रविवार, 29 सितंबर 2013

कमजोर कौन का इंटरनेशनल स्‍टैंडर्ड

लो जी, औरत फिर से राजनीति के दरम्‍यान आ गई, कमाल है भाई... खैर चलो इतना तो अच्‍छा हुआ कि स्‍टैंडर्ड इंटरनेशनली हो गया।
कहावत शायद ये सदियों पुरानी है कि आदमी या सल्‍तनतों की लड़ाई हमेशा ज़र, ज़ोरू और ज़मीन पर अपने अधिकार को लेकर होती है। ये कहावत कभी ना तो उल्‍टे होते देखी, ना ही समय का इस कहावत और इसके परिणामों पर आज तक कोई असर पड़ा।
ज़ोरू जो एक औरत भी होती है, वह इस कहावत में कतई अस्‍तित्‍वहीन परंतु महत्‍वपूर्ण सब्‍जेक्‍ट के तौर पर इस्‍तेमाल की जाती रही है। उसकी इच्‍छा से मालिक का निर्धारण्‍ा नहीं होता, खैर इस ओर चर्चा का रुख मोड़ने का मतलब है कि इसका फैमिनिस्‍ट कंवर्सेशन में तब्‍दील हो जाना, लेकिन मेरा आशय  दूसरा है।
कल जब से नवाज़ शरीफ ने शराफ़त के तहत ''गांव की औरत'' को सवा करोड़ी जनसंख्‍या वाले देश के प्रधानमंत्री की ''तारीफ'' के काम में लिया तभी से एसेट बनी औरत को इंटरनेशनली अहमियत मिलनी शुरू हो गई।
नरेंद्र मोदी ने पढ़े लिखे प्रधानमंत्री की गांव की औरत से तुलना को देश का अपमान बताया तो कांग्रेस ने अचानक गांव की औरत की शान में इतने कसीदे गढ़े कि जिस टीवी की स्‍क्रीन पर उनका दीदार हो रहा था वहां बस, साक्षात देवी का अवतरण होना बाकी रह गया। उधर नवाज शरीफ ने भी औरत को बतौर कहावत इस्‍तेमाल करने पर अनौपचारिक अफसोस सा जता दिया है ।
कुल मिलाकर गांव की औरत को हर तरफ से इतना इंटरनेशनली महत्‍व मिलते कम से कम मैंने तो नहीं देखा।
इस सारी राजनैतिक चुहलबाजी में गांव की औरत वर्चुअली मौज़ूद रही और देखिए इसे भी इज्‍़जत से ही जोड़ा गया। गोया कि गांव की औरत है तो वह ज़ाहिल ही होगी, जो घर के मसले दूसरों के सामने नुमांया कर देती है।
गहरे अर्थ हैं गांव की औरत को मिली इस उपमा के, इसे नेगेटिव और पॉजिटिव दोनों पहलुओं से देखा जाना चाहिए कि... नेगेटिवली सोचें तो घर के मसले को औरों के सामने ले जाना ज़ाहिलाना हरकत तो हो सकती है मगर इसे पॉजिटिवली सोचते हुये घर के मसलों का हल निकालने की एक कोशिश के तौर पर देखना संभवत: आदमी को गवारा नहीं क्‍योंकि आदमी लिबरल नहीं हो सकता। लिबरलाइजेशन तो कमजोरों की थाती होती है ना, और आदमी कमजोर नहीं हो सकता यानि जो कमजोर है वह औरत ही हुआ ना...कतई निर्बल..अस्‍तित्‍वहीन.. या फिर मौजूदा परिपेक्ष्‍य में बकौल नवाज शरीफ के देखें तो वह हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं।
बहरहाल, ये तो शब्‍दों का जंजाल है और कसीदों का मायाजाल... एक तार निकालोगे तो हज़ारों निकलते जायेंगे। बात बस इतनी है इंटरनेशनली भी आदमी को, मुल्‍क को, जहनियत को, अपनी प्रभुता दिखाने के लिए औरत का ही सहारा लेना पड़ रहा है तो ज़रा सोचिए कमजोर कौन हुआ...।
- अलकनंदा सिंह

