''कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्'' से कर्म करने की प्रेरणा देने वाले श्रीकृष्ण ने गीता के 18वें अध्याय में
''सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।'
अहंत्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
कहकर अपना उपदेश समाप्त किया। गीता के उपदेश हर काल में जन-जीवन के लिए प्रायोगिक तौर पर खरे उतरते रहे हैं, आज की दिशाहीन-गतिहीन राजनैतिक स्थितियों में यदि कोई लीक-लीक चलने की बजाय कुछ नया करने का साहस दिखाता है तो उसे पोंगापंथियों की चिल्लपों से दोचार होना ही पड़ता है।
उक्त श्लोकों की यात्रा हर क्षण यह बताती है कि हमें बस कर्म करना है, बाकी फल मिलने के रास्ते तो समय अपने आप बनाता जाता है।
कल जब से नरेंद्र मोदी ने युवाओं के सामने अपनी बात रखी, तभी से हंगामा बरपा है। सब अपने-अपने तरीके से समीक्षा कर रहे हैं।
मोदी ने कहा, 'मैं एक हिंदुत्ववादी नेता के रूप में जाना जाता हूं। मेरी छवि मुझे ऐसा कहने की इज़ाज़त नहीं देती, लेकिन मैं ऐसा कहने का 'साहस' कर रहा हूं। मेरा वास्तविक विचार है यह है कि पहले शौचालय, फिर देवालय। हमारे देश में बहुत देवालय हैं अगर इतने ही शौचालय हों तो लोगों को बाहर शौच करने की जरुरत नहीं होगी।'
अब इस पर कट्टर हिंदूवादियों का खून खौल रहा है कि मोदी, देवालय से पहले शौचालय क्यों ले आए। ये लोग 'हिंदू' शब्दभ्रम के जाल में इस कदर फंसे हुए हैं कि हमारी सनातनी सोच को भी भुला बैठे हैं । इन्हें ज़मीन पर रहने वाले वो लोग दिखाई नहीं देते जिन्हें नित्यकर्म के लिए अपनी ही नज़रों से दिन भर में कम से कम एक बार तो गिरना ही पड़ता है। सरेआम उनको यानि गरीबों की बच्चियों व महिलाओं को इस शर्मिंदगी से दो-चार होते शायद ये तथाकथित हिंदूवादी अपने अपमान से जोड़कर नहीं देखते।
..तो प्रवीण तोगड़िया जी, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे देश के हर शहर व गांव से गुजरने वाली वो रेलवे पटरियां तो आपने भी देखीं होंगी, जिनके किनारे तमाम औरत-मर्दों को बैठना पड़ता है। कृपया आप ये बतायेंगे कि इन्हें लेकर कभी आपको किसी प्रकार की शर्मिंदगी का अहसास हुआ है या नहीं..।
और ये भी बतायें कि जीवन की मूलभूत आवश्यकता को पूरा करना ज्यादा जरूरी है या घंटे घड़ियाल बजा कर गरीबों की समस्याओं को हल करने का कोरा ढोल पीटना। समय बदल चुका है.....जिन युवाओं की बात नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वो कोई युवाओं पर कृपा नहीं बरसा रहे, ना ही उन्हें सर आंखों पर बैठा रहे हैं.....वो तो बस समय की मांग के अनुसार युवाओं की आधुनिक सोच व क्रिएटिव कैपेबिलिटी का राजनैतिक संदर्भ में प्रयोग करने की राह बना रहे हैं। मोदी की पूरी स्पीच में शौचालय और देवालय के सन्दर्भ में जो कहा गया है, उसमें ऐसा कुछ नहीं है कि हिन्दू या हिंदुत्व को इतना धक्का लगे। सो इस पर इतनी हायतौबा मचाना जरूरी नहीं है। यूं भी जो समय के अनुसार नहीं चलते, उन्हें इतिहास बनते देर भी नहीं लगती। विरोधी पार्टियों की तो छोड़ें तोगड़िया जी, अपनी सोच को थोड़ा विस्तार दें और श्रीकृष्ण के गीतासार को पढ़ें ताकि समझ सकें कि समय और जरूरत के अनुसार बनाई गई रणनीति ही देश का भला कर सकती है। बेहतर होगा कि देवालयों से बाहर आकर भगवान को भी ज़मीनी हकीकतों से रूबरू होने दें।
मोदी युवाओं की आवाज़ बनने की इस प्रक्रिया में कितने सफल होंगे, यह तो नहीं कहा जा सकता मगर इतना अवश्य है कि देश का युवा भी ''कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्'' की व्याख्या करते हुए उन नेताओं का हश्र भी बखूबी देख रहा है, जिन्होंने अपनी कलाबाजियों से जनता का मनोरंजन करके उसे ढंग से धोया-पोंछा और कंगाल होने को छोड़ दिया। बात इतनी सी है कि श्रीकृष्ण के ''मामेकं शरणं व्रज'' की जरूरत आज हर उस राजनीतिज्ञ को है जो 2014 की चुनौतियों को देख पा रहा है। आप भी मोदी से अपने मतभेदों को शौचालय की आड़ लेकर सार्वजनिक न करें तो बेहतर है क्योंकि उनसे भी सड़क पर पड़े शौच जैसी ही दुर्गंध आ रही है। हिंदू हित भी इसकी इजाजत नहीं देता कि इस नाजुक दौर में आप मोदी से अपने मतभेदों को सार्वजनिक करके दूषित वातावरण पैदा करें।
