संसद भवन तक पहुंचने वाले सारे नेशनल हाइवे अपनी आखिरी मंज़िल अर्थात राष्ट्रीय पर्व 'लोकसभा चुनाव-2014' की तैयारियों के साथ अचानक तमाम सरोकारी बातें करने लगे हैं। राजनैतिक संवादों की ही मज़बूरी है कि देश का प्रत्येक राजनैतिक व उसके अनुषांगिक-सामाजिक, सांगठनिक दल सरोकारों से लिपटा नजर आ रहा है। इसे कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि एक श्रृंखला सी बन गई है ऐसे उपदेशकों की जिनमें कोई समाजवाद, कोई धर्मनिरपेक्षता तो कोई राष्ट्रवाद की वंशी बजा रहा है और प्रत्येक अपनी अलग व्याख्या गढ़ रहा है लेकिन इस सबके दरम्यान
एक कॉमन टारगेट बन कर उभरी है देश की 'युवाशक्ति'।
आश्चर्य होता है कि जिस जनलोकपाल आंदोलन की अपने अपने तरीके से बखिया उधेड़ने में राजनैतिक दलों ने खूब ज़ोरआजमाइश कर ली वही दल अन्ना के आंदोलन से उपजी 'आशा' को भुनाने की आपाधापी में लगे हैं। जो भी हो इन्होंने युवाओं की शक्ति को केंद्र में ला दिया है।
इसी शक्ति के बूते नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी, ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक सभी एक दूसरे के घोर राजनैतिक विरोधी होते हुये भी युवाओं के ज़रिये ही अपने भविष्य को संवारने का तानाबाना बुन रहे हैं।
ये युवा शक्ति पर राजनैतिक प्रयोग का लालच ही तो है कि विगत दिनों वृंदावन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विश्व विभाग के सम्मेलन में युवाओं की सोच उनके दृष्टिकोण को लेकर ही मंथन चला। तीन दिवसीय इस सम्मेलन में अमेरिका, इंग्लैंड, श्रीलंका, मॉरीशस, मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, हांगकांग सहित 25 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
बदलाव की आंधी और इस आंधी में बह रहे संघ के विश्व स्तरीय अनुषांगिक संगठन 'हिंदू स्वयं सेवक संघ' के प्रतिनिधियों ने एक सुर से मांग उठाई कि अब समय आ गया है कि 90 के दशक की ओढ़ी हुई सोच को उतार फेंका जाये।
ये संभवत: पहला ही मौका है जब संघ में एक सुर से हिंदुत्व की 'स्थापित सोच' को वैश्विक सोच में तब्दील किया गया। विकास की अवधारणा व आधुनिक सोच के साथ बड़ी हो रही युवा पीढ़ी को और गुरु गोलवलकर द्वारा पहली बार स्वामी विवेकानंद का अनुसरण कर राष्ट्रवाद की परिभाषा को फिर से नये कलेवर में युवाओं के समक्ष प्रस्तुत करने की पुरजोर मांग उठी।
इसी वैश्विक सोच ने पुरातन सोच को संदेश दिया है कि अब बस बहुत हो चुका हिंदू-हिंदू...मंदिर-मंदिर..का अलाप बंद किया जाये। 25 देशों से आये प्रतिनिधियों द्वारा रखे गये अलग-अलग मंतव्यों का लब्बो-लुआब बस इतना था कि संघ को अपना 'औरा' बढ़ाने के लिए युवाओं की सोच से तालमेल बैठाना होगा, अभिभावक की भूमिका में नहीं, मित्र की भूमिका में उतरना होगा ।
साथ ही सम्मेलन में जो अभूतपूर्व घटा, वह यह था...कि सम्मेलन था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का और हावी रही इस्लाम को नज़दीक से जानने की पैरोकारी... । सहज विश्वास नहीं हुआ। अगर ये मशक्कत है चाल, चेहरा और चरित्र को विश्वस्तरीय बनाने की तो यकीनन संघी दिमागों में इस नई नई उगी धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक परिणाम होंगे।
अब संघ को महज हिंदुत्व की ही बात न करके इस्लाम को भी जानना होगा..कुरान का ज्ञान भी बांचना होगा।
अब इसी बदली हुई सोच को मजबूरी कहें या दूसरे धर्म को समझने की ये जरूरत समय की मांग भी है। यूं भी धार्मिक समभाव और वैश्विक स्तर पर अपनी कट्टरवादी छवि को बदलने और नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद का महत्व समझाने का ये धर्मनिरपेक्ष तरीका यूं ही आसमान से नहीं टपका। नरेंद्र मोदी को केंद्र में रखकर चल रहे संघ की ये रणनीति चुनावी भी है और मोदी की अहमियत को आमजन व युवाओं के समक्ष जताने की भी। देखते हैं अभी तो संघ की ये नई धर्मनिरपेक्षतावादी पैकेजिंग विरोधियों के लिए ही नहीं स्वयं मुस्लिम कट्टरवादियों को भी सोचने के लिए विवश तो कर ही देगी।
