शाद लखनवी का एक शेर है –
बुझ गई आतिश-ए-गुल देख तू ऐ दीदा-ए-तर
क्या सुलगता है जो पहलू में धुआँ है कुछ और…
ये शेर उस खबर पर पूरी तरह फिट बैठता है जो अमेजॉन के मार्केट प्लेटफॉर्म से आई है, ऑनलाइन बाज़ार की सरताज बनी अमेजॉन पर एक ऐश ट्रे बिक रही थी, ऐश ट्रे की बनावट महिलाओं का सरेआम अपमान करने के लिए काफी थी, इसका डिजाइन कुछ ऐसा था जैसे कोई औरत अपनी टांगें फैलाकर बैठी है और आप उसकी टांगों के बीच में सिगरेट बुझा सकते हैं। हालांकि अब ‘संभवत:’ वह हटा ली गई है, मगर इस एक बात ने ये अवश्य बता दिया कि महिलाओं के शरीर की बनावट को लेकर जो मानसिकता अब भी बरकरार है, उसे बाज़ार में किस किस तरह भुनाया जा सकता है।
बानगी ही सही, परंतु अमेजॉन पर बिक रही इस ऐश ट्रे की डिजाइन से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सिगरेट पीने वाले व्यक्ति के मन में उसे बुझाते हुए क्या विचार उठते होंगे और उन विचारों की परिणति किस किस रूप में होने की संभावनायें रहती होंगी। देश के लगभग सभी महिला अधिकारवादी संगठन जो किसी बलात्कार की घटना पर ज़ार-ज़ार रोते हैं, जिन्हें उसमें ‘दलित… वंचित…,अल्पसंख्यक…लिंचिंग’ तक सब नज़र आ जाता है परंतु वे अपनी निगाहें बाज़ार, मीडिया, समाचारपत्रों के ” इस हथकंडे” की ओर नहीं डालते। वे इस तरह से बाज़ार में परोसे जा रहे अपराध पर चुप क्यों हैं, क्या सारी जिम्मेदारी सरकारों पर ही है, ये फिर कानूनों के बहाने समस्या को टालने तक सीमित है। क्या इसके लिए समाज में चेतना लाना या आवाज़ उठाना इन संगठनों के लिए ”लाभ” की श्रेणी में नहीं आता।
महिलाओं के शरीर को दिखाने वाले ऑनलाइन बाज़ार हों या न्यूज़ मीडिया प्लेटफॉर्म्स, सभी वल्गैरिटी को भुनाने में लगे हैं। उन्हें बिकनी में स्पॉट की गईं लगभग पूर्णत: निर्वस्त्र अभिनेत्रियां ”हॉट” दिखाई देती हैं तो उस पर हुए ”क्लिक” उन्हें बाज़ार की ऊंचाइयों तक ले जाते हैं। महिलाओं के शरीर पर चल रहे इस बाज़ार का प्राइम फंडा ही ये है कि ज्यादा क्लिक ज्यादा रेवेन्यू…। अभी तक हम वल्गैरिटी के लिए पॉर्न फिल्म्स का कोसते थे, उन पर प्रतिबंध और कड़ी निगाह रखते थे परंतु ये जो बाज़ार हथियाने के बहाने सरेआम न्यूडिटी को परोस रहे हैं, उनका क्या…?
यूं तो प्रिंट मीडिया भी यौन समस्याओं के बहाने वल्गैरिटी वाले विज्ञापन सालों से निकाल रहे हैं, जिन्हें बड़े तो देखते ही हैं, किशोर वर्ग के बच्चे भी देखते हैं… इन्हें देखकर वो क्या क्या सोचते होंगे , इसका अंदाज़ा बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है।
बात इतनी सी है कि महिला शरीर की बनावट और उसे अर्द्धनिर्वस्त्र अथवा निर्वस्त्र दिखाकर आसानी से पैसे बना रहे इन प्लेटफॉर्म्स को सिर्फ और सिर्फ बाज़ार से मतलब है, उन्हें ना तो महिलाओं के बहाने लगाई जाने वाली आतिशे-गुल से मतलब है और ना ही उससे आंखें सेंकने वाली उस बीमार मानसिकता से जो उनके शरीर तक सीमित रहती है, और मौका-बेमौका उसे उधेड़ने से बाज़ नहीं आती। स्वच्छंद इंटरनेट वाले ज़माने में नई पीढ़ी तक ये क्या क्या कहर ढा जाएगा… इसे सोचकर ही डर लगता है।
कभी रोमांटिक अंदाज़ में आतिशे-गुल के लिए हनीफ़ फ़ौक़ की लिखी ये लाइनें कि
”नालों ने ये बुलबुल के बड़ा काम किया है
अब आतिश-ए-गुल ही से चमन जलने लगा है…”
अब बदमज़ा हो रही हैं, फिर भी बात खत्म न कीजिए, चर्चा कीजिए कि हम कहां तक और क्या-क्या कर सकते हैं।
- अलकनंदा सिंंह
स्त्री को वस्तु समझता है समाज..तभी उसके शरीर को कैसे भी प्रयोग किया जाए ..कोई प्रतिक्रिया नहीं होती..इतने अच्छे लेख पर कोई कॉमेंट नहीं हुआ..आश्चर्य है !
