आज कल मुस्लिम महिलाएं Center of debate हैं। जब से सात अक्तूबर को केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिमों में जारी तीन तलाक, निकाह हलाला तथा बहुविवाह प्रथाओं का विरोध किया और लैंगिक समानता एवं धर्मनिरपेक्षता के आधार पर इन पर दोबारा गौर करने की वकालत की, तभी से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उसके पदाधिकारी जफरयाब जिलानी और इस्लाम के तमाम ठेकेदार कमर कस कर मैदान में आ डटे हैं कि आखिर सुप्रीम कोर्ट, विधि आयोग या केंद्र सरकार की हिम्मत कैसे हुई शरियत (7वीं सदी के कानून ) के कानून में दखल देने की।
तीन तलाक के विरोधी बड़ा खम ठोंक रहे हैं कि 90 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं शरिया कानून का समर्थन करती हैं। उनका यही दावा सवाल उठा रहा है कि जब ऐसा है तो तीन तलाक के विरोध में किया गया सर्वे का रिजल्ट 92% क्यों आया। महिलाओं के प्रति होती रही ज्यादती के लिए क्यों पर्सनल बोर्ड ने अभी तक कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाए। क्यों कोर्ट को दखल देने की जरूरत पड़ी और क्यों केंद्र सरकार को बाध्य होना पड़ा वो सच बताने के लिए जिसे अभी तक पर्सनल बोर्ड ने हिजाब में रखा हुआ था।
बहस के बहाने ही सही, ये जरूरी था कि इस्लाम-शरियत तथा कुरान के जो टॉपिक्स टैबू बनाकर रखे गये, वो सबके सामने आएं। इसके लिए पहले शाहबानो प्रकरण से जो बहस तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के दब्बूपन के कारण below the carpet कर दी गई थी, वही आज केंद्र सरकार ने Center of debate बना दी है। इसके लिए सरकार या सुप्रीम कोर्ट को दोषी बताना पर्सनल लॉ बोर्ड की खुद की अहमियत कम कर देगा क्योंकि इस बार भी एक भुक्तभोगी महिला ने ही अपने लिए सुप्रीम कोर्ट में न्याय मांगा है।
ये एक अभियान है जिसकी शुरूआत तो एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के इन प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी मगर अब मुस्लिम महिला मंच ने इसके आगे की कमान संभाल ली है। बहस की सूत्रधार शायरा बानो उत्तराखंड की हैं, जिन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि उसके साथ क्रूर बर्ताव करने वाले पति ने उसे तीन बार तलाक बोल कर अपनी ज़िन्दगी से अलग कर दिया। शायरा बानो का कहना है कि पर्सनल लॉ के तहत मर्दों को हासिल तलाक-ए-बिदत यानी तीन बार तलाक कहने का हक़ महिलाओं को गैरबराबरी की स्थिति में रखने वाला है।
शायरा ने अपनी याचिका में निकाह हलाला के प्रावधान को भी चुनौती दी है। इस प्रावधान के चलते तलाक के बाद कोई महिला दोबारा अपने पति से शादी नहीं कर सकती। अपने पूर्व पति से दोबारा शादी करने के लिए उसे पहले किसी और मर्द से शादी कर तलाक लेना पड़ता है।
याचिका में मुस्लिम मर्दों को 4 महिलाओं से विवाह की इजाज़त को भी चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया है कि ये सभी प्रावधान संविधान से हर नागरिक को मिले बराबरी और सम्मान के साथ जीने के अधिकार के खिलाफ हैं। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं को बराबरी और सम्मान दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट के सेक्शन 2 को असंवैधानिक करार देना चाहिए। इस सेक्शन में इन प्रावधानों का ज़िक्र है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अनिल दवे और ए के गोयल की बेंच ने इस याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी कर जवाब माँगा जिस पर कानून एवं न्याय मंत्रालय ने अपने हलफनामे में लैंगिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, अंतर्राष्ट्रीय नियमों, धार्मिक प्रथाओं और विभिन्न इस्लामी देशों में मार्शल लॉ का उल्लेख करते हुए कहा कि शीर्ष अदालत को तीन तलाक और बहुविवाह के मुददे पर नए सिरे से निर्णय देना चाहिए।
