आज 30 मई यानि पत्रकारिता दिवस पर पत्रकारों के लिए ही प्रार्थना की सर्वाधिक ज़रूरत महसूस की जा रही है, और हो भी क्यों ना।
केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें तक और राजनैतिक दलों से लेकर कॉरपोरेट घरानों तक पत्रकारों को अपने हिसाब से तोड़ने मोड़ने में लगे हैं। सौदेबाजी का बड़ा घातक दौर चल रहा है और लगभग दो दशक पहले ही मिशन से प्रोफेशन में तब्दील हुई पत्रकारिता को बाजारवाद बड़ी तेजी से निगलता जा रहा है । नतीजतन दूसरों की खबर रखने वाले खबरनवीसों के स्वयं खबर बन जाने का खतरा बढ़ गया है।
पत्रकारिता के लिए चुनौती के रूप में ताजातरीन कुछ मामले ऐसे सामने आये हैं जिन्होंने बतौर मीडियापर्सन 'मीडिएटर' बने पत्रकारों को अपनी भूमिका पर यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि.... अब बस! बहुत हो चुका...।
इन मामलों में सबसे ताजा हैं कल की ही दो घटनाएं...
पहली तो यह कि स्पॉट फिक्सिंग की बवाली खबरों के बीच कल जब महेंद्र सिंह धोनी चैंपियन्स ट्राफी के सूचनार्थ प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करने आये तो उनके क्रिकेट मैनेजरों ने पत्रकारों को 'मौखिक ऑर्डर' दिया कि फिक्सिंग से संबंधित कोई भी प्रश्न नहीं किया जायेगा। इन दुस्साहसी मैनेजरों से कोई ये पूछे कि फिर पीसी की जरूरत ही कहां थी, ट्रॉफी के कार्यक्रम संबंधी सूचना तो एक विज्ञप्ति से भी भिजवाई जा सकती थी। पत्रकारों को इस तरह हांकने का जोखिम उठाया ही क्यों जिसके आफ्टर इफेक्ट्स तुरंत दिखाई देने लगे और अगले दिन के अखबार उससे रंगे गये।
दूसरा मामला भी कल का ही है...बिलगेट्स के योजना आयोग में आने और मोंटेक सिंह अहलूवालिया से गुप्त मुलाकात करने की सूचना पर पहुंचे पत्रकारों को गेट्स के सुरक्षाकर्मियों ने धकिया कर योजना भवन से बाहर निकाल दिया, इन बाहर निकाले गये पत्रकारों में मान्यता प्राप्त पत्रकार भी थे। विरोध करने पर योजना भवन ने सफाई दी कि 'ऊपर' से आदेश था कि मीडिया को दूर रखा जाये।
इनके अलावा एक तीसरा मामला उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग को संभाल रहे उन हुक्मरानों का है जो सरकार के खिलाफ बनते जा रहे माहौल को मुख्यमंत्री की नज़र में ऑल इज़ वेल बनाकर पेश करना चाहते हैं। इसी कसरत में उन्होंने लखनऊ के पत्रकारों को सैमसंग टैबलेट बंटवाये। जिन्हें टैबलेट मिले वे अपना धर्म भूलकर सूचना अधिकारियों के शरणागत हो गये और जिन्हें नहीं मिले वे पत्रकारिता धर्म की दुहाई देने लगे। कुछ ने और 'तवज्जो' पाने के लिए दिये गये टैबलेट लौटा भी दिये।
कुल मिलाकर सवाल यह है कि सरकारों के अहसानों तले बेइज्ज़त होने का सिलसिला आखिर कब तक चलेगा। ज़मीर को अभी तक मालिकानों के तलवों में रखते आये थे...वो चल गया, उन्हीं के हरकारे पर भागते रहे ...वो भी चल गया मगर अब तो हद हो गई है। बंधुआ रहकर पत्रकारिता को कब तक ढोया जायेगा।
ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरत है उस ईश्वरीय कृपा की जो मूक बने पत्रकारों के ज़मीर को बोलना सिखा सके और पंगु हो चुकी पत्रकारिता को सरकारों, मालिकानों और समाज को चाट रही भ्रष्टाचारी दीमकों के पर्वतों को लांघने का हौसला दे सके।
हे ईश्वर ! मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्
आज पत्रकारिता दिवस पर बस इतना ही...।
-अलकनंदा सिंह
केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें तक और राजनैतिक दलों से लेकर कॉरपोरेट घरानों तक पत्रकारों को अपने हिसाब से तोड़ने मोड़ने में लगे हैं। सौदेबाजी का बड़ा घातक दौर चल रहा है और लगभग दो दशक पहले ही मिशन से प्रोफेशन में तब्दील हुई पत्रकारिता को बाजारवाद बड़ी तेजी से निगलता जा रहा है । नतीजतन दूसरों की खबर रखने वाले खबरनवीसों के स्वयं खबर बन जाने का खतरा बढ़ गया है।
पत्रकारिता के लिए चुनौती के रूप में ताजातरीन कुछ मामले ऐसे सामने आये हैं जिन्होंने बतौर मीडियापर्सन 'मीडिएटर' बने पत्रकारों को अपनी भूमिका पर यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि.... अब बस! बहुत हो चुका...।
इन मामलों में सबसे ताजा हैं कल की ही दो घटनाएं...
