''हर सिक्के के दो पहलू होते हैं'' अकसर ये जुमला भारतीय जीवन दर्शन को बेहद सकारात्मक ढंग से समझाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इसी प्रक्रिया में जो अपने पास है उसकी खुशी मनाने और जो नहीं है, उसका शोक न मनाने के लिए भी कहा जाता है।
आज एक सर्वे की रिपोर्ट पढ़ी जिसके अनुसार विश्वभर में होने वाली कुल आत्महत्याओं में से एक बड़ा प्रतिशत विकसित देशों के उन लोगों का है जो अपने जीवन से ऊबे हुये थे, सुविधा-समपन्नता से ऊबे हुये थे। इन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं में डूबने के बाद भी चैन नहीं मिला, वे कुछ और भी चाहते थे जीवन से...अपने आप से, दोस्तों से, व्यवसाय से, नौकरी से और अपने परिजनों से...।
मैं इस संदर्भ में अपने देश की उस सनातन सोच को धन्यवाद देती हूं जिसके द्वारा स्थापित हर नियम में समग्र समाज के हित को साधकर चला गया और उसी के आधार पर सबका कल्याण करने की परिपाटी बनी। तभी तो वसुधैव कुटुंबकम की परिकल्पना साकार हुई। और जब बात समग्र की हो तो आत्महत्या की वजह कम से कम ऊब तो कभी नहीं हो सकती। शायद यही कारण है कि जीवनदर्शन के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले हमारे देश की गिनती इस सर्वे में नहीं है। यूं तो दर्शन शास्त्र में भी कहा गया है कि ऊबने का सीधा सीधा संबंध सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट से है।
सर्वे के इस आंकलन में सब्जेक्ट हैं वो व्यक्ति जो अपनी विशेषता ''सुविधा संपन्नता'' के अतिवाद से ग्रस्त हुए और आत्महत्या करने तक की स्थिति में पहुंचे। निश्चित ही उन्हें अपनी संपन्नता को दर्शाने के लिए एक ऑब्जेक्ट की तलाश रही होगी। किसी भी व्यक्ति को किसी वस्तु या जीवन से ऊब तभी हो सकती है जब उसके पास संसाधन तो पर्याप्त हों परंतु उन्हें प्रयोग करने के लिए कोई ऑब्जेक्ट मौजूद न हो। खैर, आत्महत्या की वजह चाहे जो हो लेकिन नि:संदेह यह कायरता है, जीवन देने वाले ईश्वर का अपमान है।
दरअसल हर भारतीय के संस्करों में यह शामिल होता है कि जीवन है.. तो कठिनाइयां भी हैं, कठिनाइयां हैं तो उन्हें पार करने की चुनौतियां भी। हर भारतीय के जीवन का पल-पल चुनौतियों से जूझने और उससे पार होने की कसौटी के पेंडुलम पर नाचता रहता है। हां, कुछ लोग इनसे घबराकर तो आत्महत्या करते हैं मगर इसमें सुविधा-संपन्नता से ऊबे हरगि़ज नहीं होती। विकसित देशों की इस 'ऊब' से हम यानि भारतीय कब तक अछूते रह पायेंगे, यह कहना तो मुश्किल है मगर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि हम अपनी लोकोक्तियों में निहित जीवन दर्शन पर अमल करते रहें और ''कम खाने व गम खाने'' जैसी कहावतों का मर्म समझें तो देश में अति अमीर और अति गरीब के बीच बढ़ती खाई को रोका जा सकता है और इससे नाकामियों के कारण उपजी आत्महत्याओं को बहुत कम किया जा सकता है।
बस, जरूरत है तो उस सनातन जीवनदर्शन को फिर से समझने और समझाने की, जहां बाकायदा हर उम्र के लिए एक नियत दर्शन उपस्थित है...जहां ब्रह्मचर्य से लेकर संन्यास तक का प्राविधान है...जहां आत्महत्या के लिए न कोई जगह तब थी और ना ही कोई वजह अब है।
- अलकनंदा सिंह
आज एक सर्वे की रिपोर्ट पढ़ी जिसके अनुसार विश्वभर में होने वाली कुल आत्महत्याओं में से एक बड़ा प्रतिशत विकसित देशों के उन लोगों का है जो अपने जीवन से ऊबे हुये थे, सुविधा-समपन्नता से ऊबे हुये थे। इन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं में डूबने के बाद भी चैन नहीं मिला, वे कुछ और भी चाहते थे जीवन से...अपने आप से, दोस्तों से, व्यवसाय से, नौकरी से और अपने परिजनों से...।
मैं इस संदर्भ में अपने देश की उस सनातन सोच को धन्यवाद देती हूं जिसके द्वारा स्थापित हर नियम में समग्र समाज के हित को साधकर चला गया और उसी के आधार पर सबका कल्याण करने की परिपाटी बनी। तभी तो वसुधैव कुटुंबकम की परिकल्पना साकार हुई। और जब बात समग्र की हो तो आत्महत्या की वजह कम से कम ऊब तो कभी नहीं हो सकती। शायद यही कारण है कि जीवनदर्शन के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले हमारे देश की गिनती इस सर्वे में नहीं है। यूं तो दर्शन शास्त्र में भी कहा गया है कि ऊबने का सीधा सीधा संबंध सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट से है।
सर्वे के इस आंकलन में सब्जेक्ट हैं वो व्यक्ति जो अपनी विशेषता ''सुविधा संपन्नता'' के अतिवाद से ग्रस्त हुए और आत्महत्या करने तक की स्थिति में पहुंचे। निश्चित ही उन्हें अपनी संपन्नता को दर्शाने के लिए एक ऑब्जेक्ट की तलाश रही होगी। किसी भी व्यक्ति को किसी वस्तु या जीवन से ऊब तभी हो सकती है जब उसके पास संसाधन तो पर्याप्त हों परंतु उन्हें प्रयोग करने के लिए कोई ऑब्जेक्ट मौजूद न हो। खैर, आत्महत्या की वजह चाहे जो हो लेकिन नि:संदेह यह कायरता है, जीवन देने वाले ईश्वर का अपमान है।
दरअसल हर भारतीय के संस्करों में यह शामिल होता है कि जीवन है.. तो कठिनाइयां भी हैं, कठिनाइयां हैं तो उन्हें पार करने की चुनौतियां भी। हर भारतीय के जीवन का पल-पल चुनौतियों से जूझने और उससे पार होने की कसौटी के पेंडुलम पर नाचता रहता है। हां, कुछ लोग इनसे घबराकर तो आत्महत्या करते हैं मगर इसमें सुविधा-संपन्नता से ऊबे हरगि़ज नहीं होती। विकसित देशों की इस 'ऊब' से हम यानि भारतीय कब तक अछूते रह पायेंगे, यह कहना तो मुश्किल है मगर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि हम अपनी लोकोक्तियों में निहित जीवन दर्शन पर अमल करते रहें और ''कम खाने व गम खाने'' जैसी कहावतों का मर्म समझें तो देश में अति अमीर और अति गरीब के बीच बढ़ती खाई को रोका जा सकता है और इससे नाकामियों के कारण उपजी आत्महत्याओं को बहुत कम किया जा सकता है।
बस, जरूरत है तो उस सनातन जीवनदर्शन को फिर से समझने और समझाने की, जहां बाकायदा हर उम्र के लिए एक नियत दर्शन उपस्थित है...जहां ब्रह्मचर्य से लेकर संन्यास तक का प्राविधान है...जहां आत्महत्या के लिए न कोई जगह तब थी और ना ही कोई वजह अब है।
- अलकनंदा सिंह
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