जवाब देंहटाएंहम बोलने से कतराते हैं.. साथ कैसे देंगे..आपका शुक्रिया आपने सार्थक कार्य किया है..शुभ संध्या
प्रिय अर्पिता जी, ब्लॉग जगत में नारी सम्मान के पक्ष में खड़े होने की प्रथा नहीं है। विशेषकर महिला रचनाकार जब ऐसे विषयों पर चुप्पी साध लेती हैं तो इससे दुःखद क्या हो सकता है।??
हटाएंधन्यवाद अर्पिता जी, लेख का मर्म समझने और हौसलाइफजाई करने के लिए शुक्रिया
हटाएंबहुत दुःख और हैरानी भरी बात जान रही हूँ अलकनंदा जी | भारतभूमि जहाँ नारी को इतना ऊँचा दर्ज़ा प्राप्त है वहां नारी की देह का भद्दा स्वरूप एक जड़ वस्तु में ढलकर एक बेस्ट सेलर बन जाए--- बहुत दुःख और चिंता की बात है | निश्चित रूप से समस्त नारी वर्ग के साथ ना सिर्फ भद्दा मज़ाक है बल्कि उसका प्रत्यक्ष अपमान है | निश्चित रूप से इसे बनाने वाला कोई कुत्सित मानसिकता वाला व्यक्ति ही रहा होगा | लोग सिर्फ अपने घर की चारदीवारी में अपनी बहु ,बहन, बेटियों को सती - सावित्री वाले रूप में देखना चाहते हैं शेष स्त्री वर्ग का सम्मान उनके लिए कोई मायने नहीं रखता | देश की न्यायपालिका की दृष्टि क्या इतनी मंद हो गयी है कि इस प्रकार के अनैतिक प्रसंगों को अनदेखा छोड़ दिया जाए !!!! आखिर भावी पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ रहे हैं हम ? एक नारी देह बस इसी लिए रह गयी है कि उसे मनमुताबिक जड़ साँचें में ढालकर उससे पैसा कमाया जाए | यदि विज्ञापन के शैशवकाल में महिलाओं ने देह प्रदर्शन के खिलाफ आवाज़ उठाई होती तो आजकी नारी को ये दिन कभी देखना ना पड़ता | दुखद है कि नए जमाने में देह प्रदर्शन को सफलता का मानक समझा जाता है | इसी मानसिकता से ऐसे उत्पाद निकल कर आते हैं |आपके लेख से ही इस प्रसंग के बारे में जान पाई और जानकार व्यथित भी हूँ | सस्नेह आभार आपका |
जवाब देंहटाएंरेणु जी, नमस्कार। आपकी इस बहुमूल्य टिप्पणी के जितना आभार जताऊं...कम ही होगा परंतु आवाज़ तो उठती रहनी चाहिए ही ना, चुप्पी साध लेने से इसे बढ़ावा ही मिलेगा, हमारी कोशिश ''जो कुछ हो चुका'' उस पर रोने की बजाय अब आगे ''हम क्या कर सकते हैं'' इस पर होनी चाहिए , बस यही कोशिश कर रही हूं...बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंखरीदारों की मानसिकता भी रुग्ण मानसिकता है इसमें कोई शक नहीं 😴😔
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकई-कई बार कई-कई तरह के विज्ञापनों का विरोध किया है ! वे बंद भी हुए हैं पर रक्तबीज की तरह एक हटता है दस आ खड़े होते हैं ! संगठित पुरजोर विरोध बहुत जरुरी है
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा शर्मा जी परंतु बाज़ार का विरोध जागरूकता से ही किया जा सकता है...इसीलिए कई बार बोल्ड लगते हुए भी विषय उठाने की कोशिश करती हूं..धन्यवाद
हटाएं" स्त्री को वस्तु समझता है समाज..तभी उसके शरीर को कैसे भी प्रयोग किया जाए "
जवाब देंहटाएंअर्पिता जी ने सही कहा और
"दुखद है कि नए जमाने में देह प्रदर्शन को सफलता का मानक समझा जाता है | इसी मानसिकता से ऐसे उत्पाद निकल कर आते हैं |
सखी रेणु के शब्दों का भी मैं समर्थन करती"
परन्तु क्षमा चाहती हूँ-" इस समाज को और इस बाजार को किसने ये हक दिया कि-हम स्त्रियों को खरीद-परोख्त में प्रयोग करे,
जिस्म के नुमाईश को खूबसूरती का माप-दण्ड बनने की प्रक्रिया की शुरुआत किसने की "
