लो जी, औरत फिर से राजनीति के दरम्यान आ गई, कमाल है भाई... खैर चलो इतना तो अच्छा हुआ कि स्टैंडर्ड इंटरनेशनली हो गया।
कहावत शायद ये सदियों पुरानी है कि आदमी या सल्तनतों की लड़ाई हमेशा ज़र, ज़ोरू और ज़मीन पर अपने अधिकार को लेकर होती है। ये कहावत कभी ना तो उल्टे होते देखी, ना ही समय का इस कहावत और इसके परिणामों पर आज तक कोई असर पड़ा।
ज़ोरू जो एक औरत भी होती है, वह इस कहावत में कतई अस्तित्वहीन परंतु महत्वपूर्ण सब्जेक्ट के तौर पर इस्तेमाल की जाती रही है। उसकी इच्छा से मालिक का निर्धारण्ा नहीं होता, खैर इस ओर चर्चा का रुख मोड़ने का मतलब है कि इसका फैमिनिस्ट कंवर्सेशन में तब्दील हो जाना, लेकिन मेरा आशय दूसरा है।
कल जब से नवाज़ शरीफ ने शराफ़त के तहत ''गांव की औरत'' को सवा करोड़ी जनसंख्या वाले देश के प्रधानमंत्री की ''तारीफ'' के काम में लिया तभी से एसेट बनी औरत को इंटरनेशनली अहमियत मिलनी शुरू हो गई।
नरेंद्र मोदी ने पढ़े लिखे प्रधानमंत्री की गांव की औरत से तुलना को देश का अपमान बताया तो कांग्रेस ने अचानक गांव की औरत की शान में इतने कसीदे गढ़े कि जिस टीवी की स्क्रीन पर उनका दीदार हो रहा था वहां बस, साक्षात देवी का अवतरण होना बाकी रह गया। उधर नवाज शरीफ ने भी औरत को बतौर कहावत इस्तेमाल करने पर अनौपचारिक अफसोस सा जता दिया है ।
कुल मिलाकर गांव की औरत को हर तरफ से इतना इंटरनेशनली महत्व मिलते कम से कम मैंने तो नहीं देखा।
इस सारी राजनैतिक चुहलबाजी में गांव की औरत वर्चुअली मौज़ूद रही और देखिए इसे भी इज़्जत से ही जोड़ा गया। गोया कि गांव की औरत है तो वह ज़ाहिल ही होगी, जो घर के मसले दूसरों के सामने नुमांया कर देती है।
गहरे अर्थ हैं गांव की औरत को मिली इस उपमा के, इसे नेगेटिव और पॉजिटिव दोनों पहलुओं से देखा जाना चाहिए कि... नेगेटिवली सोचें तो घर के मसले को औरों के सामने ले जाना ज़ाहिलाना हरकत तो हो सकती है मगर इसे पॉजिटिवली सोचते हुये घर के मसलों का हल निकालने की एक कोशिश के तौर पर देखना संभवत: आदमी को गवारा नहीं क्योंकि आदमी लिबरल नहीं हो सकता। लिबरलाइजेशन तो कमजोरों की थाती होती है ना, और आदमी कमजोर नहीं हो सकता यानि जो कमजोर है वह औरत ही हुआ ना...कतई निर्बल..अस्तित्वहीन.. या फिर मौजूदा परिपेक्ष्य में बकौल नवाज शरीफ के देखें तो वह हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं।
बहरहाल, ये तो शब्दों का जंजाल है और कसीदों का मायाजाल... एक तार निकालोगे तो हज़ारों निकलते जायेंगे। बात बस इतनी है इंटरनेशनली भी आदमी को, मुल्क को, जहनियत को, अपनी प्रभुता दिखाने के लिए औरत का ही सहारा लेना पड़ रहा है तो ज़रा सोचिए कमजोर कौन हुआ...।
- अलकनंदा सिंह
कहावत शायद ये सदियों पुरानी है कि आदमी या सल्तनतों की लड़ाई हमेशा ज़र, ज़ोरू और ज़मीन पर अपने अधिकार को लेकर होती है। ये कहावत कभी ना तो उल्टे होते देखी, ना ही समय का इस कहावत और इसके परिणामों पर आज तक कोई असर पड़ा।
ज़ोरू जो एक औरत भी होती है, वह इस कहावत में कतई अस्तित्वहीन परंतु महत्वपूर्ण सब्जेक्ट के तौर पर इस्तेमाल की जाती रही है। उसकी इच्छा से मालिक का निर्धारण्ा नहीं होता, खैर इस ओर चर्चा का रुख मोड़ने का मतलब है कि इसका फैमिनिस्ट कंवर्सेशन में तब्दील हो जाना, लेकिन मेरा आशय दूसरा है।
कल जब से नवाज़ शरीफ ने शराफ़त के तहत ''गांव की औरत'' को सवा करोड़ी जनसंख्या वाले देश के प्रधानमंत्री की ''तारीफ'' के काम में लिया तभी से एसेट बनी औरत को इंटरनेशनली अहमियत मिलनी शुरू हो गई।
नरेंद्र मोदी ने पढ़े लिखे प्रधानमंत्री की गांव की औरत से तुलना को देश का अपमान बताया तो कांग्रेस ने अचानक गांव की औरत की शान में इतने कसीदे गढ़े कि जिस टीवी की स्क्रीन पर उनका दीदार हो रहा था वहां बस, साक्षात देवी का अवतरण होना बाकी रह गया। उधर नवाज शरीफ ने भी औरत को बतौर कहावत इस्तेमाल करने पर अनौपचारिक अफसोस सा जता दिया है ।
कुल मिलाकर गांव की औरत को हर तरफ से इतना इंटरनेशनली महत्व मिलते कम से कम मैंने तो नहीं देखा।
इस सारी राजनैतिक चुहलबाजी में गांव की औरत वर्चुअली मौज़ूद रही और देखिए इसे भी इज़्जत से ही जोड़ा गया। गोया कि गांव की औरत है तो वह ज़ाहिल ही होगी, जो घर के मसले दूसरों के सामने नुमांया कर देती है।
गहरे अर्थ हैं गांव की औरत को मिली इस उपमा के, इसे नेगेटिव और पॉजिटिव दोनों पहलुओं से देखा जाना चाहिए कि... नेगेटिवली सोचें तो घर के मसले को औरों के सामने ले जाना ज़ाहिलाना हरकत तो हो सकती है मगर इसे पॉजिटिवली सोचते हुये घर के मसलों का हल निकालने की एक कोशिश के तौर पर देखना संभवत: आदमी को गवारा नहीं क्योंकि आदमी लिबरल नहीं हो सकता। लिबरलाइजेशन तो कमजोरों की थाती होती है ना, और आदमी कमजोर नहीं हो सकता यानि जो कमजोर है वह औरत ही हुआ ना...कतई निर्बल..अस्तित्वहीन.. या फिर मौजूदा परिपेक्ष्य में बकौल नवाज शरीफ के देखें तो वह हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं।
बहरहाल, ये तो शब्दों का जंजाल है और कसीदों का मायाजाल... एक तार निकालोगे तो हज़ारों निकलते जायेंगे। बात बस इतनी है इंटरनेशनली भी आदमी को, मुल्क को, जहनियत को, अपनी प्रभुता दिखाने के लिए औरत का ही सहारा लेना पड़ रहा है तो ज़रा सोचिए कमजोर कौन हुआ...।
- अलकनंदा सिंह