तहलका के संपादक तरुण तेजपाल यौन उत्पीड़न के मामले में बरी |
एक जुम्बिश में कट भी सकते हैं
धार पर रक्खे सब के चेहरे हैं
रेत का हम लिबास पहने हैं
और हवा के सफ़र पे निकले हैं।
#ज़फ़र_इक़बाल_ज़फ़र के इस शेर को मैं आज की पत्रकारिता द्वारा आदतन “चयनित विषयों पर ही अपनी रिपोर्ट” के मामले में प्रयोग कर रही हूं। कल तहलका के संपादक तरुण तेजपाल को गोवा कोर्ट द्वारा यौन उत्पीड़न के मामले में बरी किए जाने के बाद से ही ये अभियान शुरू हो गया। चूंकि गोवा में भाजपा की सरकार ने अब इस मामले को हाईकार्ट ले जाने की बात कही, तभी से पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी खांचों में बंट गई।
कांग्रेस समर्थक पत्रकारों का एक खांचा तेजपाल की तरफदारी में लगा था तो दूसरा खांचा भाजपा पर मामले को कोर्ट ले जाने में जल्दबाजी और पीड़िता द्वारा पुलिस में शिकायत “दर्ज़ ना कराने” के बावजूद उन्हें राजनैतिक कारणों से फंसाया जाना बता रहा था मगर इस बीच जो सबसे शर्मनाक रहा, वह था तेजपाल का संदिग्ध चरित्र और उस पर पत्रकारिता की रहस्यमयी चुप्पी। हालांकि ये चुप्पी घटना (2013) के समय इतनी गहरी नहीं थी परंतु कल से तो पत्रकारों ने मुंह ही सीं लिया है जबकि सभी जानते हैं कि आठ साल बाद ये निर्णय अभी मात्र सेशन कोर्ट से ही आया है, गोवा सरकार की मानें तो अंतिम निर्णय आने में समय लगेगा। इस बीच मीडिया की ये चुप्पी तेजपाल के रसूख का मूक सर्मथन करती दिख रही है।
तेजपाल के रसूख का अंदाज़ा इसी बात से भी लगा सकते हैं कि उसे बलात्कार, यौन उत्पीड़न और जबरन बंधक बनाने के सभी आरोपों से बरी कराने में पीड़िता के खिलाफ कुल 11 बड़े व नामी वकील पैरवी में लगे रहे। इनमें राजीव गोम्स, प्रमोद दुबे, आमिर ख़ान, अंकुर चावला, अमित देसाई, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, अमन लेखी, संदीप कपूर, राजन कारंजेवाला और श्रीकांत शिवाडे जैसे हाइलीपेड वकील रहे और इन्होंने 156 गवाहों की सूची में से मात्र 70 गवाहों से ही जिरह की और इसी आधार पर फैसला सुना दिया गया।
वकीलों की इतनी बड़ी फौज की भी वजह थी कि निर्भया केस के बाद बलात्कार की जस्टिस वर्मा कमेटी द्वारा तय की गई नई परिभाषा ‘फ़ोर्स्ड पीनो-वैजाइनल पेनिट्रेशन’ के तहत तेजपाल का ये मामला किसी रसूखदार व्यक्ति के खिलाफ़ आया पहला केस था। उधर 2013 में विशाखा गाइडलाइन्स पर बने नए कानून के तहत सभी कार्यालयों के लिये “कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न” की जांच और फ़ैसले के लिए इंटर्नल कम्प्लेनेंट्स कमेटी बनाना आवश्यक था इसीलिए नवंबर 2013 में पीड़िता ने अपने दफ़्तर को चिट्ठी लिख पूरे मामले की जानकारी दी थी और जांच की मांग की थी परंतु उस वक़्त तक तहलका मैगज़ीन में कोई इंटरनल कम्प्लेनेट्स कमेटी थी ही नहीं। हालांकि वो चाहती तो क्रिमिनल लॉ के सेक्शन 354 (ए) के तहत पुलिस के पास भी जा सकती थी परंतु तेजपाल का रसूख यहां भी हावी था। अत: मामला सामने आने के बाद गोव सरकार को आगे आना पड़ा।
