भाषा की शुद्धता का मज़ाक बनाकर रख रहे हैं हिंदी के पत्रकार
दुनियभर में सोशल मीडिया अथवा ऐसे ही माध्यमों के कारण समाचारों की अधिकता हो गई है मगर इस बीच हिंदी पत्रकारिता करने वालों ने अपनी भाषा का जो मज़ाक बनाकर रख दिया है, वह बेहद दुखद है। अब हर वर्ण, अक्षर, वाक्य में जो कुछ समझ आ रहा है, वही लिख दिया जा रहा है, बस लिखना है इसलिए लिखा जा रहा है। बगैर यह सोचे कि क्या सही है और क्या ग़लत।
पत्रकारिता में नुक़्ते की गैरमौजूदगी अब पूरी की पूरी भाषा को गर्त में ले जा रही है।बेहतर हो कि हर पत्रकार को अपनी बात कहने के साथ साथ भाषा को भी बचाना होगा और इसलिए ज़रूरी है कि नुक्ते का ज्ञान कर लिया जाए। यूं तो मूल रूप से ‘नुक़्ता’ अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब ‘बिंदु’ होता है। साधारण हिन्दी-उर्दू में इसका अर्थ ‘बिंदु’ ही होता है लेकिन अब इस बिंदु को बेेमानी बनाकर रख दिया है और फिलहाल हिंग्लिश मिश्रित हिंदी ही पत्रकारिता के चलन में है।
नुक़्ता क्या है
नुक़्ता किसी व्यंजन अक्षर के नीचे लगाए जाने वाले बिंदु को कहते हैं। इस से उस अक्षर का उच्चारण परिवर्तित होकर किसी अन्य व्यंजन का हो जाता है। मसलन 'ज' के नीचे नुक्ता लगाने से 'ज़' बन जाता है।
इन भाषाओं में ज एवं ज़, दोनों ही शब्द उपलब्ध एवं प्रयोग होते हैं, इनके अलावा एक अन्य ज़ भी होता है जिनके लिये निम्न शब्द प्रयोग होते हैं: ज के लिये जीम, ज़ के लिये ज़्वाद (ض)/ज़े (ژ)/ ज़ाल(ذ)/ज़ोए (ظ) - ये चार अक्षर होते हैं। यहां ध्यान योग्य ये है कि चार अक्षर ज़ के लिये होने के बावजूद ज के लिये जीम (ج) होता ही है। अतः जीम का प्रयोग भी होता है, जैसे जज़्बा में ज एवं ज़ दोनों ही प्रयुक्त हैं। ऐसे ही बहुत स्थानों पर ग के लिये गाफ़ (گ) एवं ग़ (غ) के लिये ग़ैन का भी प्रयोग होता है।
मूल रूप से 'नुक़्ता' अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब 'बिंदु' होता है। साधारण उर्दू में इसका अर्थ 'बिंदु' ही होता है।
हिन्दी में नुक़्ता के प्रयोग के विषय में मानक
नुक़्ता लम्बे समय से हिंदी विद्वानों के बीच विमर्श का विषय रहा है। किशोरीदास वाजपेयी (हिंदी शब्दानुशासन, नागरी प्रचारिणी सभा) जैसे व्याकरण के विद्वान हिन्दी लेखन में नुक्ता लगाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि ये सब शब्द अब हिंदी के अपने हो गए हैं और हिंदी भाषी इन शब्दों का उच्चारण ऐसे ही करते हैं जैसे उनमें नुक्ता नहीं लगा हो। बहुत कम लोगों को उर्दू के नुक्ते वाले सही उच्चारण का ज्ञान है।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी मानक हिन्दी वर्तनी के अनुसार उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्यक हो (जैसे उर्दू कविता को मूल रूप में उद्दृत करते समय) , वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक़्ता लगाए जाएँ, जैसे कि खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन : हाइफ़न ।
कुलमिलाकर बात इतनी सी है कि जब भाषा या ज़बान एक बहते पानी की तरह है। जो जहां से भी गुज़रती है वहां की दूसरी चीज़ों को अपने साथ समेटते हुए आगे बढ़ती है। एक ही धारा से ना जाने और कितनी धाराएं निकल पड़ती हैं। इसी तरह एक ही भाषा से ना जाने कितनी भाषाओं का जन्म होता है। जैसे संस्कृत से हिंदी और दूसरी ज़बानें वजूद में आईं।
इस पूरी यात्रा में भाषाओं की लिपि को सही अर्थों में लिखने की पद्धतियां ही भाषा को उच्चारण की शुद्धता तक ले गई परंतु आजकल पत्रकारिता में लिपि की जो दुर्गति हो रही है वह यह सोचने को अवश्य बाध्य कर देती है कि नुक़्ते की गैरमौज़ूदगी पूरी की पूरीखड़ी बोली का सत्यानाश करके छोड़ेगी।
