जीवन का सिक्का तो एक ही है ...उसके पहलू दो... कभी-कभी पहलुओं को जानने के लिए फेंका गया सिक्का किसी एक तरफ गिरने की बजाय खड़ा रह जाता है , एकदम हक्का-बक्का सा करता हुआ ...और असमंजस में रह जाते हैं हम परंतु बाजार में तब्दील हुई इस दुनिया का सच बस इतना है कि जो फेंके जाने पर खड़ा रह गया.. स्थिर हो गया..वो किसी तवज्जो के लायक नहीं समझा जाता । अर्थात् जो खड़ा रह जाता है वह अर्थहीन है । निरंतरता आवश्यक है, जीवन में भी और बाजार में भी ।वर्तमान में तो कैश एंड काइंड के बीच झूलते जीवन में हम, अब यह ढूंढ़ने पर बाध्य हैं कि आखिर हम हैं क्या ...पूरा का पूरा एक सिक्का, या उसका कोई एक पहलू। या फिर खड़े रह गये और हाशिये पर धकेल दिये गये आमलोग..बस,इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
इसी बाजार पर बनते बिगड़ते जीवन को लेकर कबीर कहते हैं -
कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर,
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
बाजार के सिद्धांतों में ना तो वो समय कबीर के लिए अलग था और न अब अलग है। बाजार तब भी अपने अस्तित्व को उसी तरह आमजन पर हावी किये हुये था।इसीलिए कबीर ने जो भी कहा वह दोस्ती और बैर को बाजारवाद से जोड़ कर ही देखा गया । इसका सीधा मतलब था कि सिक्के का किसी एक पहलू की ओर झुकना...जबकि जीवन में या तो दोनों पहलू हैं या नहीं हैं...और जब कोई पहलू नहीं दिखता तो जीवन का सिक्का स्थिर हो जाता है यानि किसी एक पहलू की ओर ध्यान न देकर जो भी अच्छे-बुरे, कम-ज्या़दा के बीच स्थिर हो गया वो ही कबीर बन गया, निश्छल हो गया, निष्काम हो गया। परंतु स्थिर हो गया और स्थिरता बाजार के प्रवाह को नष्ट कर देती है तो कबीर ने इसी नष्ट होते जाने की प्रक्रिया को अपना ध्येय बनाया और दोस्ती व बैर के स्थापित बाजार पर वे हावी होते गये, सिक्के के दो पहलुओं को मिलाया और स्वयं बीच में खड़े हो गये।
इस तरह संस्कारों की नई परिभाषाओं ने जन्म लिया।तब भी रूढ़ियों की जकड़न जिस समाज के लिए आकंठ डूबने और धीरे धीरे मूल्यहीन होते जाने का कारण बनी, वह भी तो बाजारवाद का सामाजिक रूप ही तो था जो समाज के मूल्यों का तोलमोल कर रहा था।
उन्हें चुनौती देते हुये कबीर ने मनुष्य और परमात्मा के बीच संबंधों पर नये सिरे से फिर बहस शुरू की और स्थिति यहां तक पहुंची कि आज देखिये कि हम सैकड़ों साल पुराने 'निरक्षर' कबीर को अपने शोधों का विषय बनाने को बाध्य हुये।
प्रश्न तो अब यह उठता है कि यदि वे बाजार की निरंतरता को ही जीवन का ध्येय बना लेते तो क्या आज वे कबीर हो पाते, हम जो कि बाजार के लिए सिक्के भर हैं, चाहे वह बाजार हमारी आम उपभोगी वस्तुओं का हो या धर्म का, रूढ़ियों को और वीभत्स बनाकर हमें 'स्वयं' से दूर करता जा रहा है।
संभवत: यही कारण है कि हम स्वयं अपने भीतर के कबीर को न तो पहचान रहे हैं और ना ही पहचानना चाहते हैं क्योंकि अपने कबीर को पहचानने के लिए स्थिर होना पड़ेगा, चित्त से भी और प्रवृत्तियों से भी मगर ऐसा हो नहीं पा रहा । नतीजा हमारे सामने हैं कि सिक्के के किसी एक पहलू की भांति हमें बाजार के बीच नचाया जा रहा है। कभी धर्म के नाम पर कभी रिवाजों के नाम पर ।इसीलिए जन्म होता जा रहा है उन बाजारों का जहां आस्था बिक रही है, अरबों का कारोबार करने वाले मनोरंजन के साधन सामने आते जा रहे हैं , अभाव है तो बस उस इच्छाशक्ति का जो कबीर बनने में सहायक हो सके। देखते हैं बाजार अपनी और कौन कौन सी रंगत हमें दिखाता है जिसमें रंगे जाते हुये हम मौन न साधें तो अच्छा होगा।