रविवार, 22 सितंबर 2013

डेढ़ सीएम..डेढ़ साल.. डेढ़ सौ दंगे

समय- डेढ़ साल ...उपलब्‍धि- डेढ़ सौ दंगे...राजनीतिक शतरंजी चाल- डेढ़ घर...
प्रशासनिक अफसरों का डेढ़-डेढ़ दिन में ट्रांसफर...
ये है हमारी प्रदेश सरकार जिसके हिस्‍से में मुख्‍यमंत्री भी डेढ़ ही आया  है...जिसमें पूरे एक मुख्‍यमंत्री हैं मुलायम सिंह और आधे पुछल्‍ले के रूप में  लटकते अखिलेश बाबू...और तो और दोनों ही जुबान भी डेढ़ बोलते हैं,  यकीन ना हो तो देखें कि मुलायम सिंह आधी जुबान ही काम में लेते हैं तो  अखिलेश बाबू पूरी जुबान से भी कनफर्म्ड बयान न देकर ''कहीं ना कहीं''  जुमले को हर बात में बोलने के आदी हैं।
यूं कहने को तो सभी कह रहे हैं कि प्रदेश को चार-चार मुख्‍यमंत्री चला रहे  हैं मगर ''मुखिया जी'' तो डेढ़ ही हैं ना।
जहां तक बात प्रदेश की राजनैतिक स्‍थितियों की है तो दंगों से झुलसते  प्रदेश में उठी चिंगारियां फिलहाल शांत होंगी, ऐसा कहीं से भी दिखाई नहीं  देता। एक ओर तो मुज़फ्फ़रनगर दंगों में नामज़द भारतीय जनता पार्टी के  नेताओं की गिरफ्तारी ने भाजपा को 2014 तक के लिए मसाला मुहैया करा  दिया है और इसी के साथ उसे अपने अंदर की सत्‍तालिप्‍सा की सड़ांध को  ढांपने का समय और मौका दोनों मिल गया। दूसरी ओर सत्‍तारूढ़  समाजवादियों को सांप्रदायिकता की आड़ में प्रदेश की अराजक स्‍थितियों को  दायें-बायें करने का मौका मिल गया।
सपा के आधे मुख्‍यमंत्री अखिलेश ने लैपटॉप बांटे तो बिजली महंगी कर दी,  सपा के मुखिया और पूरे साबुत मुख्‍यमंत्री मुलायम ने कांग्रेस को संसद में  हर बिल पर समर्थन देकर सीबीआई जांच से अपने पूरे खानदान को मुक्‍त  करवा लिया। चलो इसी बहाने केंद्र से मिलने वाले 'करोड़ी पैकेजे' आधे से  ज्‍यादा अपने खानदान की ही झोली में आयेंगे और उसे विदेशों में निवेश  करना आसान होगा।
उधर कांग्रेस ने पर्दानशीं होकर दंगों के बाद जो आंसू बहाये उनमें मुसलमान  पिघले या नहीं, कहा नहीं जा सकता अलबत्‍ता बहिन मायावती की जरूर  धुलाई हो गई। वे और उनके शिष्‍य तो सांप्रदायिक तत्‍वों के खिलाफ बोलने  गये थे, गले पड़ गई दंगों को भड़काने में नामज़दगी लिहाजा पुलिस और  सीबीआई के हाथ फिर से गर्दन तक पहुंचने को बेताब हैं।
अब देखिए ना, इन सारे परिदृश्‍यों में भाजपा को अपनी 84 कोसी यात्रा की  विफलता से मुंह चुराने की जरूरत नहीं पड़ेगी, इसके लिए उनके प्यादे जेल  जायेंगे...दंगों की प्रोसेस ऑफ जेनेसिस (उत्‍पत्‍ति की प्रक्रिया) को अब  गुजरात से उत्‍तरप्रदेश में शिफ्ट होने का मौका मिल जायेगा, इस सारी  हायतौबा में मोदी के नाम तले पार्टी की प्रदेश इकाई को अपने अवगुण और  नाकामियों को भी ढकने में आसानी होगी, 'पार्टी विद द डिफरेंस' के तमगे  को भी फिर से अपने डिफरेंसेस दूर करने का अवसर मिल जायेगा,  मुसलमानों का अन्‍य पार्टियों से होने वाला मोहभंग अपने लिए वरदान  बनाने में सहायता मिलेगी, सो अलग।
खैर, बात इतनी सी है कि लोकसभाई चुनावों के साग में नमक का काम  करेंगे ये मुज़फ्फरी दंगे और इन सात आठ महीनों के समय का सदुपयोग  सभी अपने-अपने तरीके से करने के लिए कमर कसे हैं मगर इस सबके  बीच बात वहीं ''डेढ़'' पर आकर ठहरती है कि हमारे डेढ़ मुख्‍यमंत्री अपनी डेढ़  वर्षीय सरकार को कब पूरे पैरों पर चलायेंगे, फिलहाल तो ऐसा नज़र नहीं  आता सो उत्‍तरप्रदेश के भाग्‍य में डेढ़ जुबानी मुख्‍यमंत्रियों का ये डेढ़ चाल  वाला रवैया प्रदेश की हालत और इसके हालातों पर कोई मुकम्‍मल बात  करेगा, मुश्‍किल लगता है। रही बात जनता की तो वो काफी अरसे से  प्रयोगवाद की फैक्‍ट्री बनी हुई है इस बार एक प्रयोग दंगों के आफ्टर  इफेक्‍ट्स का भी सही....।
- अलकनंदा सिंह

सेलिंगर की पांच नई किताबों में वेदांता भी

प्रसिद्ध उपन्यास ‘दी कैचर इन दी राई ’ के लेखक जेरोम डेविड सेलिंगर की लिखी अंतिम कहानी यूं तो वर्ष 1965 में प्रकाशित हुई थी लेकिन इसके बाद भी वह वर्ष 2010 में मृत्यु से पहले तक लगातार लिखते ही रहे थे। उनके जीवनी लेखकों का कहना है कि वेदांत पर आधारित पुस्तक के अलावा उनकी लिखी पांच नई पुस्तकें जल्द ही प्रकाशित होने वाली हैं।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

झुंपा हुई मैन बुकर प्राइज के लिए शॉर्टलिस्ट

पुलित्जर पुरस्कार विजेता भारतवंशी लेखिका झुंपा लाहिड़ी को अमेरिका के 'नेशनल बुक अवार्ड' की उपन्यास श्रेणी में नामित किया गया है। इसके एक दिन पहले उन्हें उनके नए उपन्यास 'द लोलैंड' के लिए 'मैन बुकर' पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। 1960 के दशक में कोलकाता में रहने वाले दो भाईयों की कहानी पर आधारित लाहिड़ी के उपन्यास के अलावा लेखक टॉम ड्रुरी का 'पेसिफिक', एलिजाबेथ ग्रैवर्स का 'द एंड ऑफ द प्वाइंट' और रचेल कुशनर का 'द फ्लेमथ्रोअर्स' भी इस पुरस्कार की दौड़ में शामिल हैं।
नेशनल बुक फाउंडेशन ने कहा कि यंग पीपुल्स के साहित्य, कविता, उपन्यास और गैर उपन्यास की श्रेणी में अंतिम दौर में पहुंचने वाले लेखक-लेखिकाओं के नाम की घोषणा 16 अक्टूबर को की जाएगी और विजेता का नाम 20 नवंबर को न्यूयॉर्क में घोषित होगा। लंदन में जन्मी लाहिड़ी (46) न्यूयॉर्क के ब्रुकलिन में रहती हैं और उनका संबंध पश्चिम बंगाल से है।
उन्होंने इससे पहले तीन पुस्तकें लिखी हैं और उनकी पहली पहली पुस्तक 'इंटरपेट्रर ऑफ मालादीज' कहानियों की श्रंखला थी जिसे पुलित्जर पुरस्कार और पीईएन/हेमिंग्वे अवार्ड प्राप्त हुआ था। उनके उपन्यास 'द नेमसेक ' को भी काफी चर्चा मिली थी और प्रसिद्ध फिल्मकार मीरा नायर ने इसी नाम से इस पर एक फिल्म भी बनाई थी। उनकी दूसरी पुस्तक 'अनअकस्टम्ड अर्थ' थी और उसे न्यूयार्क टाइम्स बुक रिव्यू में शीर्ष 10 पुस्तकों में स्थान दिया गया था। -एजेंसी
 