दुनियभर में सोशल मीडिया अथवा ऐसे ही माध्यमों के कारण समाचारों की अधिकता हो गई है मगर इस बीच हिंदी पत्रकारिता करने वालों ने अपनी भाषा का जो मज़ाक बनाकर रख दिया है, वह बेहद दुखद है। अब हर वर्ण, अक्षर, वाक्य में जो कुछ समझ आ रहा है, वही लिख दिया जा रहा है, बस लिखना है इसलिए लिखा जा रहा है। बगैर यह सोचे कि क्या सही है और क्या ग़लत।
पत्रकारिता में नुक़्ते की गैरमौजूदगी अब पूरी की पूरी भाषा को गर्त में ले जा रही है।बेहतर हो कि हर पत्रकार को अपनी बात कहने के साथ साथ भाषा को भी बचाना होगा और इसलिए ज़रूरी है कि नुक्ते का ज्ञान कर लिया जाए। यूं तो मूल रूप से ‘नुक़्ता’ अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब ‘बिंदु’ होता है। साधारण हिन्दी-उर्दू में इसका अर्थ ‘बिंदु’ ही होता है लेकिन अब इस बिंदु को बेेमानी बनाकर रख दिया है और फिलहाल हिंग्लिश मिश्रित हिंदी ही पत्रकारिता के चलन में है।
नुक़्ता क्या है
नुक़्ता किसी व्यंजन अक्षर के नीचे लगाए जाने वाले बिंदु को कहते हैं। इस से उस अक्षर का उच्चारण परिवर्तित होकर किसी अन्य व्यंजन का हो जाता है। मसलन 'ज' के नीचे नुक्ता लगाने से 'ज़' बन जाता है।
नुक़्ते ऐसे व्यंजनों को बनाने के लिए प्रयोग होते हैं जो पहले से मूल लिपि में न हों, मूल हिन्दी भाषा में नुक़्ते का (या नुक्ते का?) कोई काम नहीं है। मूल भारतीय हिन्दी भाषा में ऐसे शब्द हैं ही नहीं जिन के लिए नुक़्ते का प्रयोग ज़रूरी हो, क्षमा करें, जरूरी हो। देवनागरी लिपि नुक़्ते के बिना ही हिन्दी के हर अक्षर, हर ध्वनि को लिखने में सक्षम है। हाँ इस में जब अरबी-फारसी (उर्दू के द्वारा) या अंग्रेज़ी के शब्द जोड़े गए, और उन का सही उच्चारण करने की ज़रूरत महसूस हुई तो उन के लिए नुक़्ता प्रयोग में लाया गया।। अरबी-फ़ारसी लिपि में भी अक्षरों में नुक़्तों का प्रयोग होता है, उदाहरणार्थ 'ر' का उच्चारण 'र' है जबकि इसी अक्षर में नुक़्ता लगाकर 'ز' लिखने से इसका उच्चारण 'ज़' हो जाता है।
मूल रूप से 'नुक़्ता' अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब 'बिंदु' होता है। साधारण उर्दू में इसका अर्थ 'बिंदु' ही होता है।
हिन्दी में नुक़्ता के प्रयोग के विषय में मानक
नुक़्ता लम्बे समय से हिंदी विद्वानों के बीच विमर्श का विषय रहा है। किशोरीदास वाजपेयी (हिंदी शब्दानुशासन, नागरी प्रचारिणी सभा) जैसे व्याकरण के विद्वान हिन्दी लेखन में नुक्ता लगाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि ये सब शब्द अब हिंदी के अपने हो गए हैं और हिंदी भाषी इन शब्दों का उच्चारण ऐसे ही करते हैं जैसे उनमें नुक्ता नहीं लगा हो। बहुत कम लोगों को उर्दू के नुक्ते वाले सही उच्चारण का ज्ञान है।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी मानक हिन्दी वर्तनी के अनुसार उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्यक हो (जैसे उर्दू कविता को मूल रूप में उद्दृत करते समय) , वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक़्ता लगाए जाएँ, जैसे कि खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन : हाइफ़न ।
कुलमिलाकर बात इतनी सी है कि जब भाषा या ज़बान एक बहते पानी की तरह है। जो जहां से भी गुज़रती है वहां की दूसरी चीज़ों को अपने साथ समेटते हुए आगे बढ़ती है। एक ही धारा से ना जाने और कितनी धाराएं निकल पड़ती हैं। इसी तरह एक ही भाषा से ना जाने कितनी भाषाओं का जन्म होता है। जैसे संस्कृत से हिंदी और दूसरी ज़बानें वजूद में आईं।
इस पूरी यात्रा में भाषाओं की लिपि को सही अर्थों में लिखने की पद्धतियां ही भाषा को उच्चारण की शुद्धता तक ले गई परंतु आजकल पत्रकारिता में लिपि की जो दुर्गति हो रही है वह यह सोचने को अवश्य बाध्य कर देती है कि नुक़्ते की गैरमौज़ूदगी पूरी की पूरीखड़ी बोली का सत्यानाश करके छोड़ेगी।
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