इसके बावजूद कई अख़बारों, वेबसाइट और टीवी चैनलों ने तरुण तेजपाल और महिला सहकर्मी की एक-दूसरे को और दफ़्तर को लिखे ई-मेल्स बिना सहमति लिए छाप दिए थे। इंटरनेट पर अब भी शिकायतकर्ता की अपनी संस्था #Tehelka को लिखी वो ई-मेल मौजूद है जिसमें उनके साथ की गई हिंसा का पूरा विवरण था, ये ई-मेल केस के कुछ ही समय बाद ‘लीक’ हो गया था। इतना सब लीक होने के बाद भी अब पत्रकारों द्वारा तेजपाल का “इस तरह” स्वागत करना बहुत कुछ कह रहा है।
बहरहाल अब जब कि सेशन कोर्ट से तेजपाल बरी हो गया है तब हमारे (पत्रकारों) लिए ये गंभीरता से सोचने का समय है कि पीड़ितों की आवाज़ उठाने वाली पत्रकारिता को अब पूरी तरह रिवाइव किया जाए ताकि पत्रकारिता भाजपा, कांग्रेस, वामपंथी आदि के खांचों में ना बंटे क्योंकि आज भी “बड़ों” का रसूख ना जाने कितने पीड़ितों को निगलने को आतुर है। ऐसे में वे जो अपनी आवाज़ स्वयं नहीं उठा सकते, इसलिए उनकी आवाज़ बना जा सके ताकि राजनैतिक दलों, मीडिया हाउस के बड़े ओहदेदारों द्वारा खांचों में बांटकर पत्रकारिता को मोहरे की तरह इस्तेमाल होने से रोक सकें।
और अंत में सभी पत्रकारों से यही कहूंगी कि हमें अपना गिरेबां चुस्त दुरुस्त रखने के लिए ही सही, #ज़फ़र_इक़बाल_ज़फ़र के ही शब्दों में “रेत का लिबास पहनकर हवा के सफ़र पे निकलने” वाली बेवकूफ़ी से बचना चाहिए।
-अलकनंदा सिंंह
तरुण तेजपाल के बरी होने पर गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने कहा कि राज्य सरकार इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करेगी और सरकार इसे लेकर बहुत गंभीर है। देखते है क्या होता है? बात यही है न नशे के धुन में गाड़ी को फुटपाथ पर सो रहे लोगों के ऊपर चढ़ाकर उनकी जान लेने वाला हो या मुंबई बम धमाके में शामिल अभिनेता, सब बचकर निकल गए.. इन तथाकथित पत्रकारों और वकीलों क्या कहना एक आतंकवादी को बचाने के लिए रात 2 बजे न्यायालय का दरवाजा खुलवा दिए थे... प्रश्नचिन्ह उठता है न्याय को लेकर क्या कानून सिर्फ आम जनता के लिए है?
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, शिवम जी, इस न्याय व्यवस्था को बदलने में अभी समय लगेगा क्यों कि ये बरैया का छत्ता सरीखा है, इससे भी पहले कई चुनौतियां हैं शासन के सामने... परंतु ऐसा होगा अवश्य
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअन्दर ही अन्दर न जाने क्या क्या चलता रहता है .... यूँ आम आदमी तो धक्के ही खाता है ..
जवाब देंहटाएंरसूख वाले ऐश करते हैं ...
बहुत बढ़िया जानकारी .
जी सही कहा संगीता जी, टिप्पणी के लिए धन्यवाद
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (24-05-2021 ) को 'दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दवा दी है' (चर्चा अंक 4075) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सटीक विवरण देता शानदार आलेख।
जवाब देंहटाएंहर जगह ढ़ोल की पोल है, पत्रकारिता उनसे अलग नहीं।
कहें तो एक थैली के चट्टे बट्टे।
बस रसूख वाले भैंस चरा रहे हैं।
अलकनंदा जी, आपने यौन-उत्पीड़न की बहुत ज्वलंत समस्या उठाई है. 'समरथ को नहिं दोस गुसाईं' की उक्ति को हमारे देश में हर क्षेत्र में चरितार्थ होते हुए देखा जा सकता है.