बाध्‍यताओं की कसौटी पर परंपरायें

साल में एक बार पंद्रह दिन के लिए अपने बुज़ुर्गों को श्रद्धा अर्पित करने का समय शुरू हो चुका है। लगभग हर सनातनी परिवार में इसे मनाया जाता है मगर आज नई पीढ़ी की हाइटेक सोच से लेकर महंगाई जैसी समस्‍याएं इस श्रद्धापर्व को मनाये जाने के तरीके और औचित्‍य पर तमाम सवाल उठाते हुये हावी हो रही हैं। उन लोगों को, जो सनातनी परंपराओं को धर्म बना बैठे हैं, अब सटीक जवाब खोज लेने चाहिये।
अब देखिए ना....पंडित जी सुनाये जा रहे थे कि श्राद्ध कैसे करने चाहिये, क्‍यों करने चाहिए आदि आदि ...अभी अभी अपनी अपनी जॉब से जैसे-तैसे छुट्टी लेकर आये दादी के दोनों पोते पास बैठे ऊब रहे थे....जबकि वे दोनों अपने दादा से बेहद प्‍यार करते थे। दरअसल तर्क की कसौटी पर वे तय नहीं कर पा रहे थे कि उनके दादा-परदादा जो मर गये, वो कैसे यहां बनाये गये पकवानों को खाने के लिए आ सकते हैं। जो जीवित हैं और भूखे हैं, भूख से मर रहे हैं उन्‍हें भोजन कराने की बात हम क्‍यों नहीं सोचते।
दरअसल बेतुके तर्कों को परंपरागत ढर्रे पर चलाते-चलाते आज की हाइटेक पीढ़ी के सामने हमने उन्‍हें इतना बोझिल बना दिया है कि यह पीढ़ी उससे ऊबने लगी है। वह उसे वैज्ञानिक आधार पर समझना चाहता है कि धर्म में उसकी कितनी अहमियत है, कितनी जरूरत है.. और क्‍यों है ...किसके लिए है ... पुरानी पीढ़ी इनके पालन की अनिवार्यता नई पीढ़ी पर थोप रही है तो इसके पीछे सुदृढ़ तर्क क्‍या है, इसके बारे में कोई सटीक उत्‍तर नहीं मिलता, तर्क की कसौटी पर ये परंपराएं तो कब का दम तोड़ चुकी हैं, अब तो इन्‍हें बस ढोया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि नई पीढ़ी अपने बुज़र्गों को याद नहीं करना चाहती और वो याद रखती भी है मगर इस तरह बाध्‍यता उसे तर्कों के द्वंद्व में धकेल देती है जबकि गीता को मानें तो..
नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयंत्‍यापो न शोषयति मारुतः ।। 
अर्थात् भौतिक तापों से ऊपर है आत्‍मा और आत्‍मा कभी नहीं मरता/मरती... तो फिर श्रद्धा का अर्पण किसे और क्‍यों ?
जो मारे जा चुके हैं उनके नाम पर ये कैसा विरोधाभास परोसते आ रहे हैं.. कि एक ओर तो हम आज की पीढ़ी को गीता के उपदेशों से जीवन के हर पहलू को तलाशने व समझने की सीख देते हैं और दूसरे ही पल उन्‍हें तर्कहीन अंधकार को हूबहू मानने पर बाध्‍य कर रहे हैं...फिर शिकायत किससे कि भई हमारी नई पीढ़ी परंपराओं से दूर हो रही है...यह सनातनी परंपराओं का राग अलापने वालों को सोचना चाहिए।
हमारे काका एक लोक कहावत सुनाया करते थे कि
''जे जीवते बात ना पुच्‍छियां, ते मरे धड़ाधड़ पिट्टियां... ''
तो कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोक कहावत और गीता के उपदेश स्‍वयं को फिर से खंगालने की बात कहते हैं, फिर क्‍यों ढर्रों पर चलने की बात की जाये। सोचना होगा।
- अलकनंदा सिंह



