आज जिसे देख-सुनकर मैं व्यथित हूं, निश्चित ही आप भी होंगे, दिनभर में कई घटनाओं से हम सभी पत्रकार रूबरू होते हैं मगर इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो रात को भी सोने नहीं देतीं। जो अपनी ही सांस से भी डराती हैं कि अगली बारी किसकी...? खासकर गांव-गिरांव से आ रही खबरें इतनी वीभत्स होती हैं कि गांवों की निश्छलता के सारे मापदंड ध्वस्त होते दिखते हैं। अब किसी एक की बेटी ये मानकर निश्चिंत नहीं हो सकती कि वह पूरे गांव की बेटी है। शहरों में रिश्तों के तार तो पहले ही ध्वस्त हो रहे थे और अब इनकी चिंगारी गांव तक जा पहुंची है। यौन हिंसा करना और इसका वीडियो वायरल कर देना जैसे अब गांव के बच्चों का मुंह लगा अपराध होता जा रहा है।
हर दूसरे रोज बलात्कार और यौन हिंसकों की खबरों के बीच कल बिहार के जहानाबाद से एक और वायरल हुए वीडियो की खबर ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया। आखिर ऐसा क्या है जो किशोरवय के बच्चे भी इतने हैवान, इतनी घिनौनी सोच वाले होते जा रहे हैं कि उन्हें न किसी कानून का भय है और ना ही रिश्तों का लिहाज।
घटना के अनुसार 28 अप्रैल की रात जहानाबाद पुलिस को एक वीडियो मिला जिसमें दिख रहा था कि आधा दर्जन लड़कों ने एक नाबालिग लड़की को घेर रखा है। ये आवारा लड़के उस लड़की के साथ न सिर्फ अश्लील हरकत करते दिख रहे हैं बल्कि उसके शरीर से खेल रहे थे। वीडियो में लड़की करीब 5-6 हैवान लड़कों से इज्जत की गुहार लगाती रही। वीडियो में लड़की को भइया मेरी इज्जत मत लो, मेहरबानी करो भइया, प्लीज कहते साफ सुना जा सकता है। वीडियो में लड़के उस युवती की पिटाई भी कर रहे हैं और उसे अपशब्द भी कहते दिख रहे हैं। वीडियो में लड़की के कपड़े फटे दिख रहे हैं। हालांकि कुछ लड़के उन हैवान लड़कों को रोकते भी दिखाई दिए किंतु उनकी कोई सुन नहीं रहा था। वीडियो में ज्यादातर कम उम्र के लड़के हैं। ये हैवान उस लड़की से छेड़छाड़ के दौरान उसके मां-बाप का नाम भी पूछ रहे थे। हालांकि तारीफ करनी होगी पुलिस तत्परता की कि जिसने उस फोन को जल्द बरामद कर लिया जिससे वह वीडियो बनाया गया था। वीडियो में दिख रहे दो आरोपियों के चेहरों का मिलान हो गया है, जबकि वीडियो क्लिप बनाने वालों की पहचान नहीं हो सकी है। आरोपियों से पूछताछ में 4-5 अन्य लोगों के नाम मालूम हुए हैं और उनकी तलाश के लिए सर्च ऑपरेशन जारी है। ये तो रही पुलिस की कार्यवाही, और वह पूरी मुस्तैदी से की जा रही है।
अब यदि नैतिकता की धज्जियां उड़ाते इस वीडियो को लेकर ''जिम्मेदारी तय'' करने के लिए किसी बौद्धिक जन से पूछें तो वह पुलिस को, सिस्टम को गरियाते हुए यही कहेगा कि लोगों में कानून का भय नहीं रह गया है, सरकारें अपनी राजनीति करती हैं, यौन हिंसा को धर्म-जाति-क्षेत्र आदि में बांटकर देखती हैं आदि आदि।
किसी सोशल वर्कर से पूछिए तो वह इसे बच्चों को सोशल मीडिया की लत या यौन विषयों की अधकचरी जानकारी होने पर टाल देगा। और तो और फेमिनिस्ट इसे महिलाओं पर अत्याचार कहकर उनकी ''और अधिक स्वतंत्रता'' के लिए झंडे उठाकर चल देंगे।
