बॉम्बे हाईकोर्ट में नागपुर पीठ की जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने 19 जनवरी को एक विवादित फैसला देकर अपनी ऐसी ही सोच को दर्शाया है। उन्होंने नाबालिग़ बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में दोषी ठहराए गए शख़्स की सज़ा में बदलाव करते हुए ‘यौन उत्पीड़न’ को लेकर कहा कि सिर्फ वक्षस्थल को जबरन छूना (ग्रोपिंग) यौन उत्पीड़न के तहत नहीं माना जाएगा, इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट होना ज़रूरी है। दोषी पाए गए व्यक्ति पर आरोप था कि उसने लालच देकर 12 साल की एक लड़की को अपने घर बुलाया और जबरन उसके वक्षस्थल को छूने और उसके कपड़े उतारने की कोशिश की।
इससे पहले नागपुर सत्र न्यायालय ने भी आईपीसी सेक्शन 354 के तहत एक साल की और पोक्सो के तहत तीन साल की सज़ा सुनाई थी, व्यक्ति ने नागपुर के अतिरिक्त संयुक्त सहायक सत्र न्यायाधीश के उस फ़ैसले को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी । ये दोनों ही सजा एक साथ दी जानी थीं लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद तीन साल की सजा वाला फ़ैसला फिलहाल निष्क्रिय हो गया व हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी है।
पोक्सो क़ानून के प्रावधान कहीं भी निर्वस्त्र करने की बात नहीं करते हैं लेकिन हाईकोर्ट ने ये तर्क दे दिया है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। मैं जज की तार्किकता से सहमत नहीं हूं। इस सेक्शन की मंशा यौन अंगों को जानबूझकर छूने से है, इस तथ्य का कोई मतलब नहीं है कि कपड़े उतारे गए थे या नहीं। यौन अपराधों के मामले में क़ानून बिलकुल स्पष्ट हैं।
फैसला तो कुछ यूं कहता है कि किसी को ग्लव्स पहनकर गलत तरीके से छुआ या शोषण किया जाये तो क्या वह यौन उत्पीड़न के तहत नहीं आएगा?
यूं भी देखने में आया है कि कोर्ट रूम में कई बार पूर्वाग्रह भी जज के फैसले को प्रभावित करते हैं और इस मामले में भी प्रतीत तो ऐसा ही हो रहा है। हो सकता है कि आरोपी व्यक्ति अपनी सफाई में ”कुछ सच” कह भी रहा हो और स्वयं को निर्दोष बता रहा हो, परंतु कम से कम किसी न्यायाधिकारी को तो फैसला देते समय इस बात का ध्यान रखना ही होगा कि कानूनी परिभाषायें अगर बदलीं तो इसका फायदा सबसे पहले गुनहगार ही उठायेंगे। फैसला देते समय हो सकता है जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला के ज़हन में आरोपी निर्दोष रहा हो परंतु कानूनी तौर पर फ़ैसला अतार्किक था।
हम सभी जानते हैं कि कोर्ट्स में दुश्मनी निकालने के लिए कानूनी दुरुपयोग के मामलों की भरमार है परंतु यौन शोषण पर ऐसी किसी भी ”कानूनी दुरुपयोग” की छूट नहीं ली जा सकती। हालांकि अच्छी बात ये है कि कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद से सोशल मीडिया से लेकर क़ानून को जानने वालों के बीच फ़ैसले का विरोध जारी है। देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट अब इस पर क्या फैसला देता है।
– अलकनंदा सिंंह
विचारणीय
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
हटाएंदूषित मानसिकता दिमाग कुंद कर देता है,
जवाब देंहटाएंएक संवेदनशील व्यक्ति कभी भी विषय की गंभीरता के विपरीत फैसला नहीं दे सकता है
ऐसे कुत्सित कृत्य होने पर क्या गुजरती है, यह पीड़ित व्यक्ति और परिवार ही जानता है
धन्यवाद कविता जी, बुद्धिजीवी भी जब ऐसी सोच रखने लगें तो भयभीत होना स्वाभाविक है
हटाएंमानवीय भूलों को लेकर स्वस्थ विमर्श अवश्य होना चाहिए चाहे वो भूल किसी जिम्मेदार पद से क्यों नहीं हुआ हो ।
जवाब देंहटाएंसही कहा अमृता जी, धन्यवाद ब्लॉग पर आने के लिए
हटाएंसर्व प्रथम बधाई | इस विषय पर लेख लिखने के लिए | लेख आद्योपांत तार्किक और सार्थक है | सब कुछ बहुत सुन्दरता व शालीनता से लिखा है आपने |
जवाब देंहटाएं