बुधवार, 18 सितंबर 2013

पोलिश भाषा में रामायण का अनुवाद प्रकाशित

वारशॉ। पोलैण्ड के प्रसिद्ध भारतविद् यानुस क्रीज़ीज़ोव्स्की की कोशिशों से अब 'रामायण' का अनुवाद पोल भाषा में भी उपलब्ध है। पोलैण्ड के प्रसिद्ध भारतविद् यानुस क्रीज़ीज़ोव्स्की की कोशिशों से अब 'रामायण' का अनुवाद पोल भाषा में भी उपलब्ध है। हालाँकि रामायण के कुछ अंशों का अनुवाद 1816 में ही पोल भाषा में हो गया था और बीसवीं शताब्दी तक लगातार रामायण का अनुवाद करने के अनेक प्रयत्न किए जाते रहे।
यानुस क्रीज़ीज़ोव्स्की ने दर्जनों किताबों में प्रकाशित उन सभी अनुवादों को इकट्ठा करके उन्हें एक निश्चित क्रम दे दिया ताकि पोलैण्ड के आम पाठक पूरी रामायण पढ़ सकें। यानुस क्रीज़ीज़ोव्स्की ने बताया --मैं इस महाकाव्य को ऐसा रूप देना चाहता था कि आम पाठक भी उसे सहजता से समझ सके। ख़ासकर बच्चे भी उसे आसानी से पढ़ सकें और महान भारतीय मिथक परम्परा को जान सकें।
यानुस क्रीज़ीज़ोव्स्की भारत को इतना प्यार करते हैं कि बड़ी आसानी से हम कह सकते हैं कि वे भारत के पीछे पाग़ल हैं। 15 साल पहले जब उन्होंने दर्शनशास्त्र में एम०ए० किया था तो उनका यह पाग़लपन शुरू हुआ था।
इण्डो-एशियन न्यूज सर्विस से बात करते हुए यानुस क्रीज़ीज़ोव्स्की ने कहा -- रामायण और महाभारत -- ये दो ऐसे अनूठे महाकाव्य हैं, जिनकी तुलना दुनिया की किसी भी रचना से नहीं की जा सकती है। यहाँ तक कि प्रसिद्ध यूनानी महाकाव्य भी इनके सामने फीके पड़ जाते हैं।
भारतीय राजदूत के अनुसार यानुस क्रीज़ीज़ोव्स्की ने पोलैण्डवासियों के मन में भारत के प्रति प्यार और दिलचस्पी जगाने के लिए बहुत कुछ किया है। इसलिए उनसे मिलकर उनके प्रति मन में आदर पैदा होता है। हमें गर्व है कि हमारे साथ पोलैण्ड में इतना बेशक़ीमती रत्न सहयोग कर रहा है।
- एजेंसी

सोमवार, 16 सितंबर 2013

कुरआन वाचन में सीरियाई विजयी

मास्को में हुई 14वीं अंतर्राष्ट्रीय कुरआन वाचन प्रतियोगिता में सीरिया के अल हमवी यासीन को विजयी घोषित किया गया है| 36 देशों से आए कुरआन वाचकों ने इस प्रतियोगिता में भाग लिया| रूस की मुफ्ती-परिषद के प्रधान रवील गयनुद्दीन ने प्रतियोगिता के लिए जमा हुए वाचकों और अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि मास्को में होने वाली इस वार्षिक प्रतियोगिता में संसार भर में रूचि बढ़ रही है| “यह इस बात का सबूत है कि दुनिया का मुस्लिम उम्मा एक है और सब नेक पड़ोसियों की तरह रहना चाहते हैं”| उन्होंने इंगित किया कि इस प्रतियोगिता की बदौलत कुरआन-हाफिज़ों का पुराना पेशा फिर से बहाल हो रहा है| ये लोग सारी कुरआन को जबानी पढ़ सकते हैं| ऐसे लोगों को मुस्लिम समाज में बहुत आदर-सम्मान मिलता है| कुअरान में लगभग 600 पृष्ठ हैं और इसे कंठस्थ करने में छह महीने से तीन साल तक लगते हैं|

बुधवार, 11 सितंबर 2013

राधाष्‍टमी पर विशेष: राधा और आइंस्‍टीन



प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्‍टाइन ने जो फॉर्मूला ईज़ाद किया- E=mc2, वह पूरी तरह ब्रह्मांड के नियमों को हमारे सामने जिस तरह खोलता है। उसमें ''पदार्थ पर पड़ने वाला प्रकाश और उससे उत्‍पन्‍न ऊर्जा व उसका कुछ भाग परमाणु ऊर्जा में बदलने की प्रक्रिया'' को समझाने की कोशिश की गई है।
यह तो रहा महा-वैज्ञानिक तरीका जिसे आम जनमानस को कभी भी नहीं समझाया जा सकता, मगर जैसे ही हम कहते हैं कि कृष्‍ण और राधा के बीच भी इसी ऊर्जा का रिश्‍ता था तो साधारण से साधारण व्‍यक्‍ति फौरन समझ जाता है कि शक्‍ति का संचरण यदि अपने अंदर करना है, अज्ञान को हराना है, संसार को प्रेममयी बनाना है तो कृष्‍ण जैसा प्रेम जगाये बिना अपनी अपनी शक्‍तियों यानि अपनी अपनी राधा को नहीं पाया जा सकता।
कृष्‍ण और राधा कोई व्‍यक्‍ति नहीं हैं और ना ही इन दोनों में से किसी एक की चर्चा दूसरे को अलग करके की जा सकती है इसीलिए जन्‍म दिन भले ही राधा का है मगर बात कृष्‍ण की भी करनी होगी। कभी आपने सोचा है कि प्रकृति में जो साम्‍य है वह कृष्‍ण और राधा की पूरक एनर्जी से मिलकर बना हुआ है। राधा व कृष्‍ण की पूरक एनर्जी के नाम अलग-अलग हो सकते हैं मगर इन सबका ध्‍येय एक है। एक के बिना दूसरे का कोई अस्‍तित्‍व ही नहीं। संयुक्‍त ऊर्जा पर टिका जीवन किसी एक ऊर्जा के संग तो अधूरा ही रहेगा।
आज कृष्‍ण की आराध्‍या राधा का जन्‍मदिन है। राधा को राधा सब कहते हैं मगर वो राधा क्‍यों हैं, क्‍या है उनके राधा होने और बने रहने का प्रयोजन, इस पर बात जब तक नहीं होगी तब तक धर्म-आध्‍यात्‍म-कर्तव्‍य-सुख-करुणा और वीरता व परोपकार जैसे विषयों पर बात करना बेमानी होगा।
कृष्‍ण को पूर्ण पुरुष कहा गया है और उनकी सभी विशेषताओं में से हम अपने अपने हिस्‍से की सोच के अनुसार व्‍याख्‍या कर लेते हैं जबकि व्‍याख्‍या करने की प्रक्रिया में ही कृष्‍ण से तो दूरी बनाते ही हैं अपने भीतर की ऊर्जा यानि राधा को भी दूर कर लेते हैं।
अब ये देखना आपका और हमारा काम है कि कृष्‍ण और राधा की पूर्ण ऊर्जा को अपने लिये किस तरह प्रयोग में लाते हैं।
जिस दिन हम अपने इस मकसद में सफल हो गये, उस दिन मानव से महामानव तथा महामानव से देवता होने का सफर पूरा कर लेंगे। तब न तो किसी कृष्‍ण को बार-बार जन्‍म लेने की जरूरत नहीं होगी और ना ही राधा व कृष्‍ण की पूरक ऊर्जा को अपनी आधी-अधूरी सोच से परिभाषित करने की।
तभी हम राधा-कृष्‍ण के जन्‍म और उनके प्रेम का सही मायनों में अर्थ समझने के लायक होंगे। तभी हम राधा अष्‍टमी और कृष्‍ण जन्‍म अष्‍टमी को मनाने के लायक होंगे। जब तक ऐसा नहीं होगा, राधा और कृष्‍ण जन्‍माष्‍टमियां हमारे लिए मात्र बस एक त्‍यौहार बने रहेंगे। या अधिक से अधिक उत्‍सव।

