बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) ने मानवीय मूल्यों पर आधारित एक विजन डॉक्यूमेंट ‘मूल्य प्रवाह’ यूजीसी को सौंपा है जिसका उद्देश्य छात्रों के शैक्षिक ही नहीं, चारित्रिक निर्माण और इसके माध्यम से राष्ट्र निर्माण के महत्व को जन जन तक पहुंचाना है। इस तरह बीएचयू ‘मानवीय मूल्य और नैतिकता’ के लिए नोडल केंद्र की तरह काम करेगा। विश्वविद्यालय स्वयं को डॉक्टर, इंजीनियर, व्यापारी व शास्त्री बनाने तक सीमित नहीं रखना चााहता, वह महामना के उस विचार को ज़मीन पर उतारना चाहता है जो राष्ट्र-विच्छेदी ना होकर पीढ़ियों को राष्ट्र-उत्थानक बना सके।
अभी तक यह हमारी गलतफहमी रही कि हमने सदैव राष्ट्र के उत्थान को सिर्फ राजनीति का विषय माना जबकि राष्ट्र की प्रथम इकाई परिवार होता है और परिवार से ही उत्थान या सुधार प्रारंभ होने चाहिए, परिवार में श्रेष्ठ संस्कार जब अपनों के प्रति मर्यादित होंगे तो हर तरह की प्रगति भी मर्यादित होगी और समाज का विकास भी सुसंस्कारित होगा।
सवाल पैदा होता है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को आखिर ऐसी जरूरत ही क्यों पड़ी… ? तो इस पर बात मुझे कहीं पर पढ़ा हुआ एक दृष्टांत याद आ रहा है…
महाभारत युद्ध की समाप्ति पर श्रीकृष्ण और द्रौपदी में संवाद हो रहा है—-
18 दिन के युद्ध ने द्रोपदी की उम्र को 80 वर्ष जैसा कर दिया था…शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी! शहर में चारों तरफ़ विधवाओं का बाहुल्य था..पुरुष तो ना के बराबर बचे थे। चारों ओर बस अनाथ बच्चे ही घूमते दिखाई पड़ते थे और उन सबकी वह ”महारानी द्रौपदी” हस्तिनापुर के महल में निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को निहार रही थी। तभी श्रीकृष्ण कक्ष में दाखिल होते हैं…
द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है …कृष्ण उसके सिर को सहलाते रहते हैं और रोने देते हैं…थोड़ी देर में, उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बैठा देते हैं।
द्रोपदी: यह क्या हो गया सखा ?
ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।
कृष्ण: नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली..
वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती! वह हमारे ”कर्मों को परिणामों में” बदल देती है।
तुम प्रतिशोध लेना चाहती थींं ना, और तुम सफल भी हुईंं, द्रौपदी! तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ… सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं, सारे कौरव समाप्त हो गए! तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !
द्रोपदी: सखा, तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए ?
कृष्ण: नहीं द्रौपदी, मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने आया हूँ! हमारे कर्मों के परिणाम (अच्छे अथवा बुरे) को हम, दूर तक नहीं देख पाते और जब वे हमारे सामने आते हैं, तब तक परिस्थितियां बहुत कुछ बदल चुकी होती हैं, तब हमारे हाथ में कुछ नहीं रहता।
द्रोपदी: तो क्या, इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूँ कृष्ण?
कृष्ण: नहीं, द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो…
लेकिन, तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी दूरदर्शिता रखतींं तो स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।
द्रोपदी: मैं क्या कर सकती थी कृष्ण?
कृष्ण: तुम बहुत कुछ कर सकती थीं! …जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ…तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करतींं और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देती तो, शायद परिणाम कुछ और होता।
इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पाँच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया…तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती तो भी, परिणाम कुछ और होता।
और…
उसके बाद तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया…
कि अंधों के पुत्र अंधे होते हैं। वह नहीं कहतींं तो तुम्हारा चीर हरण नहीं होता…तब भी शायद, परिस्थितियाँ कुछ और होतींं।
हमारे शब्द भी
हमारे कर्म ही होते हैं द्रोपदी…
और हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत ज़रूरी होता है…अन्यथा उसके दुष्परिणाम सिर्फ़ स्वयं को ही नहीं… अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं। संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है…जिसका “विष” उसके “दाँतों” में नहीं, “शब्दों” में है…
द्रोपदी को यह सुनाकर हमें श्रीकृष्ण ने वो सीख दे दी जो आए दिन हम गाल बजाते हुए ना तो याद रख पाते हैं और ना ही कोशिश करते हैं। नतीजतन घटनाएं, दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मामूली सा वाद-विवाद रक्तरंजित सामाजिक क्लेश में…।
फिलहाल बीएचयू का 21 पेज वाला विजन डॉक्यूमेंट ‘मूल्य प्रवाह’ एक अनोखी पहल तो है ही। बीएचयू में ही मानवीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा का केंद्र जहां बनेगा, शीघ्र ही ‘मालवीय मूल्य अनुशीलन केंद्र को नोडल सेंटर बनाया जाएगा। इसी सेशन से विद्यार्थियों को औपचारिक पाठ्यक्रमों में भी मूल्य नीति पढ़ाई जा सकेगी। यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. डीपी सिंह और मालवीय मूल्य अनुशीलन केंद्र के समन्वयक प्रो. आशाराम त्रिपाठी को इस पहल का श्रेय जाता है।
शिक्षा के माध्यम से संस्कार अगर लगातार दिए जाएंऔर उनका प्रयोग घर व परिवार से शुरू हो तो निश्चित ही परिणाम अच्छे ही आऐंगे। बीएचयू की ये पहल हमें ऐसा प्राणी बनने से बचा सकती है जो कि अपने ”शब्दों में ज़हर” लेकर चलता है और गाहे-बगाहे उसे किसी पर उड़ेल कर सुख भी पाता है।
– अलकनंदा सिंंह
"महामना के उस विचार को ज़मीन पर उतारना चाहता है जो राष्ट्र-विच्छेदी ना होकर पीढ़ियों को राष्ट्र-उत्थानक बना सके।" बिल्कुल सही लिखा है आपने। बाकी मै भी इसी विश्वविद्यालय का छात्र हूं।
जवाब देंहटाएंअरे वाह शिवम जी, ये तो बड़े सम्मान की बात है वहां का छात्र होना...धन्यवाद
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 26 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दिव्या जी, यशोदा जी को नमस्कार कहिएगा
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं72वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
धन्यवाद शास्त्री जी, आपको भी गणतंत्र दिवस की बहुत शुभकामनाएँ
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन। गणतंत्र दिवस की असंख्य शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शांतनु जी, आपको भी गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
हटाएंकृष्ण और द्रौपदी संवाद के माध्यम से शब्दों की महत्ता को आत्मसात करना भी मानव धर्म है । जिसका निर्वहन किया ही जाना चाहिए । दुःखद बात तो यह है कि इसे भी बताना पड़ता है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अमृता जी, इतनी महत्वपूर्ण टिप्प्णी के लिए आभार
हटाएंहमारे शब्द भी
जवाब देंहटाएंहमारे कर्म ही होते हैं द्रोपदी…| पूरा लेख पढ़ा | एक एक शब्द मूल्यवान है | बहुत सुन्दर |