मनोचिकित्सक से पूछ कर देखेंगे तो वह अपने कैमिकल इक्वेशन से समझाने लगेगा कि आखिर क्यों यौन हिंसा बढ़ रही है। किसी धार्मिक जन से पूछें तो वह ईश्वर का प्रकोप और अधर्म बढ़ने को जिम्मेदार मानेगा तथा पूजा-पाठ, संतों की सेवा, चढ़ावा आदि तक इसके उपाय बता देगा। पर इस पूरी अपराधिक मनोवृत्ति की संक्रामकता का ना तो कोई सटीक जवाब है और ना ही मिल सकता हैं।
दरअसल यह कोई रोग नहीं, यह मानसिकता है जिसकी शुरुआत घर से ही होती है, हम यानि मांएं इसकी भयंकरता और इसकी संक्रामकता के लिए जिम्मेदार हैं। जी हां, पूर्णरूपेण हम ही जिम्मेदार हैं। अपनी जिम्मेदारी हम ना तो आर्थिक हालातों, सामाजिक दबावों और ऐसी अन्य मजबूरियों पर थोप सकते हैं और ना ही इसके लिए किसी और दोषी बता सकते हैं क्योंकि बच्चे का जन्म हमारी कोख से होता है। हम ही उसे पालते हैं, हम ही उसे पहला ग्रास देते हैं। हम ही उसे रिश्ते-नाते, सम्मान, नैतिकता, रहन-सहन तथा तमीज़ सिखाते हैं। मैं ये मानने को तैयार ही नहीं कि किसी भी स्तर, किसी भी परिवेश की मां अपने बच्चे को ''ये सब नहीं सिखा सकती'', ना सिखा पाने के लिए कोई बहाना उसकी निकृष्टता को कम नहीं कर सकता।
यह अब किसी से छुपा नहीं है कि समाज में फैली अधिकांश कुरीतियों के लिए तो महिलाएं ही जिम्मेदार होती हैं, चाहे वह दहेज प्रथा हो, विधवाओं की दुर्दशा हो, कन्या भ्रूण हत्या हो, बच्चियों की अशिक्षा अथवा उनके कुपोषण का मामला ही क्यों न हो। हालांकि इस सबके लिए टारगेट हमेशा पुरुषों को किया गया और महिलाएं विक्टिम बनीं रहीं।
मगर अब महिलाओं का यही विक्टिमाइजेशन अपने दुष्प्रभाव दिखाने लगा है। अब वे अपने बच्चों को संस्कार तथा नैतिक-अनैतिक न सिखा पाने की अपनी नाकामी को यह कहकर कि ''हम कर ही क्या सकते हैं, समय ही खराब है, मोबाइल फोन ने बच्चों का दिमाग खराब कर दिया है।'' जैसे जुमले गढ़कर बच नहीं सकतीं। यहां वो कहावत एकदम फिट बैठती है कि चोर को नहीं, चोर की मां को मारो...। ये तो हम मांओं को सोचना होगा कि हम क्या बनना चाहती हैं। आधुनिक राक्षसों की मां या कौशल्या और सुमित्रा सरीखी मांओं का उदाहरण प्रस्तुत करने वाली मा। एक रास्ता चुनने का समय आ गया है क्योंकि अब हम अपने बच्चों को इससे भी ज्यादा गर्त में नहीं गिरा सकते।
दुनिया का हर धर्म और प्रत्येक संस्कृति इस बात से सहमत है कि बच्चे की सबसे पहली शिक्षक व गुरू उसकी मां ही होती है। बच्चे को संस्कारित करने में मां का बड़ा योगदान होता है और इसीलिए मां को ईश्वर का दर्जा प्राप्त है।
जाहिर है कि जब बच्चे का ईश्वर ही उसे घुट्टी में संस्कार देने की जिम्मेदारी नहीं निभाएगा और अपनी प्रमुख जिम्मेदारी से विमुख होगा तो दुनिया की कोई पाठशाला उसे इंसान नहीं बना पाएगी।
हो सकता कि चंद किताबें पढ़कर वह क्वालीफाइड भी बन जाए किंतु एजुकेटेड अर्थात शिक्षित कभी नहीं बन सकता।
दिन-प्रतिदिन तेजी के साथ बढ़ रही यौन हिंसा को यदि रोकना है तो सबसे पहले ईश्वर की संज्ञा प्राप्त मां के किरदार पर ध्यान केंद्रित करना होगा क्योंकि अच्छे संस्कारों से युक्त बच्चा चाहे उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाए अथवा न कर पाए किंतु वह बलात्कारी कभी नहीं होगा।
कानून अपनी जगह है किंतु कर्म नि:संदेह सबसे ऊपर है। कर्म की फल का कारण बनता है। बेहतर होगा कि हम मांओं को उनकी भूमिका का अहसास कराएं और बताएं कि हर बलात्कारी किसी न किसी औरत की केाख से जन्मता है और वह औरत भी एक मां होती है।
-अलकनंदा सिंह