- अलकनंदा सिंह 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

CM साहब! बहन को छेड़ा जाना...सांप्रदायिकता कैसे हुई ?

अराजकता का पोषण करने वाले मुख्‍यमंत्री ही जब लोकसभा चुनाव की  बिसात पर प्रदेश की जनता की सुरक्षा का दांव लगाने लग जायें तो  बलवाइयों के हौसले बढ़ना लाज़िमी है।
उत्‍तर प्रदेश की सरकार को अभी सत्‍ता हासिल किये हुये दूसरा साल ही चल रहा है मगर दंगों का रिकॉर्ड तो देखो एवरेज हर महीने एक दंगा,  उस पर भी बचकाना बयान खुद मुख्‍यमंत्री का, कि ये सब सांप्रदायिक  ताकतें करवा रही हैं ।
धर्म-धर्म का विभेद करने वाले तो सांप्रदायिक कहे जा सकते हैं मगर  लड़की छेड़ने वाले शोहदों का विरोध करना कहीं से किसी भी धर्म में  जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। मुज़फ्फरनगर में जो कुछ घटा उसे  दुखद तो कहा जा सकता है मगर पहली नज़र में सांप्रदायिक कतई  नहीं कहा जा सकता। यह तो महज भाइयों द्वारा अपनी बहन को बचाने  के लिए शोहदों के खिलाफ बोलने का मामला था। छेड़ने वालों का  दुस्‍साहस कितना था कि वे न सिर्फ लड़की को छेड़ने पर आमादा थे  बल्‍कि उन भाइयों को भी जान से मार दिया जो अपनी बहन को बचा  रहे थे। इसमें मुख्‍यमंत्री को कौन सी सांप्रदायिकता नज़र आई...।
दंगों से लेकर अपराधों के बोलबाले वाले केस बताते हैं कि प्रदेश की  पुलिसिंग कई खेमों में बंट गई है जिन्‍हें बाकायदा निर्देश दिये गये हैं  कि लोकसभा चुनाव होने तक राजनैतिक मनीषियों द्वारा अल्‍पसंख्‍यक  कहे जाने वाले संप्रदायों की आपराधिक गतिविधियों को नज़रंदाज करना  है। इन्‍हीं निर्देशों के आधार पर पोषित किये जा रहे हैं अपराधी तत्‍व  और नतीजे के रूप में सामने आता है फिर से एक नया दंगा।
क्‍या अखिलेश इससे भी अंजान हैं कि प्रदेश में आतंक का एक ऐसा  माहौल तैयार हो चुका है जहां औरतों की सुरक्षा तो छोड़िये, किसी भी  वर्ग का कोई भी व्‍यक्‍ति सुरक्षित नहीं है।
प्रदेश सरकार के हर कदम विवादास्‍पद होता है चाहे वह उसकी नीति हो  या फिर दिल्‍ली तक पहुंचने की महात्‍वाकांक्षा। इसी महात्‍वाकांक्षा में  पोषित किये जा रहे हैं अपराधी और दंडित हो रहे हैं अफसर...।
कुल मिलाकर हर महीने प्रदेश की आबोहवा वीभत्‍स रूप में हमारे  सामने आ जाती है।
बेहतर होता कि मुख्‍यमंत्री महोदय, अपनी नाकाम नीतियों और सरकार  में ''यहां हर कोई मुकद्दम है'' वाली प्रवृत्‍ति को रोक लगा पाते... बजाय  इसके कि हर खासोआम परेशानी का ठीकरा सांप्रदायिकता के नाम फोड़  दिया जाये। मायावती हों या भाजपा व कांग्रेस...यूं ही नहीं कह रहे कि  प्रदेश सरकार को कई मुख्‍यमंत्री चला रहे हैं.... । ज्‍यादा सच जानना  हो तो हालिया मामला साहित्‍यकार कंवल भारती का ही ले  लीजिये...फिल्‍मी विलेन की तरह उन्‍हें सताया जा रहा है।
- अलकनंदा सिंह

