मैक्सिकन कवि जोस इमिलिओ पाचेको की एक कविता है “दीमकें” जिसमें पाचेको ने दीमक का एक “हथियार” की तरह प्रयोग बखूबी बताया है। कविता इस प्रकार है-
और दीमकों से
उनके स्वामी ने कहा —
नीचे गिरा दो उस घर को।
और वे
लगातार जुटी हुई हैं
इस काम में
जाने कितनी ही पीढ़ियों से,
सूराख़ बनातीं,
अन्तहीन खुदाई में तल्लीन।
किसी दुष्टात्मा की तरह
निर्दोषिता का स्वांग किए,
पीले मुँह वाली चीटियाँ,
विवेकहीन, गुमनाम दास,
किए जा रही हैं
अपना काम
दायित्व समझ कर,
फ़र्श के नीचे
किसी वाहवाही
या शाबासी की
अपेक्षा किये बिना ही।
उनमें से हर एक
सन्तुष्ट भी है,
अपना बेहद मामूली
पारिश्रमिक लेकर।
पूरी की पूरी कविता आज हमारे देश के उन चौतरफा दुश्मनों पर एकदम सटीक बैठती है जिन्हें देश में हर हाल में अशांति, अस्थिरता, लाचारी और वैमनस्यता, आतंकवाद को फैलाने का लक्ष्य दिया जा रहा है। मैंने लक्ष्य की बात इसलिए की क्योंकि कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद सीएए का विरोध, दिल्ली में दंगे से लेकर मतांतरण तक हर मिलती कड़ी बता रही है कि ये एक सोची समझी वो साजिश थी जो सामने आती गई परंतु इस साजिश की दीमकें अपने लक्ष्य में अब भी लगी हैं। जहां उनके सुबूत मिल रहे हैं, वहां सफाई हो रही है परंतु जहां वे नज़र नहीं आ रहीं वहां खतरा बरकरार है। सरकारें व सुरक्षा एजेंसियां तो लगी ही हैं अपने प्रयास में, परंतु नागरिक के तौर पर सावधान तो हमें भी रहना होगा। फिलहाल दो खबरें ऐसी हैं जो इन दीमकों के मूल षड्यंत्र को सामने ला रही हैं, इत्तेफाकन दोनों ही खबरों का मास्टरमाइंड “इंटरनेशनल मीडिया” है और बतौर भारतीय पत्रकार ये हमारे लिए शर्म की बात है कि हमारे देश के कुछ मीडिया संस्थान भी इनके सहयोगी की भूमिका में है। हां, खुशी की बात ये है कि इस षड्यंत्र का खुलासा भी हो रहा है।
बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, हफ़िंगटन पोस्ट, वाशिंगटन पोस्ट, वॉल स्ट्रीट जर्नल ने तो बाकायदा भारत की मौजूदा सरकार के खिलाफ अभियान चला रखा है। ये मीडिया द्वारा परिभाषित कथित उदारवाद का वो घोर कट्टरवादी चेहरा है जिस पर आम नागरिक आंख मूंदकर विश्वास करते रहे हैं।
हाल ही में चाइना डेली को लेकर एक स्वतंत्र विश्लेषक की रिपोर्ट जारी हुई है, जिसमें बताया गया है कि चाइना डेली ने पिछले छह महीनों में अमेरिका के प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को लाखों डॉलर का भुगतान किया। जिन संस्थानों को भुगतान किया गया उनमें टाइम पत्रिका, विदेश नीति पत्रिका, द फाइनेंशियल टाइम्स, लॉस एंजिल्स टाइम्स, द सिएटल टाइम्स, द अटलांटा जर्नल-संविधान, द शिकागो ट्रिब्यून, द ह्यूस्टन क्रॉनिकल और द बोस्टन, वाशिंगटन पोस्ट, वॉल स्ट्रीट जर्नल हैं, जिन्हें पेड न्यूज़ की भांति खबरें देनी थीं और उन्होंने दीं भी। इन सभी खबरों की थीम ही मोदी विरोध था और इन सभी समाचार पत्रों में छपने व भारी मात्रा में धन मिलने के कारण तमाम भारतीय पत्रकार भी अपनी भड़ास निकालने लगे, वो भी बिना ये सोचे समझे कि वे दरअसल पीएम मोदी का नहीं देश का विरोध कर रहे हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो हद ही कर दी, उसने तो सीधा एक विज्ञापन पत्रकारों की भर्ती के लिए ऐसा निकाला जिसमें विशेषज्ञता के तौर पर पीएम मोदी को लेकर “अलोचनात्मक लेख” लिखना ही योग्यता का आधार रखा गया। बहरहाल, विदेशी अखबारों में पैसा चाहे चाइना डेली दे या कोई और, वे मोदी विरोधी लेख लिखकर देश के विश्वास पर आघात करें या धर्मांतरण करवाकर सामाजिक ढांचे को बिगाड़ने में लगें, मगर अब इतना तय है कि हमारी व्यवस्था में लगी दीमकों का अब चुनचुनकर सफाया किया जाएगा, चाहे वो खुद को कितना भी तुर्रम खां क्यों ना समझ रही हों क्योंकि हर छद्मयुद्ध के लिए अलग पेस्टीसाइड होता है।