पहली तो यह कि स्पॉट फिक्सिंग की बवाली खबरों के बीच कल जब महेंद्र सिंह धोनी चैंपियन्स ट्राफी के सूचनार्थ प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करने आये तो उनके क्रिकेट मैनेजरों ने पत्रकारों को 'मौखिक ऑर्डर' दिया कि फिक्सिंग से संबंधित कोई भी प्रश्न नहीं किया जायेगा। इन दुस्साहसी मैनेजरों से कोई ये पूछे कि फिर पीसी की जरूरत ही कहां थी, ट्रॉफी के कार्यक्रम संबंधी सूचना तो एक विज्ञप्ति से भी भिजवाई जा सकती थी। पत्रकारों को इस तरह हांकने का जोखिम उठाया ही क्यों जिसके आफ्टर इफेक्ट्स तुरंत दिखाई देने लगे और अगले दिन के अखबार उससे रंगे गये।
दूसरा मामला भी कल का ही है...बिलगेट्स के योजना आयोग में आने और मोंटेक सिंह अहलूवालिया से गुप्त मुलाकात करने की सूचना पर पहुंचे पत्रकारों को गेट्स के सुरक्षाकर्मियों ने धकिया कर योजना भवन से बाहर निकाल दिया, इन बाहर निकाले गये पत्रकारों में मान्यता प्राप्त पत्रकार भी थे। विरोध करने पर योजना भवन ने सफाई दी कि 'ऊपर' से आदेश था कि मीडिया को दूर रखा जाये।
इनके अलावा एक तीसरा मामला उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग को संभाल रहे उन हुक्मरानों का है जो सरकार के खिलाफ बनते जा रहे माहौल को मुख्यमंत्री की नज़र में ऑल इज़ वेल बनाकर पेश करना चाहते हैं। इसी कसरत में उन्होंने लखनऊ के पत्रकारों को सैमसंग टैबलेट बंटवाये। जिन्हें टैबलेट मिले वे अपना धर्म भूलकर सूचना अधिकारियों के शरणागत हो गये और जिन्हें नहीं मिले वे पत्रकारिता धर्म की दुहाई देने लगे। कुछ ने और 'तवज्जो' पाने के लिए दिये गये टैबलेट लौटा भी दिये।
कुल मिलाकर सवाल यह है कि सरकारों के अहसानों तले बेइज्ज़त होने का सिलसिला आखिर कब तक चलेगा। ज़मीर को अभी तक मालिकानों के तलवों में रखते आये थे...वो चल गया, उन्हीं के हरकारे पर भागते रहे ...वो भी चल गया मगर अब तो हद हो गई है। बंधुआ रहकर पत्रकारिता को कब तक ढोया जायेगा।
ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरत है उस ईश्वरीय कृपा की जो मूक बने पत्रकारों के ज़मीर को बोलना सिखा सके और पंगु हो चुकी पत्रकारिता को सरकारों, मालिकानों और समाज को चाट रही भ्रष्टाचारी दीमकों के पर्वतों को लांघने का हौसला दे सके।
हे ईश्वर ! मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्
आज पत्रकारिता दिवस पर बस इतना ही...।
-अलकनंदा सिंह
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