रविवार, 8 सितंबर 2013

अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस आज

Legend News 
आज, रविवार को अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस मनाया जा रहा है। पहली बार यह दिवस सन् 1966 में मनाया गया था।
इस साल मनाए जा रहे अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस का विषय है- "21-वीं शताब्दी में साक्षरता"। आज के दिन, परंपरा के अनुसार, मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया जाता है और साक्षरता को बढ़ावा देनेवाले व्यक्तियों और संस्थानों को विशेष पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है।
अप्रैल 2000 में सेनेगल की राजधानी डकार में हुए यूनेस्को के विश्व शिक्षा फोरम में यह लक्ष्य निर्धारित किया गया था कि वर्ष 2015 तक दुनिया में निरक्षर वयस्कों, विशेष रूप से अनपढ़ महिलाओं, की संख्या आधी रह जाएगी।
यूनेस्को संगठन शिक्षा के फैलाव के लिए कार्यक्रम तैयार करने, प्रशिक्षण सामग्री उपलब्ध कराने, शिक्षा की विधियों को विकसित करने और शिक्षकों को प्रशिक्षण देने के क्षेत्रों में दुनिया भर के देशों की मदद करता है।
आजकल दुनिया की 17 प्रतिशत वयस्क आबादी, यानी 77.5 करोड़ वयस्क अनपढ़ हैं। उनमें से दो-तिहाई महिलाएँ निरक्षर हैं। लगभग तीन चौथाई निरक्षर आबादी दुनिया के सिर्फ दस देशों में रहती है।

शनिवार, 7 सितंबर 2013

महाचकला में पैगम्बर मुहम्मद के स्मृतिचिन्हों की प्रदर्शनी

अबू धाबी। संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी से पैगम्बर मोहम्मद के 40 स्मृति-चिन्ह तीन विमानों से रूस के दगिस्तान प्रदेश की राजधानी महाचकला पहुँचे हैं । इन स्मृति-चिन्हों की महाचकला में प्रदर्शनी लगाई जाएगी। इन स्मृति-चिन्हों में पैगम्बर के रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें, उनके बर्तन, उनके बाल और वह कफ़न भी है, जिसे पहनाकर उन्हें दफ़नाया गया था। इसके अलावा सऊदी अरब से 50 इस्लामी विद्वान भी महाचकला आए हैं, जिनमें पैगम्बर मोहम्मद के सम्बन्धी भी हैं।
इन वस्तुओं का संरक्षण और देखभाल दगिस्तान के गृह-मंत्रालय के साथ-साथ सऊदी अरब के प्रतिनिधि करेंगे। अली अलियेव खेल परिसर में पैगम्बर मोहम्मद की इन वस्तुओं के दर्शन किए जा सकेंगे। महाचकला के बाद इन वस्तुओं का प्रदर्शन अन्य शहरों में भी किया जाएगा।
-एजेंसी

बुधवार, 4 सितंबर 2013

मॉस्‍को में 26 वां अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेला आज से शुरू

मास्को। आज से शुरु होने जा रहे 26 वें अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में दुनिया की बीसियों भाषाओं की क़रीब दो लाख नई पुस्तकें प्रदर्शित की जाएँगी। इस पुस्तक मेले में कुल 57 देश भाग लेने जा रहे हैं। पिछले साल इन देशों की संख्या कुल 45 थी। मास्को के इस 26 वें अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में सिर्फ़ यूरोपीय देशों के प्रकाशक ही भाग नहीं लेंगे, जो हर साल इस मेले में भाग लेने के लिए आते हैं, बल्कि इस बार एशियाई देशों के प्रकाशक और अरब देशों के प्रकाशक भी भाग ले रहे हैं।
इस पुस्तक मेले के महानिदेशक निकलाय अवसिन्निकफ़ ने रेडियो रूस के सम्वाददाता से मेले के बारे में बात करते हुए बताया :
मिस्र और सऊदी अरब भी इस मेले में भाग ले रहे हैं। ईरानी प्रकाशक भी बड़ी संख्या में मास्को के हमारे इस पुस्तक मेले में भाग लेने के लिए आ रहे हैं। वे अपने ढंग से किताबों को पेश करेंगे। इसके लिए उन्होंने एक बड़ा कार्यक्रम तैयार किया है। इस साल जापान भी मास्को के इस अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में भाग ले रहा है। टोकियो में होने वाले पुस्तक मेले के निदेशक भी हमारे यहाँ आ रहे हैं। हम उनके साथ बातचीत करेंगे। इसके अलावा एशियाई देशों में वियतनाम, भारत, तुर्की और मलेशिया के प्रकाशक भी भाग ले रहे हैं।
सन् 2005 से मास्को के इस अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में हर साल किसी देश-विशेष को अतिथि देश का दर्जा दिया जाता है। अब तक बीते सालों में एशिया का सिर्फ़ एक ही देश हमारे पुस्तक मेले का अतिथि देश रहा है। सन् 2007 में चीन को हमने अतिथि देश का दर्ज़ा दिया था। तब चीनी प्रकाशकों ने एक हज़ार मीटर से भी ज़्यादा जगह में अपने यहाँ प्रकाशित पुस्तकों की प्रदर्शनी लगाई थी। मास्को के अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में अभी तक अतिथि देशों में चीन का स्टॉल ही सबसे बड़ा था। इस साल भी चीनी प्रकाशकों का एक बड़ा दल मास्को के पुस्तक मेले में भाग लेने के लिए आया हुआ है। पुस्तक मेले के महानिदेशक निकलाय अवसिन्निकफ़ ने
कहा :इस बार पहले से ज़्यादा चीनी प्रकाशकों ने मास्को के पुस्तक मेले में रुचि दिखाई है। क़रीब पन्द्रह बड़े चीनी प्रकाशनगृह मास्को के मेले में भाग लेने के लिए आए हैं। यह एक काफ़ी बड़ी संख्या है। चीनी प्रकाशकों के दल में क़रीब सौ व्यक्ति शामिल हैं, जिनमें दस ऐसे चीनी लेखक भी हैं, जो रूस में बेहद लोकप्रिय हैं। मास्को में मेला ख़त्म होने के बाद ये लोग साँक्त पितेरबुर्ग (या सेंट पीटर्सबर्ग) भी जाएँगे। साँक्त पितेरबुर्ग जाते हुए ये चीनी लेखक रास्ते में पड़ने वाले शहरो में रुकेंगे और अपने पाठकों से रु-ब-रू होंगे। साँक्त पितेरबुर्ग में भी इन लेखकों के भव्य स्वागत की तैयारियाँ की जा रही हैं।
6 सितम्बर का दिन मास्को के अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में चंगीज़ आइत्मातफ़ के स्मृति-दिवस के तौर पर मनाया जाएगा। अगर आज चंगीज़ आइत्मातफ़ जीवित होते तो वे 6 सितम्बर को 85 वर्ष के हो गए होते। इस बड़े रूसी और किर्गीज़ियाई लेखक को अन्तरराष्ट्रीय तुर्की सांस्कृतिक संगठन ने 'तुर्की पुरस्कार' देकर सम्मानित किया था। चंगीज़ आइत्मातोफ़ की रचनाओं का दुनिया की 178 भाषाओं में अनुवाद हुआ है, जिनमें हिन्दी, तमिल पंजाबी, बंगला जैसी भारतीय भाषाएँ भी शामिल हैं। किर्गीज़िस्तान के राष्ट्रीय पुस्तकालय ने इस अवसर पर चंगीज़ आइत्मातोफ़ को समर्पित एक विशेष प्रदर्शनी का आयोजन किया है, जिसमें उनकी विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित ये पुस्तकें देखी जा सकेंगी।
हमेशा की तरह मास्को के 26 वें अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में बहुत से कार्यक्रम आयोजित किए जाएँगे। नई पुस्तकों के लोकार्पण के अलावा, देश-विदेश के लेखकों से मेल-मुलाक़ातें, वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का चुनाव और उस पुस्तक को पुरस्कार दिए जाने के अलावा प्रकाशकों का एक बड़ा सम्मेलन भी किया जाएगा, जो 'रूस में 2013 में पुस्तकों का बाज़ार' विषय को समर्पित होगा। इसके अलावा पुस्तक मेले में बाल-पुस्तकों के लेकर भी विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। पढ़ना सभी के लिए ज़रूरी है। और अगर आप एक से ज़्यादा भाषाएँ जानते हैं, फिर तो कहना ही क्या!
- एजेंसी