इसीलिए कवि जोस इमिलिओ पाचेको की रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जो सिर्फ अपना अलग पेस्टीसाइड खोज रही है, बस।
- अलकनंदा सिंंह
सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंबिलकुल सटीक एवं सार्थक लेख। इन तथाकथित लोगो को मुंहतोड़ जवाब देना जरूरी हो गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08-07-2021को चर्चा – 4,119 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 08 जुलाई 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
धन्यवाद रवींद्र जी
हटाएंसटीक आक्षेप, सुदृढ़ तथ्य।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रवीण जी
हटाएंजनता को भ्रमित आसानी से किया जा सकता है । और हम अपनों पर ही विश्वास नहीं करते हैं ।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख ।
धन्यवाद संगीता जी
हटाएं"चाहे वो खुद को कितना भी तुर्रम खां क्यों ना समझ रही हों क्योंकि हर छद्मयुद्ध के लिए अलग पेस्टीसाइड होता है।" - सही अंत किया आपने अपनी ज्वलन्त विषय की चर्चा कर के। पर दुःखद और कारुणिक तो ये है कि उस पेस्टीसाइड के असर करते करते ये दीमकों की टोली एक-दो मानव नस्ल की पीढ़ियों की पहचान मिटा जाते हैं।
जवाब देंहटाएंलोग कहते हैं कि भगवान इंसान को बनता है, तो फिर भगवान अपनी फैक्ट्री में ऐसे दीमकनुमा इंसान बनाता ही क्यों है ???
आपकी इस चर्चा में कही गई बातें ये दीमकनुमा चैनलों से इतर चैनलों पर आती हैं और मन-दिमाग को मथ जाती हैं .. शायद ...
धन्यवाद सुबोध जी
हटाएंबहुत सुंदर और सटीक
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनुराधा जी
हटाएंअलकनंदा जी, सरकार की नीतियों की आलोचना करना क्या देशद्रोह है?
जवाब देंहटाएंएक गाना याद आ रहा है -
'मैं हूँ अकेली बड़ी मुश्किल भई है,
ये सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है ---'
दुनिया आपके पीछी इसलिए पड़ी है कि आप 84 साल के एक बीमार-असमर्थ को आतंकवादी बताकर जेल में ही ला-इलाज मार देते हैं.
मेरा निवेदन है कि रवि शंकर प्रसाद की भाषा में कुछ मत कहिए क्योंकि अब तो उनकी गद्दी छिन गयी है.
नहीं जैसवाल जी, मैंने सरकार की नीतियों की आलोचना करने को देशद्रोह नहीं कहा, वो तो पत्रकारिता का धर्म है परंतु जानबूझ्कर भारीभरकम फीस लेकर सिर्फ और सिर्फ "मोदीसरकार" का विरोध किया जाए, वे मोदी का विरोध करते हुए कब देश का ही विरोध करने लग जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता, ये तो सही नहीं है ना।
हटाएंएक और बात मैंने लिखा है कि चाइना डेली बाकायदा इस तरह के लेखों को स्पांसर कर रहा है। क्या इससे ही सबकुछ साफ नहीं हो जाता। विरोध मोदी का कर सकते हैं देशकानीं। देश का विरोध देशद्रोह ही कहलाएगा।
लोगों की मानसिकता भी डीएनए की तरह चिपकी रहती है .. शायद ...
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जोशी जी
हटाएंसटीक आलेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद उषा जी
हटाएंसार्थक व सामयिक लेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शर्मा जी
हटाएंसामायिक विषय पर शोध सा करती गहन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कुसुम जी
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