जाहिर है कि सातवीं सदी के इस इस्लामी कानून को आज 21वीं सदी में भी जस का तस लागू किया जाना सिर्फ शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए ही नहीं पूरे मुस्लिम समाज के लिए भी खतरनाक है।
मुस्लिमों में ‘तीन तलाक’ की प्रथा पर बैन लगाने से जुड़े भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की मांग का यूपी की प्रथम महिला काजी ने भी समर्थन किया है। हिना जहीर नकवी ने इस प्रथा को ‘कुरान की आयतों का गलत मतलब निकाला जाना’ करार दिया है।
नकवी ने इस प्रथा पर तत्काल प्रभाव से बैन लगाने की मांग भी की। नकवी ने कहा कि मौखिक तौर पर तलाक देने की प्रथा का बेजां इस्तेमाल हुआ है। इसने मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को खतरे में डाल दिया है। इससे सिर्फ तलाक को बढ़ावा मिल रहा है। यहां तक कि कुरान में इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया, जिससे मौखिक तलाक को बढ़ावा दिया जाए। यह कुरान की आयतों को गलत मतलब निकाला जाना है।’
गौरतलब है कि करीब 50 हजार मुस्लिम महिलाओं व पुरुषों ने तीन तलाक की प्रथा पर बैन से जुड़ी याचिका पर दस्तखत किए हैं। अब इसमें राष्ट्रीय महिला आयोग से दखल देने की भी मांग मुस्लिम महिला मंच कर रहा है।
देखते हैं कि इस बहस और टकराव का परिणाम क्या निकलेगा, बहरहाल बात निकल चुकी है दूर तलक
जाने के लिए...
मशहूर कव्वाल साबरी ब्रदर्स ने अमीर खुसरो के शब्दों को क्या खूब गाया है-
बहुत कठिन है डगर पनघट की...मुस्लिम महिलाओं की इस डगर की कठिनाई तो अभी शुरु हुई है, परंतु इतना भरोसा है कि न्याय अवश्यंभावी है।
- अलकनंदा सिंह
तीन तलाक के विरोधी बड़ा खम ठोंक रहे हैं कि 90 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं शरिया कानून का समर्थन करती हैं। उनका यही दावा सवाल उठा रहा है कि जब ऐसा है तो तीन तलाक के विरोध में किया गया सर्वे का रिजल्ट 92% क्यों आया। महिलाओं के प्रति होती रही ज्यादती के लिए क्यों पर्सनल बोर्ड ने अभी तक कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाए। क्यों कोर्ट को दखल देने की जरूरत पड़ी और क्यों केंद्र सरकार को बाध्य होना पड़ा वो सच बताने के लिए जिसे अभी तक पर्सनल बोर्ड ने हिजाब में रखा हुआ था।
बहस के बहाने ही सही, ये जरूरी था कि इस्लाम-शरियत तथा कुरान के जो टॉपिक्स टैबू बनाकर रखे गये, वो सबके सामने आएं। इसके लिए पहले शाहबानो प्रकरण से जो बहस तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के दब्बूपन के कारण below the carpet कर दी गई थी, वही आज केंद्र सरकार ने Center of debate बना दी है। इसके लिए सरकार या सुप्रीम कोर्ट को दोषी बताना पर्सनल लॉ बोर्ड की खुद की अहमियत कम कर देगा क्योंकि इस बार भी एक भुक्तभोगी महिला ने ही अपने लिए सुप्रीम कोर्ट में न्याय मांगा है।