-अलकनंदा सिंह
''सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।'
अहंत्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
कहकर अपना उपदेश समाप्त किया। गीता के उपदेश हर काल में जन-जीवन के लिए प्रायोगिक तौर पर खरे उतरते रहे हैं, आज की दिशाहीन-गतिहीन राजनैतिक स्थितियों में यदि कोई लीक-लीक चलने की बजाय कुछ नया करने का साहस दिखाता है तो उसे पोंगापंथियों की चिल्लपों से दोचार होना ही पड़ता है।
उक्त श्लोकों की यात्रा हर क्षण यह बताती है कि हमें बस कर्म करना है, बाकी फल मिलने के रास्ते तो समय अपने आप बनाता जाता है।
कल जब से नरेंद्र मोदी ने युवाओं के सामने अपनी बात रखी, तभी से हंगामा बरपा है। सब अपने-अपने तरीके से समीक्षा कर रहे हैं।
मोदी ने कहा, 'मैं एक हिंदुत्ववादी नेता के रूप में जाना जाता हूं। मेरी छवि मुझे ऐसा कहने की इज़ाज़त नहीं देती, लेकिन मैं ऐसा कहने का 'साहस' कर रहा हूं। मेरा वास्तविक विचार है यह है कि पहले शौचालय, फिर देवालय। हमारे देश में बहुत देवालय हैं अगर इतने ही शौचालय हों तो लोगों को बाहर शौच करने की जरुरत नहीं होगी।'
अब इस पर कट्टर हिंदूवादियों का खून खौल रहा है कि मोदी, देवालय से पहले शौचालय क्यों ले आए। ये लोग 'हिंदू' शब्दभ्रम के जाल में इस कदर फंसे हुए हैं कि हमारी सनातनी सोच को भी भुला बैठे हैं । इन्हें ज़मीन पर रहने वाले वो लोग दिखाई नहीं देते जिन्हें नित्यकर्म के लिए अपनी ही नज़रों से दिन भर में कम से कम एक बार तो गिरना ही पड़ता है। सरेआम उनको यानि गरीबों की बच्चियों व महिलाओं को इस शर्मिंदगी से दो-चार होते शायद ये तथाकथित हिंदूवादी अपने अपमान से जोड़कर नहीं देखते।
..तो प्रवीण तोगड़िया जी, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे देश के हर शहर व गांव से गुजरने वाली वो रेलवे पटरियां तो आपने भी देखीं होंगी, जिनके किनारे तमाम औरत-मर्दों को बैठना पड़ता है। कृपया आप ये बतायेंगे कि इन्हें लेकर कभी आपको किसी प्रकार की शर्मिंदगी का अहसास हुआ है या नहीं..।
और ये भी बतायें कि जीवन की मूलभूत आवश्यकता को पूरा करना ज्यादा जरूरी है या घंटे घड़ियाल बजा कर गरीबों की समस्याओं को हल करने का कोरा ढोल पीटना। समय बदल चुका है.....जिन युवाओं की बात नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वो कोई युवाओं पर कृपा नहीं बरसा रहे, ना ही उन्हें सर आंखों पर बैठा रहे हैं.....वो तो बस समय की मांग के अनुसार युवाओं की आधुनिक सोच व क्रिएटिव कैपेबिलिटी का राजनैतिक संदर्भ में प्रयोग करने की राह बना रहे हैं। मोदी की पूरी स्पीच में शौचालय और देवालय के सन्दर्भ में जो कहा गया है, उसमें ऐसा कुछ नहीं है कि हिन्दू या हिंदुत्व को इतना धक्का लगे। सो इस पर इतनी हायतौबा मचाना जरूरी नहीं है। यूं भी जो समय के अनुसार नहीं चलते, उन्हें इतिहास बनते देर भी नहीं लगती। विरोधी पार्टियों की तो छोड़ें तोगड़िया जी, अपनी सोच को थोड़ा विस्तार दें और श्रीकृष्ण के गीतासार को पढ़ें ताकि समझ सकें कि समय और जरूरत के अनुसार बनाई गई रणनीति ही देश का भला कर सकती है। बेहतर होगा कि देवालयों से बाहर आकर भगवान को भी ज़मीनी हकीकतों से रूबरू होने दें।
मोदी युवाओं की आवाज़ बनने की इस प्रक्रिया में कितने सफल होंगे, यह तो नहीं कहा जा सकता मगर इतना अवश्य है कि देश का युवा भी ''कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्'' की व्याख्या करते हुए उन नेताओं का हश्र भी बखूबी देख रहा है, जिन्होंने अपनी कलाबाजियों से जनता का मनोरंजन करके उसे ढंग से धोया-पोंछा और कंगाल होने को छोड़ दिया। बात इतनी सी है कि श्रीकृष्ण के ''मामेकं शरणं व्रज'' की जरूरत आज हर उस राजनीतिज्ञ को है जो 2014 की चुनौतियों को देख पा रहा है। आप भी मोदी से अपने मतभेदों को शौचालय की आड़ लेकर सार्वजनिक न करें तो बेहतर है क्योंकि उनसे भी सड़क पर पड़े शौच जैसी ही दुर्गंध आ रही है। हिंदू हित भी इसकी इजाजत नहीं देता कि इस नाजुक दौर में आप मोदी से अपने मतभेदों को सार्वजनिक करके दूषित वातावरण पैदा करें।
-अलकनंदा सिंह
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