जवाब देंहटाएंतरुण तेजपाल हो या आसाराम बापू हो या फिर स्वामी चिन्मयानन्द हो, यौन-उत्पीड़न की सबको एक सी सज़ा मिलनी चाहिए.
धन्यवाद जैसवाल जी
हटाएंबढ़िया जानकारी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
हटाएंपत्रकारिता और न्याय व्यवस्था पर आम लोगों का विश्वास कायम रहे, इसके लिए इनका निष्पक्ष होना अत्यावश्यक है
जवाब देंहटाएं...देखते हैं ऊँट किस करवट बैठता है
धन्यवाद कविता जी, हम सतत लगे रहेंगे
हटाएंवैसे भी ये दौर पत्रकारिता की सेहत के लिए अच्छा नहीं रहा, खेमों में बंटने, खामोश हो जाने, अपनी अपनी ढपली बजाने जैसे कई आरोप इस दौर में पत्रकारिता ने झेले हैं, चूंकि 18 वर्ष देश के ख्यात अखबारों में पत्रकारिता करता रहा इसलिए मुझे लगता है कि पत्रकारिता का कारपोरेट चेहरा ही उसके लिए दुखदायी साबित हुआ है, मीडिया जब से कारोबार को समझा और कारोबारी जैसा सलूक करने लगा तभी से हालात यहां तक आ पहुंचे हैं। कारपोरेट कार्यालय, कारपोरेट विचारधारा, कारपोरेट पहनावा और रहन सहन...अब संभव है कि ये कहा जाएगा कि ये समय की मांग है लेकिन समय कभी नहीं करता कि आप अपने आप को इतना अधिक बदल लीजिए कि आपकी तमीज ही खत्म हो जाए...। मुझे इस दौर में दुख है मीडिया पर लग रहे आरोपों का, लेकिन उम्मीद करता हूं कि मीडिया अपने मूल चेहरे को नहीं भूलेगा और दोबारा उसी सम्मान से लौटेगा जैसा उसे होना चाहिए...।
जवाब देंहटाएंसही कहा, संदीप जी, परंतु अवसान किसी का भी हो वो खत्म होता ही है, आजकल की पत्रकारिता के साथ भी यही होगा क्योंकि अब तो अति ही हो गई है।
हटाएंसच की आवाज को दबा भले ही दिया जाये सदा के लिए मिटाया नहीं जा सकता
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनीता जी
हटाएंपत्रकारिता आज के दौर की सबसे अविश्वसनीय संस्था है। क्या सही क्या गलत सबको लीपापोती कर खेमों में बँटे पत्रकार पक्ष और विपक्ष में खड़े प्रवक्ता सरीखे लगने लगे है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख अलकनंदा जी।
सादर।
धन्यवाद श्वेता जी
हटाएंपत्रकार, वकील और पुलिस की मिलीभगत सामान्य लोगों को न्याय की पहुँच से सदा दूर रखती रही है। अपने देश में रसूखवालों के सारे गुनाह पहले ही माफ होते हैं, कोर्ट कचहरी और पुलिस केस सिर्फ एक ड्रामा होता है। पुलिस, वकील और पत्रकार ही भ्रष्ट हो जाएँ तो भ्रष्टाचार के फलने फूलने की उर्वरा भूमि तैयार है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी, परंतु हर अवसान का समय भी निश्चित होता है---ये गठजोड़ भी टूटेगा
जवाब देंहटाएंतरुण तेजपाल के बहाने से पता चला की पत्रकारिता जगत ने तो पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया ही है पर अब न्यायपालिका भी अपनी विश्वनीयता खोने लगी , वो भी एक पत्रकार के लिए || घोर आश्चर्य है |
जवाब देंहटाएंइतनी अच्छी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद रेणु जी
हटाएंबिल्कुल सही संदर्भ उठाकर आपने पत्रकारिता तथा न्यायपालिका का सच आम लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर आम इंसान की आंख खोलने का काम किया है, आपको हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई अलकनंदा जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा और सटीक लेख!👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंमैने भी इस विषय पर एक लिखा है कृपया मेरे ब्लॉग पर आए और अपनी राय व्यक्त करें 🙏🙏