ सोचने पर विवश करता है असपक आलेख।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद उर्मिला जी
हटाएंविचारोत्तेजक लेख...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वर्षा जी
हटाएंधन्यवाद यशोदा जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी, मैं तो चर्चामंच की नियमित पाठक हूं...
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