सनातन धर्म के अनुसार जीवन को सम्मानित तरीके से जीने के लिए उसके हर
पड़ाव का स्वागत करना चाहिए। बीते हुये की याद असंतुष्टि का भाव लाती है
और यही भाव जीवन के अंतिम क्षणों में भी व्यक्ति के शरीर व मन को जकड़े
रहता है।
विगत को छोड़ न पाने और आगत का स्वागत न कर पाने का प्रत्यक्ष उदाहरण बने भारतीय जनता पार्टी के भीष्म पितामह कहे जा रहे लालकृष्ण आडवाणी आजकल सुर्खियों में हैं। उन्होंने भी अपने ब्लॉग में भीष्म पितामह को याद किया है।
प्रश्न उठता है कि भीष्म पितामह ही क्यों?
इसकी भी वजह हैं... व्यक्ति उम्र की दो ही अवस्थाओं के दौरान अपनी मूल प्रवृत्ति में दिखाई देता है..एक तो जब वह शिशु होता है और दूसरा तब जब वह बूढ़ा होता है।
बूढ़े व्यक्ति में चिड़चिड़ापन उसकी उम्र की वजह से नहीं बल्कि अपनी नाकामियों से उभरता है, और यह नाकामी शारीरिक से ज्यादा मानसिक होती है। तभी तो इस उम्र में ही वानप्रस्थ का प्रावधान सनातनी व्यवस्था में किया गया था ताकि बूढ़ा व्यक्ति विगत को जितना हो सके भुला सके। यदि भुला नहीं सकता तो कम से कम आगत पर अपनी नाकामियों को थोप तो नहीं सकेगा।
इसीलिए आडवाणी जी ने जो कुछ अपनी जवानी से, राजनीति से, फिल्मों से और 'इन वेटिंग' के जुमलों से सीखा वह अपने ब्लॉग में उद्धृत कर दिया और देखिए ना इतने सालों का अनुभव नरेंद्र मोदी के सिर ठीकरा फोड़ने में काम आया। भीष्म पितामह तो बेवजह बीच में आ गये। भीष्म पितामह कहलाने के लिए उम्रभर किसी पार्टी से जुड़ा रहना ही योग्यता नहीं हो सकती, भीष्म ने देवव्रत से लेकर सरशैया तक के सफर में सिर्फ त्यागा ही त्यागा...और इसके ठीक विपरीत आडवाणी जी सब-कुछ पाने को लालायित रहे मगर उन्हें मिल न सका। तो ''पाने की लालसा'' और ''न मिल पाने का क्षोभ'' दोनों के बीच का फ़र्क समझ लिया जाये तो आडवाणी जी के इस्तीफे को भी सहजता से लिया जा सकता है।
रही बात उनके इस इस्तीफे से पार्टी को होने वाले नुकसान की, तो वक्त को कभी एक ही कंधे पर नहीं ढोया जाता। वह तो नित नये कंधों पर चलकर अपनी यात्रा के पड़ावों को पार करता जाता है ... कल अटल जी थे..आज आडवाणी जी हैं और कल हो सकता है कि मोदी हों...तो इस अनवरत बहने को रोका नहीं जाना चाहिए...।
लोकसभा चुनावों में क्या होगा क्या नहीं होगा इसके लिए बेहतर होगा कि भारतीय जनता पार्टी अपने उठे हुये कदमों में विगत की बेड़ियां न डाले। इससे उसके युवा जनाधार पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। कम से कम ''नाकाम राजनेता'' के लिए भीष्म पितामह जैसे महान व ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को इस तरह न घसीटा जाये तो अच्छा होगा।
- अलकनंदा सिंह
विगत को छोड़ न पाने और आगत का स्वागत न कर पाने का प्रत्यक्ष उदाहरण बने भारतीय जनता पार्टी के भीष्म पितामह कहे जा रहे लालकृष्ण आडवाणी आजकल सुर्खियों में हैं। उन्होंने भी अपने ब्लॉग में भीष्म पितामह को याद किया है।
प्रश्न उठता है कि भीष्म पितामह ही क्यों?
इसकी भी वजह हैं... व्यक्ति उम्र की दो ही अवस्थाओं के दौरान अपनी मूल प्रवृत्ति में दिखाई देता है..एक तो जब वह शिशु होता है और दूसरा तब जब वह बूढ़ा होता है।
बूढ़े व्यक्ति में चिड़चिड़ापन उसकी उम्र की वजह से नहीं बल्कि अपनी नाकामियों से उभरता है, और यह नाकामी शारीरिक से ज्यादा मानसिक होती है। तभी तो इस उम्र में ही वानप्रस्थ का प्रावधान सनातनी व्यवस्था में किया गया था ताकि बूढ़ा व्यक्ति विगत को जितना हो सके भुला सके। यदि भुला नहीं सकता तो कम से कम आगत पर अपनी नाकामियों को थोप तो नहीं सकेगा।
इसीलिए आडवाणी जी ने जो कुछ अपनी जवानी से, राजनीति से, फिल्मों से और 'इन वेटिंग' के जुमलों से सीखा वह अपने ब्लॉग में उद्धृत कर दिया और देखिए ना इतने सालों का अनुभव नरेंद्र मोदी के सिर ठीकरा फोड़ने में काम आया। भीष्म पितामह तो बेवजह बीच में आ गये। भीष्म पितामह कहलाने के लिए उम्रभर किसी पार्टी से जुड़ा रहना ही योग्यता नहीं हो सकती, भीष्म ने देवव्रत से लेकर सरशैया तक के सफर में सिर्फ त्यागा ही त्यागा...और इसके ठीक विपरीत आडवाणी जी सब-कुछ पाने को लालायित रहे मगर उन्हें मिल न सका। तो ''पाने की लालसा'' और ''न मिल पाने का क्षोभ'' दोनों के बीच का फ़र्क समझ लिया जाये तो आडवाणी जी के इस्तीफे को भी सहजता से लिया जा सकता है।
रही बात उनके इस इस्तीफे से पार्टी को होने वाले नुकसान की, तो वक्त को कभी एक ही कंधे पर नहीं ढोया जाता। वह तो नित नये कंधों पर चलकर अपनी यात्रा के पड़ावों को पार करता जाता है ... कल अटल जी थे..आज आडवाणी जी हैं और कल हो सकता है कि मोदी हों...तो इस अनवरत बहने को रोका नहीं जाना चाहिए...।
लोकसभा चुनावों में क्या होगा क्या नहीं होगा इसके लिए बेहतर होगा कि भारतीय जनता पार्टी अपने उठे हुये कदमों में विगत की बेड़ियां न डाले। इससे उसके युवा जनाधार पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। कम से कम ''नाकाम राजनेता'' के लिए भीष्म पितामह जैसे महान व ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को इस तरह न घसीटा जाये तो अच्छा होगा।
- अलकनंदा सिंह
भीष्म पितामह कहलाने के लिए उम्रभर किसी पार्टी से जुड़ा रहना ही योग्यता नहीं हो सकती, भीष्म ने देवव्रत से लेकर सरशैया तक के सफर में सिर्फ त्यागा ही त्यागा...और इसके ठीक विपरीत आडवाणी जी सब-कुछ पाने को लालायित रहे मगर उन्हें मिल न सका। ..wah ..kyaa sateek aur sarthak .....
जवाब देंहटाएंसहमत आपकी बात से सहमत ... अडवानी जी को सोचना चाहिए ...
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