बहरहाल देर आयद दुरुस्त आयद...।
-अलकनंदा सिंह
एक कॉमन टारगेट बन कर उभरी है देश की 'युवाशक्ति'।
आश्चर्य होता है कि जिस जनलोकपाल आंदोलन की अपने अपने तरीके से बखिया उधेड़ने में राजनैतिक दलों ने खूब ज़ोरआजमाइश कर ली वही दल अन्ना के आंदोलन से उपजी 'आशा' को भुनाने की आपाधापी में लगे हैं। जो भी हो इन्होंने युवाओं की शक्ति को केंद्र में ला दिया है।
इसी शक्ति के बूते नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी, ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक सभी एक दूसरे के घोर राजनैतिक विरोधी होते हुये भी युवाओं के ज़रिये ही अपने भविष्य को संवारने का तानाबाना बुन रहे हैं।
ये युवा शक्ति पर राजनैतिक प्रयोग का लालच ही तो है कि विगत दिनों वृंदावन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विश्व विभाग के सम्मेलन में युवाओं की सोच उनके दृष्टिकोण को लेकर ही मंथन चला। तीन दिवसीय इस सम्मेलन में अमेरिका, इंग्लैंड, श्रीलंका, मॉरीशस, मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, हांगकांग सहित 25 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
बदलाव की आंधी और इस आंधी में बह रहे संघ के विश्व स्तरीय अनुषांगिक संगठन 'हिंदू स्वयं सेवक संघ' के प्रतिनिधियों ने एक सुर से मांग उठाई कि अब समय आ गया है कि 90 के दशक की ओढ़ी हुई सोच को उतार फेंका जाये।
ये संभवत: पहला ही मौका है जब संघ में एक सुर से हिंदुत्व की 'स्थापित सोच' को वैश्विक सोच में तब्दील किया गया। विकास की अवधारणा व आधुनिक सोच के साथ बड़ी हो रही युवा पीढ़ी को और गुरु गोलवलकर द्वारा पहली बार स्वामी विवेकानंद का अनुसरण कर राष्ट्रवाद की परिभाषा को फिर से नये कलेवर में युवाओं के समक्ष प्रस्तुत करने की पुरजोर मांग उठी।
इसी वैश्विक सोच ने पुरातन सोच को संदेश दिया है कि अब बस बहुत हो चुका हिंदू-हिंदू...मंदिर-मंदिर..का अलाप बंद किया जाये। 25 देशों से आये प्रतिनिधियों द्वारा रखे गये अलग-अलग मंतव्यों का लब्बो-लुआब बस इतना था कि संघ को अपना 'औरा' बढ़ाने के लिए युवाओं की सोच से तालमेल बैठाना होगा, अभिभावक की भूमिका में नहीं, मित्र की भूमिका में उतरना होगा ।
साथ ही सम्मेलन में जो अभूतपूर्व घटा, वह यह था...कि सम्मेलन था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का और हावी रही इस्लाम को नज़दीक से जानने की पैरोकारी... । सहज विश्वास नहीं हुआ। अगर ये मशक्कत है चाल, चेहरा और चरित्र को विश्वस्तरीय बनाने की तो यकीनन संघी दिमागों में इस नई नई उगी धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक परिणाम होंगे।
अब संघ को महज हिंदुत्व की ही बात न करके इस्लाम को भी जानना होगा..कुरान का ज्ञान भी बांचना होगा।
अब इसी बदली हुई सोच को मजबूरी कहें या दूसरे धर्म को समझने की ये जरूरत समय की मांग भी है। यूं भी धार्मिक समभाव और वैश्विक स्तर पर अपनी कट्टरवादी छवि को बदलने और नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद का महत्व समझाने का ये धर्मनिरपेक्ष तरीका यूं ही आसमान से नहीं टपका। नरेंद्र मोदी को केंद्र में रखकर चल रहे संघ की ये रणनीति चुनावी भी है और मोदी की अहमियत को आमजन व युवाओं के समक्ष जताने की भी। देखते हैं अभी तो संघ की ये नई धर्मनिरपेक्षतावादी पैकेजिंग विरोधियों के लिए ही नहीं स्वयं मुस्लिम कट्टरवादियों को भी सोचने के लिए विवश तो कर ही देगी।
बहरहाल देर आयद दुरुस्त आयद...।
-अलकनंदा सिंह
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