रविवार, 1 सितंबर 2013

...गिरेबां चाक़ करने से पहले

आइने से चिपककर खड़े होगे तो अपना अक्‍स नज़र नहीं आयेगा, उसकी मौज़ूदगी होगी मगर आइने में देखे जाने का मकसद तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कि अक्‍स से थोड़ी दूरी न बनाकर रखी जाए।
ठीक इसी तरह एक दूसरा उदाहरण ये कि अपने गिरेबां में झांकना बड़ा मुश्‍किल होता है, गर्दन ही नहीं मुड़ सकती इतनी कि अपना ही गिरेबां दिख सके । शायद इसीलिए इसे कहावत के तौर पर इस्‍तेमाल किया गया कि अगर कोई अपने गिरेबां तक में अपनी निगाह पहुंचा सकता तो उसमें अपनी अकड़ होने का भ्रम न रहता और सब-कुछ अच्‍छा हो जाता ...फिर तो झगड़ा ही किस बात का रहता...न कोई हमलावर रहता न कोई पीड़ित। खैर, ये बड़े जोखिम का काम है अपने गिरेबां में झांकना।
देश की तमाम समस्‍याओं और दुर्भाग्‍यपूर्ण घटनाओं के लिए हम हमेशा कहते हैं कि सरकार ने ये नहीं किया, नेताओं ने देश को तबाह कर दिया, बाबाओं ने धर्म को व्‍यापार में तब्‍दील और न जाने क्‍या क्‍या...
बात वहीं आ जाती है कि अपने गिरेबां में झांकने की बजाय हम दूसरे के गिरेबां को चाक कारने में जुटे रहते हैं। अब देखिए ना कि सरकार हो, नेता हों, बाबा हों, बलात्‍कारी हों, कोई भी हो, इस तरह के सभी पैरासाइट्स को पनपाने के लिए हमारी अपनी सोच और अपने भीतर बैठे डर ही जिम्‍मेदार हैं।
हालिया आसाराम प्रकरण को ही लीजिए, ये हमारे भीतर के डर ही हैं जिनके चलते हम उनके खिलाफ बरसों पहले से आ रही दुष्‍कर्म, हत्‍या और ज़मीनों पर नाजायज तरीके से कब्‍ज़े की शिकायतों पर ध्‍यान देने और दिलाने से कतराते रहे।
हम उन तथ्‍यों को भी नज़रंदाज करते रहे जिसमें बा-सुबूत आसाराम को महिलाओं और बच्‍चों के साथ दुष्‍कर्म करते पाया गया बल्‍कि उनके आश्रम में कोई भी पुरुष किसी भी महिला या बच्‍ची से यौनसंबंध स्‍थापित कर सकता था जिसे आसाराम व उनके चेले प्रभु के साथ संबंध बनाने का नाम देते रहे।
ये कुछ वो हकीकतें हैं जिनके भुक्‍तभोगी अब हिम्‍मत करके धीरे-धीरे ही सही, सामने ला रहे हैं। जो अब भी दबी हैं, वो कितनी भयानक होंगी। इज्‍़ज़त के ढकोसलों ने हमने अपनी घरेलू औरतों को भी बाज़ार के हवाले कर दिया। एक ऐसा बाजार जिसने ईश्‍वर के अस्‍तित्‍व पर ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगा दिया है।
तभी तो ये संभव हो सका कि आसूमल जैसा साधारण सा व्‍यक्‍ित आसाराम तक का सफर तय कर पाया। ये नाकामी किसी सिस्‍टम की नहीं, हमारी अपनी नाकारा हो चुकी सोच की है जो आज भी अपराधी के तीन गुनाहों तक उसके सुधरने का इंतज़ार करती है।
दायरों में बंधी सोच अब तो आज़ाद होनी चाहिये... अब तो आसाराम जैसे अपराधियों के साये में पले स्‍वच्‍छंद यौन अपराधियों के प्रदर्शनों को गैरकानूनी घोषित किया जाना चाहिये..।
- अलकनंदा सिंह

छह सीन और लेडी महामंडलेश्‍वर

पहला सीन कुछ ऐसे है-
'आई लव यू बॉटम टू माई हार्ट' जैसे शब्‍द, गहरे रंग  वाला नियोन मेकअप से लदा-फदा चेहरा, तराशा हुआ  सा जवां सी औरत का शरीर मंच पर हाई बीम लाइट  के साथ नमूदार होता है... तो वहां मौज़ूद लोग बौरा  जाते हैं... इस कंडीशन को आप एकबारगी यही कहेंगे  ना कि ये तो किसी फिल्‍मी एक्‍ट्रेस की नई अदा होगी  अपने मुरीदों को पागल बनाने की...