- अलकनंदा सिंह
इसी बाजार पर बनते बिगड़ते जीवन को लेकर कबीर कहते हैं -
कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर,
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
बाजार के सिद्धांतों में ना तो वो समय कबीर के लिए अलग था और न अब अलग है। बाजार तब भी अपने अस्तित्व को उसी तरह आमजन पर हावी किये हुये था।इसीलिए कबीर ने जो भी कहा वह दोस्ती और बैर को बाजारवाद से जोड़ कर ही देखा गया । इसका सीधा मतलब था कि सिक्के का किसी एक पहलू की ओर झुकना...जबकि जीवन में या तो दोनों पहलू हैं या नहीं हैं...और जब कोई पहलू नहीं दिखता तो जीवन का सिक्का स्थिर हो जाता है यानि किसी एक पहलू की ओर ध्यान न देकर जो भी अच्छे-बुरे, कम-ज्या़दा के बीच स्थिर हो गया वो ही कबीर बन गया, निश्छल हो गया, निष्काम हो गया। परंतु स्थिर हो गया और स्थिरता बाजार के प्रवाह को नष्ट कर देती है तो कबीर ने इसी नष्ट होते जाने की प्रक्रिया को अपना ध्येय बनाया और दोस्ती व बैर के स्थापित बाजार पर वे हावी होते गये, सिक्के के दो पहलुओं को मिलाया और स्वयं बीच में खड़े हो गये।
इस तरह संस्कारों की नई परिभाषाओं ने जन्म लिया।तब भी रूढ़ियों की जकड़न जिस समाज के लिए आकंठ डूबने और धीरे धीरे मूल्यहीन होते जाने का कारण बनी, वह भी तो बाजारवाद का सामाजिक रूप ही तो था जो समाज के मूल्यों का तोलमोल कर रहा था।
उन्हें चुनौती देते हुये कबीर ने मनुष्य और परमात्मा के बीच संबंधों पर नये सिरे से फिर बहस शुरू की और स्थिति यहां तक पहुंची कि आज देखिये कि हम सैकड़ों साल पुराने 'निरक्षर' कबीर को अपने शोधों का विषय बनाने को बाध्य हुये।
प्रश्न तो अब यह उठता है कि यदि वे बाजार की निरंतरता को ही जीवन का ध्येय बना लेते तो क्या आज वे कबीर हो पाते, हम जो कि बाजार के लिए सिक्के भर हैं, चाहे वह बाजार हमारी आम उपभोगी वस्तुओं का हो या धर्म का, रूढ़ियों को और वीभत्स बनाकर हमें 'स्वयं' से दूर करता जा रहा है।
संभवत: यही कारण है कि हम स्वयं अपने भीतर के कबीर को न तो पहचान रहे हैं और ना ही पहचानना चाहते हैं क्योंकि अपने कबीर को पहचानने के लिए स्थिर होना पड़ेगा, चित्त से भी और प्रवृत्तियों से भी मगर ऐसा हो नहीं पा रहा । नतीजा हमारे सामने हैं कि सिक्के के किसी एक पहलू की भांति हमें बाजार के बीच नचाया जा रहा है। कभी धर्म के नाम पर कभी रिवाजों के नाम पर ।इसीलिए जन्म होता जा रहा है उन बाजारों का जहां आस्था बिक रही है, अरबों का कारोबार करने वाले मनोरंजन के साधन सामने आते जा रहे हैं , अभाव है तो बस उस इच्छाशक्ति का जो कबीर बनने में सहायक हो सके। देखते हैं बाजार अपनी और कौन कौन सी रंगत हमें दिखाता है जिसमें रंगे जाते हुये हम मौन न साधें तो अच्छा होगा।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें