आज महिला दिवस है, 8 मार्च... यानि लफ़्जों के हुनरमंदों की एक और शालीन दिखने वाली आजमाइश होगी....जिस पर समाज के हर तबके से लंबे चौड़े व्याख्यानों की झड़ी भी लगेगी।
पूरे दिन मीडिया में सभी स्तर से तर्कों-वितर्क करके औरत पर रहमोकरम का अंबार खड़ा किया जायेगा। साहित्यिक भद्रजन (स्त्री व पुरुष दोनों) स्त्री-विमर्श का पोथी-पत्रा खोलकर '' बेचारी स्त्री'' के लिए, उसके उत्थान के लिए कसीदों का पुलिंदा मुंह पर मारने को तत्पर दिखाई देंगे। ये सारी कवायद सिर्फ इसलिए होगी ताकि इस घोर कलियुगी संसार में एक निरीह प्राणी स्त्री ही तो है जो बड़ी शिद्दत से इस दिन का इंतज़ार करती है कि आओ... और मेरे होने पर एक दिन का रहम खाओ। फिर .... ? ओह.... !
सब अपने- अपने हिस्से का रहम आज उड़ेल देंगे और ये सब राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हो रहा है। जिस तरह कि इसी एक दिन को कैश करने की मुसलसल कोशिश की है बीबीसी 4 के लिए बनाई डॉक्यूमेंटरी ''इंडियाज डॉटर'' के माध्यम से। ब्रिटिश फिल्म मेकर लेज्ली उडविन चर्चा में हैं अपनी इस फिल्म को लेकर। जिसमें एक सच बड़े ही वीभत्स ढंग से सामने आया है। बलात्कारी की सोच क्या हो सकती है, उसे बयान करने के बहाने बहसों का लंबा चौड़ा काफिला तैयार हो चुका है। संभवत: लेज्ली को बलात्कारी के दुष्कृत्य से, उसकी हैवानियत से, निर्भया के हश्र से, उसके माता पिता का फटता हृदय देखने भर से शायद संतुष्टि नहीं मिली थी और इसलिए उन्होंने उसकी मानसिकता को शब्दों में पिरोकर पूरा प्रचार करवाया।
इसी तरह महिला दिवस के बहाने खास चर्चा में हैं ब्रिटिश लेखिका ईएल जेम्स की किताब ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’। ये किताब दुनियाभर में अपनी ख्याति बटोरने के बाद अब भारत में उन लोगों के बीच पैठ बनाने की कोशिश कर रही है जो स्त्री की स्वतंत्रता को उसकी यौन-उन्मुक्तता के चश्मे से देखते हैं।
ईएल जेम्स की किताब एक कारोबारी और एक कॉलेज स्टुडेंट के ‘अजीबो-गरीब’ कामुक रिश्ते पर आधारित है जो 2012 में आते ही लोकप्रिय हो गई थी।
आश्चर्य होता है यह जानकर कि शुचिता की बात करने वाले भारतीय समाज में तीन भागों वाले इस उपन्यास की अब तक तीन लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं।
सचमुच प्रगति के नए आख्यान बन चुके हैं और समय काफी आगे बढ़ चुका है, तभी तो अमेरिका और ब्रिटेन की तरह इस उपन्यास पर बनी फिल्म अब हमारे देश में सेंसर बोर्ड की अनुमति का इंतज़ार कर रही है....हद है...।
हद ये भी है...कि इस बीच महिला दिवस पर बाजार अपनी ही टेक्नोलॉजी से काम कर रहा है। अब देखिए ना कि... बाजार ने चाहा तभी तो उसने 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' को टोटल ब्राइट बनाकर बेच डाला और बाजार ने चाहा तभी उसने निर्भया की डॉक्यूमेंटरी को विवादित बनाकर अपनी टीआरपी बढ़वा ली। इससे फायदा तो सिर्फ बाजार नियामकों को ही हुआ, उनमें किताब के प्रकाशक हैं, सेक्स ट्वॉयज बेचने वाली वेबसाइट्स हैं, बीबीसी और उनकी डॉक्यूमेंटरी पर पैनल्स बैठाकर बहस करने वाले टीआरपी-क्रेजी भारतीय चैनल भी हैं।
गौरतलब है कि 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' में उस सैडिस्ट जीवनशैली का उल्लेख है जिसमें लोग सेक्स के दौरान एक-दूसरे को दर्द देते हैं, क्योंकि दर्द के लेन-देन और ताकत की अभिव्यक्ति उनकी कामुकता को एक नए मुकाम तक ले जाती है। इस जीवन शैली को बीडीएसएम के नाम से भी जाना जाता है।
इस जीवनशैली में एक शख्स ‘डॉमिनेन्ट’ यानी प्रधान है और दूसरा ‘सबमिसिव’ यानी अधीन है। पहले का हक है अपना जोर आजमाना और दूसरे की जिम्मेदारी है उस शक्ति के प्रदर्शन को बर्दाश्त करना।
क्या यह किसी भी दुष्कर्म से अलग है... क्या इस किताब की बिक्री हमें सावधान नहीं करती कि समाज में डॉमिनेंट और सबमिसिव को बराबरी पर लाने की बातें सिर्फ मंचीय ड्रामे हैं... उनमें आज बेडरूम के अंदर थ्रिल पैदा करने के लिए किताब का सहारा लिया जा रहा है... तो क्या गारंटी है कि कल यही किताब पढ़ने वाले अपने थ्रिल के लिए उसे सड़कों पर या नन्हीं बच्चियों पर नहीं आजमाऐंगे, फिर इसमें चाहे डॉमिनेंट औरत हो या मर्द, इससे क्या फ़र्क पड़ता है ?
निश्चति ही ये ग्रे शेड्स का भुगतान हमारे देश में औरतों-लड़कियों-बच्चियों को ही ज्यादा करना होगा क्योंकि थ्रिल के लिए दर्द देना तो बलात्कार ही हुआ ना, फिर ग्रे शेड्स की नायिका में और निर्भया या अन्य वीभत्स बलात्कारियों में फ़र्क ही कहां है?
डॉमिनेंट और सबमिसिव की थ्योरी उसी देश से आ सकती है जो भरे पेट पर जुगाली करते- करते सोचते हैं कि पेट तो भर गया... अब इसे पचाने के लिए और क्या खाया जाए... मगर यही पचाने के लिए कुछ थ्रिल खोजने वाली थ्योरी, उस देश में सिर्फ और सिर्फ बलात्कार ही परोस सकती है जहां तन भर कपड़ा- मन भर चैन के लिए सारी जिंदगी खटते-खटते निकल जाती है । हमारे देश में 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' की बेतहाशा बिक्री हो या इंडियाज डॉटर पर बहस, एक ऐसे बदबूदार कचरे को जन्म दे रही है जो समस्या की जड़ों तक नहीं पहुंचने देगा।
आज जब औरत शरीर से लेकर मन तक की स्वतंत्रता को पाने के लिए घर से लेकर बाहर तक नित नए युद्ध लड़ रही है तब, 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' और 'इंडियाज डॉटर' से आगे जाकर हमें सोचना होगा क्योंकि यही सोच बलात्कारियों की सोच को जानने जैसे वाहियाती सवालों और कामुकता को डॉमिनेंट व सबमिसिव के बीच लटका कर पूरी की पूरी स्त्री अस्मिता पर ही प्रश्नचिन्ह ही नहीं लगाती बल्कि उन जाहिलाना करतूतों को भी ग्लैमराइज करती है जो हमेशा स्त्री-देह पर अटकी रहती हैं।
ये स्त्री को लेकर उथली-छिछली समीक्षाएं बंद होनी चाहिए। ना तो स्त्री सिर्फ बाजार का मोहरा है और ना ही रसोई-बेडरूम में चस्पा की गई कोई तस्वीर जिसे जब चाहो तब अपने मन के रंग भर दो ...जब चाहो तब बेरंग कर दो ... पश्चिम ही नहीं तथाकथित आधुनिक भारतीयों को भी ये सच जान लेना चाहिए ...
ज़ाहिर है कि पश्चिम अब भी स्त्री को एक शरीर के दायरे से बाहर देख ही नहीं पा रहा जबकि भारतीय संदर्भ में इसकी व्याख्या काफी आगे बढ़ चुकी है। देखते हैं अभी इस यात्रा को लक्ष्य तक पहुंचने में अभी और कितने पड़ावों से जूझना होगा।
गौर से देखिए तो पानी, हवा तथा चींटी का भाग्य और जज़्बा एक सा होता है ....वह अपना रास्ता खुद ही खोजती है, बनाती है .. उसे अपने शेड्स दिखाने के लिए अपने ही समाज, अपनी ही संस्कृति में से रास्ते निकालने पड़ते हैं और वही वह कर भी रही है वरना आज इतनी कंपनियों के उच्चासन पर वो पहुंची ही ना होती । हां, कुछ कहावतें हैं जो बदलनी चाहिए ताकि औरत अपने लिए भी जी सके ...जैसे कि किसी पुरुष की कामयाबी के पीछे स्त्री का हाथ होता है, तो ये कहावत उल्टी क्यों नहीं हो सकती ... अब समय है कि ये कहावत उल्टी बहनी चाहिए ... ।
- अलकनंदा सिंह
पूरे दिन मीडिया में सभी स्तर से तर्कों-वितर्क करके औरत पर रहमोकरम का अंबार खड़ा किया जायेगा। साहित्यिक भद्रजन (स्त्री व पुरुष दोनों) स्त्री-विमर्श का पोथी-पत्रा खोलकर '' बेचारी स्त्री'' के लिए, उसके उत्थान के लिए कसीदों का पुलिंदा मुंह पर मारने को तत्पर दिखाई देंगे। ये सारी कवायद सिर्फ इसलिए होगी ताकि इस घोर कलियुगी संसार में एक निरीह प्राणी स्त्री ही तो है जो बड़ी शिद्दत से इस दिन का इंतज़ार करती है कि आओ... और मेरे होने पर एक दिन का रहम खाओ। फिर .... ? ओह.... !
सब अपने- अपने हिस्से का रहम आज उड़ेल देंगे और ये सब राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हो रहा है। जिस तरह कि इसी एक दिन को कैश करने की मुसलसल कोशिश की है बीबीसी 4 के लिए बनाई डॉक्यूमेंटरी ''इंडियाज डॉटर'' के माध्यम से। ब्रिटिश फिल्म मेकर लेज्ली उडविन चर्चा में हैं अपनी इस फिल्म को लेकर। जिसमें एक सच बड़े ही वीभत्स ढंग से सामने आया है। बलात्कारी की सोच क्या हो सकती है, उसे बयान करने के बहाने बहसों का लंबा चौड़ा काफिला तैयार हो चुका है। संभवत: लेज्ली को बलात्कारी के दुष्कृत्य से, उसकी हैवानियत से, निर्भया के हश्र से, उसके माता पिता का फटता हृदय देखने भर से शायद संतुष्टि नहीं मिली थी और इसलिए उन्होंने उसकी मानसिकता को शब्दों में पिरोकर पूरा प्रचार करवाया।
इसी तरह महिला दिवस के बहाने खास चर्चा में हैं ब्रिटिश लेखिका ईएल जेम्स की किताब ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’। ये किताब दुनियाभर में अपनी ख्याति बटोरने के बाद अब भारत में उन लोगों के बीच पैठ बनाने की कोशिश कर रही है जो स्त्री की स्वतंत्रता को उसकी यौन-उन्मुक्तता के चश्मे से देखते हैं।
ईएल जेम्स की किताब एक कारोबारी और एक कॉलेज स्टुडेंट के ‘अजीबो-गरीब’ कामुक रिश्ते पर आधारित है जो 2012 में आते ही लोकप्रिय हो गई थी।
आश्चर्य होता है यह जानकर कि शुचिता की बात करने वाले भारतीय समाज में तीन भागों वाले इस उपन्यास की अब तक तीन लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं।
सचमुच प्रगति के नए आख्यान बन चुके हैं और समय काफी आगे बढ़ चुका है, तभी तो अमेरिका और ब्रिटेन की तरह इस उपन्यास पर बनी फिल्म अब हमारे देश में सेंसर बोर्ड की अनुमति का इंतज़ार कर रही है....हद है...।
हद ये भी है...कि इस बीच महिला दिवस पर बाजार अपनी ही टेक्नोलॉजी से काम कर रहा है। अब देखिए ना कि... बाजार ने चाहा तभी तो उसने 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' को टोटल ब्राइट बनाकर बेच डाला और बाजार ने चाहा तभी उसने निर्भया की डॉक्यूमेंटरी को विवादित बनाकर अपनी टीआरपी बढ़वा ली। इससे फायदा तो सिर्फ बाजार नियामकों को ही हुआ, उनमें किताब के प्रकाशक हैं, सेक्स ट्वॉयज बेचने वाली वेबसाइट्स हैं, बीबीसी और उनकी डॉक्यूमेंटरी पर पैनल्स बैठाकर बहस करने वाले टीआरपी-क्रेजी भारतीय चैनल भी हैं।
गौरतलब है कि 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' में उस सैडिस्ट जीवनशैली का उल्लेख है जिसमें लोग सेक्स के दौरान एक-दूसरे को दर्द देते हैं, क्योंकि दर्द के लेन-देन और ताकत की अभिव्यक्ति उनकी कामुकता को एक नए मुकाम तक ले जाती है। इस जीवन शैली को बीडीएसएम के नाम से भी जाना जाता है।
इस जीवनशैली में एक शख्स ‘डॉमिनेन्ट’ यानी प्रधान है और दूसरा ‘सबमिसिव’ यानी अधीन है। पहले का हक है अपना जोर आजमाना और दूसरे की जिम्मेदारी है उस शक्ति के प्रदर्शन को बर्दाश्त करना।
क्या यह किसी भी दुष्कर्म से अलग है... क्या इस किताब की बिक्री हमें सावधान नहीं करती कि समाज में डॉमिनेंट और सबमिसिव को बराबरी पर लाने की बातें सिर्फ मंचीय ड्रामे हैं... उनमें आज बेडरूम के अंदर थ्रिल पैदा करने के लिए किताब का सहारा लिया जा रहा है... तो क्या गारंटी है कि कल यही किताब पढ़ने वाले अपने थ्रिल के लिए उसे सड़कों पर या नन्हीं बच्चियों पर नहीं आजमाऐंगे, फिर इसमें चाहे डॉमिनेंट औरत हो या मर्द, इससे क्या फ़र्क पड़ता है ?
निश्चति ही ये ग्रे शेड्स का भुगतान हमारे देश में औरतों-लड़कियों-बच्चियों को ही ज्यादा करना होगा क्योंकि थ्रिल के लिए दर्द देना तो बलात्कार ही हुआ ना, फिर ग्रे शेड्स की नायिका में और निर्भया या अन्य वीभत्स बलात्कारियों में फ़र्क ही कहां है?
डॉमिनेंट और सबमिसिव की थ्योरी उसी देश से आ सकती है जो भरे पेट पर जुगाली करते- करते सोचते हैं कि पेट तो भर गया... अब इसे पचाने के लिए और क्या खाया जाए... मगर यही पचाने के लिए कुछ थ्रिल खोजने वाली थ्योरी, उस देश में सिर्फ और सिर्फ बलात्कार ही परोस सकती है जहां तन भर कपड़ा- मन भर चैन के लिए सारी जिंदगी खटते-खटते निकल जाती है । हमारे देश में 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' की बेतहाशा बिक्री हो या इंडियाज डॉटर पर बहस, एक ऐसे बदबूदार कचरे को जन्म दे रही है जो समस्या की जड़ों तक नहीं पहुंचने देगा।
आज जब औरत शरीर से लेकर मन तक की स्वतंत्रता को पाने के लिए घर से लेकर बाहर तक नित नए युद्ध लड़ रही है तब, 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' और 'इंडियाज डॉटर' से आगे जाकर हमें सोचना होगा क्योंकि यही सोच बलात्कारियों की सोच को जानने जैसे वाहियाती सवालों और कामुकता को डॉमिनेंट व सबमिसिव के बीच लटका कर पूरी की पूरी स्त्री अस्मिता पर ही प्रश्नचिन्ह ही नहीं लगाती बल्कि उन जाहिलाना करतूतों को भी ग्लैमराइज करती है जो हमेशा स्त्री-देह पर अटकी रहती हैं।
ये स्त्री को लेकर उथली-छिछली समीक्षाएं बंद होनी चाहिए। ना तो स्त्री सिर्फ बाजार का मोहरा है और ना ही रसोई-बेडरूम में चस्पा की गई कोई तस्वीर जिसे जब चाहो तब अपने मन के रंग भर दो ...जब चाहो तब बेरंग कर दो ... पश्चिम ही नहीं तथाकथित आधुनिक भारतीयों को भी ये सच जान लेना चाहिए ...
ज़ाहिर है कि पश्चिम अब भी स्त्री को एक शरीर के दायरे से बाहर देख ही नहीं पा रहा जबकि भारतीय संदर्भ में इसकी व्याख्या काफी आगे बढ़ चुकी है। देखते हैं अभी इस यात्रा को लक्ष्य तक पहुंचने में अभी और कितने पड़ावों से जूझना होगा।
गौर से देखिए तो पानी, हवा तथा चींटी का भाग्य और जज़्बा एक सा होता है ....वह अपना रास्ता खुद ही खोजती है, बनाती है .. उसे अपने शेड्स दिखाने के लिए अपने ही समाज, अपनी ही संस्कृति में से रास्ते निकालने पड़ते हैं और वही वह कर भी रही है वरना आज इतनी कंपनियों के उच्चासन पर वो पहुंची ही ना होती । हां, कुछ कहावतें हैं जो बदलनी चाहिए ताकि औरत अपने लिए भी जी सके ...जैसे कि किसी पुरुष की कामयाबी के पीछे स्त्री का हाथ होता है, तो ये कहावत उल्टी क्यों नहीं हो सकती ... अब समय है कि ये कहावत उल्टी बहनी चाहिए ... ।
- अलकनंदा सिंह
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