दूसरा सीन कुछ यूं है-
करोड़ों लोगों की भीड़ वाले कुंभ मेले में इसी नियोन  मेकअप वाली औरत को उसके पीछे भागने वाले लोग  अपने कांधों पर उठाने को लालायित होकर आपस में  बहसियाते दिखते हैं...इतनी भीड़ के बावज़ूद उसे कुंभ के  मठाधीशों के ऐशो-आराम, सेवा-पूजा आकर्षित करती है  और उसके भीतर नई दुष्‍कांक्षा जन्‍म लेती है।  ग्‍लैमरहीन मठाधीशों की दबंगई उसे एक और दुस्‍साहस  करने को उकसाती है कि क्‍यों न अपने रुतबे का चोला  बदल दिया जाये...और....

तीसरा सीन-
इस ग्‍लैमरस शख्‍शियत ने फरमान जारी किया कि हेड  गुर्गा फौरन इसी कुंभ मेले में मठाधीशों के बीच जाकर  ये पता लगाये कि इनके कैंपों में कौन-कौन से रास्‍तों  से घुसा जा सकता है ...और वो ऐसा सोचती भी कैसे  ना उसके पास तो पैसा था, ग्‍लैमर भी और बौराये  फिरने वाले उसके चमचे भी। बस फिर क्‍या था, गुर्गे ने  रास्‍ता खोज निकाला, कान में आकर फुसफुसाया,  नियोन मेकअप में चमकती मुस्‍कुराहट और भी  तिलिस्‍मी हो गई, रास्‍ता तो बेहद ही आसान  था...आखिर उसे तो इसमें महारत हासिल है, अब उसने  पैंतरों का अगला कदम उठाया और गुर्गे को कानों-कान  आदेश दिया, खुद ध्‍यान में बैठ गई।

चौथा सीन-
गुर्गा लॉबिंग में माहिर था सो अपनी ग्‍लैमरस गुरू को  इलीट मठाधीश बनाने के लिए उसने सबसे बड़े कैंप के  मुख्‍य कर्ता-धर्ता के चरण पकड़ लिए, अपने आने का  आशय बताया, उनके मठ को भारी दान की पेशकश  की, जिसमें कुछ प्रत्‍यक्ष था तो कुछ अप्रत्‍यक्ष। दान भी  कोई थोड़ा न था, कुल दो किश्‍तों में देना तय हुआ,  पहली किश्‍त प्रत्‍यक्ष थी कुल दस लाख रुपये। दूसरी  किश्‍त भी इतनी ही तय हुई मगर वो तब देनी तय थी  जब मुख्‍य कर्ता-धर्ता अखाड़ा-मठों के इलीट वर्ग के  महत्‍वपूर्ण महामंडलेश्‍वर का पद उस ग्‍लैमर की मूर्ति को  दिलवा देते। सब-कुछ योजना मुताबिक चला। अगले  कुछ दिनों में महामंडलेश्‍वर पर ग्‍लैमर अपनी चकाचौंध  के साथ विराजमान था।

पांचवा सीन-
बवाल तो होना था सो हुआ भी...आफ्टरऑल ये सब  हायर की गई मुंबई की दो पीआर एजेंसियों का 'फेम  बाय कंट्रोवर्सी' खेल जो था। कुछ जलकुकड़ों को तैयार  किया गया विरोध करने को, उनका भी नाम हुआ..इन्‍हें  भी फेम मिला। चर्चित हो चुकीं नवविभूषित ग्‍लैमरस  महामंडलेश्‍वर के रंग में भंग... इस तरह अंदरखाने  लॉबिंग कर महामंडलेश्‍वर बनाये जाने का तगड़ा विरोध  अखाड़े के जूनियर मठाधीशों द्वारा किया गया। ग्‍लैमरस  लेडी महामंडलेश्‍वर ने खिताब पर हकदारी साबित करने  को बेहिसाब पैसा लुटाया। गृहस्‍थ सुख भोगने के सारे  सुबूत मिटा दिये गये, लेडी कालिदास ने शास्‍त्रार्थ की  चुनौती अपनी तमाम पुरुष विद्योत्‍तमाओं के बूते पार  कर ली...।

छठा सीन-
ऑल इज वेल दैट एंड इज वेल...
लेडी महामंडलेश्‍वर अपनी गद्दी पर विराजमान हो  अशीर्वाद दे रही हैं...आई लव यू बॉटम टू माई हार्ट....,  आशीर्वाद पाने को कतार में लगे हैं नेता, अभिनेता,  करोड़पति व्‍यापारी, और मूर्ख भक्‍त।
पति, बच्‍चे और भाई, भौजाई दोनों हाथों से चढ़ावे को  ठिकाने लगाने में बिजी हैं.... उधर विरोध करने वालों  की भी अखाड़ेबाजी अपने-अपने मठों में चमक गई, वे  अचानक धर्म के बड़े ठेकेदारों के इलीट वर्ग में शामिल  हो गये, उनका अपना अखाड़ा और अपनी परिषद् है  अब...वे भी...।

- अलकनंदा सिंह