आज 20 मई है, देश के अन्य शिक्षा बोर्ड्स की तो नहीं मालूम मगर 3 दशक पहले तक हमारे यूपीबोर्ड के स्कूल और इंटर कॉलेजों में इस दिन एक अलग किस्म के त्यौहार का नजारा होता था। परीक्षायें खत्म होने के बाद 20 मई घड़ी के उस कांटे की तरह होती थी, जो हमारी और हमारे माता-पिता की प्रत्याशा को पेंडुलम की तरह कभी इधर तो कभी उधर घुमाती रहती थी। कभी-कभी कोई एकादि मामला नकल का देखने-सुनने में भले ही आ जाता था, लेकिन वह भी बड़ी शांति से समझबूझ कर निपटा लिया जाता था।
आपने भी महसूस किया होगा कि नंबरों की मारकाट तथा प्रथम और सर्वश्रेष्ठ आने जैसी आपाधापी तीन दशक पहले तक नहीं थी। बच्चों के ऊपर दिन-रात पढ़ाई करने का दबाव डालने वाले माता-पिता भी नहीं थे और ना ही बंधुआ मजदूर की भांति सर्वश्रेष्ठ की रेस में डिप्रेशन और एंजाइटी को मोल लेते बच्चे थे। शिक्षा एक ध्येय थी, बिजनेस और रेस नहीं। आप को भी याद होगा कि 60 प्रतिशत लाने वाला महाराजा की भांति होता था, और 45 प्रतिशत वाला भी अलग ही ठसक रखता था।
औसत प्राप्तांक करके भी दुनिया जीतने की खुशी महसूस करने वाले हम और हमारे जैसे अनेक विद्यार्थियों ने 20 मई के रोमांच को अपने दौर में जिस शिद्दत से महसूस किया है, वो इस तारीख को क्या कभी भूल पाएंगे? 20 मई को रिजल्ट और 8 जुलाई को स्कूलों के खुलने की निश्चित तिथि निश्चित ही सबके जेहन में बनी होगी। वर्तमान की आपाधापी वाली शिक्षा और सब-कुछ पा लेने वाली अंधी दौड़ में कुछ भी महसूस न कर पाने की शक्ति खोकर हम मशीनों में तब्दील हो गए हैं।
तभी तो अब ''गर्मियों की छुट्टियां'' नहीं होतीं, ''समरकैम्प्स'' होते हैं। ऐसे समर कैम्प्स जिनमें ''एक्टिविटी-सेंटर्स' की आड़ लेकर बच्चों को फिर उसी तरह कैद कर दिया जाता है जिस तरह वो स्कूली दड़बों में कैद रहते हैं। रेस तो वहां भी बनी रहती है ना। शाम को पार्क में एकत्रित होने वाली इन ''एबेकसी बच्चों'' की मांएं अपने अपने बच्चे की प्रोग्रेस रिपोर्ट के साथ ''समरकैम्पीय चिंताओं'' में व्यस्त देखी जा सकती हैं।
ज़रा सोचिए कि इन एबेकसी-बच्चों की फैक्ट्री क्या कभी अपने रिजल्ट मिलने वाले दिन का रोमांच महसूस कर पाएगी?
ऐसे अनेक प्रश्न और अनेक ''क्या-क्यों व कब तक'' मेरे ज़हन में घुमड़ते हैं कि इस बेमतलब चिंता में जीने वाले लोगों की अगली तबाही कौन लिखेगा...क्या अब किसी और दौड़ की तैयारी हो रही है...या फिर नए धावकों के कलपुर्जे जुटाए जा रहे हैं...एबेकस के माध्यमों से। किसी एक तारीख का रोमांच महसूसने की तासीर भला इस रेस में कौन महसूस कर सकेगा।
-अलकनंदा सिंह
आपने भी महसूस किया होगा कि नंबरों की मारकाट तथा प्रथम और सर्वश्रेष्ठ आने जैसी आपाधापी तीन दशक पहले तक नहीं थी। बच्चों के ऊपर दिन-रात पढ़ाई करने का दबाव डालने वाले माता-पिता भी नहीं थे और ना ही बंधुआ मजदूर की भांति सर्वश्रेष्ठ की रेस में डिप्रेशन और एंजाइटी को मोल लेते बच्चे थे। शिक्षा एक ध्येय थी, बिजनेस और रेस नहीं। आप को भी याद होगा कि 60 प्रतिशत लाने वाला महाराजा की भांति होता था, और 45 प्रतिशत वाला भी अलग ही ठसक रखता था।
औसत प्राप्तांक करके भी दुनिया जीतने की खुशी महसूस करने वाले हम और हमारे जैसे अनेक विद्यार्थियों ने 20 मई के रोमांच को अपने दौर में जिस शिद्दत से महसूस किया है, वो इस तारीख को क्या कभी भूल पाएंगे? 20 मई को रिजल्ट और 8 जुलाई को स्कूलों के खुलने की निश्चित तिथि निश्चित ही सबके जेहन में बनी होगी। वर्तमान की आपाधापी वाली शिक्षा और सब-कुछ पा लेने वाली अंधी दौड़ में कुछ भी महसूस न कर पाने की शक्ति खोकर हम मशीनों में तब्दील हो गए हैं।
तभी तो अब ''गर्मियों की छुट्टियां'' नहीं होतीं, ''समरकैम्प्स'' होते हैं। ऐसे समर कैम्प्स जिनमें ''एक्टिविटी-सेंटर्स' की आड़ लेकर बच्चों को फिर उसी तरह कैद कर दिया जाता है जिस तरह वो स्कूली दड़बों में कैद रहते हैं। रेस तो वहां भी बनी रहती है ना। शाम को पार्क में एकत्रित होने वाली इन ''एबेकसी बच्चों'' की मांएं अपने अपने बच्चे की प्रोग्रेस रिपोर्ट के साथ ''समरकैम्पीय चिंताओं'' में व्यस्त देखी जा सकती हैं।
ज़रा सोचिए कि इन एबेकसी-बच्चों की फैक्ट्री क्या कभी अपने रिजल्ट मिलने वाले दिन का रोमांच महसूस कर पाएगी?
ऐसे अनेक प्रश्न और अनेक ''क्या-क्यों व कब तक'' मेरे ज़हन में घुमड़ते हैं कि इस बेमतलब चिंता में जीने वाले लोगों की अगली तबाही कौन लिखेगा...क्या अब किसी और दौड़ की तैयारी हो रही है...या फिर नए धावकों के कलपुर्जे जुटाए जा रहे हैं...एबेकस के माध्यमों से। किसी एक तारीख का रोमांच महसूसने की तासीर भला इस रेस में कौन महसूस कर सकेगा।
-अलकनंदा सिंह
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