ये एक अभियान है जिसकी शुरूआत तो एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के इन प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी मगर अब मुस्लिम महिला मंच ने इसके आगे की कमान संभाल ली है। बहस की सूत्रधार शायरा बानो उत्तराखंड की हैं, जिन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि उसके साथ क्रूर बर्ताव करने वाले पति ने उसे तीन बार तलाक बोल कर अपनी ज़िन्दगी से अलग कर दिया। शायरा बानो का कहना है कि पर्सनल लॉ के तहत मर्दों को हासिल तलाक-ए-बिदत यानी तीन बार तलाक कहने का हक़ महिलाओं को गैरबराबरी की स्थिति में रखने वाला है।
शायरा ने अपनी याचिका में निकाह हलाला के प्रावधान को भी चुनौती दी है। इस प्रावधान के चलते तलाक के बाद कोई महिला दोबारा अपने पति से शादी नहीं कर सकती। अपने पूर्व पति से दोबारा शादी करने के लिए उसे पहले किसी और मर्द से शादी कर तलाक लेना पड़ता है।
याचिका में मुस्लिम मर्दों को 4 महिलाओं से विवाह की इजाज़त को भी चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया है कि ये सभी प्रावधान संविधान से हर नागरिक को मिले बराबरी और सम्मान के साथ जीने के अधिकार के खिलाफ हैं। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं को बराबरी और सम्मान दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट के सेक्शन 2 को असंवैधानिक करार देना चाहिए। इस सेक्शन में इन प्रावधानों का ज़िक्र है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अनिल दवे और ए के गोयल की बेंच ने इस याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी कर जवाब माँगा जिस पर कानून एवं न्याय मंत्रालय ने अपने हलफनामे में लैंगिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, अंतर्राष्ट्रीय नियमों, धार्मिक प्रथाओं और विभिन्न इस्लामी देशों में मार्शल लॉ का उल्लेख करते हुए कहा कि शीर्ष अदालत को तीन तलाक और बहुविवाह के मुददे पर नए सिरे से निर्णय देना चाहिए।
जाहिर है कि सातवीं सदी के इस इस्लामी कानून को आज 21वीं सदी में भी जस का तस लागू किया जाना सिर्फ शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए ही नहीं पूरे मुस्लिम समाज के लिए भी खतरनाक है।
मुस्लिमों में ‘तीन तलाक’ की प्रथा पर बैन लगाने से जुड़े भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की मांग का यूपी की प्रथम महिला काजी ने भी समर्थन किया है। हिना जहीर नकवी ने इस प्रथा को ‘कुरान की आयतों का गलत मतलब निकाला जाना’ करार दिया है।
नकवी ने इस प्रथा पर तत्काल प्रभाव से बैन लगाने की मांग भी की। नकवी ने कहा कि मौखिक तौर पर तलाक देने की प्रथा का बेजां इस्तेमाल हुआ है। इसने मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को खतरे में डाल दिया है। इससे सिर्फ तलाक को बढ़ावा मिल रहा है। यहां तक कि कुरान में इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया, जिससे मौखिक तलाक को बढ़ावा दिया जाए। यह कुरान की आयतों को गलत मतलब निकाला जाना है।’
गौरतलब है कि करीब 50 हजार मुस्लिम महिलाओं व पुरुषों ने तीन तलाक की प्रथा पर बैन से जुड़ी याचिका पर दस्तखत किए हैं। अब इसमें राष्ट्रीय महिला आयोग से दखल देने की भी मांग मुस्लिम महिला मंच कर रहा है।
देखते हैं कि इस बहस और टकराव का परिणाम क्या निकलेगा, बहरहाल बात निकल चुकी है दूर तलक
जाने के लिए...
मशहूर कव्वाल साबरी ब्रदर्स ने अमीर खुसरो के शब्दों को क्या खूब गाया है-
बहुत कठिन है डगर पनघट की...मुस्लिम महिलाओं की इस डगर की कठिनाई तो अभी शुरु हुई है, परंतु इतना भरोसा है कि न्याय अवश्यंभावी है।
- अलकनंदा सिंह
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