चंद सवाल है -जिसपर भी विचार करनी चाहिए
हमने इस समाज को आज़दी और अधिकार ना दिया होता तो आज हालत ऐसे नहीं होते।
पिछली पीढ़ी तो मजबूर थी,आज की नारी तो कमजोर नहीं
तो कही न कही हम भी कसूरवार है।
आपने सही कहा
"हमारी कोशिश ''जो कुछ हो चुका'' उस पर रोने की बजाय अब आगे ''हम क्या कर सकते हैं'' इस पर होनी चाहिए ,"
- बीती ताहि विसार कर आज भी हम औरते जागरूक हो जाए तो अपने देश की सभ्यता और संस्कृति के ख़त्म होने का रोना रोने के बजाय आज भी उसे बचा सकते है और इस संस्कृति और सभ्यता की शुरुआत घर से ही हो सकती है
ऐसा मेरा मनाना। यदि मेरे शब्दों ने आप सभी के भावनाओं ठेस पहुंचाई हो तो क्षमा चाहती हूँ।
धन्यवाद कामिनी जी, मेरा लिखा सार्थकता की ओर है, कम से कम हम इस बात पर अब एकमत हो सकते हैं कि हमारी कमजोरियां हमें ही दूर करनी होंगी, आधुनिकता विचारों में होनी चाहिए, बहस चलती रहनी चाहिए , आशाऐं और हौसला न टूटे तो बहुत कुछ किया जा सकता है, मुझे नहीं लगता कि आपके विचाारों से रेणुु जी या मैं स्वयं असहमत हो सकते हैं, बहस चलेगी तो परिणाम भी निकलेंगे। हार्दिक धन्यवाद आपका कि आपने मेरी पोस्ट को पढ़ने का समय निकाला...आभार
हटाएंधन्यवाद आपका अलकनंदा जी, जो आपने मेरे विचारों को अपनी सहमति प्रदान की अन्यथा होता ये है कि-दोषारोपण तो आसानी से हो जाता है परन्तु अपनी कमजोरियों पर ध्यान नहीं दिया जाता। शुरू से यही होता रहा है -"हमने हक दिया दूसरों को आपना शोषण करने का,कई परिस्थितियों में तो हमने ही अपनी जाति का भरपूर शोषण किया है (मैं तो दो ही जाति मानती हूँ पुरुष और स्त्री जाति)पहले तो हमारी जाति अशिक्षित थी खुद को असहाय और लाचार मानती थी मगर आज तो हर अधिकार है हमारे पास फिर भी अपनी ही कमजोरियों की वजह से अपनी नाकदारी करवा रही है।
हटाएंआपने बिलकुल सही कहा -"आधुनिकता विचारों में होनी चाहिए" ना की आवश्यकता से अधिक स्वछंद होने में। आपका प्रयास बहुत ही सराहनीय है आज इसकी वजह से एक मंच पर हम अपने विचारों को साझा कर पा रही है,हृदयतल से आभार आपका
प्रभावशाली निर्भीक लेखन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शांतनु जी
हटाएंसटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
हटाएंबाजारवाद की मानसिकता ही विकृत हो रही है और सबसे बिकाऊ एवं विलासिता पूर्ण सामग्रियों में नारी सबसे ऊपर है । बाजारवादी अभिशप्तों को ये भी भान नहीं होता है कि वे अपनी ही पशुता का ही प्रदर्शन करते हैं । जिनपर लानत-मलामत का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अमृता जी,इस बहुमूल्य टिप्पणी के लिए
हटाएंबाजारवाद के माध्यम से अपना एजेंडा भी चलाने लगते हैं लोग और कई बार जाने अनजाने लोग उसके शिकार भी हो जाते हैं ... इतनी बड़ी कम्पनियों को एक अधिकारी इस निमित्त भी रखना जरूरी है ... जो सोशल मापदंड देखे ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नासवा जी, हमें चौकन्ना रहना ही होगा, और कोई ऑप्शन है ही नहीं
हटाएंअमृता जी की बातों से मै भी सहमत हूँ , नारी को नुमाइश बनाकर व्यापार करना ,एक अजीब बाजार है दुनिया , कटु सत्य है , मजबूर है आदमी , सत्य को उजागर करती हुई रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी, हमें चौकन्ना रहना ही होगा, और कोई ऑप्शन है ही नहीं
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